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शुक्रवार, 17 मई 2019

संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ जीवनी। SANT SADGURU MAHARSHI MEHI JEEVANI | SANTMAT-SATSANG

संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ 
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की संक्षिप्त जीवनी:-

बिहार राज्यान्तर्गत पूर्णियाँ जिला के बनमनखी थाने में सिकलीगढ़ धरहरा नाम की पुरानी बस्ती है, जहाँ श्रीनसीबलाल दासजी के पुत्रा कायस्थ कुल भूषण बाबू बबूजन लाल दासजी रहते थे। इनका ससुराल खोखशी श्याम मझुआ ग्राम था, जो उदाकिशुनगंज अनुमंडल में  पड़ता है। यह मधेपुरा जिला के अंतर्गत है। यह मधेपुरा पहले सहरसा जिला का एक अनुमंडल था। इसी खोखशी श्याम मझुआ गाँव को संतावतार सद्गुरू महर्षि मेँहीँ की पावनी जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त हुआ। यह खोखशी श्याम मझुआ ग्राम महर्षि मेँहीँ का ननिहाल है। इसके नानाजी श्रीयुत् बाबू विद्या निवास दासजी थे। आज उसी पावनी जन्मभूमि पर सद्गुरू महर्षि मेँहीँ के समर्पित विरक्त शिष्य पूज्यपाद संत शिशु सूर्य जी महाराज ने विशाल सत्संग आश्रम की स्थाना की है। यह आश्रम संतमत अनुयायियों के लिए परम पावन तीर्थस्वरूप है।

इसी खोखशी श्याम मझुआ ग्राम के पावन धाम पर 28 अप्रैल, 1885 ई0 को परम पावन शुभ मुहूर्त में एक अनोखे बालक ने जन्म- ग्रहण किया। चतुर्दिक खुशी का वातावरण छा गया। परम सौभाग्यवती महिमामती मातेश्वरी जनकवती जी अपने भाग्य पर फूली न समायी। जन्म के साथ ही बालक के सिर पर सात जटायें विद्यमान थीं। जिसने भी जटाओं को देखा, उसी ने बालक के महिमावान योगी पुरुष होने की भविष्यवाणी की।

ज्योतिषी पंडितजी को बालक के जन्म की तारीख, समय, मुहूर्त बताया गया। जन्म-कुण्डली तैयार करनेवाले पुरोहित ने भी बड़ी उत्सुकता और हर्ष के साथ घोषणा की कि यह बालक असाधारण पैदा हुआ है। यह अपने कुल खानदान का नाम तो रौशन करेगा ही; समाज और मुल्क में भी लोग इनका यशोगान करेंगे। बहुत सोच-विचार के बाद पंडितजी ने बालक का नामकरण किया रामानुग्रह लाल। सबने इस नाम की भी सराहना की। बाद में इनके वात्सल्य भाव रसिक चचेरे दादा-श्रीभारतलाल दासजी ने इनकी बुद्धि की महीनता को देख-परखकर बालक का छोटा-सा पुकारु नामकरण कर दिया मेँहीँ लाल। यही मेँहीँ लाल दास नाम इनके सद्गुरु महाराज ने भी इनकी सूक्ष्म बुद्धि को देखकर स्वीकार कर लिया। बाद में, सद्गुरु बाबा देवी साहब द्वारा इनका लिखा-पढ़ी का नाम स्वामी मेँहीँ दास और पुकारु नाम-‘लाला’ रखा गया था। यही मेँहीँ दास बाद में सद्गुरु के आशिष से साधना की पराकाष्ठा पर पहुँचकर सद्गुरू महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के नाम से देश-विदेश में प्रसिद्ध हुए, जिनकी यशोगाथा आज भी गायी जा रही है। स्थिति को देखते हुए भविष्य में भी यह क्रम जारी रहेगा, संभव है।

पूज्य पिताश्री बाबू बबुजन लाल दासजी की तीन पत्नियाँ थीं- प्रथमा श्रीमती फूलवती देवीजी, द्वितीया श्रीमती जनकवती देवी और तृतीया-श्रीमती दयावती देवीजी। भावी संत बालक रामानुग्रह लाल दासजी, द्वितीया माता श्रीमती जनकवती देवीजी की लाड़ली संतान थी। इनसे बड़ी संतान धाम फूली असाधारण प्रसिद्ध फूलवती सुपुत्री झूलन दायजी थीं। ज्येष्ठ तनया झूलन दाय की शादी किशोरी बाल्यावस्था में ही कर दी गयी थी। दैवयोग से युवावस्था के पूर्व ही निःसंतान वह विधवा हो गयी। इस कारण से वह अपने नैहर में ही माता-पिता की छाया में आकर रहती थी और प्यार से अपने दुलारे भ्रातारत्न की दिल से सेवा किया करती थी। तृतीया माता श्रीमती दयावती देवीजी की भी दो संतान-प्रथम श्रीडोमन दासजी और द्वितीया संतान-बेटी रमाकान्ति देवी थी। प्रथमा माताश्री की कोई संतान नहीं थी। श्रीडोमन दासजी महर्षि मेँहीँ (रामानुग्रह लाल) के सौतेले भाई थे। उनके तीन सुपुत्र हैं-श्रीविनोद बाबू (वकील साहब), श्रीसुबोध् बाबू (स्वास्थ्य विभाग) और श्रीप्रबोध् बाबू (गृहस्थ साधु)। तीनों संतमत में दीक्षित सत्संगी हैं। प्रबोध् बाबू घर गृहस्थी को देखते हुए विरक्त साधु की तरह ही सत्संग प्रचार-प्रसार का कार्य करते हैं। श्रीडोमन दासजी बाद में विरक्त होकर संत किंकर दासजी महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए। परिवार के सभी लोग निस्पृह होकर जीविकोपार्जन करते हुए सत्संग-भजन का जीवन जी रहे हैं।   

बालक रामानुग्रह लाल अभी निरा बालपन में ही थे कि इनके सिर से ममतामयी माता की शीतल छाया सदा के लिए उठ गयी। ये अनाथ-से हो गये। परन्तु बहिन झूलन दाय अपनी सेवा  में अपने प्यारे भाई को खिलाना-पिलाना, साफ-सफाई करना, नहलाना-धुलाना आदि करती रहती थी। यह भाई भी उस बहिन से प्यार के मारे ऐसा घुल-मिल गया था कि माता की तरह ही उन्हें खाने-पीने आदि के लिए तंग किया करते थे। भाई-बहिन का यह अलौकिक प्रेम विरले को नसीब होता है।

    महर्षि मेँहीँ की पावनी जन्मभूमि सचमुच में खोखशी और श्याम ग्राम के बीच स्थित मझुआ ग्राम है। यहाँ पर महर्षिजी के नाना श्री विद्यानिवास दास रहते थे। उनकी चार संतानें थीं-(क) चमनलाल दास, (ख) वाना दाय उर्फ जनकवती, (ग) वाका दाय और (घ) बच्चा लाल दास। इनका वंशवृक्ष अभी चल रहा  है।-
    ऐसा प्रायः देखा जाता है कि प्रभु-प्राप्ति के मार्ग में अनेकों बाधाएं आती हैं। भक्त उन बधाओं को झेलते हुए चलता है। कुछ बाधायें ऐसी भी होती हैं, जिसे झलने में भक्त असमर्थ हुआ करता है, उसे प्रभु की अहैतुकी कृपा ही समाप्त कर देती है। अर्थात् वे बधायें अपने आप ही समाप्त हो जाती हैं। इसके लिए एक कहावत है- "सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी।"

    रामानुग्रहलाल दासजी जब मात्रा 4 साल के ही थे, तो उनकी माताजी स्वर्ग सिधार गयीं। पाँच वर्ष की अवस्था में कुल पुरोहित के आज्ञानुसार रामानुग्रह लाल का मुंडन संस्कार सम्पन्न हुआ। मुण्डन संस्कार के बाद आपका अक्षरारम्भ गाँव के ही पाठशाला में हुआ। अक्षरारम्भ कैथी लिपि में हुआ। अपने जन्मजात संस्कार की तेजस्विता के कारण आपने अल्पकाल में ही कैथी लिपि के साथ ही देवनागरी लिपि भी सीख ली।

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11 वर्ष की अवस्था में रामानुग्रह लालजी को पूर्णियाँ जिला स्कूल में पढ़ने के लिए भर्ती कर दिया गया। लौकिक स्कूली शिक्षा के साथ ही आप आध्यात्मिक ग्रंथों और पूजा-पाठ में भी अभिरुचि रखने लगे थे। ये खेल-कूद में भी अपने साथियों में सबके प्यारे बन गये थे। शिक्षक इन्हें अल्पवय में आध्यात्मिक अभिरुचि से मना करते थे, पर इनपर उनका असर नहीं होता था। 4 जुलाई, 1904 ई0 को आप परीक्षा दे रहे थे। आप प्रवेशिका की परीक्षा दे रहे थे और विषय था-अंग्रेजी। परीक्षा के प्रश्न-पत्र का पहला प्रश्न था -"Quote from memory the poem 'Builders' and explain it in your own English." अर्थात् निर्माणकर्ता शीर्षक पद को अपने स्मरण से लिखकर उसकी व्याख्या अपनी अंग्रेजी भाषा में करें। आपने ‘बिल्डर्स’ कविता की प्रथम चार पंक्तियों को इस प्रकार लिखा-

For the structure that we  raise,
Time is with material's field.
Our todays and yesterdays,
Are the blocks with which we build.

"इन पंक्तियों का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है- "हमलोंगों का जीवन-मंदिर अपने प्रतिदिन के सुकर्म वा कुकर्म रूप ईंटों से बनता है। जो जैसा कर्म करता है, उसका जीवन वैसा ही बन जाता है। इसलिए हमलोगों को भगवद्भजनरूपी सर्वश्रेष्ठ ईंटों से अपने जीवन- मंदिर की दीवार का निर्माण करते जाना चाहिए। समय की सदुपयोगिता सत्कर्म में है और ईश्वर-भक्ति या भजन से बढ़कर श्रेष्ठ दूसरा कोई भी सत्कर्म नहीं है।"

इन उपर्युक्त हार्दिक उद्धारों की अभिव्यक्ति के बाद अंत में आपने तुलसीदास की पंक्ति को लिखा :-

"देह धरें कर यहि फल भाई।
भजिये राम सब काम बिहाई।।"

यह पंक्ति लिखते-लिखते आप अपने भाव विह्नलता को रोक नहीं सके। आपने परीक्षा निरीक्षक (Invigilator) से कहा-"May I go out sir?" महाशय! क्या में बाहर जा सकता हूँ? निरीक्षक महोदय आपके मनोभाव को परख न सके और बाहर जाने की अनुमति दे दी। उन्होंने कहा- "Yes, you may go out"

फिर क्या था? जैसे जलाशय का बाँध् टूटने से जलधरा निर्बाध् गति से आगे बढ़ती है, उसी प्रकार आप भी साधु -संतों की खोज में अनन्त पथ के पथिक बन गये। आप भागते हुए स्वामी रामानन्दजी महाराज (रामानन्दी साधु) की कुटिया पर जोतरामराय पहुँच गये। पिताजी को जब पता लगा, तो वे व्याकुल हो गये और इन्हें घर लाने का प्रयास किया, पर ये नहीं लौटे। इसके पहले भी ये कई बार भागने का प्रयास कर चुके थे, पर बड़ी बहन की याद आते ही लौट आते थे। इस बार नहीं लौटे और रामानन्द स्वामी के आश्रम पर रह गये। ये उनसे पहले ही दीक्षित हो चुके थे।

रामानन्द स्वामी से आपको मानस जाप, मानस ध्यान और खुले नेत्रों से त्राटक के अभ्यास की विधि  प्राप्त हुई थी। इस तरीके से आपने वर्षों अभ्यास किया, पर आपकी आत्मिक प्यास नहीं मिटी। तब ये अन्य महात्मा की तलाश मन ही-मन करने लगे, सोचने लगे। एक कहावत है-जहाँ चाह, वहाँ राह।’ गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी लिखा है :-

  जौं तेहि पंथ चलै मन लाई। तौ हरि काहे न होई सहाई।।
   
इसी कथन के अनुसार मेँहीँ बाबा की मुलाकात बाबा देवी साहब के एक भगवत् प्रेमी शिष्य रामदासजी से हो गयी-डाकघर में।

बातचीत के क्रम में रामदास बाबा, मेँहीँ बाबा से बोले-बाबा मेँहीँ दासजी! आप जिस गुरु की सेवा में जीवन का अनमोल समय खर्च कर रहे हैं, वे आपको आत्मज्ञान कराने में समर्थ नहीं हैं। इसपर मेँहीँ बाबा गुरु की निंदा सुनकर बिगड़ गये। रामदास बाबा तब भी बोले कि बिगड़ने से मेरा कुछ नहीं होगा? कान खोलकर सुन लें-जबतक आप हमारे सद्गुरु बाबा देवी साहब की शरण में नहीं आयेंगे, तबतक मुक्ति लाभ तो दूर है ही, उसकी राह का भी पता नहीं लगेगा। दोनों अपनी-अपनी जगह चल पड़े। बाबा रामदासजी, अपने गुरु भाई बाबा सिधार से मिलकर बोले कि देखना, मेँहीँ दास से जरा सावधन रहना, वह अपने वर्तमान गुरु का परम भक्त है। इसके बाद वे अपने गुरुदेव बाबा देवी साहब की सेवा में मुरादाबाद होकर पंजाब चले गये।
    इधर मेँहीँ लालजी अपने गुरु की सेवा में लग गये। परन्तु अपने इस वर्तमान गुरु स्वामी रामानन्दजी के पास उनकी आध्यात्मिक जिज्ञासा का समाधन नहीं हो पाता था। इन्हें न तो साधना में प्रगति दिखाई पड़ती और न ही शंका समाधन हो पाता था। इसलिए वे किसी अच्छे और सच्चे गुरु की तलाश मन-ही-मन कर रहे थे। इसी क्रम में उनको बाबा धीरजजलालजी का पता चला कि वे एक अच्छे अभ्यासी हैं और ज्ञान- ध्यान की बातों को अच्छी तरह समझाते हैं। मेँहीँ बाबा उनके पास समय निकालकर पहुँचे। उनसे स्वाभाविक शिष्टाचार के उपरान्त बातचीत की। इन्होंने धीरजलालजी से पूछा कि क्या आप सत्संग करते हैं? धीरज बाबा बोले कि मैं संतमत का सत्संग करता हूँ।
    मेँहीँ बाबा ने पूछा कि संतमत-सत्संग क्या है? धीरज बाबा बोले कि सारे आत्मज्ञानी महापुरुषों की आत्मा और परमात्मा संबंधी अनुभव ज्ञान को ही संतमत-सत्संग कहते हैं, जिसमें सबका एक मत हो। तब मेँहीँ बाबा ने पूछा कि क्या आप दरिया साहब को भी मानते हैं? धीरज बाबा बोले कि हाँ, अवश्य मानते हैं, क्योंकि वे भी तो संत थे और उनका विचार भी अनुभवपूरित है तथा अन्य संतों से मिलता है। तब मेँहीँ बाबा ने फिर पूछा कि क्या आप उनकी वाणी को समझा सकते हैं? धीरज बाबा बोले कि जहाँ तक होगा, कोशिश करूँगा, अन्यथा अपने बड़े गुरु भाइयों तथा गुरुदेव से भी पूछकर बता सकता हूँ।

मेँहीँ बाबा ने पूछा कि मैं कब आपके पास आउॅं ? धीरज बाबा बोले कि जब भी आपको समय मिले, आ सकते हैं। मैं आपको यथासाध्य समय दूँगा। मेँहीँ बाबा बोले कि मुझे तो दस बजे रात में ही समय मिल सकेगा-आने के लिये। धीरज बाबा बोले कि आइये, मैं उस समय भी मिलूँगा-आपसे। मेँहीँ बाबा चले गये।
    प्रबल आध्यात्मिक प्यास के कारण मेँहीँ बाबा गुरु की सेवा से निवृत्त होकर रात के 10 बजे दूसरे दिन आ पहुँचे, बाबा धीरजलाल  की सेवा में। 10 बजे रात्रि से 3 बजे भोर तक सत्संग किया और फिर छुट्टी लेकर अपने गुरु रामानन्द स्वामी की सेवा में हाजिर हो गये। गुरुजी की सेवा में त्राुटि नहीं आयी।
    दूसरे दिन भी यही दिनचर्या रही। इसी तरह 3-4 महीने तक अनवरत रूप से भोजन और आराम की चिन्ता त्यागकर आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त किये। को बड़ छोट कहत अपराधू।  गनि गुन दोष समुझिहहिं साधु ।। वाली कहावत इनपर चरितार्थ हो रही थी। दोनों आध्यात्मिक जगत् के उद्भट वीरपुरुष थे। एक तो सर्वस्व समर्पण करके गुरु का गुलाम बन चुके थे और दूसरे प्रबल उम्मीदवार थे। मेँहीँ बाबा को धीरज बाबा के सत्संग से बहुत संतुष्टि हुई। तब मेँहीँ बाबा कहने लगे, अब आप कृपा कर इस संतमत-सत्संग का व्यावहारिक ज्ञान बताने का कष्ट करें। इसके लिए मुझे क्या करना पड़ेगा, क्या शर्त अदा करनी पड़ेगी, कृपा कर वह भी बतायें।
    तब बाबा धीरजलाल बोले कि आपने हमारे गुरु भाई बाबा रामदासजी से एक दिन डाकघर में झगड़ा (बहस) कर लिया था। वे हमसे कह गये हैं। मेँहीँ बाबा बोले कि उन्होंने मेरे वर्तमान गुरुदेव का अपमान किया, तो मैंने उनसे बहस किया था। क्योंकि गुरुदेव की निंदा सुननी पाप है-यह संतवाणी में मैंने पढ़ा है। अब अगर रामदास बाबा हमसे रुष्ट हैं, तो मैं उनसे क्षमा माँग लूँगा, आप उनका पता बताने का कष्ट करें। धीरज बाबा ने पंजाब का पता बताया। मेँहीँ बाबा ने उनके नाम से पत्र लिखा। वे बाबा देवी साहब की सेवा में थे। बाबा देवी साहब और रामदास के नाम से मेँहीँ बाबा ने पत्र लिखा और क्षमा माँगी। बाबा देवी साहब का आशिषयुक्त पत्र रामदास बाबा ने धीरज लाल के नाम से लिखा और लौटाया। पत्र धीरजलाल को मिला, फिर भी वे भजन-भेद बताने से इन्कार कर गये। मेँहीँ बाबा को भागलपुर- मायागंज में राजेन्द्र बाबू (वकील साहब) के पास भेज दिया। मेँहीँ बाबा वहाँ पहुँचे और बहुत-से शंकाओं का समाधान हुआ उनके पास। पिफर राजेन्द्र बाबू ने मेँहीँ बाबा को दृष्टि-साधन की क्रिया बताकर कहा कि मैं आपका गुरु नहीं हूँ। आपके गुरु बाबा देवी साहब ही होंगे, जो हमारे और बहुतों के हैं। फिर  दुर्गापूजा में उनकी भेंट करने को कहा।
    मेँहीँ बाबा, स्वामी रामानंदजी के पास लौट आये और सेवा में लग गये। दुर्गापूजा के अवसर पर पुनः भागलपुर, बाबा देवी साहब की सेवा में पहुँचे। राजेन्द्र बाबू ने इनकी भेंट बाबा साहब से करा दी। बाबा देवी साहब ने मेँहीँ बाबा को आशिष देकर कहा कि लाला! पहले तुम दरियापंथी थे, अब समुद्रपंथी हो गये। अब तुम भटकने से बच गये। मेँहीँ बाबा, दरियापंथी महात्मा रामानंदजी के शिष्य थे, इसीलिए बाबा देवी साहब ने इन्हें दरियापंथी कहा था।
    बाबा देवी साहब से मिलकर मेँहीँ बाबा उनपर ही समर्पित हो गये और अपनी सेवा में रख लेने का आग्रह किया। बाबा साहब रीझ गये और आदेश दे दिया। बाबा साहब की सेवा में रहकर मेँहीँ बाबा ने कसकर ध्यान किया और उनके आदेश-उपदेश में अपने को ढाला। बाबा देवी साहब ने इन्हें कुम्भकार के घट की तरह गढ़ा और पक्का बना दिया। 1919 ई0 के 19 जनवरी को बाबा साहब का शरीर पूरा होने पर मेँहीँ बाबा बिहार के विभिन्न जगहों में रहकर ध्यान करते रहे। इसी क्रम में वे सिकलीगढ़ धरहरा, मनिहारी और भागलपुर के परवत्ती नामक महल्ले में भी रहकर ध्यान-सत्संग करते रहे। अंत में उन्होंने भागलपुर के मायागंज महल्ले के पास गंगा के पावन तट पर कुप्पा (गुफा) में रहकर गंभीर साधना की। कठिन शब्द डगर पर चलकर वे शांति को प्राप्त कर गये।
    अब वे महर्षि मेँहीँ परमहंस जी के नाम से जाना जाने लगे। धीरे धीरे संतमत का प्रचार बिहार के बाहर नेपाल, बंगाल, उत्तरप्रदेश,  हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, असम, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल आदि प्रान्तों में भी हुआ। भारत के बाहर पाकिस्तान, अफगानिस्तान, रूस, अमेरिका, स्वीडेन, नार्वे, जापान, इंगलैंड आदि देशों में भी संतमत फैल गया। आज यह राष्ट्रीय ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय संतमत की गरिमा से विभूषित हो गया है। लेकिन सबसे ज्यादा प्रचार क्षेत्र बिहार और झारखंड ही है। इन राज्यों में दैनिक, साप्ताहिक, मासिक और वार्षिक सत्संग चलता ही रहता है। ध्यान-साधना  का भी आयोजन लोग करते ही रहते हैं।

महर्षि मेँहीँ द्वारा रचित साहित्य भी आज अध्यात्म-जगत् में विशेष समादृत है। वे हैं :- सत्संग-योग, रामचरितमानस (सार सटीक), विनय-पत्रिका-सार सटीक, सत्संग-सुध-1,2, 3,4 भाग, संतवाणी सटीक, भावार्थ सहित घटरामायण पदावली, ईश्वर का स्वरूप और उसकी प्राप्ति, महर्षि मेँहीँ-पदावली आदि।
    इस तरह मेँहीँ बाबा अपने चमत्कारपूर्ण जीवन जीते हुए तथा सत्संग-ध्यान का प्रचार करते हुए 8 जून, 1986 ई0 को भागलपुर के केन्द्रीय स्थल महर्षि मेँहीँ आश्रम में ब्रह्मलीन हो गये। इनके इस सत्संग अभियान को इनके वरिष्ठ शिष्यों ने आगे बढ़ाया और आज भी अनवरत रूप से चलता जा रहा है। इनके वरिष्ठ प्रचारक शिष्यों में पूज्यपाद बाबा श्रीधर दासजी महाराज, पूज्यपाद संतसेवीजी महाराज, पूज्यपाद शाही स्वामीजी महाराज, पूज्यपाद लच्छन दासजी महाराज, पूज्यपाद भुजंगी दासजी महाराज, पूज्यपाद संत किंकरजी महाराज, पूज्यपाद स्वामी विष्णुकान्तजी महाराज, पूज्यपाद स्वामी गंगेश्वरानंद जी महाराज, पूज्यपाद दलबहादुर जी महाराज, पूज्यपाद स्वामी हरिनन्दन दासजी महाराज, पूज्यपाद अच्युतानंदन जी महाराज, स्वामी भगीरथ दासजी महाराज, स्वामी प्रमोद बाबा, स्वामी छोटेलाल बाबा, पूज्य केदार बाबा आदि प्रमुख शिष्य हैं।
    आज नक्षत्रों में सूरज और चाँद की तरह महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के नाम अध्यात्म गगन में शोभायमान हैं, तो संतमत-सत्संग भी विश्व-सत्संग समुदाय में प्रथम श्रेणी में परिगणित हैं। यह संतमत आज जातिवर्ग और सम्प्रदाय के संकीर्ण घेरे से बाहर निकलकर पूरे मानव समुदाय को गले लगाने के लिए तैयार होकर आगे बढ़ रहा है। किसी संत की वाणी में है :-

जे पहुँचे ते कहि गयेए तिनकी एकै बात ।
सबै सयाने एक मत तिनकी एकै जात ।।

अंत में संस्कृत और अध्यात्म के विज्ञ विद्वान पंडित रामविलास शर्मा के शब्दों में कहेंगे-
महर्षि मित्र हि महर्षि मेँहीँए महामहिम्नां महनीय कीत्र्तिः ।
नादानुसंधन विधन योगीए भारत देशस्य शिवावतारः ।।

महर्षि मेँहीँ के चमत्कार श्रीगुरुदेव के पावन संस्मरण  :-
बाबा श्री श्रीधर  दास जी महाराज

हमलोग सन् 1933 ई0 में मुरादाबाद गये थे। वहाँ धर्म सम्मेलन था। सभी धर्मो के लोगों को अपने-अपने धर्म की खूबी कहने के लिये कहा गया था। वहाँ आर्य.सामाजी और देव.सामाजी में बड़ा विरोध् था। आर्य.समाज के प्रवक्ता देव.सामाजी की बात नहीं सुनना चाहते थे और देवसमाजी आर्य.समाजी की बात सुनना नहीं चाहते थे। आर्य.समाजी कहते थे कि ईश्वर नहीं है, यह बात हम कान से नहीं सुनना चाहते हैं। देव.समाजी कहते थे-ष्ईश्वर हैष्ए यह बात हम कान से सुनना नहीं चाहते हैं। इस सम्मेलन के सभापति थे-पूo नन्दन बाबा। उन्होंने अपने गुरु.भाई पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज से प्रवचन देने के लिये निवेदन किया। उस सम्मेलन में परमाराध्यदेव गुरुदेव का गम्भीर, ज्ञान.मण्डित भाषण निम्नलिखित हुआ :-

"जो कोई ऐसा कहते हैं कि ईश्वर है, तो कोई ईश्वर को प्रत्यक्ष दिखा नहीं सकता। जो कहते हैं कि ईश्वर नहीं है, तो उनके ऐसा कहने से ईश्वर भाग नहीं जायगा। ईश्वर है और नहीं है, इन दोनों बातों को तबतक के लिए अलग रखें। और आप विचारें कि आप क्या चाहते हैं-सुख या दु:ख? कोई स्वीकार नहीं करेंगे। सभी सुख ही चाहेंगे, लेकिन हम तो महादुःख में पड़े हुए हैं। बार.बार जन्म लेना, मरना, यह आवागमन का चक्र लगा ही रहता है। इससे छुटकारा का कोई उपायए युक्ति चाहिये। दूसरी बात हम कौन हैं? इसपर भी विचार करें। क्या हम शरीर हैं, हम कहते हैं कि हमारा हाथ है, हमारी आँखें हैं, हमारी नाक है, हमारा कान है, आदि, तो ये सब हमारी इन्द्रियाँ हैं। हम इनसे कोई भिन्न तत्त्व हैं। अपने को जानना ही सबसे बड़ा ज्ञान है। सबसे बड़ी बात है कि हम सुख या शान्ति चाहते हैं। यह सुख या शान्ति कहीं बाहर नहीं, अपने अन्दर है और उसे पाने के लिए सद्युक्ति है।

इस प्रकार श्रीसद्गुरु महाराज जी के घंटों व्याख्यान हुए, जिसे सुन कर सभी बड़े प्रभावित हुए। उस धर्म- सम्मेलन में एक अंग्रेज भी आये थे। उनकी बुद्धि बड़ी ही तीक्ष्ण थी। कहा जाता था कि सात आदमी अलग-अलग व्याख्यान देते थे, और वे एक किताब लेकर पढ़ते थे। बाद में वे सातों आदमी का जो व्याख्यान होता था, उसे वे कह देते थे। उनका मस्तिष्क उस समय एक लाख रुपये में बिक चुका था। ब्रिटेन की सरकार ने खरीद लिया। जब वे मरने लगेंगे, तो उनके मस्तिष्क को चीरा जायेगा और देखा जायगा कि उनके मस्तिष्क में क्या विशेषता है। वे श्री श्रीसद्गुरू महाराज के प्रवचन से खुश हुए। उनको श्रीसद्गुरु महाराज का दिया गया प्रवचन अंग्रेजी में समझाया गया। वहीं एक आर्य-समाजी से श्रीसद्गुरू महाराज की वार्ता हुई।  श्रीसद्गुरु महाराज ने पूछा-"महाराज! शब्द-साधना  के बारे में आपका क्या मत है? उन्होंने कहा-कान बन्द करने से तो रग-रेशों की आवाजें होती हैं। इन आवाजों को सुनने से क्या लाभ?य् श्रीसद्गुरू  महाराज ने कहा- "इस तरह शब्द-साधन  नहीं किया जाता है।य् उन्होंने कहा-"तब कैसे सुना जाता है जी? श्रीसद्गुरू महाराज ने कहा कि एकविन्दुता पर शब्द सुना जाता है। एक विन्दुता पर सूक्ष्म नादों को ग्रहण किया जाता है। वहाँ रग-रेशों की आवाजें नहीं होती हैं। वे कुछ देर चुप रहने के बाद बोले कि हो सकता है। वहाँ से श्री सद्गुरु महाराज रायबरेली चले गये।
                                                                                                ‘गुर पूरे की बेअन्त बड़ाई’
    गुरु नानक देव जी महाराज फरमाते हैं-"पूरे गुरु की महिमा-बड़ाई का अन्त नहीं है। "जिज्ञासा होती है-पूरे गुरु कौन? उत्तर में निवेदन है "जीवनकाल में जिनकी सुरत सारे आवरणों को पार कर शब्दातीत पद में समाधि-समय लीन होती है और पिण्ड में बरतने के समय उन्मनी रहनी में रहकर सारशब्द में लगी रहती है, ऐसे जीवन्मुक्त परम सन्त पुरुष पूरे और सच्चे सद्गुरु कहे जाते हैं। पूरे और सच्चे सद्गुरु का मिलना परम प्रभु सर्वेश्वर के मिलने के तुल्य ही है। "(सत्संग-योग, भाग -4) अनन्त-स्वरूपी सर्वेश्वर को प्राप्त किये सन्त सद्गुरु की शक्ति अपरिमित होती है। उनकी कितनी भी स्तुति क्यों न की जाय, परिमित ही रहेगी। इसी दृष्टि को अपनाये रहकर हमारे प्रातःस्मरणीय परम पूज्य अनन्त श्री-विभूषित श्री सद्गुरु महाराज जी के ये प्रीति-वाक्य हैं-
गुरू  गुण अमित अमित को जाना। संक्षेपहिँ सब करत बखाना।। (महर्षि मेँहीँ-पदावली)

    सन्त कबीर गुरु-गुण गाते अघाते नहीं। वे कहते हैं-समस्त पृथ्वी को कागज बनाया जाय, सभी वृक्षों की लेखनी बनायी जायँ और सप्तसिन्धु के सलिल की स्याही बनाकर गुरु-गुण लिखा जाय, तब भी पूरा नहीं पड़ता।
    सद्ग्रन्थों की सूक्ति है-"भले ही सभी समुद्रों की थाह ले ली जाय, उसके पानी का वजन कर लिया जाय, गंगातटवर्त्ती रेणुओं की गणना कर संख्या में बाँध् ली जाय और गगन के ग्रह-नक्षत्रों को एक साथ साधकर हाथ में कर लिया जाय, किन्तु सन्त-सद्गुरू के गुण-पुंज का वर्णन कर कोई इतिश्री नहीं कर सकता।
    विवेक कहता है-विद्या -वरदा वीणा-पाणि-जैसे वक्ता और गणपति-जैसे लेखन-कर्त्ता से भी गुरु की सम्पूर्ण महिमा-विभूति कही वा लिखी नहीं जा सकती। और तो और, चतुर्मुख ब्रह्मा, पंचमुख शिव, षण्मुख कात्र्तिकेय और सहड्डमुख शेष भी जिनकी कीर्ति गाकर निःशेष नहीं कर सकते।
    वास्तविक बात यह है-"जो सन्त-सद्गुरू अनन्त नेत्र का उन्मेष कराकर अनन्तस्वरूपी सर्वेश्वर का साक्षात्कार कराने वाले हैं, उन अनन्त महिमाधरी और अनन्त उपकारी गुरु का यशगान कर आक्सान कौन कर सकता है?  फिर भी, जैसे दिनकर-भक्त दिवाकर को दीप दिखाकर तुष्ट होते हैं अथवा जिस तरह तीव्रगामी गरुड़ को गगन में गमन करते देख मकान के अन्दर मच्छड़ भी अपना पर पफैलाकर कुछ गुनगुनाता है, उसी तरह यह अकिंचन भी गुरुदेव का कुछ गुण-गुंजन कर मन को संतुष्ट करना चाहता है।

    प्रातःस्मरणीय परम पूज्य अनन्त श्री-विभूषित श्रीसद्गुरू महाराज जी नरतन-धारण करने के कारण नरलीला-हेतु शरीर से कुछ दिनों के लिये अस्वस्थ हो गये थे। पटना के ख्यातिप्राप्त डाक्टरों ने श्रद्धा.संयुक्त हो आपकी सफल चिकित्सा एवं सेवा की। खासकर डाo नन्दलाल मोदी साहब एवं उनकी धर्मपत्नी धर्मशीला स्वo सूरज मोदी ने गुरुदेव की सेवा के लिये अपने घर के द्वार ही नहीं, हृदय के द्वार भी खोल दिये थे। परम पूज्य गुरुदेव के सहित उनके सभी सेवकों को उन्होंने अपने भवन में कई महीने तक ठहराया और तन, मन, धन से सभी प्रकार की सेवाएँ कीं। चिकित्सा पूरी हो जाने के पश्चात् आपका शरीर रोग-मुक्त हो चुका था, किन्तु दुर्बलता-युक्त था। आप पटना से अपने आश्रम कुप्पाघाट-भागलपुर पधारे । यहाँ के स्वo डाo रामवदन सिंह जी प्रत्येक महीने की सतरह तारीख को एक इंजेक्शन देते थे, दुर्बलता दूर करने के लिये। सन् 1973 ईस्वी की चार फरवरी का प्रसंग है। करुणा-वरुणालय गुरुदेव ने मुझसे कहने की कृपा की-आगामी 17 पफरवरी को डाक्टर रामवदन बाबू इंजेक्शन दे सकेंगे? नहीं दे सकेंगे। मैंने निवेदन किया-गुरूदेव ! वे तो वचन के बड़े पक्के हैं। निश्चित तिथि में उपस्थित होकर इंजेक्शन दे जाते हैं। इस बार वे क्यों नहीं इंजेक्शन दे सकेंगे?गुरुदेव मुस्कुराते हुए बोले-समय आने दीजिये, देखियेगा। पुनः बोले-ईश्वर की लीला देखिये। उनके नहीं आने का कारण मैं जानता हूँ और आप नहीं।
    मैंने हाथ जोड़कर कहा-हूजुर  ने कितनी बड़ी तपस्या की है। योग-साधना  की है। ईश्वर-भजन कर ईश्वर-स्वरूप हो गये हैं। हुजूर नहीं जानेंगे, तो कौन जानेगा? मैंने क्या किया है? कुछ भी नहीं। मेरे निश्छल और विनय-भरे वचन सुनकर गुरुदेव का कमलमुख खिल उठा। उन्होंने करुणा की दृष्टि से मेरी ओर अवलोकन करते हुए बड़े ही प्रसन्न मन से कहा-आपकी तपस्या मेरी सेवा है। आपने मेरी बड़ी सेवा की है। मेरे बिना आप नहीं रह सकते और आपके बिना मुझको नहीं बनेगा। मैं वरदान देता हूँ कि जहाँ मैं रहूँगा, वहाँ आप रहेंगे।
    मैंने पुनः करबद्ध प्रार्थना कर निवेदन किया-अभी जबतक गुरुदेव के स्थूल शरीर की सेवा करने का सौभाग्य दास को प्राप्त है, तबतक तो हुजूर जहाँ रहेंगे, वहाँ इस अधम को रखेंगे यह तो ठीक है। लेकिन कभी-न-कभी तो शरीर का वियोग होगा। उस समय हुजूर तो ईश्वर में मिलकर एक हो जायेंगे, इस असार संसार में नहीं आयेंगे और मैं तो इस संसार में-आवागमन के चक्र में घूमता रहूँगा। तब हम दोनों एक साथ कैसे रह सकेंगे? मेरी बात श्रवणकर गुरुदेव ने हँसते हुए उत्तर देने की कृपा की-आप संसार में आयेंगे, मैं भी संसार में आऊँगा।मैंने पाणिब हो जिज्ञासा की-गुरूदेव ! जो कोई साधना कर मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं, वे संसार में पुनः आते नहीं। हुजूर कैसे आयेंगे? गुरुदेव गम्भीर स्वर में बोले-लोगों का कल्याण करने के लिये आऊँगा। गुरु और शिष्य का सम्बन्ध् एक जन्म का नहीं, कई जन्मों का होता है। मेरा और आपका सम्बन्ध् ‘’और ‘’ का है। उपर्युक्त बातें तो हमारे परमाराध्यदेव जी ने एकान्त में व्यक्तिगत रूप से मुझसे कहने की अनुकम्पा की थी, किन्तु दिo 27 दिसम्बर 81 ईo को सामूहिक सत्संग के अवसर पर उन्होंने सबके समक्ष स्पष्ट घोषणा की-मोक्ष  तक जाना, एक ही जन्म की बात नहीं है। इसके लिये बहुत जन्मों तक साधन  करना होगा। इसीलिये-
    कहै  कबीर सुनो धर्म  आगरा ।
            अमित हंस लै पार उतर भव सागरा।।
    इसी तरह मैं भी एकदम मोक्ष नहीं चाहता हूँ। बारम्बार आऊँगा और जाऊँगा तो बहुतों को संग लिये जाऊँगा। जैसे समुद्र में पुल बाँध जाय, तो चींटी उसपर चढ़कर इस पार से उस पार हो जाय। इसी तरह जो सन्त सद्गुरु बारम्बार आयेंगे, तो बहुत-से लोगों को ले जाते रहेंगे और बहुतों का संस्कार बन जायगा।   
              (‘शान्ति-सन्देश’ जनवरी 82) 
  परमपूज्य गुरुदेव का अमोघ आशिष पाकर मैंने अपने को कृत-कृत्य समझा। फिर  तो भगवान् बु( के वचन, माँ शारदा देवी के कथन एवं महावतार बाबाजी और योगी श्यामाचरण लाहिड़ी जी के परस्पर मिलन-बिछुड़न एवं गुरु के द्वारा शिष्य के दो जन्मों तक के रक्षण- शिक्षण प्रभृति जीवनवृत्त चल-चित्रा की भाँति मेरे सामने आने लगे।
    दिo 18 फरवरी को डाक्टर रामबदन बाबू आये। पारस्परिक लोकाचार के पश्चात् उनसे हँसते हुए मैंने पूछा-आप तो वचन के बड़े पक्के थे, इसबार कच्चे कैसे पड़ गये? उन्होंने दुःख प्रकट करते हुए कहा-क्या बताऊँ, प्रत्येक सोलह तारीख की सन्ध्या को इंजेक्शन की औषधि  मँगाकर अपने पास मैं रख लेता और दिo 17 को श्री महाराज जी को इंजेक्शन देता। इसबार दिo 16 फरवरी को भागलपुर में वह दवाई मिली नहीं। गत कल्ह दिo 17 को पटना आदमी भेजकर वहाँ से मैंने औषधि मँगायी, तो आज इंजेक्शन देने आया हूँ। गत कल नहीं आ सकने के कारण मैं स्वयं दुःखित तथा लज्जित हूँ। एक तो श्री महाराज जी के स्वास्थ्य का प्रश्न, दूसरे वे मन में क्या कहेंगे, कितना झूठा डाॅक्टर है और तीसरे आपका उपालम्भ मिलेगा, इन सब बातों को सोचकर मैं स्वयं चिन्तित था, किन्तु क्या करता, लाचारी थी। फिर भी, मन में यह विश्वास था कि श्री महाराज जी अन्तर्यामी हैं। वे मेरी असमर्थता को जानकर मुझे अवश्य क्षमा करेंगे।
    मैंने कहा-डाक्टर साहब! चिन्ता की कोई बात नहीं। सुनिये, एक बात बताऊँ? गत दिo 4 फरवरी को ही परमाराध्यदेव मुझसे कह चुके थे कि इस बार दिo 17 फरवरी को डाo रामबदन बाबू इंजेक्शन नहीं दे सकेंगे। मैंने जब कारण पूछा तो उस दिन उन्होंने कुछ बताने की कृपा नहीं की। वह कारण आज स्पष्ट हो गया। मेरे इस कथन से उनके मन में सत्साहस का संचार हुआ और क्षमा-याचना करते हुए उन्होंने गुरुदेव से इंजेक्शन लेने की प्रार्थना की। गुरुदेव बोले-बहुत  इंजेक्शन ले चुका। अब इसकी आवश्यकता नहीं है। छोड़ दीजिये। संयोगवश डा0 एन0 एल0 मोदी, पटना से गुरुदेव के दर्शनार्थ आये हुए थे। उनके विशेषाग्रह पर गुरुदेव ने स्वीकृति दी। उस दिन के बाद से आपने इंजेक्शन लेना बन्द कर दिया और अपनी मौज में आकर पूर्ण स्वस्थ हो गये। धन्य  हैं हमारे गुरुदेव! आपकी अनन्त महिमा का अंत कौन पा सकता है!

‘निमित्तमात्रां भव सव्यसाचिन्’
 -महर्षि शाही स्वामीजी महाराज
    करते तो सब सद्गुरु ही हैं, पर किसी-न-किसी को निमित्त बनाकर। आज से तीन-चार वर्ष पहले की बात है। परमाराध्य गुरुदेव मनिहारी से वापस आ रहे थे। उस समय श्री संतसेवी जी महाराज सिरदर्द से इतने बेचैन थे कि कार में बैठ नहीं सकते थे। परमाराध्य गुरुदेव स्वयं   अगली सीट पर बैठे और उनको पीछे की सीट पर सुलाकर कुप्पाघाट आश्रम आये। आश्रम पहुँचने पर किसी प्रकार कार से उतार कर उन्हें उनके निवास के कमरे तक पहुँचाया गया। पूज्य गुरुदेव निवास-गृह के बरामदे पर बैठे। मैं भी उनके चरणों में प्रणाम कर निकट ही बैठ गया। मेरी ओर देखकर गुरुदेव ने पूछा-फ्संतसेवी जी को आपने देखा? मैंने कहा-जी हाँ, उनको बहुत कष्ट है।य् यह सुनते ही गुरुदेव ने कहा-आप जाइए, संतसेवीजी का माथा पोंछ दीजिएगा। मैंने कहा-हूजुर , मेरे माथा पोंछने से क्या होगा? थोड़ी देर चुप होकर पुनः मुझसे गुरुदेव ने कहने की कृपा की-आप जाइए और उनका माथा पोंछ दीजिए। गुरुदेव की आज्ञा पाकर मैं श्री संतसेवीजी महाराज के पास गया और उनके सिर को हल्के हाथों से दाबने लगा। थोड़ी ही देर बाद वे अपने बिछावन पर उठकर बैठ गए और बोले कि अब दर्द कुछ कम हो गया है और मन भी हल्का लगने लगा है। अब मैं दँतवन से मुँह धोऊँगा। दँतवन लेकर मुँह धेने के बाद उन्होंने कहा कि कुछ खाने की भी इच्छा हो रही है। मैंने तुरत बेदाना मँगवाया और उसके दाने निकलवा कर उन्हें खाने के लिए दिया। उसके बाद मैं गुरुदेव के पास आया। गुरुदेव ने मुझसे पूछने की कृपा की-क्या हाल है? मैंने विनीत भाव से उत्तर दिया-हूजुर  की कृपा से उनकी तबीयत बहुत अच्छी हो गई है। कुछ बेदाना भी खाये हैं। यह सुनते ही गुरुदेव ने मुझसे कहा-आप जाइए। गुरुदेव ने शब्दशः तो नहीं कहा, पर भाव ऐसा था गोया कह रहे हों-यह बोलने की जरूरत नहीं है। गुरुदेव की कृपा अमोव है पर है वह अदृश्य और दूसरे के माध्यम से आनेवाली।

    एक दूसरी घटना उस समय की है जब मैं सकरोहर ग्राम में रहता था। उस गाँव का नाई गणेश ठाकुर बात रोग से ग्रस्त था। उसकी पीड़ा असह्य थी। ठीक से चलना-फिरना भी उसके लिए संभव नहीं था। मैंने एक दिन दिवास्वप्न में देखा कि परमपूज्य गुरुदेव मुझे आज्ञा दे रहे हैं कि आप गणेश को कुछ दवा बतला दीजिए। मैंने कहा-हूजुर ! मैं तो कुछ जानता नहीं, क्या बताऊँगा। गुरुदेव ने कहा-कुछ  भी बतला दीजिएगा। उसी दिन सायंकाल गणेश ठाकुर मेरे पास आया। उसे देखकर मुझे स्वप्न की बात याद आ गई। गणेश ठाकुर ने कहा कि मैंने स्वप्न देखा है कि गुरुदेव मुझे आज्ञा दे रहे हैं कि तुम शाही स्वामी के पास जाओ, वे तुम्हें दवा बता देंगे। उसने मुझसे दवा बताने का आग्रह किया। मैं बड़े असमंजस में पड़ गया। ठाकुर पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाने लगा-आप मुझे कुछ भी दवा बता दीजिए। मैंने उससे कहा-भाई  जाओ, गंगाजी की मिट्टी लगाओ। वह घर चला गया। उसने गंगाजी की मिट्टी का प्रयोग किया और चंगा भी हो गया। मैं उसी दिन बाहर चला गया था। जब कुछ दिनों के बाद सकरोहर लौट रहा था तो देखा कि रास्ते में लोग बड़े गौर से मेरी ओर देख रहे हैं और कुछ इंगित भी कर रहे हैं। गाँव के निकट आ जाने पर मैंने लोगों से पूछाµफ्क्या बात है कि आपलोग मेरी ओर इस प्रकार देख रहे हैं? उनलोगों ने बड़े उत्साह से कहा कि आपने गणेश ठाकुर को जो मिट्टी का प्रयोग बताया था उससे वह पूरी तरह स्वस्थ हो गया। मैं गुरु-चरणों में नतमस्तक हो गया। उनकी कृपा से क्या नहीं हो सकता। कृपा करें गुरुदेव और यश का भागी बने शिष्य? ऐसी है उनकी भक्तवत्सलता।

श्रीसद्गुरु-लीलामृत

-स्वामी लच्छन दासजी, सत्संग आश्रम, सैदाबाद (पुरैनियाँ)

    पूज्य गुरुदेव की मनिहारी में 1949 ईo को आज्ञा हुई कि फ्तुम सैदाबाद में खेती करो। मैं उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए उसी समय से बराबर हर साल खेती का कार्य करता आ रहा हूँ और उसकी फसल पूज्य गुरुदेव के चैके में भेज दिया करता हूँ। 1942 ईo में सैदाबाद में यह जमीन खरीदी गयी थी। पूज्य गुरुदेव महाराज हर साल धान  काटने के समय दिसम्बर माह में आया करते थे। असह्य कठिन ठंढ को सहन करते हुए, हिमालय की बर्फीली हवाओं का झकोरा खाते हुए, खेती का काम देखना और पिफर मोरंग में सत्संग करना, प्रवचन करना और लोगों को चेताना पूज्य गुरुदेव की महान् कृपा थी। देश एवं मोरंग के अनेकों सत्संगी गुरु महाराज के दर्शनाभिलाषी बनकर आते थे और इनकी अमृतमयी वाणी एवं प्रवचनों से लाभान्वित होते थे।
    पूज्य गुरुदेव महाराज का चमत्कार-रंगेली बाजार के निकट ग्राम टकुआ के निवासी रेशम लाल दास जी एक गणमान्य एवं धनी  व्यक्ति थे, ने अपने घर के निकट एक विष्णु-मंदिर का निर्माण किया और मुझे एक रात उसमें ठहराया। मंदिर में सत्संग हुआ और सत्संग में उपदेशपूर्ण प्रवचन से प्रभावित होकर उन्होंने मुझ से भजन-भेद लिया।
    भजन-भेद लेने के कई वर्षों के पश्चात् वह अचानक रोगग्रस्त हो गये। बीमारी काफी बढ़ गयी और वे मर गये। परिवार के सभी लोग तथा अन्य सम्बन्ध्ति व्यक्ति रोने-पीटने लगे। कई घंटों के बाद वे जीवित हो गये और कहने लगे कि मुझे लेने यमदूत आये थे, उसी समय पूज्य गुरु-महाराज जी आ गये और यमदूत से कहने लगे कि अभी यह नहीं जायगा; क्योंकि इसके द्वारा सत्संग का कार्य कराना अभी बाकी है।य् यह सुनते ही यमदूत ने उन्हें छोड़ दिया। वे कहने लगे कि धन्य! गुरु महाराज ने मुझे बचा लिया।
    इसके बाद उन्होंने आस-पास के सभी सत्संगियों को बुलवाया और सारी बातें कह सुनायी और विराट नगर ;नेपालद्ध से रजिस्ट्रार को बुलाकर सत्संग के नाम से जमीन एवं एक खपड़ा मकान, जो उस जमीन पर अवस्थित था, निबंधित  (रजिस्ट्री) कर दिया। साथ ही ईट मँगवाकर मुझे बुलाया और उस जगह पर सत्संग-भवन की नींव डलवायी-जिसकी दीवार बनकर पूरी हो चुकी है।

श्री आराध्यदेव की लीला
-श्री प्रमोद दास मo मेँo आo कुप्पाघाट
    मैं सद्गुरुदेव की गाय की देख-रेख करता था। एक दिन शाम को मैं श्रीचरणों की सेवा में रत था। सोचता था, सरकार मुझे भी अपनी शरण में जगह देते तो मेरा अहोभाग्य होता! उनके पाद्-पद्मों को दबाते समय मेरे मन में अचानक भाव आया कि चैंका में जाकर भोजन कर लेता तो ठीक होता, क्योंकि पीछे भोजन घट जायगा। यह भाव खत्म भी नहीं हो पाया था कि अन्तर्यामी प्रभु ने तुरत मुझे आदेश दिया-जाओ, तुम भोजन कर लो।य् मैं तो पानी-पानी हो गया। अपनी हीन भावना पर बड़ी लज्जा हुई । मैं सरकार के आदेश को मानकर भोजन करने चला गया।

गुरु-दल
-श्री छोटेलाल दास

    परमाराध्यदेव शरत्कालीन धूप  में अपनी शय्या  पर विराजमान थे, उसी समय मैं अपराहनकालीन सत्संग करके नित्य की भाँति उन्हें प्रणाम करने के लिये पहुँचा। बरामदे की देहरी पर सिर टेककर प्रणाम करते ही मैंने सुना-कौन? मैंने निवेदन किया-हुजुर, मैं छोटेलाल हूँ। आराध्यदेव ने पुनः कहने की कृपा कीµफ्अच्छा, यह तो बताओ, तुम किस दल में रहोगे? गुरु-दल, राम-दल या रावण-दल में? यह मैंने सादर अर्ज किया-हुजुर, मैं तो गुरु-दल में ही रहूँगा। अच्छा, तुम बच गये। ऐसी वाणी परमाराध्यदेव की मौज से निःसृत हुई। उस समय मैं गुरु-वाणी का गूढ़, रहस्यपूर्ण अर्थ नहीं समझ सका था कि मुझ अबोध् को सतोगुणी वृत्ति में बरतने का वे आदेश प्रदान करते हैं या सद्गुरु, ईश्वर और दुष्ट-इन तीनों में सर्वप्रथम, सर्वसमर्थ, करुणावतार कृपासिन्धु, नर-रूप-हरि गुरुदेव को अपनाये रहो-की आज्ञा देते हैं? क्योंकि सन्त कबीर की वाणी है-
       "हरि रूठे गुरु ठौर हैं, गुरु रूठे  नहिं ठौर।"

श्री सद्गुरु महाराज की कृपा से जान बच गयी

           -श्रीमती गोमती देवी, दिल्ली
    एकबार सन् 1951 में श्री सद्गुरु महाराज मुरादाबाद पधारे थे। दिल्ली से श्री ज्ञान-स्वरूप जी भटनागर गुरु महाराज के दर्शन करने के लिए मुरादाबाद आये थे। 22 जनवरी को श्री ज्ञान-स्वरूप जी सत्संग-आश्रम से दिल्ली जाने के लिए वापस लौट रहे थे। चलते समय गुरु महाराज से जाने के लिए आज्ञा माँगी और उन्हें माला पहनायी। गुरु महाराज ने कहा कि "क्या आज ही जाना है?" उन्होंने कहा-"जी हाँ, जरूरी काम से जाना है।"
    ज्ञान-स्वरूप जी जब स्टेशन पहुँचे, गाड़ी चलने को तैयार ही नहीं थी, बल्कि धीरे धीरे सरकने भी लगी थी। वह घबड़ाकर दौड़े और गाड़ी का पाँवदान पकड़ा, घबड़ाहट में पावदान हाथ से छूट गया और वह गाड़ी से नीचे गिर पड़े और साधू  लाईन के बीच में जा पड़े। गिरते समय गुरु महाराज का ध्यान किया, गाड़ी ऊपर से जा रही थी, उन्हें गुरु महाराज की आवाज सुनाई दी-फ्जैसे पड़े हो, वैसे ही पड़े रहो, हिलना नहीं।य् जब गाड़ी चली गयी, तो उन्हें कुछ होश आया। वहाँ भीड़ इकट्ठी हो गयी थी, उनसे धीरे-धीरे कहा-"मुझे अस्पताल ले चलो" और फिर बेहोश हो गये। लाईन पर हाथ आने से थोड़ा-सा हाथ ही कट कर रह गया, परन्तु जान बच गयी, गुरु महाराज की कृपा से ही जान बच गयी।
महर्षि मेँहीँ के उपदेश-

1. यह सुन्दर मनुष्य शरीर पाकर जो क्षणिक विषय-सुख में लवलीन रहते हुए माते रहते हैं और इसी में अपना कुशल समझते हैं, वे अत्यन्त भूल में हैं।
2. रसायन विज्ञान की तरह सत्य है कि आॅक्सीजन और हाइड्रोजन (H2+O=H2O) को मिलाओ, पानी होगा। इसी तरह इंगला- पिंगला को मिलाकर रखो, प्रकाश होगा। वैज्ञानिक आविष्कार जैसे सत्य है, वैसे ही यह सत्य है।

3. कोई भी जल बाह्य संसार में नहीं है, जो हृदय को शुद्ध कर सके। इसके लिए सत्य का व्यवहार होना चाहिए। सत्य के तट पर रहना चाहिए। सत्य का तट क्या है? सत्संग और ध्यान।
4. जिसका चेतन आत्मा तृष्णा की डोरी पर दौड़ती रहती है, उसके लिए शान्ति, तृप्ति और मुक्ति कहाँ!
5. जो संत वचनामृत का श्रवण, मनन और निदिध्यासन करके आदर करते हैं, उनका परम कल्याण होता है।
6. लाचार होकर भी पाप कर्म हो जाने पर कोई पाप के पफल से बच नहीं सकता है। पाप का पफल अवश्य ही भोगना पड़ता है।
7. जो कहते हैं कि भजन करने के लिए मुझको समय नहीं है, यह बहुत गलत बात है। गपशप करने के लिए समय है, सिनेमा देखने के लिए समय है और भजन करने के लिए समय नहीं है-यह बहुत गलत बात है।
8. सत्य बोलोगे, तो दूसरों से पे्रेम बढ़ेगा। प्रेम से मेल होगा, मेल से बल बढ़ेगा, बल बढ़ाने की आवश्यकता है देश को।
9. तप असल में ब्रह्मचर्य-पालन करे, तो वह अच्छा तपी है। शरीर को तपावे और ब्रह्मचर्य का ध्यान नहीं रखे, तो वह उत्तम तप नहीं है।
10.यह सुन्दर मनुष्य-शरीर पाकर अपना जीवन सांसारिक विषयों को खो दो, तो रोना पड़ेगा, इसमें संदेह की बात नहीं है। इसलिए याद रखो, सुअवसर हाथ से न जाने दो।
11.ज्योति और शब्द के अतिरिक्त और कोई रास्ता ईश्वर तक पहुँचने के लिए मानने योग्य नहीं है।
12. जो अपनी मौत को प्रत्यक्ष की तरह देखता है। उनकी सब सांसारिक भोग-वासनाएँ छूट जाती हैं।
13. इस संसाररूपी तालाब में परमात्मा-रूपी निर्मल जल है। यदि माया के परदे को हटा दो, तो परमात्मारूपी निर्मल का दर्शन होगा।
14. जबतक जीवन धरण करें, तबतक सत्संग करें, तो अवश्य ही मरने के बाद वे आगे शरीर पावेगा, तो मनुष्य का शरीर पायेगा, दूसरा हो नहीं सकता।
15. अगर भजन में तरक्की चाहते हो, तो मानस जप कभी नहीं भूलना चाहिए, हरवक्त जारी रखना चाहिए।
श्री सद्गुरु महाराज की जय।
सौजन्य: महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट (रज़ि)
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

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