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मंगलवार, 11 सितंबर 2018

ऐतिहासिक उद्बोधन | विश्व धर्म सम्मेलन भाषण! -स्वामी विवेकानंद। विश्व धर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व | Swami Vivekanand

ऐतिहासिक उद्बोधन 

विश्व धर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व 
स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 को शिकागो (अमेरिका) में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में एक बेहद चर्चित भाषण दिया था। विवेकानंद का जब भी जि़क्र आता है उनके इस भाषण की चर्चा जरूर होती है।
पढ़ें विवेकानंद का यह भाषण...

अमेरिका के बहनों और भाइयों!

आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।

मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इस्त्राइलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था। और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है। भाइयो, मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है, जिस तरह अलग-अलग स्त्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद में जाकर मिलती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है। वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, पर सभी भगवान तक ही जाते हैं। वर्तमान सम्मेलन जो कि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है, जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं।

सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशज हठधर्मिता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार ही यह धरती खून से लाल हुई है। कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं।

अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा। -स्वामी विवेकानन्द

सोमवार, 3 सितंबर 2018

खुद को सिर्फ पैसा कमाने में लगा देना सही नहीं है।

खुद को सिर्फ पैसा कमाने में लगा देना सही नहीं है!
एक बढ़ई रोज कुछ बनाता और बेचकर खुश रहता था। वह संतुष्ट था और काम के समय खुशी से गुनगुनाता रहता था। एक दिन एक अमीर पड़ोसी उसके ठोकने-पीटने की आवाज से परेशान हो उठा। वह शोर बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। पड़ोसी ने बढ़ई को शांत करने की एक योजना बनाई। उसने कई सौ रुपये निकाले और उन्हें एक लिफाफे में डालकर बढ़ई की दुकान में रख दिया। उसने सोचा कि अब बढ़ई को काम नहीं करना पड़ेगा।
बढ़ई दुकान में आया तो उसे वहां लिफाफा पड़ा मिला। उसने सोचा- इन पैसों से कुछ लेकर मैं नए औजार खरीदूंगा ताकि और बेहतर फर्नीचर बना सकूं और ज्यादा पैसा कमा सकूं। पैसों ने बढ़ई की धन कमाने की इच्छा को भड़का दिया। उसने और मेहनत शुरू कर दी, ताकि वह हाल में मिले कई सौ रुपयों को हजारों में बदल सके। उसने खूब पैसे कमाने शुरू कर दिए, लेकिन वह वहीं संतुष्ट नहीं हुआ। उसने सोचा कि वह हजारों को दस हजारों में बदल डाले। बढ़ई शांत होने के बजाय और शोर करने लगा था। अब वह और अधिक काम करता था।

बढ़ई ने दस हजार कमा लिए तो अब वह लाख कमाना चाहता था। वह दिन-रात काम करने लगा। जल्द ही उसने गुनगुनाना छोड़ दिया। उसे अब अपने काम में आनंद नहीं आता था। रात में कई बार वह इतने तनाव में होता कि सो भी नहीं पाता था। उसका आंतरिक संतोष और शांति धन कमाने के चक्कर में गायब हो चुकी थी। अब हम खुद पर पर नजर डालें। क्या हम ज्यादा कमाने के लिए देर तक काम करते हैं? क्या अधिक लाभ के लिए अवकाश में भी काम करते रहते हैं? क्या हम हम अपने काम-काज से एक दिन या कुछ घंटे का भी अवकाश, बिना अपने काम-काज के बारे में सोचे हुए नहीं ले पाते? अगर ऐसा है तो क्या हम बढ़ई जैसे ही नहीं बन रहे।

हम पैसा कमाने में बहुत समय लगा रहे हैं और अपने परिवार, अपने शौक, अपनी आध्यात्मिक गतिविधियों और अपनी पसंद की चीजों में समय नहीं दे पा रहे, तो हमें सोचने की जरूरत है- क्या हम सही चुनाव कर रहे हैं। भविष्य के लिए बचाकर रखना अच्छा है पर खुद को सिर्फ कमाने में लगा देना कितना सही है? कौन जानता है भविष्य में क्या होगा? हम अपने आध्यात्मिक कार्यों को बुढ़ापे में करने के लिए छोड़ दें तो कौन जाने कितना समय मिलेगा। ध्यान दें कि हम अपना समय कैसे गुजारते हैं। लगे कि दूसरे लक्ष्य महत्त्वपूर्ण हैं, तो जीवन भर उनके लिए समय निकालने का प्रयास करते रहना चाहिए। तय कर लें कि पैसे और जायदाद की सनक से पैदा हुए तनाव से हम अपनी शांति और संतोष खत्म नहीं होने देंगे।
।।जय गुरु।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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रविवार, 2 सितंबर 2018

सत्संग-सुमन | Satsang-Suman | हम धनवान होंगे या नहीं, यशस्वी होंगे या नहीं, चुनाव जीतेंगे या नहीं इसमें शंका हो सकती है परन्तु | Santmat-Satsang

सत्संग सुमन;
हम धनवान होंगे या नहीं, यशस्वी होंगे या नहीं, चुनाव जीतेंगे या नहीं इसमें शंका हो सकती है परन्तु! हम मरेंगे या नहीं, इसमें कोई शंका है? विमान उड़ने का समय निश्चित होता है, बस चलने का समय निश्चित होता है, गाड़ी छूटने का समय निश्चित होता है परन्तु इस जीवन की गाड़ी के छूटने का कोई निश्चित समय है?
आज तक आपने जगत का जो कुछ जाना है, जो कुछ प्राप्त किया है... आज के बाद जो जानोगे और प्राप्त करोगे, यह सब मृत्यु के एक ही झटके में छूट जायेगा, जाना अनजाना हो जायेगा, प्राप्ति अप्राप्ति में बदल जायेगी।
अतः सावधान हो जाओ। अन्तर्मुख होकर अपने अविचल आत्मा को, निज स्वरूप के अगाध आनन्द को, शाश्वत शान्ति को प्राप्त कर लो। फिर तो आप ही अविनाशी आत्मा हो।

जागो.... उठो..... अपने भीतर सोये हुए निश्चयबल को जगाओ। सर्वदेश, सर्वकाल में सर्वोत्तम आत्मबल को अर्जित करो। आत्मा में अथाह सामर्थ्य है। अपने को दीन-हीन मान बैठे तो विश्व में ऐसी कोई सत्ता नहीं जो तुम्हें ऊपर उठा सके। अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो गये तो त्रिलोकी में ऐसी कोई हस्ती नहीं जो आपको दबा सके।
सदा स्मरण रहे कि इधर उधर भटकती वृत्तियों के साथ हमारी शक्ति भी बिखरती रहती है। अतः वृत्तियों को बहकाएं नहीं। तमाम वृत्तियों को एकत्रित करके साधना-काल में आत्मचिन्तन में लगाएं और व्यवहार काल में जो कार्य करते हैं उसमें लगाएं। दत्तचित्त होकर हर कोई कार्य करें। सदा शान्त वृत्ति धारण करने का अभ्यास करें। विचारवन्त एवं प्रसन्न रहें। जीवमात्र को अपना स्वरूप समझें। सबसे स्नेह रखें। दिल को व्यापक रखें। आत्मनिष्ठा में जगे हुए महापुरुषों के सत्संग एवं सत्साहित्य से जीवन को भक्ति एवं वेदान्त से पुष्ट एवं पुलकित करें।
।।जय गुरु महाराज।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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बुधवार, 29 अगस्त 2018

लोगों मे यह विश्वास हैं कि बहुत विद्या पढ़ने से लोग भले बनते हैं। -महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज | Maharshi Mehi Paramhansji Maharaj | Santmat-Satsang

लोगों मे यह विश्वास हैं कि बहुत विद्या पढ़ने से लोग भले बनते हैं। परन्तुु बहुत विद्या पढ़ने पर भी उनकी विद्या अविद्या बन जाती है। काम क्रोधादि विकार जबतक उनके मन मे हैं, तबतक विद्या अविद्या बनी रहती है। जिस विद्या से दुर्गुणों से बचा जाय, वही विद्या असली विद्या है। विद्या धर्म की रक्षा के वास्ते है। दुनियाँ में केवल कमाकर खाने के लिए विद्या नहीं है। अपने देश मे साधु संत, महात्मा बहुत हुए हैं। आचरण पवित्र होने के कारण ही वे लोग महान हुए हैं। पढ़े लोग भी अच्छे होते है। परंतु आचरण की पवित्रता केवल विद्या पढ़ने से ही नहीं होती है। इस युग की नमूना किसी से छिपी नहीं है। असली विद्या यह है कि साधु संतो के पास जाकर उनके सत्संग से अध्यात्म विद्या को ग्रहण करना। केवल वर्तमान शरीर के लिए प्रबंध करो, सो नहीं। इसके आगे के जीवन का कोई प्रबंध नहीं किया तो कहाँ चले जाओगे, तुमको मालूम नहीं है। दुःख में जाना कोई पसंद नहीं करते। यदि पहले इसका ख्याल नहीं किया कि शरीर छुटने के बाद भी जीवन रहता है, जिसे सुखी बनाना है।

एक शरीर छुटने के बाद का बहुत लंबा जीवन है जीवात्मा का। यह ज्ञान साधु सन्तों के सत्संग में सिखलाया जाता है बतलाया जाता है।  यदि आगे के जीवन का प्रबंध नहीं करते हो, तो अपनी बहुत हानि करते हो।

आगे का जो लंबा जीवन है, उसके शुभ के लिए प्रबंध यह है कि ईश्वर का भजन करो। ईश्वर के भजन से तुमको शरीर छुटने के बाद भी सुख होगा। विद्या बहुत पढ़ोगे, लेकिन ईश्वर का भजन  नहीं करोगे तो, उतना लाभ नहीं होगा। -महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज

आप कौन-सी श्रेणी के भक्त हैं? | आज संसार में देखें, तो हर कोई किसी - न - किसी तरीके से भक्ति करता नजर आता है | Santmat-Satsang

आप कौन-सी श्रेणी के भक्त हैं ?

आज संसार में देखें, तो हर कोई किसी - न - किसी तरीके से भक्ति करता नजर आता है | कोई सकाम, कोई निष्काम | अधिकतर लोग सकाम भक्ति में संलग्न है | सकाम अर्थात वह भक्ति जो अपने मन के अनुसार किसी इच्छा पूर्ति के लिए की जाती है | वहीं निष्काम भक्ति वह है, जहाँ एक भक्त सभी सांसारिक कामनाओं से रहित होकर केवल ईश्वर प्राप्ति की इच्छा रखता है | श्रीमदभगवद गीता (7/16) में भगवान श्री कृषण कहते हैं -
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥७-१६॥
अर्थात हे भारत श्रेष्ट अर्जुन! आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी, ऐसे चार प्रकार के लोग मुझे भजते हैं |
आर्त भक्त कैसे होते हैं ? आइए पहले इनके विषय में जाने | आर्त का सामान्य अर्थ होता है - दुःख से पीड़ित व्यक्ति | अत: आर्त भक्त वे हैं, जो अपनी किसी दुख के  निवारण के लिए भक्ति करते हैं | ये प्रभु को पुकारते तो हैं | इनके भीतर भगवान की याद भी उमड़ती है | लेकिन कब ? तभी जब इन्हें कोई शारीरक या मानसिक कष्ट आ घेरता है |
अब दूसरे प्रकार के भक्त होते हैं - अर्थार्थी  | ये वे भक्त हैं जो सांसारिक पदार्थों की कामना के लिए भक्ति करते हैं | धन - वैभव, संतान आदि नियामतें पाने के लिए इबादत करते हैं | आज मंदिर, तीर्थ आदि धार्मिक स्थल क्षद्धालुओं से खचाखच  भरे दिखाई देते हैं | भक्तजन  बढ - चढ़कर पूजा अर्चना करते हैं | लेकिन किस भाव से ? यही कि बदले में अमुक सांसारिक वास्तु मिल जाए  | फलां बिगड़ा काम बन जाए  | कोई मन्नत  या मांग पूर्ण हो जाए | पर महापुरष कहते हैं कि यह मांगना  ही भक्ति मार्ग में सबसे बड़ी बाधक है | जब किसी हेतु से भक्ति की जाती है, तो वह भक्ति नहीं व्यापार बन जाती है |
इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में,
वह इबादत नहीं, एक तरह की तिजारत है ||
तिजारत कहते हैं सोदेबाजी को | आज मनुष्य भक्ति के क्षेत्र में भी ऐसा ही व्यापारी बन गया है | अपनी कुछ क्षण की पूजा आराधना  के बदले में उस करतार से सांसारिक पदार्थ चाहता है | ये सभी पदार्थ क्षणभुंगर और नश्वर हैं | दूसरा ये आनंद तो क्या, सच्चा सुख नहीं दे सकते | यूं तो अमरीका सर्वाधिक धनी देश है | फिर भी वहां के नागरिक घोर अशांति से पीड़ित हैं |सूचना के मुताबिक वहां हर दसवां इन्सान तनावग्रस्त है |
तीसरे प्रकार के भक्त जिज्ञासु प्रविर्ती के होते हैं | इनमें ईश्वर को जानने की तीव्र ललक होती है | इस कारण ये शास्त्र ग्रंथों का गहन अध्ययन  व् रटन करते हैं | पोथी पंडित बन जाते हैं | फलस्वरूप इनका बोधिक विकास तो हो जाता है | ये शास्त्रर्थ करने में निपुण हो जाते हैं | परन्तु आत्मिक लाभ नहीं उठा पाते |
चौथी श्रेणी ज्ञानी भक्तों की है | ये वे भक्त हैं, जो ब्रह्मज्ञान से दीक्षित हैं | ये शाब्दिक जानकारियों, शास्त्रों की कथा - कहानियों में नहीं उलझते | अपितु एक पूर्ण सतगुरू की शरणागत होकर ईश्वर का प्रत्यक्ष  दर्शन कर लेते हैं | लेकिन ऐसा नहीं इनके जीवन में कोई सांसारिक अभाव नहीं होता | लेकिन ये उस अभाव की पूर्ति के लिए ईश्वर से कभी गुहार नहीं करते | प्रभु से केवल प्रभु को मांगते हैं | उसके अतिरिक्त किसी की कामना नहीं करते | इन भक्तों के विषय में ही भगवान श्री कृषण ने निम्न श्लोक में कहा :-
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥७-१७॥

अर्थात इन चार प्रकार के भक्तों में, परमात्मा के साथ नित्ययुक्त अनन्य प्रेम करने वाला ज्ञानी विशेष है, क्यों कि ज्ञानी के लिए मैं अत्यंत प्रिय हूँ, तथा मेरे लिए वह अत्यंत प्रिय है |
अत: सत्संग प्रेमियों, हम सब भी ज्ञानी भक्तों की श्रेणी में आने का प्रयास करें | आज चाहे हम आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु किसी भी श्रेणी में खड़े हों, पूर्ण संत की खोज कर ईश्वर का दर्शन करें | ज्ञानी बनें | तभी हम अपने मानव जीवन के लक्ष्य को पूर्ण कर पाएँगे |
।। जय गुरु ।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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इस संसार में मानव आखिर कौन है? | Es Sansar me manav akhir kaun ? | Maharshi Harinandan Paramhans | Santmat-Satsang

इस संसार में मानव आखिर कौन है?
जिनमें उत्तम कर्म हो, जीने की कला जानकर सही ढंग से जीते हो, वही वास्तव में मानव है।

संसार में केवल अपने लिए साधारण जीव भी जी लेते हैं, जैसे पशु पक्षी, कीट पतंग आदि। लेकिन नियम निष्ठा से जीना कोई विरला संत ही जानते हैं। संसार में ऐसे बहुत कम लोग होते हैं, जो चाहते हैं कि हमारे द्वारा दूसरे को भी सुख पहुंचे और इसके लिए वे सदा प्रयत्नशील रहते हैं। मनुष्य का शरीर चौरासी लाख प्रकार की योनियों में सबसे श्रेष्ठ है, लेकिन मनुष्य शरीर रहते हुए भी अगर हमारे अंदर मानवीय गुण सन्निहित नहीं है, तो जैसे रावण ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी राक्षस की गिनती में गिने गए, कंस मनुष्य के रूप में होते हुए भी राक्षस कहलाये, उसी तरह हमारे अंदर मानवीय गुण नहीं रहने पर राक्षस कहलाएंगे। मनुष्य के पास मे दो तरह के गुण होते हैं :-
1) दैवी गुण, 2) दानवीय गुण। 

दैवी गुण क्या है?  दूसरों के सुखों का ख्याल रखना। चाहे आप कितने भी कष्ट में पड़े हुए हैं, लेकिन दूसरे के सुख का ख्याल रखते हैं, तो दैवी गुण है। लेकिन दानवीय स्वभाव वाले सिर्फ अपना ही ख्याल रखते हैं और दूसरों को सुखी, उन्नति समृद्धि देखकर जलते हैं, ऐसे गुण जिनमें समाहित होते हैं, वे मनुष्य के रूप में दानव हैं। एक-दूसरे को सुख पहुँचाने, आदर देने का गुण मानव शरीर में है। यह गुण हममें नहीं है, तो हम मानव नहीं, पशु तुल्य हैं। -महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज
।। जय गुरु ।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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आनंदित रहने की कला | Anandit rahne ki kala | Santmat-Satsang

।। आनंदित रहने की कला ।।
एक राजा बहुत दिनों से विचार कर रहा था कि वह राजपाट छोड़कर अध्यात्म (ईश्वर की खोज) में समय लगाए। राजा ने इस बारे में बहुत सोचा और फिर अपने गुरु को अपनी समस्याएँ बताते हुए कहा कि उसे राज्य का कोई योग्य वारिस नहीं मिल पाया है । राजा का बच्चा छोटा है, इसलिए वह राजा बनने के योग्य नहीं है । जब भी उसे कोई पात्र इंसान मिलेगा, जिसमें राज्य सँभालने के सारे गुण हों, तो वह राजपाट छोड़कर शेष जीवन अध्यात्म के लिए समर्पित कर देगा ।

गुरु ने कहा, "राज्य की बागड़ोर मेरे हाथों में क्यों नहीं दे देते ? क्या तुम्हें मुझसे ज्यादा पात्र, ज्यादा सक्षम कोई इंसान मिल सकता है ?"*

राजा ने कहा, "मेरे राज्य को आप से अच्छी तरह भला कौन संभल सकता है ? लीजिए, मैं इसी समय राज्य की बागड़ोर आपके हाथों में सौंप देता हूँ ।"

गुरु ने पूछा, "अब तुम क्या करोगे ?"

राजा बोला, "मैं राज्य के खजाने से थोड़े पैसे ले लूँगा, जिससे मेरा बाकी जीवन चल जाए ।"

गुरु ने कहा, "मगर अब खजाना तो मेरा है, मैं तुम्हें एक पैसा भी लेने नहीं दूँगा ।"

राजा बोला, "फिर ठीक है, "मैं कहीं कोई छोटी-मोटी नौकरी कर लूँगा, उससे जो भी मिलेगा गुजारा कर लूँगा ।"

गुरु ने कहा, "अगर तुम्हें काम ही करना है तो मेरे यहाँ एक नौकरी खाली है । क्या तुम मेरे यहाँ नौकरी करना चाहोगे ?"

राजा बोला, "कोई भी नौकरी हो, मैं करने को तैयार हूँ ।"

*गुरु ने कहा, "मेरे यहाँ राजा की नौकरी खाली है । मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे लिए यह नौकरी करो और हर महीने राज्य के खजाने से अपनी तनख्वाह लेते रहना ।"*

एक वर्ष बाद गुरु ने वापस लौटकर देखा कि राजा बहुत खुश था । अब तो दोनों ही काम हो रहे थे । जिस अध्यात्म के लिए राजपाट छोड़ना चाहता था, वह भी चल रहा था और राज्य सँभालने का काम भी अच्छी तरह चल रहा था । अब उसे कोई चिंता नहीं थी ।

इस कहानी से समझ में आएगा की वास्तव में क्या परिवर्तन हुआ ? कुछ भी तो नहीं! राज्य वही, राजा वही, काम वही; दृष्टीकोण बदल गया ।

इसी तरह हम भी जीवन में अपना दृष्टीकोण बदलें । मालिक बनकर नहीं, बल्कि यह सोचकर सारे कार्य करें की, "मैं ईश्वर कि नौकरी कर रहा हूँ" अब ईश्वर ही जाने । और सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दें । फिर ही आप हर समस्या और परिस्थिति में खुशहाल रह पाएँगे ।आपने देखा भी होगा की नौकरों को कोई चिंता नहीं होती मालिक का चाहे फायदा हो या नुकसान वो मस्त रहते हैं । सब छोड़ दो वही जानें!!
।। जय गुरु ।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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सठ सुधरहिं सतसंगति पाई | महर्षि मेँहीँ बोध-कथाएँ | अच्छे संग से बुरे लोग भी अच्छे होते हैं ओर बुरे संग से अच्छे लोग भी बुरे हो जाते हैं | Maharshi Mehi | Santmat Satsang

महर्षि मेँहीँ की बोध-कथाएँ! सठ सुधरहिं सतसंगति पाई हमारा समाज अच्छा हो, राजनीति अच्छी हो और सदाचार अच्छा हो – इसके लिए अध्यात्म ज्ञान चाहिए।...