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रविवार, 24 नवंबर 2019

ईश्वरीय प्रवाह अपनाएं | ESVRIYA PRAVAH APNAYE | SANTMAT-SATSANG | ANAND | जेहि विधि राखे राम तेहि विधि रहिये।

🌸ईश्वरीय प्रवाह अपनाएं🌸
🍁हर इंसान की अपनी कई ऎषणाएं, इच्छाएं और कल्पनाएं हुआ करती हैं जिन्हें पूरा करने के लिए वह जिन्दगी भर जाने कितने रास्तों, चौराहों और गलियारों की खोजबीन करता रहता है, कितने ही मार्गों को अपनाता और छोड़ता है।
कई सारे छोड़े हुए रास्तों को फिर पकड़ता और छोड़ता रहता है, कई बार भूलभुलैया में भटकता, अटकता हुआ जानें कहाँ-कहाँ परिभ्रमण करता है और जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को लेकर आगे बढ़ता हुआ अन्ततोगत्वा सब कुछ यहीं छोड़कर अचानक ऊपर चला जाता है।

इस सारी यात्रा में ऊपर जाने से पहले जो आनंद प्राप्त होना चाहिए वह बिरले लोग ही ले पाते हैं। लेकिन जिन लोगों को जीवन और मृत्यु दोनों का ही आनंद पाने की इच्छा होती है वे लोग भाग्यवादी भी हो सकते हैं और पुरुषार्थी भी। अन्तर सिर्फ इतना होता है कि भाग्यवादी लोग नैराश्य से वैराग्य की ओर बढ़ते नज़र आते हैं और पुरुषार्थी लोग जीवन के आनंदों की प्राप्ति करते हुए आगे बढ़ते रहते हैं मगर उद्विग्नता, असंतोष और अशांति इनके लिए मरते दम तक साथ नहीं छोड़ती। यह समानान्तर चलती रहती है। 
इनसे भी ऊपर बिरले इंसानों की एक और किस्म है जो जीने का आनंद भी जानती है और मृत्यु का भी।  जीवन में कर्मयोग के प्रति सर्वोच्च समर्पण भाव रखते हुए जो लोग अपने आपको पूरी तरह  ईश्वरीय प्रवाह के हवाले कर दिया करते हैं उन लोगों के लिए समस्या, शिकायत, दुःख, उद्विग्नता, अशांति और असंतोष अपने आप समाप्त हो जाया करते हैं।
एक बार सच्चे मन से यह स्वीकार कर लें –  जेहि विधि राखे राम तेहि विधि रहिये।
ऎसा हो जाने पर कर्म का आनंद भी आएगा और कर्मफल के लिए सांसारिक वस्तुओं और व्यक्तियों से हमेशा बनी रहने वाली आशाएं-अपेक्षाएं भी नहीं रहेंगी। यह वह आदर्श स्थिति है जहाँ कत्र्तव्य कर्म का समर्पित निर्वाह पूरे यौवन पर रहा करता है वहीं जो कुछ भी प्राप्त होता रहता है उसे ईश्वरीय प्रसाद मानकर जीवन अपने आप आनंदित होता रहता है।

जीवन के हर कर्म में दाता, साक्षी और निर्णायक के रूप में ईश्वर को ही सर्वोच्च सत्ता मान लेने के बाद न जीवन में कोई दुःख रहता है, न कोई विषाद, भ्रम, शंका या आशंका। ऎसे लोगों को हर क्षण यह भान रहता है ईश्वर उनके साथ रहकर उनका सहायक बना हुआ संरक्षक और पालक दोनों दायित्वों का निर्वाह कर रहा है।
इस उदार तथा आध्यात्मिक सोच को प्राप्त कर लेने के बाद इंसान को न मृत्यु का भय होता है, न जीवन का कोई विषाद। इस स्थिति में हमेशा जीवन और मृत्यु से परे आनंददायी माहौल का अहसास बना रहता है। स्वयं को ईश्वरीय प्रवाह के हवाले छोड़ देना ठीक उसी तरह है जिस प्रकार बिंदु का सिंधु में मिलन होने के बाद बिंदु को किसी भी प्रकार की कोई चिंता नहीं हुआ करती।
जीवन का असली आनंद इसी में है कि हम अपने अहं को पूर्ण विगलित करते हुए खुद को ईश्वरीय प्रवाह का हिस्सा बना लें। इससे पुरुषार्थ चतुष्टय की पूर्ति, जीवनानंद की प्राप्ति और जीवनमुक्ति के सारे सुकून अपने आप हमारी जिन्दगी को दिव्यत्व एवं दैवत्व देते हुए सँवारते रहते हैं। इस अहसास के बिना न जीवन का आनंद है, न मृत्यु के भय से मुक्ति। ईश्वरीय प्रवाह के बिना हमारा जीना भी व्यर्थ है, और मरना भी अभिशप्त।
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 
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नित्यप्रति दरसन साधु के, औ साधू के संग। -महर्षि मेँहीँ | Maharshi Mehi | Santmat | Darshan

    ।।ॐ।।श्री सद्गुरवे नमः।।
नित्यप्रति दरसन साधु के, औ साधू के संग।
तुलसी काहि वियोग ते, नहिं लागा हरि रंग।।
मन तो रमे संसार में, तन साधू के संग।
तुलसी याहि वियोग ते, नहिं लागा हरि रंग।।
साधु का दर्शन यज्ञ के समान होता है। कथा-प्रसंग में, गुरु की सेवा में भी मन का सिमटाव होता है और ईश्वर गुणगान में भी मन का सिमटाव होता है। वाचिक जप, उपांशु जप और मानस जप; इन तीन विधियों से जप होता है। वाचिक में बोल बोलकर जपते हैं, उपांशु में होठ हिलते हैं, पर दूसरा कोई नहीं सुनता। मानस जप मन-ही-मन होता है। मंत्र जप से मन एकाग्र होता है। मूर्ति पोशाक है। उस मूर्ति को धारण करनेवाली आत्मा है, उसी आत्मा का पोशाक मूर्त्ति है। स्थूल में पूर्ण सिमटाव होने पर सूक्ष्म दृष्टि खुलेगी। चित्र में अनेक लकीरे हैं और एक लकीर में अनेक विन्दु। परन्तु एक विन्दु में कुछ फैलाव नहीं है। सूक्ष्म दृष्टि खोलने के वास्ते विन्दु ध्यान होना चाहिए। विन्दु वह है जिसका स्थान हो, पर परिमाण नहीं। परम विन्दु दृष्टि की नोक से प्रकट होता है। दृष्टि वह चीज है, जो देखने की शक्ति है।
कहै कबीर चरण चित राखो ज्यों सूई में डोरा रे । जैसे कसरत करते-करते अपने बल को बढ़ा लेते हैं, उसी तरह दृष्टि के अभ्यास को करने से दृष्टि की नोक अवश्य होगी। संसार का कुल कारोबार शब्द से होता है। शब्द से ही सृष्टि होती है। सृष्टि के आदि में शब्द है, जिसको स्फोट कहते हैं। जब कोई अपने इष्ट के आत्मस्वरूप को पहचानता है, तब उसकी भक्ति पूरी होती है।
सब पशुओं की देह के परमाणु में एक तरह का तासीर नहीं होता है। मनुष्य शरीर में पशु का मांस देना ठीक नहीं। संतों ने हिंसा का विरोध किया। हिंसा दो तरह का होता है-एक वार्य और दूसरा अनिवार्य। हल चलाने या आँगन बुहारने में जो हिंसा होती है, उससे बच नहीं सकते, पर मास-मछली का सेवन नहीं करना चाहिए।
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 
(प्रस्तुति: एस.के. मेहता, गुरुग्राम)
🙏🌸।। जय गुरु ।।🌸🙏

गुरुवार, 21 नवंबर 2019

वर्षों पूर्व की बात मुझे याद आती है! -महर्षि संतसेवी परमहंस | Maharshi=Santsevi=Paramhans | Santmat-Satsang | Kuppaghat-Bhagalpur

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
🍁वर्षों पूर्व की बात मुझे याद आती है; 
परम पूज्य गुरुदेवजी (पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) के निकट एक साधु बाबा पधरे थे। प्रणिपात के पश्चात् आसन ग्रहण करके उन्होंने कहा: ‘महाराज! बिना चमत्कार के नमस्कार नहीं।’ पूज्य गुरुदेव ने दया करके पूछा: ‘महाराज! आप चमत्कार किसे कहते हैं?’ साधु बाबा मौन रहे। आराध्यदेव ने कहने की कृपा की ‘महाराज! मैं तो सदाचार को चमत्कार मानता हूँ।’
सद्+आचार = सदाचार अर्थात् उत्तम आचरण। उत्तम आचरण मानव-जीवन को समुज्वल बनाता है। सत्याचारी अलौकिक शक्तिसंपन्न होते हैं। उनके सम्मुख सुरगण भी नमन करते हैं। सदाचरण-संपन्न जन मरकर भी अमर रहते हैं, किन्तु आचरणहीन जन जीवित ही मृत होते हैं। सत्याचार; सत्य+आचार ही सदाचार है और यह एक ऐसा चमत्कार है, जिससे सर्वेश्वर का साक्षात्कार होता है। यथार्थतः जहाँ सदाचार है, वहीं चमत्कार है। जहाँ सदाचार नहीं, वहाँ मात्र बाहरी दिखावे के चमत्कार का कोई महत्त्व नहीं। -महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज 
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 
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बुधवार, 20 नवंबर 2019

शब्द जितना छोटा होगा! -सद्गुरु महर्षि मेँहीँ | Shbad | Maharshi-Mehi | Santmat-Satsang | Guru

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
🕉🍁शब्द जितना छोटा होगा, उतना ही सिमटाव होगा और जितना बड़ा शब्द होगा, उतना ही फैलाव होगा। तन्त्र में एकाक्षर का ही जप करने का आदेश है और वेद में भी वही एक अक्षर। कबीर साहब कहते हैं- पढ़ो रे मन ओ ना मा सी धं ।
अर्थात् ‘ऊँ नमः सिद्धम्।’ तात्पर्य यह कि सृष्टि इसी ‘ऊँ’ से है। शब्द से सृष्टि हुई है। यह (ऊँ) त्रैमात्रिक है, इसीलिए इस प्रकार भी ‘ओ3म्’ लिखते हैं। इसको इतना पवित्र और उत्तम माना गया कि इस शब्द के बोलने का अधिकार अमुक वर्ण को ही होगा, अमुक वर्ण को नहीं। इतना प्रतिबन्ध लगाया गया कि बड़े ही कहेंगे। सन्तों ने कहा, कौन लड़े-झगड़े; ‘सतनाम’ ही कहो, ‘रामनाम’ ही कहो, आदि। बाबा नानक ने ‘ऊँ’ का मन्त्र ही पढ़ाया- 1ऊँ सतिगुरु प्रसादि। और कहा- चहु वरणा को दे उपदेश। यह ईश्वरी शब्द है; किन्तु हमलोग इसका जैसा उच्चारण करते हैं, वैसा यह शब्द सुनने में आवे, ऐसा नहीं। यह तो आरोप किया हुआ शब्द है, जिसके मत में जैसा आरोप होता है। जैसे- पंडुक अपनी बोली में बोलता है, किन्तु कोई उस ‘कुकुम कुम’ और कोई उसी शब्द को ‘एके तुम’ आरोपित करता है। किन्तु यथार्थतः इस (ओ3म्) को लौकिक भाषा में नहीं ला सकते, यह तो अलौकिक शब्द है। इस अलौकिक शब्द को लौकिक भाषा में प्रकट करने के लिए सन्तों ने ‘ऊँ’ कहा। क्योंकि जिस प्रकार वह अलौकिक ¬ सर्वव्यापक है, उसी प्रकार यह लौकिक ‘ऊँ’ भी शरीर के सब उच्चारण-स्थानों को भरकर उच्चरित होता है। इस प्रकार का कोई दूसरा शब्द नहीं है, जो उच्चारण के सब स्थानों को भरकर उच्चरित हो सके। इसी शब्द का वर्णन सन्त कबीर साहब इस प्रकार करते हैं- 
आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह। 
परसत ही कंचन भया, छूटा बन्धन मोह।। 
शब्द शब्द सब कोइ कहै, वो तो शब्द विदेह। 
जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि देह।। 
शब्द शब्द बहु अन्तरा, सार शब्द चित देय। 
जा शब्दै साहब मिलै, सोइ शब्द गहि लेय ।। 

आदिनाम वा शब्द सर्वव्यापक है। इसी प्रकार एक शब्द लो, जो उच्चारण के सब स्थानों को भरपूर करे, तो संतों ने उसी को ‘ऊँ’ कहा तथा इसी शब्द से उस आदि शब्द ¬ का इशारा किया। यह जो वर्णात्मक ओ3म् है, जिसका मुँह से उच्चारण करते हैं, यह वाचक है तथा इस शब्द से जिसके लिए कहते हैं, वह वाच्य है तथा उस परमात्मा के लिए वह भी वाचक है तथा परमात्मा वाच्य है। तो इस एक शब्द का दृढ़ अभ्यास, एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास करना है। 17-1-1951.  -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 
🙏🌼🌿।। जय गुरु ।।🌿🌼🙏
सौजन्य: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम 
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लोग धन पुत्रादि से ऊब जाते हैं! - सद्गुरु महर्षि मेँहीँ | People get bored with wealth | Maharshi-Mehi | Santmat-Satsang

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
लोग धन-पुत्रादि से ऊब जाते हैं। किसी को धन है, तो पुत्र नहीं, पुत्र है तो धन नहीं। शान्ति किसी को नहीं मिलती। अपने जीवन-काल में यज्ञ करके अथवा लोगों के कहे अनुसार श्राद्ध-क्रिया से स्वर्ग चले जायँ, तो क्या लाभ होगा?
वहाँ भी सुख नहीं। यहाँ के समान ही वहाँ भी छोटे-बड़े होते हैं। काम-क्रोधादिक विकार वहाँ भी उत्पन्न होते हैं तथा दूसरे से ईर्ष्या होती है आदि। फिर पुण्य क्षीण होने पर वहाँ से वापस होना पड़ता है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी अपनी रामायण में लिखते हैं-
‘एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वरगउ स्वल्प अन्त दुखदाई।।’

‘नर तन दुर्लभ देव को,सब कोई कहै पुकार।। 
सब कोइ कहै पुकार, देव देही नहिं पावै। 
ऐसे मूरख लोग, स्वर्ग की आस लगावै।। 
पुण्य क्षीण सोइ देव,स्वर्ग से नरक में आवै। 
भरमै चारिउ खानि, पुण्य कहि ताहि रिझावै।। 
तुलसी सतमत तत गहे, स्वर्ग पर करे खखार।
नर तन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहै पुकार।।’ 
- तुलसी साहब, हाथरसवाले

स्वर्ग या बहिश्त कहीं भी जाओ, विषय-सुख ही है। इसलिए सूफी लोग बताते हैं-मुक्ति ( नजात ) को प्राप्त करो। 17-1-1951.
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 
🙏।। जय गुरु ।।🙏
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम 

इस योग्य हम कहाँ हैं | Sadguru | Es yogya ham kahan hain | Bhajan | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🙏🌷इस योग्य हम कहाँ हैं🌷🙏


इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें।
फिर भी मना रहे हैं, शायद तू मान जाये।।
जब से जनम लिया है, विषयों ने हमको घेरा।
छल और कपट ने डाला, इस भोले मन पे डेरा।
सदबुद्धि को अहम् ने, हरदम रखा दबाये।।
इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें..

निश्चय ही हम पतित हैं, लोभी हैं स्वार्थी हैं।
तेरा ध्यान जब लगायें, माया पुकारती है।
सुख भोगने की इच्छा, कभी तृप्ति हो न पाये।।
इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें..

जग में जहाँ भी देखा, बस एक ही चलन है।
इक दूसरे के सुख में, खुद को बड़ी जलन है।
कर्मों का लेखा जोखा, कोई समझ न पाये।।
इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें..


जब कुछ न कर सके तो, तेरी शरण में आये।
अपराध मानते हैं, झेलेंगे सब सजायें।
बस दरश तू दिखा दे, कुछ और हम न चाहें।।
इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें..
🙏🌹🌷 जय गुरुदेव 🌷🌹🙏
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 

संतों के विचार को अपनाए बिना: महर्षि हरिनन्दन परमहंस | Santon ke vichar ko apnaye bina... | Maharshi Harinandan Paramhans |

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः 🌹🙏
🍁संतों के विचार को अपनाए बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता। 

हमारे गुरुदेव ने कहा कि संतों के विचार को जानने के लिए सत्संग करो। अगर अपना उद्धार चाहते हो, मुक्ति चाहते हो, दुखों से छुटकारा चाहते हो तो संत का संतान बनो। संतो के बतलाए मार्ग पर चलें तभी संत के संतान बनने के अधिकारी हैं। संत उस ओर जाने के लिए कहता है जिस ओर जीव बंधन मुक्त हो जाता है। कोई बंधन नहीं रहता। उन्होंने कहा कि इस शरीर में नौ द्वार है। फिर भी हम नहीं निकल पाते। कारण यह कष्ट का मार्ग है। जब शरीर की अवधि समाप्त हो जाती है तब यम की मार खाकर इस नौ द्वार में से एक से निकलता है। मनुष्य के शरीर में एक गुप्त मार्ग है। यह मार्ग केवल मनुष्य के शरीर में ही है। इस मार्ग से निकलने में कोई कष्ट नहीं होता।  -महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज
  🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम 
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सठ सुधरहिं सतसंगति पाई | महर्षि मेँहीँ बोध-कथाएँ | अच्छे संग से बुरे लोग भी अच्छे होते हैं ओर बुरे संग से अच्छे लोग भी बुरे हो जाते हैं | Maharshi Mehi | Santmat Satsang

महर्षि मेँहीँ की बोध-कथाएँ! सठ सुधरहिं सतसंगति पाई हमारा समाज अच्छा हो, राजनीति अच्छी हो और सदाचार अच्छा हो – इसके लिए अध्यात्म ज्ञान चाहिए।...