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सोमवार, 18 जून 2018

ईश्वर का रूप है पिता | Eshwar ka roop hai pita | International Father's Day | वैसे तो हमारी भारतीय संस्कृति में माता-पिता का स्थान पहले ही सर्वोच्च रहा है |

ईश्वर का रूप हैं 'पिता' -
International father's day,

वैसे तो हमारी भारतीय संस्कृति में माता-पिता का स्थान पहले ही सर्वोच्च रहा है, किन्तु आजकल वैश्वीकरण के प्रभाव में हम विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय दिवसों को भी ख़ुशी-ख़ुशी सेलिब्रेट करते हैं. वैसे भी हमारी संस्कृति हर तरह के सद्विचारों और मूल्यों का स्वागत करती रही है और इस लिहाज से प्रत्येक वर्ष जून के तीसरे रविवार को 'इंटरनेशनल फादर्स डे' (International father's day) का दिन प्रत्येक व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण है। आखिर, हर कोई किसी न किसी की 'संतान' तो होता ही है और इसलिए उसका फ़र्ज़ बनता है कि वह अपने पिता के प्रति अपने जीवित रहने तक सम्मान का भाव रखे, ताकि अगली पीढ़ियों में उत्तम संस्कार का प्रवाह संभव हो सके। अक्सर गलतियों पर टोकने, बाल बढ़ाने, दोस्तों के साथ घूमने और टी.वी. देखने के लिए डांटने वाले पिता की छवि शुरु में हम सबके बालमन में हिटलर की तरह रहती है. लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, हम समझते जाते हैं कि हमारे पिता के हमारे प्रति कठोर व्यवहार के पीछे उनका प्रेम ही रहता है. बचपन से एक पिता खुद को सख्त बनाकर हमें कठिनाइयों से लड़ना सिखाता है तो अपने बच्चों को ख़ुशी देने के लिए वो अपनी खुशियों की परवाह तक नहीं करता। एक पिता जो कभी मां का प्‍यार देते हैं तो कभी शिक्षक बनकर गलतियां बताते हैं तो कभी दोस्‍त बनकर कहते हैं कि 'मैं तुम्‍हारे साथ हूं'। इसलिए मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि पिता वो कवच हैं जिनकी सुरक्षा में रहते हुए हम अपने जीवन को एक दिशा देने की सार्थक कोशिश करते हैं। कई बार तो हमें एहसास भी नहीं होता कि हमारी सुविधाओं के लिए हमारे पिता ने कहाँ से और कैसे व्यवस्था की होती है। यह तब समझ आता है, जब कोई बालक पहले किशोर और फिर पिता बनता है।


जाहिर है, अपने बच्चे के लिए तमाम कठिनाईयों के बाद भी पिता के चेहरे पर कभी शिकन नहीं आती। शायद इसीलिए कहते हैं कि पिता ईश्वर का रूप होते हैं, क्योंकि खुद सृष्टि के रचयिता के अलावा दुसरे किसी के भीतर ऐसे गुण भला कहाँ हो सकते हैं। हमें जीवन जीने की कला सिखाने और  अपना सम्पूर्ण जीवन हमारे सुख के लिए न्योछावर कर देने वाले पिता के लिए वैसे तो बच्चों को हर समय तत्पर रहना चाहिए, लेकिन अगर इतना संभव न हो तो, कम से कम साल में एक खास दिन (International father's day) तो हो ही! उनके त्याग और परिश्रम को चुकाया नहीं जा सकता, लेकिन कम से कम हम इतना तो कर ही सकते हैं कि उनके प्रति 'कृतज्ञ' बने रहे। हालाँकि 'फादर्स डे' मनाना हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं रहा है और मूल रूप से यह यूएस में जून महीने के तीसरे रविवार को मनाया जाता है, लेकिन आधुनिक ज़माने की संस्कृति ने हमें 'फादर्स डे' के रूप में अगर यह अवसर दिया है, तो हमें अच्छी चीजों और परम्परों का धन्यवाद कहना ही चाहिए! इससे हम अपनी भावनाएं जो चाहकर भी नहीं कह पाते, वह इस अवसर पर कह सकते हैं. उन्हें वो अपनापन महसूस करा सकते हैं जिससे वो अपने आपको बुढ़ापे में सुरक्षित महसूस कर सकें। उनको ये एहसास करा सकते हैं कि 'आज मैं जो भी हूं' वो आपके बिना संभव नहीं था। जाहिर है, हर मनुष्य के भीतर फीलिंग होती है और अगर किसी को उसकी संतान शुभकामनाएं दे तो उसे अच्छा ही लगेगा।
आप जितने भी सफल व्यक्तियों को देखेंगे, तो उनके जीवन की सफलता में उनके पिता का रोल आपको नज़र आएगा. उन्होंने अपने पिता से प्रेरणा ली होती है और उनको आदर्श माना होता है। इसके पीछे सिर्फ यही कारण होता है कि कोई व्यक्ति लाख बुरा हो, लाख गन्दा हो, लेकिन अपनी संतान को वह 'अच्छी बातें और संस्कार' ही देने का प्रयत्न करता है। ऐसे कई उदाहरण हैं कि कोई व्यक्ति नालायक होता है, शराबी होता है, जुआरी होता है लेकिन ज्योंही वह पिता बनता है, अपनी गन्दी आदतें इसलिए छोड़ देता है ताकि उसके बच्चों पर बुरा असर न पड़े। हालाँकि, यह संसार बहुत बड़ा है और इसमें लोग भी भिन्न प्रकार के हैं। पर यह कहा जा सकता है कि अपने बच्चे के लिए हर पिता बेहतर कोशिश करता है, अपनी क्षमता से कहीं ज्यादा! इसलिए वह तारीफ़ के काबिल तो होता ही है। अपने पिता से अफ़सोस और शिकायतें तो सिर्फ वो लोग करते हैं जिन्होंने जिंदगी में अपने आप को साबित नहीं किया वरना हर पिता का जीवन सीखने योग्य होता है. पिता ही दुनिया का एक मात्र शख्‍स है, जो चाहते है कि उसका बच्‍चा उससे भी ज्‍यादा तरक्‍की करे, उससे भी ज्‍यादा नाम कमाये। इसके लिए वह कई बार सख्त रूख भी अख्तियार करते हैं, क्योंकि जीवन में आगे बढ़ने के लिए 'अनुशासन' का सहारा लेना ही पड़ता है।
हालाँकि, बदलते ज़माने के साथ पिता का स्वरुप भी बदला है और हमेशा गम्भीर और कठोर दिखने वाले पिता की जगह अब अपने बच्चों के संग खेलने और मस्ती करने वाले पिता ने ले लिया है. समय के साथ बदलाव तो स्वाभाविक हैं, लेकिन पिता के कर्त्तव्य में कोई बदलाव नहीं आएगा और यही हमारी संस्कृति रही है। बदलते ज़माने और रोजगार की जरूरतों की वजह से आज हम में से कई अपने माता-पिता से दूर हो गए हैं, ऐसे में हम उन बुजुर्ग कदमों को चाह कर भी सहारा नहीं दे पा रहे हैं, उनका अकेलापन नहीं दूर कर पा रहे हैं, तो मन में बस एक टीस भर जाती है अपनों के लिए, जो बेहद बेचैन करती है। ऐसे में हमें विभिन्न अवसरों, त्यौहारों पर उन्हें समय अवश्य ही देना चाहिए, बेशक वह अवसर फादर्स डे ही क्यों न हो! हालाँकि, आज संयुक्त परिवारों के बिखण्डन से बुजुर्ग माँ-बाप की समस्याएं कहीं ज्यादा विकराल हो गयी हैं। 'बागवान' जैसी फिल्में हम देख ही चुके हैं और यह समाज की सच्चाई सी बन गयी है, जहाँ बच्चे बस अपने माँ-बाप की संपत्ति से मतलब रखते हैं, लेकिन उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियों को अनदेखा कर देते हैं। जाहिर है, संस्कार कहीं न कहीं बिगड़े हैं और इसे सुधारने का प्रयत्न करना ही 'फादर्स डे' की सार्थकता कही जाएगी, अन्यथा फिर यह अन्य 'पश्चिमी औपचारिकताओं' की तरह 'औपचारिकता' बन कर रह जायेगा।
पिता के चरणों में बारम्बार नमन्।
।। जय गुरु ।।

मंगलवार, 12 जून 2018

गुरु नानक के बालपन की एक घटना | Guru Nanak ke baalpan ki ghatna | Guru Nanak | Baba-Nanak | Santmat-Satsang

गुरु नानक के बालपन की एक घटना।

बालक नानक छोटे ही थे। छोटे छोटे पैरों से चलते हुए किसी अन्य मोहल्ले में पहुँच गये एक घर के बरामदे में बैठी एक औरत विलाप कर रही थी। विलाप बहुत बुरी तरह से हो रहा था। नानक के बाल मन पर गहरा असर हुआ ।नानक बरामदे में भीतर चले गये ।तो देखा कि महिला की गोद में एक नवजात शिशु था ।
बालक नानक ने महिला से बुरी तरह विलाप करने का कारण पुछा ।
महिला ने उत्तर दिया , " पुत्र हुआ है, मेरा अपना लाल है ये,
इसके और अपने दोनों के नसीबों को रो रही हूँ । कहीं और जन्म ले लेता , कुछ दिन जिन्दगी जी लेता । पर अब ये मर जायेगा । इसी लिए रो रही हूँ कि ये बिना दुनिया देखे ही मर जायेगा ।"  नानक ने पुछा , " आपको किसने कहा कि ये मर जायेगा " ? महिला ने जवाब दिया , " इस से पहले जितने हुए , कोई नही बचा ।"
नानक आलती पालती मार कर जमीन पर बैठ गये और बोले, "ला इसे मेरी गोद में दे दो।"
महिला ने नवजात को नानक की गोद में दे दिया।
नानक बोले, "इसने तो मर जाना है न" ?
महिला ने हाँ में जवाब दिया तो नानक बोले , "आप इस बालक को मेरे हवाले कर  दो, इसे मुझे दे दो"।
महिला ने हामी भर दी।
नानक ने पुछा "आपने इसका नाम क्या रखा है ? "
महिला से जवाब मिला "नाम क्या रखना था, इसने तो मर जाना है इस लिए इसे मरजाना कह कर ही बुलाती हूँ । "
"पर अब तो ये मेरा  हो गया है न" ? नानक ने कहा।
महिला ने हाँ में सिर हिला कर जवाब दिया ।
"आपने इसका नाम रखा मरजाना, अब ये मेरा हो गया है, इसलिये मै इसका नाम रखता हूँ मरदाना (हिंदी में मरता न)।"
नानक आगे बोले, "अब ये है मेरा, मै इसे आपके हवाले करता हूँ । जब मुझे इसकी जरूरत होगी, मै इसे ले जाऊँगा"।
नानक ने बालक को महिला को वापिस दिया और बाहर निकल गये । बालक की मृत्यु नही हुई ।
छोटा सा शहर था, शहर के सभी मोहल्लों में बात आग की तरह फ़ैल गयी।
यही बालक गुरु नानक का परम मित्र तथा शिष्य था । सारी उम्र उसने बाबा नानक की सेवा में ही गुजारी । गुरु नानक के साथ मरदाना का नाम आज तक जुड़ा है तथा जुड़ा रहेगा।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

जाति, धर्म, रूप, कुल, धन, बल के बल पर नहीं फलती भक्ति | महर्षि मेँहीँ | Jaati-Dharma-Rup, Kull, Dhan, Bal, ke bal par bhakti nahi falti | Maharshi Mehi | Santmat-Satsang

“जाति, धर्म, रूप, कुल, धन, बल के बल पर नहीं फलती भक्ति”

“पूर्वकाल में एक भक्तिन हुई थीं, जो एक भील की लड़की और मतंग ऋषि की शिष्या थीं | उसका नाम शबरी था | उसका विवाह शबर जाती के एक जंगलवासी लड़के से हुआ था |

शबरी पूर्व जन्म में राजरानी थी | वह सत्संग करना चाहती थी, पर उसे परदे के अन्दर रहना पड़ता था | वह चाहती थी कि परदे के अन्दर न रहूँ | इसलिए उसका अगला जन्म एक भील के घर में हुआ | शबरी के साथ विवाह कर उसका पति उसे अपने घर ले जा रहा था | शबरी कुरूपा थी | उसका पति रास्ते में सोचने लगा कि इसको घर ले  जाकर क्या करूँगा, इसको तो देखकर लड़के-बच्चे डरेंगे | उसका पति छोड़ना चाहता था और इधर शबरी भी साथ नहीं जाना चाहती थी | जंगल का रास्ता था | मौका पाकर उसका पति उसको छोड़कर भाग गया |

तब शबरी उसी जंगल में मतंग ऋषि के आश्रम के आस-पास रहने लगी  और मौका खोजने लगी कि कोई सेवा करूँ | उसने देखा कि एक साधु बहुत सवेरे उठकर रास्ते पर झाड़ू लगाते हैं | शबरी को वही काम पसंद आ गया | वह उस साधु से पहले ही उठकर झाड़ू लगाने लगी |

एक दिन उस साधु ने शबरी को झाड़ू लगाते ही पकड़ा और मतंग ऋषि के पास ले आया | मतंग ऋषि ने कहा कि इसको छोड़ दो, यह बड़ी भक्तिन है | मतंग ऋषि से ज्ञान लेकर उसने भक्ति की और उसी आश्रम में उसकी भक्ति पूर्ण हुई | शबरी सब प्रकार की भक्ति में योग्य हो गई |

जब मतंग ऋषि संसार से विदा हो गए, तब छोटी जाति की होने के कारण साधुओं ने उसको वहाँ के तालाब से पानी लेने से मना कर दिया | फल यह हुआ कि उस तालाब का पानी सड़ गया | तब साधुओं को भी दूर से पानी लाना पड़ने लगा |

अंत में श्रीराम उस आश्रम में आये और वहाँ के साधुओं से पूछा कि आपलोगों को कोई कष्ट भी है ? उनलोगों ने कहा – “देखिये न, जिस तालाब से हमलोग पानी लाते थे, उसका पानी सड़ गया है | हमलोगों को दूर से पानी लाना पड़ता है | हमें यही एक कष्ट है | आप उस तालाब में अपने चरण रख दें, तो पानी शुद्ध हो जाएगा |”

साधुओं के कहने पर भगवान् राम उस तालाब में गए; परन्तु पानी शुद्ध नहीं हुआ | तब भगवान् के कहने पर शबरी उस तालाब में गयी | उसके जाने से पानी फिर शुद्ध हो गया |

किसी को इस बात का घमंड नहीं करना चाहिए कि मैं चतुर हूँ, धनी हूँ, कुलीन हूँ, आदि | घमण्ड में भक्ति नहीं होती है | घमण्ड त्यागनेवाले से ही भक्ति होती है |

“जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई |
धन बल परिजन गुन चतुराई ||
भगति हीन नर सोहइ कैसा |
बिनु जल बारिद देखिय जैसा ||”
– गोस्वामी तुलसीदास जी

-- संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस के एक प्रवचन के अंश।
।। जय गुरु ।।

सोमवार, 11 जून 2018

आप स्वाभिमानी हैं या अभिमानी अपने आप को परखिये | Aap swabhimani hai ya abhimani | Apne ko parakhiye |

आप स्वाभिमानी हैं या अभिमानी अपने आप को परखिये;

एक जगह बाढ़ आई थी समाज सेवी संस्थायें बाढ़ पीड़ितों को सहायता का वितरण कर रहीं थी कुछ स्वयं सेवक एक वृद्धा की झोपड़ी में पहुँच कर उसे सहायता देने  का प्रस्ताव रखा उसने बड़े प्रेम से मना  कर दिया बोली बेटा मैं पिछले बीस वर्षों से अपनी मेह्नत की कमाई खा रही हूँ ,मुझे आपकी सहायता नहीं चाहिए। स्वयं सेवक आवाक थे एवं उस वृद्धा के स्वाभिमान के आगे नतमस्तक। 

स्वाभिमान व्यक्ति को स्वावलम्बी बनता है जबकि अभिमानी हमेशा दूसरों पर आश्रित रहना चाहता है। स्वाभिमान एवं अभिमान के बीच बहुत पतला भेद है। इन दोनों का मिश्रण व्यक्तित्व को बहुत जटिल बना देता है। दूसरों को कमतर आँकना एवं स्वयं को बड़ा समझना अभिमान है।एवं अपने मूलभूत आदर्शों पर बगैर किसी को चोट पहुंचाए बिना अटल रहना स्वाभिमान है। अभिमानी व्यक्ति अपने आपको स्वाभिमानी कहता है किन्तु उसके आचरण, व्यवहार एवं शब्दों से दूसरे लोग आहत होते हैं। अभिमानी अन्याय करता है और स्वाभिमानी उसका विरोध। स्वाभिमानी दूसरों का अधिपत्य खत्म करता है जबकि अभिमानी अपना अधिपत्य स्थापित करता है। रावण अभिमानी था क्योंकि वह सब पर अधिकार जमाना चाहता था, कंस अभिमानी था क्योंकि वह आतंक के बल पर राज करना चाहता था। राम ने रावण के अधिपत्य को समाप्त किया तथा कृष्ण ने कंस के आतंक को, इसलिए राम और कृष्ण दोनों स्वाभिमानी थे। 

अपने कार्यों का प्रतिफल सभी अन्य लोगों की सहायता मानता है उसका स्वाभिमान अभिमान में परिवर्तित नहीं होता है तथा उसके अंदर स्वाभिमान और अभिमान को परखने की प्रवृति जाग्रत होती है। 

मेरा एक मित्र कभी किसी की सहायता स्वीकार नहीं करता चाहे कितनी भी कठिन परस्थितियां क्यों न हों वह हमेशा अकेला ही उनका सामना करता है। लोग कहते हैं की वह अभिमानी है लेकिन वह कहता है की वह स्वाभिमानी है। भौतिक सम्पदा, धन, बल, सम्पत्ति, भूमि आदि अभिमान को जाग्रत करती हैं। 


महात्मा विदुर ने किसी प्रसंग में कहा है "बुढ़ापा रूप को, आशा धैर्य को, मृत्यु प्राण को, क्रोध श्री को, काम लज्जा को एवं अभिमान सर्वस्य को हरण कर लेता है। 

संतान की उपलब्धियां, ज्ञान, विद्या आदि अभिमान का कारण है किन्तु इनकी प्राप्ति के बाद विनम्रता एवं शीलता आती है तो वह स्वाभिमान का प्रेरक मानी जाती है। जितने भी महान वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं राजनेता हुए हैं उनमे अभिमान लेशमात्र भी नहीं था इसलिए वो महान कहलाये। अभिमान अपनी सीमाओं को लाँघ कर दूसरे की सीमाओं में प्रवेश करता है जबकि स्वाभिमानी अपनी और दूसरों की सीमाओं के प्रति सतर्क एवं जागरूक होता है। 

लघुत्व से महत्व की और बढ़ना स्वाभिमान होने की निशानी है जबकि महत्व मिलने पर दूसरों को लघु समझना  अभिमानी होने का प्रमाण है। अभिमान में व्यक्ति अपना प्रदर्शन कर दूसरों को नीचे दिखने की कोशिश करता है इसलिए लोग उससे दूर रहना चाहते हैं सिर्फ चाटुकार लोग ही अपने स्वार्थ के कारण उसकी वह वाही करते हैं इसके विपरीत स्वाभिमानी व्यक्ति दूसरों के अच्छे  विचारों को बीना अभिलाषा महत्व देता है, प्रशंसा करता है।

अच्छा श्रोता होना स्वाभिमान का लक्षण है क्योंकि वह सोचता की मुझे लोगों से बहुत कुछ ग्रहण करना है। प्रत्येक उपलब्धि के नीचे अहंकार का सर्प होता है उसके प्रति सदैव सावधान रहकर ही आप उसके दंश से बच सकते हैं। स्वाभिमान हमेशा स्वतंत्र का पक्षधर रहता है इसलिए स्वाभिमानी स्वतंत्रता के लिए लड़ते हैं जबकि अभिमानी अपने को स्वतंत्र रख कर दूसरों की गुलामी का पक्षधर है। 

कहीं आप अभिमानी तो नहीं खुद को जाँचिए;

. ➧स्वाभिमानी हमेशा आश्वस्त होते हैं जबकि अभिमानी को कभी खुद पर विश्वास नहीं होता है। 

. ➧स्वाभिमानी हमेशा विनम्र भाषा का प्रयोग करतें हैं जबकि अभिमानी हमेशा हेंकड़ी की भाषा अपनाते हैं। 

. ➧स्वाभिमानी सोचते हैं की सभी से सामान व्यवहार हो  जबकि अभिमानी हमेशा अपने से दूसरों को निम्नतर मानते हैं। 

. ➧स्वाभिमानी स्थिर चित्त होते हैं जबकि अभिमानी हमेशा विचलित नजर आते हैं। 

. ➧स्वाभिमान कड़े परिश्रम से सफलता प्राप्त करना चाहते हैं जबकि अभिमानी अवसर वादी होते हैं। 

. ➧स्वाभिमानी सफलता का श्रेय अपने साथियों को देते हैं जबकि अभिमानी पूरा श्रेय स्वयं लेना चाहते हैं। 

. ➧स्वाभिमानी अपने स्वभाव से पूर्ण परिचित रहते हैं जबकि अभिमानी को अपने स्वभाव पर नियंत्रण नहीं रहता। 

. ➧स्वाभिमानी अपनी आलोचना को हितकर मानते हैं जबकि अभिमानी अपनी आलोचना सहन नहीं करते हैं। 

.➧ स्वाभिमानी दूसरों को प्रभावित करने की कोशिश नहीं करते जबकि अभिमानी लगातार दूसरों को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। 

.➧ स्वाभिमानी किसी के भी साथ काम करने को तैयार रहते हैं जबकि अभिमानी सिर्फ वही काम करते हैं जहाँ उनको प्रमुखता मिलती हो। 

➧. स्वाभिमानी अपनी योग्यता के प्रति हमेशा सचेत रहता है जबकि अभिमानी अपनी योग्यता को लेकर अतिआत्मविश्वासी। 

 ➧. अभिमानी व्यक्ति हींन  भावना से ग्रसित होता है इसलिए दूसरों को नीचा दिखाने से उसे अपनी महत्ता सिद्ध होती दिखती है। जबकि स्वाभिमानी हमेशा दूसरों को महत्ता देतें हैं। 

➧. अभिमानी हमेशा दूसरों को शिक्षा देते नजर आतें हैं जबकि स्वाभिमानी व्यक्ति दूसरों के गुणों की सराहना करतें हैं। 

.➧ अभिमानी अपनी असफलता के लिए हमेशा दूसरों को दोष देते हैं जबकि स्वाभिमानी असफलता का कारण  जान कर उसे दूर करने का प्रयास करते हैं। 

.➧ स्वाभिमानी हमेशा सहज होते हैं क्योंकि उनका दृष्टिकोण हमेशा सरथा एवं आशावादी होता है उन्हें अपनी कमिया एवं खूबियां मालूम रहती हैं जबकि अभिमानी हमेशा अपनी कमियों को ढांकने की कोशिश करता है एवं अपनी गलतियां कभी स्वीकार नहीं करते हैं। 

.➧ अभिमानी लोगों के रिश्ते दर्द भरे होते हैं ,उनके रिश्ते उनकी महत्ता एवं घमंड पर टिके होते हैं अभिमानी सफलता प्राप्त करने के लिए रिश्ते तोड़ सकते हैं जबकि स्वाभिमानी व्यक्ति हमेशा दूसरों की भावनाओं का ख्याल रखते हैं अतः इनके रिश्ते मजबूत एवं सुखमय होते हैं। 

.➧ अभिमानी व्यक्ति चाहता है की सिर्फ उसकी सुनी एवं मानी जाये ये दूसरों की बातों या विचारों को महत्व नहीं देते जबकि स्वाभिमानी अपने विचारों को दूसरों पर नहीं थोपते हैं। 

.➧ अभिमानी व्यक्ति हमेशा आँखे बचा कर बात करते हैं एवं उनकीआँखों में दूसरों को हमेशा नीचे दिखाने का भाव होता है। जबकि स्वाभिमानी व्यक्ति की आँखे सरल होती हैं एवं उन आँखों में दूसरों के लिए सम्मान का भाव होता है। 

अहंकार के रास्ते बड़े सूक्ष्म होते हैं कभी यह त्याग के रास्ते आता है, कभी विनम्रता के, कभी भक्ति के, तो कभी स्वाभिमान के, इसकी पहचान करने का एक ही तरीका है जहां भी “मैं” का भाव उठे वहां अहंकार जानना चाहिए। स्वाभिमान हमारे डिगते कदमों को को ऊर्जावान कर उनमें दृढ़ता प्रदान करता है। कठिन परिस्थितियों और विपन्नावस्था में भी स्वाभिमान हमें डिगने नहीं देता।अभिमान अज्ञान के अंधेरे में ढकेलता है। अभिमान मिथ्या ज्ञान, घमंड और अपने को बड़ा ताकतवर समझकर झूठा व दंभी बनाता है। व्यक्ति को अपने ‘ज्ञान’ का ‘अभिमान’ तो होता है लेकिन अपने ‘अभिमान’ का ‘ज्ञान’ नहीं होता है। अपने स्वाभिमान को जांचते रहिये कहीं ये अभिमान में तो नहीं बदल रहा है ?
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

रविवार, 10 जून 2018

उलटा नाम जपा जग जाना । बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना॥ यह उल्टा नाम कौन सा है ? | महर्षि संतसेवी | Ulta naam kaun sa hai janiye | Maharshi Santsevi | Santmat-Satsang

उलटा नाम जपा जग जाना । बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना॥

यह उल्टा नाम कौन सा है ? कितने लोग कहते हैं कि वाल्मीकि जी (रत्नाकर) इतने बड़े पापी थे कि वे 'राम-राम' नहीं कह सकते थे । इस हेतु ऋषि द्वारा राम-मन्त्र प्राप्त कर भी वे 'मरा-मरा' जपते थे । इस बात को कोई भोले भक्त भले हीं मान लें, किन्तु आज के बुद्धिजीवी वा तर्कशील सज्जन इसमें विश्वास नहीं कर सकते । वे कहेंगे, कोई कितना भी बड़े-से-बड़ा पापी क्यों न हो, वह दो अक्षर 'राम' का उच्चारण क्यों नहीं कर सकता ? वस्तुत: रहस्य क्या है, आइये, हम इस पर विचार करें।

वर्णात्मक नाम का उल्टा ध्वन्यात्मक नाम होता है और  सगुण नाम का उल्टा निर्गुण नाम होता है । वर्णात्मक नाम की उत्पत्ति पिण्ड में नीचे नाभि से होकर ऊपर होंठ पर जाकर उसकी समाप्ति होतीं है और ध्वन्यात्मक निर्गुण नाम की उत्पत्ति परमप्रभु परमात्मा से होकर  ब्रह्माण्ड तथा उससे भी नीचे पिण्ड में व्यापक है - अर्थात् वर्णात्मक नाम की गति नीचे से ऊपर की ओर और ध्वन्यात्मक निर्गुण नाम की गति ऊपर से नीचे की ओर है । इस तरह वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक नाम एक-दूसरे के उल्टे हैं । परमात्मा ने जो सृष्टि की, उसका उपादान कारण उन्होंने निर्गुण ध्वन्यात्मक ध्वनि वा निर्गुण रामनाम को हीं बनाया । इसी 'उल्टा नाम' अर्थात् ध्वन्यात्मक निर्गुण रामनाम का भजन कर रत्नाकर डाकू, वाल्मीकि ऋषि हुए थे, मात्र वर्णात्मक 'रामनाम' का उल्टा 'मरा-मरा' जप कर नहीं । आज भी जो कोई ध्वन्यात्मक निर्गुण रामनाम का भजन (ध्यान) करेंगे, तो वे शुद्ध होकर ब्रह्मवत् हो जाएंगे| -महर्षि संतसेवी परमहंस

शनिवार, 9 जून 2018

संगति का जीवन में पड़ता है गहरा प्रभाव | Sangati ka jeevan par gahra prabhav | कहते हैं कि व्यक्ति योगियों के साथ योगी और भोगियों के साथ भोगी | छत्रपति शिवाजी बहादुर बने। ऐसा इसलिए, क्योंकि... | Santmat-Satsang

संगति का जीवन में पड़ता है बड़ा गहरा प्रभाव

कहते हैं कि व्यक्ति योगियों के साथ योगी और भोगियों के साथ भोगी बन जाता है। व्यक्ति को जीवन के अंतिम क्षणों में गति भी उसकी संगति के अनुसार ही मिलती है। संगति का जीवन में बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है। संगति से मनुष्य जहां महान बनता है, वहीं बुरी संगति उसका पतन भी करती है।

छत्रपति शिवाजी बहादुर बने। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनकी मां ने उन्हें वैसा वातावरण दिया। नेपोलियन जीवन भर बिल्ली से डरते रहे, क्योंकि बचपन में बिल्ली ने उन्हें डरा दिया था। माता-पिता के साथ-साथ बच्चे पर स्कूली शिक्षा का गहरा प्रभाव पड़ता है। कई बार व्यक्ति पढ़ाई-लिखाई करके उच्च पदों पर पहुंच तो जाता है, लेकिन संस्कारों के अभाव में, सही संगति न मिलने के कारण वह हिटलर जैसा तानाशाह बन जाता है। सदाचरण के पालन से चाहे तो व्यक्ति ऐसा बहुत कुछ कर सकता है, जिससे उसका जीवन सार्थक हो सके, परंतु सदाचरण का पालन न करने से वह अंतत: खोखला हो जाता है। हो सकता है कि चोरी-बेईमानी आदि करके वह धन कमा ले, कुछ समय के लिए पद-प्रतिष्ठा अर्जित कर ले, लेकिन उसका अंत बुरा ही होता है। सत्संगति का, अच्छे विचारों का बीज बच्चे के मन में बचपन में ही बो देना चाहिए। व्यक्ति की अच्छी संगति से उसके स्वयं का परिवार तो अच्छा होता ही है, साथ ही उसका प्रभाव समाज व राष्ट्र पर भी गहरा पड़ता है।

जहां अच्छी संगति व्यक्ति को कुछ नया करते रहने की समय-समय पर प्रेरणा देती है, वहीं बुरी संगति से व्यक्ति गहरे अंधकूप में गिर जाता है। अच्छी संगति व्यक्ति का मन व चित्त निर्मल करती है। उसकी प्रसन्नता बनी रहती है। दिन-प्रतिदिन उसके व्यक्तित्व में निखार आता है। संगति कैसी है, इस बात से व्यक्ति के व्यक्तित्व का पता चलता है। जीवन का हर कदम मायने रखता है। इसलिए उसे फूंक-फूंककर आगे बढ़ना चाहिए। अक्सर ऐसा देखने में आता है कि कुछ बच्चे स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई में बहुत अच्छे होते हैं, लेकिन बुरी संगति में फंसकर नशा या मद्यपान करने लगते हैं। उनका जीवन बर्बाद हो जाता है। वे झूठी चकाचौंध में फंसकर स्वयं की वास्तविक शक्ति को नहीं पहचानते हैं। कई बार सत्संगति न मिलने के कारण उपयुक्त वातावरण न होने के चलते बच्चा अपनी प्रतिभा का विकास नहीं कर पाता, जबकि सत्संगति से उसमें अटूट विश्वास जगता है और वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

हम गुस्से में चिल्लाते क्यों हैं? | Ham gusse me chillate kyon hain | शायद यह पढ़ने के बाद हम में से कुछ लोग भी चिल्लाना अवश्य कम कर देंगे | Santmat-Satsang

हम गुस्से में चिल्लाते क्यों हैं ?

एक बार एक संत अपने शिष्यों के साथ बैठे थे।
अचानक उन्होंने सभी शिष्यों से एक सवाल पूछा।
बताओ जब दो लोग एक दूसरे पर गुस्सा करते हैं तो जोर-जोर से चिल्लाते क्यों हैं ?

शिष्यों ने कुछ देर सोचा और एक ने उत्तर दिया : हम अपनी शांति खो चुके होते हैं इसलिए चिल्लाने लगते हैं।

संत ने मुस्कुराते हुए कहा : दोनों लोग एक दूसरे के काफी करीब होते हैं तो फिर धीरे-धीरे भी तो बात कर सकते हैं।

आखिर वह चिल्लाते क्यों हैं ?

कुछ और शिष्यों ने भी जवाब दिया लेकिन संत संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने खुद उत्तर देना शुरू किया।

वह बोले : जब दो लोग एक दूसरे से नाराज होते हैं तो उनके दिलों में दूरियां बहुत बढ़ जाती हैं।

जब दूरियां बढ़ जाएं तो आवाज को पहुंचाने के लिए उसका तेज होना जरूरी है।

दूरियां जितनी ज्यादा होंगी उतनी तेज चिल्लाना पड़ेगा।

दिलों की यह दूरियां ही दो गुस्साए लोगों को चिल्लाने पर मजबूर कर देती हैं।
वह आगे बोले, जब दो लोगों में प्रेम होता है तो वह एक दूसरे से बड़े आराम से और धीरे-धीरे बात करते हैं।

प्रेम दिलों को करीब लाता है और करीब तक आवाज पहुंचाने के लिए चिल्लाने की जरूरत नहीं।

जब दो लोगों में प्रेम और भी प्रगाढ़ हो जाता है तो वह खुसफुसा कर भी एक दूसरे तक अपनी बात पहुंचा लेते हैं।

इसके बाद प्रेम की एक अवस्था यह भी आती है कि खुसफुसाने की जरूरत भी नहीं पड़ती।

एक दूसरे की आंख में देख कर ही समझ आ जाता है कि क्या कहा जा रहा है।

शिष्यों की तरफ देखते हुए संत बोले : अब जब भी कभी बहस करें तो दिलों की दूरियों को न बढ़ने दें।
शांत चित्त और धीमी आवाज में ही बात करें।

ध्यान रखें कि कहीं दूरियां इतनी न बढ़जाएं कि वापस आना ही मुमकिन न हो।

शायद यह पढ़ने के बाद हम में से कुछ लोग भी चिल्लाना अवश्य कम कर देंगे।
जय गुरु महाराज।
प्रस्तुति : शिवेन्द्र कुमार मेहता

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...