शरीर में बरतते हुए प्रारब्ध का भोग नहीं हो, कब संभव है? कितना ही ध्यान में चढ़ा हो, उसका फल भोगना ही पड़ेगा; किंतु उसका भोग वैसा होगा, जैसे कोई मद्य या भांग पीनेवाला मस्त हो जाता है, तब कहीं चोट लगने से उसका दर्द उसे कम मालूम होता है। डॉक्टर किसी रोगी को क्लोरोफॉर्म देकर चीर-फाड़ करता है; किंतु उसका दर्द उसे मालूम नहीं होता है, उसी प्रकार भजन के नशे में उसे कर्मफल- भोग का दु:ख और सुख कभी कम और कभी कुछ भी मालूम नहीं होता। संसार का सुख भी उसे आकर्षित नहीं करता। वह सुख को सह लेता है। साधारण लोग सुख नहीं सह सकते, दु:ख को भले ही सह लें। सांसारिक सुख में लिप्त होना और अहंकारी बनना, सुख नहीं सह सकना है, किंतु ध्यानाभ्यास- द्वारा ऊर्ध्वगति होती है और अभ्यासी कर्म-मंडल को पार कर जाता है, उसका कर्म-बीज जल जाता है और उसके तीनों कर्म नष्ट हो जाते हैं। -महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज
जिनके जीवन में आत्मशांति प्राप्त करने की रूचि व तत्परता है, वे इस पृथ्वी के देव ही हैं। देव दो प्रकार के माने जाते हैं- एक तो स्वर्ग में रहने वाले और दूसरे धरती पर के देव। इनमें भी धरती पर के देव को श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि स्वर्ग के देव तो स्वर्ग के भोग भोगकर अपना पुण्य नष्ट कर रहे हैं जबकि पृथ्वी के देव अपने दान, पुण्य, सेवा, सुमिरन आदि के माध्यम से पाप नष्ट करते हुए हृदयामृत का पान करते हैं। सच्चे सत्संगी मनुष्य को पृथ्वी पर का देव कहा जाता है।
कबीर साहब के पास ईश्वर का आदेश आया कि तुम वैकुण्ठ में पधारो। कबीर जी की आँखों में आँसू आ गये। इसलिए नहीं कि अब जाना पड़ता है, मरना पड़ता है.... बल्कि इसलिए कि वहाँ सत्संग नहीं मिलेगा।
कबीर साहब लिखते हैं:-
राम परवाना भेजिया, वाँचत कबीरा रोय।
क्या करूँ तेरी वैकुण्ठ को, जहाँ साध-संगत नहीं होय।।
।।जय गुरु।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
धन्यवाद!