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रविवार, 4 नवंबर 2018

प्रभु, मैं समदर्शी हो जाऊं, शत्रु-मित्र में तुझको पाऊं | Prabhu mai samdarshi ho jaun | MAHARSHI-MEHI | SANTMAT-SATSANG | SANTMEHI | SADGURUMEHI

"प्रभु, मैं समदर्शी हो जाऊं,
शत्रु-मित्र में तुझको पाऊं !"

परमात्मा का अंश यह मनुष्य जब संसार में आता है तो उस ईश्वर से प्रार्थना करता है कि मुझे गहन अंधकार से मुक्ति दो। मैं दुनिया की चकाचौंध में न फंसकर तेरा ध्यान करूँगा। शायद दुनिया की हवा ही कुछ ऐसी है कि जिसके लगते ही वह अपने वचन भूल जाता है। तब दुनिया के आकर्षणों से घिरा वह प्राथमिकताओं से विमुख हो जाता है। फिर वह न तो सम रह पाता है और न समदर्शी।
         यदि मनुष्य ईश्वर की भाँति समदर्शी बन जाए तो सभी जीवों यानि पानी में रहने वाले जीवों (जलचर), आकाश में उड़ने वाले जीवों (खेचर) तथा पृथ्वी पर रहने वाले जीवों (भूचर) के साथ एक जैसा व्यवहार करेगा। किसी को मारकर खा जाने या हानि पहुँचाने के विषय में सोचेगा ही नहीं। उनके साथ वैसा ही व्यवहार करेगा जैसा वह अपने लिए चाहता है। सब जीव उसके लिए अपने जैसे ही हो जाएँगे। यदि मानव ऐसा सब कर सके तो वास्तव में समदर्शी बन सकता है।
।। जय गुरु ।।


हे मेरे गुरुदेव करुणा सिन्धु करुणा कीजिये।

हूँ अधम आधीन अशरण अब शरण में लीजिये।।
खा रहा गोते हूँ मैं भवसिन्धु के मझधार में।
आसरा है दूसरा कोई अब संसार में।।
मुझमें है जप तप साधन और नहीं कुछ ज्ञान है।
निर्लज्ता है एक बाकी और बस अभिमान है।।
पाप बोझे से लदी नैया भँवर में रही।
नाथ दौड़ो, अब बचाओ जल्द डूबी जा रही।।
आप भी यदि छोड़ देंगे फिर कहाँ जाऊँगा मैं।
जन्म-दुःख से नाव कैसे पार कर पाऊँगा मैं।।
सब जगह भटक कर, ली शरण प्रभु आपकी।
पार करना या करना, दोनों मर्जी आपकी।। हे।


शनिवार, 3 नवंबर 2018

जो चाहोगे सो पाओगे | Jo chahoge so paoge |

जो चाहोगे सो पाओगे!
☘एक साधु था, वह रोज घाट के किनारे बैठ कर चिल्लाया करता
था, ”जो चाहोगे सो पाओगे”, जो चाहोगे सो पाओगे।”
बहुत से लोग वहाँ से गुजरते थे पर कोई भी
उसकी बात पर ध्यान नही देता था और
सब उसे एक पागल आदमी समझते थे।
एक दिन एक युवक वहाँ से गुजरा और उसने उस साधु
की आवाज सुनी, “जो चाहोगे सो पाओगे”,
जो चाहोगे सो पाओगे।”, और आवाज सुनते ही उसके
पास चला गया।

उसने साधु से पूछा “महाराज आप बोल रहे थे कि ‘जो चाहोगे
सो पाओगे’ तो क्या आप मुझको वो दे सकते हो जो मै जो चाहता
हूँ? ”साधु उसकी बात को सुनकर बोला – “हाँ बेटा तुम
जो कुछ भी चाहता है मै उसे जरुर दुँगा, बस तुम्हें
मेरी बात माननी होगी। लेकिन
पहले ये तो बताओ कि तुम्हे आखिर चाहिये क्या?”
युवक बोला” मेरी एक ही ख्वाहिश
है मै हीरों का बहुत बड़ा व्यापारी बनना
चाहता हूँ। “
साधू बोला, ”कोई बात नही मै तुम्हे एक
हीरा और एक मोती देता हूँ, उससे तुम
जितने भी हीरे मोती बनाना
चाहोगे बना पाओगे!” और ऐसा कहते हुए साधु ने अपना हाथ आदमी
की हथेली पर रखते हुए कहा, ”पुत्र,
मैं तुम्हे दुनिया का सबसे अनमोल हीरा दे रहा हूं,
लोग इसे ‘समय’ कहते हैं, इसे तेजी से
अपनी मुट्ठी में पकड़ लो और इसे
कभी मत गंवाना, तुम इससे जितने चाहो उतने
हीरे बना सकते हो।

युवक अभी कुछ सोच ही रहा था कि
साधु उसका दूसरी हथेली, पकड़ते हुए
बोला, ”पुत्र, इसे पकड़ो, यह दुनिया का सबसे
कीमती मोती है, लोग इसे
“धैर्य” कहते हैं, जब कभी समय देने के बावजूद
परिणाम ना मिलें तो इस कीमती
मोती को धारण कर लेना, याद रखना जिसके पास यह
मोती है, वह दुनिया में कुछ भी प्राप्त कर
सकता है।
युवक गम्भीरता से साधु की बातों पर
विचार करता है और निश्चय करता है कि आज से वह
कभी अपना समय बर्वाद नहीं करेगा और
हमेशा धैर्य से काम लेगा। और ऐसा सोचकर वह हीरों
के एक बहुत बड़े व्यापारी के यहाँ काम शुरू करता है
और अपने मेहनत और ईमानदारी के बल पर एक दिन
खुद भी हीरों का बहुत बड़ा
व्यापारी बनता है
- मित्रों ‘समय’ और ‘धैर्य’ वह दो हीरे-
मोती हैं जिनके बल पर हम बड़े से बड़ा लक्ष्य
प्राप्त कर सकते हैं। अतः ज़रूरी है कि हम अपने
कीमती समय को बर्वाद ना करें और
अपनी मंज़िल तक पहुँचने के लिए धैर्य से काम लें।
जय गुरु महाराज
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

सतसंगति सदा सेवनीय | संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता फिरता तीर्थराज है | Santmat-Satsang | Maharshi-Mehi | SANTMEHI |

सत्संगति सदा सेवनीय;
गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है:-
"मति कीरति गति भूति भलाई, जो जेहि जतन जहाँ लगि पाई।
सो जानब सत्संग प्रभाऊ, लोक न बेद न आन ऊपाऊ।।"

जिसने जिस समय, जहाँ कहीं भी, जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सदगति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पायी है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नही है।
सत्संग सिद्धि का प्रथम सोपान है। सत्संगति बुद्धि की जड़ता नष्ट करती है, वाणी को सत्य से सींचती है। पुण्य बढ़ाती है, पाप मिटाती है, चित्त को प्रसन्नता से भर देती है, परम सुख के द्वार खोल देती है।
एक दासी पुत्र संतों की संगति पाकर देवर्षि नारद बन गये। एक तुच्छ कीड़ा महर्षि वेदव्यासजी की कृपा से मैत्रेय ऋषि बने। शबरी भीलन मतंग ऋषि की कृपा पाकर महान हो गयी। सत्संगति से महान बनने के ऐसे अनेकों उदाहरण शास्त्रों एवं इतिहास में भरे पड़े हैं।
प्रार्थना और पुकार से भावनाओं का विकास होता है, भावबल बढ़ता है। प्राणायाम से प्राणबल बढ़ता है, सेवा से क्रिया बल बढ़ता है और सत्संग से समझ बढ़ती है।
मनुष्य अपनी बुद्धि से ही प्रत्येक बात का निश्चय नहीं कर सकता। बहुत सी बातों के लिए उसे श्रेष्ठ मतिसम्पन्न मार्गदर्शक एवं समर्थ आश्रयदाता चाहिए। यह सत्संगति से ही सुलभ है।

संत कबीर साहब के शब्दों में:-

बहे बहाये जात थे, लोक वेद के साथ।
रस्ता में सदगुरु मिले, दीपक दीन्हा हाथ।।

सदगुरु भवसागर के प्रकाश-स्तम्भ होते हैं। उनके सान्निध्य से हमें कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान होता है। कहा भी गया है;

"सतां संगो हि भेषजम्।"
'संतजनों की संगति ही औषधि है।'

अनेक मनोव्याधियाँ सत्संग से नष्ट हो जाती हैं। संतजनों के प्रति मन में स्वाभाविक अनुराग-भक्ति होने से मनुष्य में उनके सदगुण स्वाभाविक रूप से आने लगते हैं। साधुपुरुषों की संगति से मानस-मल धुल जाता है, इसलिए संतजनों को चलता फिरता तीर्थ भी कहते हैं; तीर्थभूता हि साधवः।

मुदमंगलमय संत समाजू। जिमि जग जंगम तीरथराजू।।

'संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता फिरता तीर्थराज है।'
सत्संगति कल्याण का मूल है और कुसंगति पतन का। कुसंगति पहले तो मीठी लगती है पर इसका फल बहुत ही कड़वा होता है।
पवन के संग से धूल आकाश में ऊँची चढ़ जाती है और वही नीचे की ओर बहने वाले जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है यह संग का ही प्रभाव है। दुर्जनों के प्रति आकर्षित होने से मनुष्य को अंत में धोखा ही खाना पड़ता है। कुसंगति से आत्मनाश, बुद्धि-विनाश होना अनिवार्य है। दुर्जनों के बीच में मनुष्य की विवेकशक्ति उसी प्रकार मंद हो जाती है, जैसे अंधकार में दृष्टि।
बहुत से अयोग्य व्यक्ति मिलकर भी आत्मोद्धार का मार्ग उसी प्रकार नहीं ढूँढ सकते, जैसे सौ अंधे मिलकर देखने में समर्थ नहीं हो सकते। कुसंगति से व्यक्ति परमार्थ के मार्ग से पतित हो जाता है।

अंधे को अंधा मिले, छूटै कौन उपाय।

कुसंगति के कारण मनुष्य को समाज में अप्रतिष्ठा और अपकीर्ति मिलती है।
दुर्जनों की संगति से सज्जन भी अप्रशंसनीय हो जाते है। अतः कुसंगति का शीघ्रातिशीघ्र परित्याग करके सदा सत्संगति करनी चाहिए।
।। जय गुरु ।।
शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

महात्मा बनने के मार्ग में मुख्य विध्न | Mahatma banne ke marg me mukhya vighan | Santmat-Satsang | SANTMEHI | SADGURU MEHI

महात्मा बनने के मार्ग में मुख्य विघ्न!

ज्ञानी, महात्मा और भक्त कहलाने तथा बनने के लिए  तो प्राय: सभी इच्छा करते है, परन्तु उसके लिए सच्चे हृदय से साधन करने वाले लोग बहुत कम है। साधन करने वालों में भी परमात्मा के निकट कोई बिरले ही पहुँचता है; क्योकि राह में ऐसी बहुत सी विपद-जनक घाटियाँ आती है जिनमे फसकर साधक गिर जाते है। उन घाटियों में ‘कन्चन; और ‘कामिनी’ ये दो घाटियाँ बहुत ही कठिन है, परन्तु इनसे भी कठिन तीसरी घाटी मान-बड़ाई और ईर्ष्या की है। किसी कवि ने कहा है:-

कंच्चन तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह।
मान बड़ाई ईर्ष्या, दुर्लभ तजना येह।।

इन तीनो में सबसे कठिन है बड़ाई। इसी को कीर्ति, प्रशंसा, लोकेष्णा आदि कहते है। शास्त्र में जो तीन प्रकार की त्रष्णा (पुत्रैष्णा, लोकैष्णा और वित्तेष्णा) बताई गयी है। उन तीनो में लोकैष्णा ही सबसे बलवान है। इसी लोकैष्णा के लिए मनुष्य धन, धाम, पुत्र, स्त्री और प्राणों का भी त्याग करने के लिए तैयार हो जाता है।

जिस मनुष्य ने संसार में मान-बड़ाई और प्रतिष्ठा का त्याग कर दिया, वही महात्मा है और वही देवता और ऋषियों द्वारा भी पूजनीय है। साधू और महात्मा तो बहुत लोग कहलाते है किन्तु उनमे मान-बड़ाई और प्रतिष्ठा का त्याग करने वाला कोई विरला ही होता है। ऐसे महात्माओं की खोज करने वाले भाइयों को इस विषय का कुछ अनुभव भी होगा।

हम लोग पहले जब किसी अच्छे पुरुष का नाम सुनते है तो उनमे श्रद्धा होती है पर उनके पास जाने पर जब हमें उनमें मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा दिखलाई देती है, तब उन पर हमारी वैसी श्रद्धा नहीं ठहरती जैसी उनके गुण सुनने के समय हुई थी। यद्यपि अच्छे पुरुषों में किसी प्रकार भी दोषदृष्टि करना हमारी भूल है, परन्तु स्वभाव दोष से ऐसी वृतियाँ होती हुई प्राय: देखि जाती है और ऐसा होना बिलकुल निराधार भी नहीं है। क्योकि वास्तव में एक ईश्वर के सिवा बड़े-से-बड़े गुणवान पुरुषों में भी दोष का कुछ मिश्रण रहता ही है। जहाँ बड़ाई का दोष आया की झूठ, कपट और दम्भ को स्थान मिल जाता है तो अन्यान्य दोषों के आने को सुगम मार्ग मिल जाता है। यह कीर्ति रूप दोष देखने में छोटा सा है परन्तु यह केवल महात्माओं को छोड़कर अन्य अच्छे-से-अच्छे पुरुषों में भी सूक्ष्म और गुप्तरूप से रहता है। यह साधक को साधन पथ से गिरा कर उसका मूलोच्छेदन कर डालता है।
—श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
☘


मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018

दीपों के प्रकाश के बिना कैसी दीपावली? | Deepon ke prakash ke bina kaisi Deewali | Santmat-Satsang |

दीपों के प्रकाश के बिना कैसी दीपावली?

क्या दीपों के बाह्य प्रकाश मात्र से आंतरिक प्रकाश संभव है? क्या वास्तव में बाहरी प्रकाश से हमारे अंतरतम का प्रकाशित होना संभव है? बुद्ध कहते हैं अप्प दीपो भव। अपना प्रकाश स्वयं बनो। हम में ऊर्जा है, उत्साह है, कौन रोक सकता है हमें अपना प्रकाश बनने से, अपना स्वयं का विकास करने से? करना भी चाहिए। आप दीपक को लीजिए, दीपक चाहे स्वयं अपना प्रकाश बन जाए, लेकिन एक दीपक भी स्वयं नहीं बनता। उसको भी एक कलाकार बड़े यत्न से निर्मित करता है। एक दीपक तब तक न तो दूसरों को प्रकाश दे सकता है और न स्वयं ही प्रकाशित हो सकता है जब तक कि अन्य कोई दीपक उसे प्रज्वलित नहीं करता, उसे अपना प्रकाश नहीं दे देता। हमें अपना प्रकाश स्वयं बनने के लिए सबसे पहले बाह्य निर्माता और बाह्य प्रकाश की आवश्यकता पड़ती ही है। पात्र दीपक नहीं होता। पात्र को दीपक बनने के लिए स्नेह की आवश्यकता होती है। स्नेह यानी ऊर्जा। तेल या घी। स्नेह के बाद बत्ती भी जरूरी है। बत्ती के लिए रुई की जरूरत पड़ती है। वह भी किसानों के कर्म से ही प्राप्त होता है। पात्र में बत्ती लगाकर इसे स्नेह से भर दिया जाता है। तब यह दीपक बनता है। फिर कोई जलता दीपक उसे अपनी लौ से प्रकाश से भर देता है। फिर भी कहते हैं अपना प्रकाश स्वयं बनो। कहते हैं अप्प दीपो भव। नहीं, ये कहना ठीक लगता है कि स्वयं को दीपक बनाओ। स्वयं जलो तभी दूसरों तक प्रकाश पहुंचा सकोगे। स्वयं की ऊर्जा से दूसरों को ऊर्जस्वित करो। दीपक की तरह मनुष्य की सार्थकता भी इसी में है। वह स्वयं नहीं बन सकता, लेकिन दूसरों के बनाने पर जरूर कुछ कर सकता है। वह स्वयं नहीं जल सकता, लेकिन दूसरों के जलाने पर जरूर स्वयं प्रकाशित होकर दूसरों को भी प्रकाशित कर सकता है। अंधेरे से बचा सकता है। इसी उदार भाव में निहित है प्रकाशोत्सव की सार्थकता और हमारी संस्कृति की शाश्वतता।
जय गुरु महाराज

सोमवार, 29 अक्तूबर 2018

असली दिवाली का पूर्ण आनन्द तभी मिलेगा जब अपने अन्दर का प्रकाश प्रज्वलित हो जाय | DEEPAWALI | ASLI-DEEWALI | Santmat-Satsang | Prakash

असली दिवाली का पूर्ण आनन्द तभी मिलेगा जब अपने अन्दर का प्रकाश प्रज्वलित हो जाय!
ज्ञान है आंतरिक दीपक का प्रकाश; गंगा के तट पर एक संत का आश्रम था। एक दिन उनके एक शिष्य ने पूछा, ‘गुरुवर, शिक्षा का निचोड़ क्या है?’ संत ने मुस्करा कर कहा, ‘एक दिन तुम स्वयं जान जाओगे।’ बात आई और चली गई। कुछ समय बाद एक रात संत ने उस शिष्य से कहा, ‘वत्स, इस पुस्तक को मेरे कमरे में तख्त पर रख दो।’ शिष्य पुस्तक लेकर कमरे में गया, लेकिन तत्काल लौट आया। वह डर से कांप रहा था। संत ने पूछा, ‘क्या हुआ? इतना डरे हुए क्यों हो?’ शिष्य ने कहा, ‘गुरुवर, कमरे में सांप है।’ संत ने कहा, ‘यह तुम्हारा भ्रम होगा। कमरे में सांप कहां से आएगा! तुम फिर जाओ और मंत्र का जाप करना। सांप होगा तो भाग जाएगा।’

शिष्य दोबारा कमरे में गया। उसने मंत्र का जाप भी किया, लेकिन सांप उसी स्थान पर डटा रहा। शिष्य डर कर फिर बाहर आ गया और संत से बोला, ‘सांप वहां से जा नहीं रहा है।’ संत ने कहा, ‘इस बार दीपक लेकर जाओ। सांप होगा तो दीपक के प्रकाश से भाग जाएगा।’ शिष्य इस बार दीपक लेकर गया तो देखा कि वहां सांप नहीं है। सांप की जगह एक रस्सी लटकी हुई थी। अंधकार के कारण उसे रस्सी का वह टुकड़ा सांप नजर आ रहा था। बाहर आकर शिष्य ने कहा, ‘गुरुवर, वहां सांप नहीं, रस्सी का टुकड़ा है। अंधेरे में मैंने उसे सांप समझ लिया था।’ संत ने कहा, ‘वत्स, इसी को भ्रम कहते हैं। संसार गहन भ्रमजाल में जकड़ा हुआ है। ज्ञान के प्रकाश से ही इस भ्रमजाल को मिटाया जा सकता है, लेकिन अज्ञानता के कारण हम बहुत सारे भ्रमजाल पाल लेते हैं और आंतरिक दीपक के अभाव में उसे दूर नहीं कर पाते। जब तक आंतरिक दीपक का प्रकाश प्रज्ज्वलित नहीं होगा, लोग भ्रमजाल से मुक्ति नहीं पा सकते।’ कबीर साहब कहते हैं:-

अपने घट दियना बारु रे।।
नाम का तेल सुरत कै बाती, ब्रह्म अगिन उद्गारु रे।
जगमग जोत निहारू मंदिर में, तन मन धन सब वारू रे।।
झूठी जान जगत की आसा, बारम्बार बिसारू रे।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, आपन काज सँवारू रे।।

   जय गुरु महाराज

शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

परम स्नेही संत | सत्संग की जगह पर जाने से, एक-एक कदम रखने से एक-एक यज्ञ करने का फल मिलता है | Santmat-Satsang | SANTMEHI | SADGURUMEHI

परम स्नेही संत
सत्संग से हमें वह रास्ता मिलता है, जिससे हमारा तो उद्धार हो जाता है, हमारे इक्कीस कुलक भी तर जाते हैं।

बिनु सत्संग न हरिकथा ते बिन मोह न भाग।
मोह गये बिनु राम पद, होवहिं न दृढ़ अनुराग।।

सत्संग की जगह पर जाने से, एक-एक कदम रखने से एक-एक यज्ञ करने का फल मिलता है। देवर्षि नारद दासी के पुत्र थे…. विद्याहीन, जातिहीन, धनहीन, कुलहीन और व्यवसायहीन दासी के पुत्र। चतुर्मास में वह दासी साधुओं की सेवा में लगायी गयी थी। साधारण दासी थी। वह साधुओं की सेवा में आती थी तो अपने छोटे बच्चे को भी साथ में ले आती थी। वह बच्चा कीर्तन करता, सत्संग सुनता। साधुओं के प्रति उसकी श्रद्धा हो गयी। उसको कीर्तन, सत्संग, ध्यान का रंग लग गया। उसको आनंद आने लगा। संतों ने नाम रख दिया हरिदास। सत्संग, ध्यान और कीर्तन में उसका चित्त द्रवित होने लगा। जब साधु जा रहे थे तो वह बोलाः “गुरुजी ! मुझे साथ ले चलो।”
संतः “बेटा ! अभी तुझे हम साथ नहीं ले जा सकते। जन्मों-जन्मों का साथी जो हृदय में बैठा है, उसकी भक्ति कर, प्रार्थना कर।”
संतों ने ध्यान-भजन का तरीका सिखा दिया और वही हरिदास आगे चलकर देवर्षि नारद बना। जातिहीन, विद्याहीन, कुलहीन और धनहीन बालक था, वह देवर्षि नारद बन गया। नारदजी को तो देवता भी मानते हैं, मनुष्य भी उनकी बात मानते हैं और राक्षस भी उनकी बात मानते हैं।
कहाँ तो दासी पुत्र ! जातिहीन, विद्याहीन, कुलहीन और कहाँ भगवान को सलाह देने की योग्यता !
ऐसे महान बनने के पीछे नारदजी के जीवन के तीन सोपान थेः
1. सोपान था-सत्संग, साधु समागम।
2. सोपान था-उत्साह।
3. सोपान था-श्रद्धा।
सत्संग, उत्साह और श्रद्धा अगर छोटे से छोटे आदमी में भी हों तो वह बड़े से बड़े कार्य कर सकता है। यहाँ तक कि भगवान भी उसे मान देते हैं। वे लोग धनभागी हैं जिनको सत्संग मिलता है ! वे लोग विशेष धनभागी हैं जो सत्संग दूसरों को दिलाने की सेवा करके संत और समाज के बीच की कड़ी बनने का अवसर खोज लेते हैं, पा लेते हैं और अपना जीवन धन्य कर लेते हैं!
।। जय गुरु ।।

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...