यह ब्लॉग खोजें

शनिवार, 25 अगस्त 2018

हतोत्साहित नहीं प्रोत्साहित करें | Hatotsahit nahi protsahit karen | Motivational thoughts |

हतोत्साहित नहीं प्रोत्साहित करें;
एक दिन एक किसान का गधा कुएं में गिर गया। वह गधा घंटों जोर-जोर से रेंकता (गधे के बोलने की आवाज) रहा... और किसान सुनता रहा और विचार करता रहा कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं। 

आखिर उसने निर्णय लिया कि गधा काफी बूढ़ा हो चूका है, उसे बचाने से कोई लाभ होने वाला नहीं है इसलिए उसे कुएं में ही दफना देना चाहिए। 

किसान ने अपने सभी पड़ोसियों को मदद के लिए बुलाया। सभी ने एक-एक फावड़ा पकड़ा और कुएं में मिट्टी डालनी शुरू कर दी। जैसे ही गधे कि समझ में आया कि यह क्या हो रहा है, वह और जोर से चीख कर रोने लगा। और फिर, अचानक वह आश्चर्यजनक रुप से शांत हो गया। 

सब लोग चुपचाप कुएं में मिट्टी डालते रहे। तभी किसान ने कुएं में झांका तो वह हैरान रह गया। अपनी पीठ पर पड़ने वाले हर फावड़े की मिट्टी के साथ वह गधा एक आश्चर्यजनक हरकत कर रहा था। वह हिल-हिल कर उस मिट्टी को नीचे गिरा देता था और फिर एक कदम बढ़ाकर उस पर चढ़ जाता था। 

जैसे-जैसे किसान तथा उसके पड़ोसी उस पर फावड़ों से मिट्टी गिराते वैसे वह हिल कर उस मिट्टी को गिरा देता और एक सीढी ऊपर चढ़ आता। जल्दी ही सबको आश्चर्यचकित करते हुए वह गधा कुएं के किनारे पर पहुंच गया और फिर कूदकर बाहर भाग गया। 

संक्षेप में :
आपके जीवन में भी बहुत तरह कि मिट्टी फेंकी जाएगी, बहुत तरह कि गंदगी आप पर गिरेगी। जैसे कि, आपको आगे बढ़ने से रोकने के लिए कोई बेकार में ही आपकी आलोचना करेगा, कोई आपकी सफलता से ईर्ष्या के कारण आपको बेकार में ही भला बुरा कहेगा। 

कोई आगे निकलने के लिए ऐसे रास्ते अपनाता हुआ दिखेगा जो आपके आदर्शों के विरुद्ध होंगे। 

ऐसे में आपको हतोत्साहित होकर कुएं में ही नहीं पड़े रहना है बल्कि साहस के साथ हिल-हिल कर हर तरह कि गंदगी को गिरा देना है और उससे सीख लेकर, उसे सीढ़ी बनाकर, बिना अपने आदर्शों का त्याग किए अपने कदमों को आगे बढ़ाते जाना है। 
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कु० मेहता, गुरुग्राम


शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

संत की पहचान दुर्लभ है | Sant ki pahchan durlabh hai | जब हम सच्चाई को खुद जान लेंगे तब उस परम शक्ति की सत्ता पर स्वत: प्रतीति हो जाएगी।

संत की पहचान दुर्लभ है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदास जी को लिखना पड़ा; -

जाने बिनु न होई परतीती।
बिनु परतीति होई नहिं प्रीती॥
प्रीति बिना नहीं भगति दृढ़ाई।
जिमि खगेश जल की चिकनाई॥
==========================
सर्वव्यापक परमात्मा को जानकर ही उन पर प्रतीति यानी विश्वास किया जा सकता है। इसके लिए स्वयं अपने भीतर निरीक्षण करके देखना है कि क्या सचमुच मुझमें शांति है। विश्व के सभी संतों, सत्पुरुषों और मुनियों ने यही सलाह दी है कि ‘अपने आपको जानो’। स्पष्ट है कि उनकी सलाह बिना जाने ही मान लेने की नहीं है। उन्होंने साफ तौर पर यह सलाह दी है कि पहले जानो तब मानो। यहां यह बात भी छिपे रूप से कही गयी है कि जब मनुष्य अपने आपको जान लेगा तब उसे उस परम शक्ति का भी ज्ञान हो जाएगा जिसका वह खुद अंश है। लेकिन इस बात को भी हमारे मनीषियों ने केवल बुद्धि के स्तर पर स्वीकार करने के लिए नहीं कहा है, भावावेश में आकर या श्रद्धा के मारे स्वीकार करने की सलाह नहीं दी है, बल्कि अपनी अनुभूति के स्तर पर अपने बारे में सचाई को जानने का ईशारा किया है। क्योंकि जब हम सच्चाई को खुद जान लेंगे तब उस परम शक्ति की सत्ता पर स्वत: प्रतीति हो जाएगी।
।।जय गुरु महाराज।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram

पूर्ण संत | सतगुरु | Purna Sant | Sadguru | SantMehi | Sanatan-Mehi | Santmat-Satsang | पूरा सतगुरु सोए कहावै, दोय अखर का भेद बतावै। एक छुड़ावै एक लखावै, तो प्राणी निज घर जावै।।

पूर्ण संत : सतगुरु!

परमेश्वर स्वयं आकर या अपने परमज्ञानी संत को भेज कर सच्चे ज्ञान के द्वारा धर्म की पुनः स्थापना करता है। वह भक्ति मार्ग को शास्त्रों के अनुसार समझाता है। वह संत सभी धर्म ग्रंथों का पूर्ण जानकार होता है।

“सतगुरु के लक्षण कहूं, मधूरे बैन विनोद।
चार वेद षट शास्त्रा, कहै अठारा बोध।।“

सतगुरु गरीबदास जी महाराज अपनी वाणी में पूर्ण संत की पहचान बता रहे हैं कि वह चारों वेदों, छः शास्त्रों, अठारह पुराणों आदि सभी ग्रंथों का पूर्ण जानकार होगा अर्थात् उनका सार निकाल कर बताएगा।

पूरा सतगुरु सोए कहावै, दोय अखर का भेद बतावै।
एक छुड़ावै एक लखावै, तो प्राणी निज घर जावै।।

जै पंडित तु पढ़िया, बिना दउ अखर दउ नामा।
परणवत नानक एक लंघाए, जे कर सच समावा।

वेद कतेब सिमरित सब सांसत, इन पढ़ि मुक्ति न होई।।
एक अक्षर जो गुरुमुख जापै, तिस की निरमल होई।।

गुरु नानक जी महाराज अपनी वाणी द्वारा समझाना चाहते हैं कि पूरा सतगुरु वही है जो दो अक्षर के जाप के बारे में जानता है। जिनमें एक काल व माया के बंधन से छुड़वाता है और दूसरा परमात्मा को दिखाता है और तीसरा जो एक अक्षर है वो परमात्मा से मिलाता है।

जो मम संत सत उपदेश दृढ़ावै, वाके संग सभि राड़ बढ़ावै।
या सब संत महंतन की करणी, धर्मदास मैं तो से वर्णी।।

कबीर साहेब अपने प्रिय शिष्य धर्मदास को इस वाणी में ये समझा रहे हैं कि जो मेरा संत सत भक्ति मार्ग को बताएगा उसके साथ सभी नकली संत व महंत झगड़ा करेंगे। ये उसकी पहचान होगी।

कबीर, सतगुरु  शरण  में  आने से, आई टले बलाय।
जै मस्तिक में सूली हो वह कांटे में टल जाय।।

भावार्थ:- सतगुरु अर्थात् तत्वदर्शी सन्त से उपदेश लेकर मर्यादा में रहकर भक्ति करने से प्रारब्ध कर्म के पाप अनुसार यदि भाग्य में सजाए मौत हो तो वह पाप कर्म हल्का होकर सामने आएगा। उस साधक को कांटा लगकर मौत की सजा टल जाएगी।

संतों सतगुरु मोहे भावै, जो नैनन अलख लखावै।
ढोलत ढिगै ना बोलत बिसरै, सत उपदेश दृढ़ावै।।

आंख ना मूंदै कान ना रूदैं ना अनहद उरझावै।
प्राण पूंज क्रियाओं से न्यारा, सहज समाधी बतावै।।

संत तो जैसे नदी और वृक्ष का जन्म परोपकार के लिए है, वैसे ही संतों का जन्म केवल परोपकार के लिए है। स्वार्थ का तो संतों में लेशमात्र भी नहीं हो सकता। संत बच्चों जैसे निष्पाप होते हैं। हमेशा मन में सागर सी शांति होती है, सभी के लिए असीम दया होती है। सदैव क्षमाशील बर्ताव होता है तथा सात्विक गुणों से परिपूर्ण होते हैं। समर्पण ही संतों का नाम है और कार्य है। करुणा के सिवा जीवन का दूसरा कोई अर्थ होता है, यह संत नहीं जानते। संत भी देहधारी होते हैं क्योंकि हर देह का प्रारब्ध है किंतु वे देह में रहते हैं क्या और अगर देह में रहते हैं तो कहां?  संतों के बारे में कल्पना करना भी सामान्य जनों के लिए संभव नहीं है। उन्हें जानने में संत ही समर्थ होते हैं और कोई नहीं। आम जन संत के साथ भी रहकर संत को पहचानने में असमर्थ होते हैं। 
।।जय गुरु महाराज।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram

बुधवार, 22 अगस्त 2018

एक -दूजे के पूरक विज्ञान और अध्यात्म | Ek duje ke purak adhyatm aur vigyan | जब इन दोनों को मिलाकर समाज के उत्थान हेतु उपयोग में लाया जाए, तभी इनकी असल... | Santmat-Satsang

एक-दूजे के पूरक विज्ञान और अध्यात्म!
ऐसा माना जाता है कि विज्ञान और अध्यात्म एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी और विरोधाभासी हैं। अक्सर यह आम धारणा लोगों के दिमाग में घर कर जाती है और वे इससे अलग सोचना नहीं चाहते। लेकिन यही सोच दरअसल वैचारिक विकास के रुकने का भी संकेत है। जब हम अध्यात्म को संकीर्णताओं के घेरे में कैद कर देते हैं तब भी और जब हम विज्ञान का उपयोग विध्वंस के लिए करने लगते हैं तब भी, दोनों ही तरीकों से हम विनाश की ओर कदम बढ़ाते हैं तथा विकास से कोसों दूर होते चले जाते हैं। 

अध्यात्म तथा विज्ञान दोनों की उत्पत्ति सृजन के मूल मंत्र के साथ हुई है। सृष्टि ने यह विषय बाहरी जगत तथा अंतरात्मा को जोड़ने के उद्देश्य से उपहारस्वरूप मनुष्य को दिए हैं। विज्ञान और अध्यात्म परस्पर शत्रु नहीं मित्र हैं, एक-दूजे के संपूरक हैं । 

विज्ञान हमें अध्यात्म से जोड़ता है और अध्यात्म हमें वैज्ञानिक तरीके से सोचने का सामर्थ्य देता है। विज्ञान का आधार है तर्क तथा नई खोज और किसी धर्मग्रंथ में भी इन्हीं बातों को कहा गया है। इसलिए अध्यात्म एवं विज्ञान में एक जैसी समानताएँ और एक जैसे विरोधाभास हैं। 

यदि विज्ञान बाहरी सच की खोज है तो अध्यात्म अंतरात्मा के सच को जानने का जरिया है। दोनों ही माध्यमों द्वारा हम इस सच को जानने के लिए ज्ञान के मार्ग पर बढ़ते हैं और उद्देश्य उक्त सच को जानकर, उस पर मनन कर प्राणीमात्र की भलाई में उसका उपयोग करना होता है। दोनों ही जगह ज्ञान का क्षेत्र अनंत है। विज्ञान के जरिए आप प्रकृति को प्रेम करना सीखते हैं। तकनीक या विज्ञान कभी भी प्राणियों को जाति या धर्म के नाम पर बाँटता नहीं, और यही अध्यात्म का असल अर्थ भी है। 

जब इन दोनों को मिलाकर समाज के उत्थान हेतु उपयोग में लाया जाए, तभी इनकी असल परिभाषा सार्थक होती है। जिस प्रकार शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए वैज्ञानिक उपायों तथा खोजों की आवश्यकता होती है, ठीक उसी प्रकार मन को स्वस्थ बनाए रखने के लिए अध्यात्मरूपी मनन जरूरी होता है। इन दो मित्रों की मैत्री को अटूट बनाकर सारे समाज में शांति और स्नेह का वातावरण निर्मित किया जा सकता है।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति एस.के. मेहता, गुरुग्राम


रविवार, 19 अगस्त 2018

राग और द्वेष क्या है? इनका नाश कैसे हो सकता है। जब हमारा लगाव किसी से या कहीं होने लगता है, तो उसे राग या आसक्ति कहते हैं। ये लगाव यूं ही नहीं होता। Santmat-Satsang

राग और द्वेष क्या हैं?
इनका नाश कैसे हो सकता है?

जब हमारा लगाव किसी से या कहीं होने लगता है, तो उसे राग या आसक्ति कहते हैं। ये लगाव यूं ही नहीं होता। इसके पीछे वहां से मिल रहे सुख होते हैं या सुख मिलने की उम्मीद होती है, चाहे वह घर हो, घरवाले हों, रिश्तेदार हों या फिर सुख-सुविधा के साधन। इसका पता तब लगता है, जब सुख मिलना बंद हो जाए या अहम को ठेस पहुंचे। ऐसे में व्यक्ति दुखी हो जाता है और फिर यहीं से द्वेष जन्म लेता है। जहां राग था, अब द्वेष हो गया। बिना राग के द्वेष नहीं होता।

ये राग-द्वेष जिंदगी भर चलता रहता है। इसकी जड़ें मन में इतनी मजबूत हो जाती हैं कि इनके संस्कार जन्म-मरण की वजह बनने लगते हैं और आने वाला जन्म इन्हीं पर निर्भर करने लगता है। फिर जन्म वहीं होता है, जहां पहले राग या द्वेष था। हो सकता है, जो आज दुश्मन है, अगले जन्म में वही बेटा बन जाए, इस जन्म में जो मां है, वह बेटी बन जाए, जो आज आपका नौकर है, अगले जन्म में मालिक बन जाए। जिस घर से आज ज्यादा राग है, हो सकता है, कल कुत्ता बनकर उसी घर के आगे बैठे रहें।

कुछ साधक केवल द्वेष दूर करने में लग जाते हैं। जिनसे द्वेष होता है, उन्हें मनाने लगते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि जहां से राग था, वहीं से द्वेष आता है और जहां से द्वेष है, द्वेष के दूर होने पर वहीं से राग भी पैदा होने लगता है। इसलिए हमें द्वेष के साथ-साथ राग को भी दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। जब राग ही नहीं रहेगा, तो द्वेष कैसे पैदा होगा? राग दूर करने के लिए अपने सीमित प्रेम को बढ़ाते जाइए, इतना बढ़ाईए कि संसार में सबके लिए एक जैसी प्रेम भावना आ जाए। न किसी के लिए कम, न किसी के लिए ज्यादा।

प्रेम में राग-द्वेष नहीं है-इसमें दूसरे को अपना मानते हुए उसके हित की कामना अंतर्निहित होती है!
भाव प्रकट करने से प्रेम स्थायी बनता है। परमात्मा तक प्रेम भाव से ही पहुंच सकते हैं। संसार के सभी मनुष्यों में प्रेम की भावना होनी चाहिए। मनुष्य जीवन राग, द्वेष से बंधा हुआ है इसे अपने से निकाल देना चाहिए। सत्कर्म के साथ सच्चाई के मार्ग पर चलना चाहिए।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: एस.के. मेहता, गुरुग्राम

शनिवार, 18 अगस्त 2018

राखी महज कच्चा धागा नहीं | Rakhi mahaj kachcha dhaga nahi | Rakshabandhan | जब हम बदलेंगे, फिर दुनिया बदलेगी | SANTMAT | SADGURU |

राखी महज कच्चा धागा नहीं !

राखी मात्र धागा नहीं, बल्कि भावनाओं का पुलिंदा है | इसका रेशा - रेशा उच्च व् पवित्र भावनाओं में गुंथा है | यह इन भावनाओं में समाई महान शक्ति ही है, जो राखी इतना क्रन्तिकारी इतिहास रच सकी है |

राखी को 'रक्षा - बंधन' भी कहा जाता है अर्थात एक ऐसा बंधन जिसमें दोनों ओर की रक्षा की कामना निहित है! बंधने वाले की रक्षा की कामना तो है ही, बंधवाने वाले के लिए भी यह सूत्र एक अमोघ रक्षा कवच है | यही कारण है कि वैदिक काल में जब लोग ऋषियों के पास आशीष लेने जाया करते थे, तो ऋषिगण उनकी कलाईयों पर रक्षा - बंध बांधते थे | वैदिक मन्त्रों से अभिमंत्रित मोली या सूत का धागा बंधकर उनकी रक्षा की मंगलकामना करते थे |

और सच कहूं तो, सिर्फ बंधने और बंधवाने वाले की रक्षा ही क्यों! बल्कि मेरी, समूचे भारत की संस्कृति की रक्षा इसमें छिपी हुए है | आज भारत की संताने एक ऐसे चौराहे पर जा खड़ी है, जहाँ से भटकने की संभावनाएं भरपूर है | यह पर्व उन चौराहों पर खड़ा होकर, पहरेदार की तरह, उन्हें भटकने से रोकता है | उनकी इच्छाओं और वृत्यों अंकुश लगाता है | आज यहाँ नारी को केवल रूप सौन्दर्ये के आधार पर ही तोला जाता है, उसे कुदृष्टि से ही देखा जाता है, जहाँ बलात्कार और छेड़ - छाड़ के किस्से आए दिन अख़बारों की सुर्ख़ियों में छाए रहते हैं - वहां रक्षा बंधन का यह पर्व एक बुलंद और क्रन्तिकारी सन्देश समाज को देता है | वह यह की एक नारी केवल नवयौवना या युवती ही नहीं, कहीं न कहीं एक बहन भी है! एक समय था जब एक घर की बहन, बेटी को पूरे गाँव की बहन और बेटी समझा जाता था | पर आज के समाज में तो एक बहन, बेटी अपने खुद के घर में सुरक्षित नहीं है | इस तरह यह त्यौहार पवित्रता की परत हमारी दृष्टि पर चढ़ाता है | नारी को बहन रूप में देखना सिखाता है! इस लिए अगर यह पर्व अपनी वास्तविक गरिमा में हो जाए, तो समाज की बहुत सी भीषण समस्याओं का उन्मूलन सहज ही हो जाएगा !रक्षा बंधन का यह पर्व मनाना तब ही सही अर्थों में सार्थक हो सकता है, जब हम अपनी सोच के साथ - साथ, अपने कर्म में भी बदलाव लायें, वो केवल ब्रह्मज्ञान की ध्यान साधना से ही संभव हो पाएगा | जब हम बदलेंगे, फिर दुनिया बदलेगी | अंत में मेरी और से सभी को रक्षा - बंधन के इस पर्व की ढेर सारी हार्दिक शुभकामनायें |

जय गुरु महाराज

बुधवार, 15 अगस्त 2018

धर्म और अध्यात्म भारत के मूल प्राण हैं | Dharma aur Adhyatm Bharat ke mool pran hain | जिस प्रकार प्राण के बगैर शरीर निर्जीव हो जाता है, ठीक उसी प्रकार.... | Santmat-Satsang

धर्म और अध्यात्म भारत के मूल प्राण हैं!

धर्म और अध्यात्म भारत के मूल प्राण हैं। जिस प्रकार प्राण के बगैर शरीर निर्जीव हो जाता है, ठीक उसी प्रकार धर्म, अध्यात्म, आस्था भक्ति योग व तत्वज्ञान के बगैर यह देश अस्तित्वहीन हो जाएगा। भारत पूरे विश्व में गुरु के रूप में प्रतिष्ठित है। विश्व को ज्ञान, वैराग्य की शिक्षा देना, सत्य के मार्ग का अनुगामी बनाना भारत का ही कार्य रहा है। वर्तमान जीवन-शैली में पदार्थ विज्ञान ने तमाम भौतिक संसाधनों को प्रस्तुत कर दिया है। आज की आधुनिक सभ्यता संसाधनों के अधीन हो गई है। समाज में उपयोगितवाद बढ़ता चला जा रहा है। यह सत्य है कि सांसारिक जीवनयापन के लिए भौतिक वस्तुओं की आवश्यकता होती है, इसे किसी भी प्रकार से नकारा नहीं जा सकता। आवश्यकता के अनुसार उपयोगी वस्तुओं की आपूर्ति तो करनी ही चाहिए, परंतु मानव जीवन को अत्याधिक इंद्रिय-पोषण बना दिया जाना भी कदापि उचित नहीं है। तमाम भौतिक संसाधनों के ढेर के नीचे दबकर प्राप्त उपलब्धियों के भंवर में फंसकर आज का मानव विक्षिप्त होता जा रहा है। उसकी सभ्यता, सत्यता व सरलता समाप्ति की ओर है। प्रेम रस सूख गया है और मोह रस व्याप्त होता जा रहा है। इसका मुख्य कारण सत्यता के विपरीत दिशा की ओर बढ़ना है। मौजूदा दौर में विश्व भर में मानव के पग सत्य के विपरीत दिशा में काफी आगे बढ़ गए हैं। जिसके घातक परिणाम सामने आ रहे हैं। ऐसे में बिना विलंब किए हुए और इस दिशा में कहीं और अधिक देर न हो जाए सत्य के मार्ग पर पुन: लौट पड़ना चाहिए। अब थोथे तर्कों का सहारा छोड़ना होगा। यह कहना कि हम जो कर रहे हैं वही ठीक है इस आग्रह को तो छोड़ना ही होगा। संसार को दिखाने के लिए धर्म और भक्ति का बाह्य आडंबर छोड़कर मर्म को समझते हुए किसी दिखावे के बगैर परमात्मा की प्राप्ति के लिए अग्रसर हो जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं है। उस अविनाशी पूर्णब्रह्म का साक्षात्कार करने के लिए मनुष्य को भक्ति व अध्यात्म का सहारा लेना ही होगा। इस मार्ग के लिए तर्क की भूमिका तो बहुत न्यून है। प्राथमिक स्तर पर तो तर्क की थोड़ी बहुत भूमिका है, परंतु आगे के मार्ग के लिए तर्क को उसी तरह छोड़ना होगा जैसे अंतरिक्ष में जाने वाला उपग्रह अपने अवयवों को मार्ग में छोड़ता चला जाता है।


सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...