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गुरुवार, 10 जून 2021

मनुष्य के शरीर से ही मुक्ति मिलती है | महर्षि मेँहीँ | Manushya ke sharir se hi mukti milti hai | Maharshi Mehi | Santmat-Satsang | कैसा भी सुंदर और पवित्र शरीर क्यों ना हो...

|| मनुष्य के शरीर से ही मुक्ति मिलती है ||
कैसा भी सुंदर और पवित्र शरीर क्यों ना हो, जिसको हम प्रणाम करते हैं; किंतु यह शरीर परमात्मा या ब्रह्म नहीं है; चाहे वह शरीर इष्ट या गुरु आदि का ही क्यों न हो। कोई भी इंद्रिय-गोचर पदार्थ ब्रह्म नहीं हो सकता है। कोई भी शरीर पवित्र-अपवित्र, सुंदर- असुंदर, जिस शरीर से अद्भुत् कार्य ही क्यों न होता हो, चमकीला हो, दिव्य हो, फिर भी वह परमात्मा नहीं; वह परमात्मा की माया है। पानी का फोंका (बुदबुदा) कुछ काल ठहरता है, फिर फूट जाता है। उसी तरह शरीर थोड़ी देर रहेगा, फिर नाश हो जाएगा। इसलिए भजन करो और डरो कि कब शरीर छूट जाएगा। हम लोग आत्मरत होकर आत्म- चिंतन करके परमात्मा की प्राप्ति करें और उसके सुख को भोगें, यह मनुष्य शरीर का काम है। विषयों का ग्रहण का इंद्रियों से होता है। इनसे जो सुख होता है, वह मनुष्य शरीर पाने का फल नहीं। विषयों से परे जो सुख है, उसे प्राप्त करना, मनुष्य-शरीर का काम है। शरीर को शरीरी इस तरह पहने हैं, जैसे कपड़ा और शरीर। कपड़े शीघ्र बदलते हैं, शरीर बहुत काल तक रहता है। जीवनकाल में बहुत बार कपड़ा पहना जाता है, उसी तरह शरीर पर शरीर बहुत बार हुए। *जिस तरह एक कोई भंडार हो, उससे जो लेना चाहो, ले लो। उसी तरह यह शरीर साधनों का भंडार है, इससे जो कीजिए, सो होगा। मनुष्य का शरीर ही है जिससे मुक्ति मिलती है और ईश्वर मिलते हैं, अन्य किसी शरीर में नहीं। -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ 

बुधवार, 9 जून 2021

बहुत-से शास्त्रों की कथाओं को मथने से क्या फल? -महर्षि मेँहीँ | संतमत-सत्संग | SANT SADGURU MAHARSHI MEHI | SANTMAT-SATSANG


🌼।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।🌼
शार्स्त्रों को मथने से क्या फल?
बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
 महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर॥

संत कबीर साहब का वचन है –
अस संगति जरि जाय, न चर्चा राम की। 
दुलह बिना बारात, कहो किस काम की।।
जिस संगति में रामनाम की चर्चा न हो, वह संगति बेकार है, जैसे बिना दुल्हे की बारात। हमलोगों का सत्संग ईश्वर-भक्ति का वर्णन करता है। इस सत्संग में जो कुछ कहा जाता है, वह परमात्मा राम को प्राप्त करने के यत्न के संबंध में ही। किस यत्न से हम उन्हें पावें, यह हम जानें। स्वरूप से वे कैसे हैं? उनके स्वरूप का निर्णय करके ही हम यत्न जान सकेंगे कि इस यत्न से ईश्वर को प्राप्त करेंगे। इसलिए पहले स्वरूप-ज्ञान अवश्य होना चाहिए।
 
श्रीराम हनुमानजी से कहते हैं -
बहुशास्त्र कथा कन्थारो मन्थेन वृथैव किम्।
अन्वेष्टव्यं प्रयत्नेन मारुते ज्योतिरान्तरम्।। -मुक्तिकोपनिषद्  2
बहुत-से शास्त्रों की कथाओं को मथने से क्या फल? हे हनुमान! अत्यंत यत्नवान होकर केवल अंतर की ज्योति की खोज करो। जैसे अंधकार-घर में बिना प्रकाश के किसी चीज को ढूँढ़ने के लिए कोई जाता है तो उसे वह चीज मिले या नहीं मिले, कोई निश्चित नहीं। किंतु प्रकाश लेकर जाने से वह चीज मिले, संभव है। आँख बंद करने से सब कोई अंधकार देखते हैं। यह मत सोचो कि तुम्हारे अंदर प्रकाश नहीं है। तुम्हारे अंदर प्रकाश नहीं रहने से तुम देख नहीं सकते। साधु, संत और ज्ञानी, ध्यानी, योगी कहते हैं - हमारे अंदर प्रकाश है। इसके लिए किसी जाँच से जाँचते हैं तो जानने में आता है कि यदि हमारे अंदर प्रकाश नहीं होता, तो हम देख नहीं सकते। दो सजातीय वस्तु आपस में सहायक होते हैं, किंतु विजातीय वस्तु को सहायता मिले संभव नहीं। यह दर्शन ज्ञान है। आपकी दृष्टि को प्रकाश से सहायता मिलती है। तब जानना चाहिए कि यह दृष्टि भी प्रकाशस्वरूप है। साधनशील को समझाने की जरूरत नहीं। किंतु जो नहीं जानते हैं, तर्कबुद्धि से जानना चाहते हैं, तो उन्हें जानना चाहिए कि प्रकाश से जब दृष्टि को सहायता मिलती है तो यह दृष्टि भी प्रकाशस्वरूप है। इन दोनों दृष्टियों से जो प्रकाश निकलता है, इसके मूल में ज्योति नहीं हो, तो दोनों दृष्टि में प्रकाश नहीं आ सकता। इसलिए जानना चाहिए कि इसके केंद्र में प्रकाश का पुंज है, वह प्रकाश का पुंज बाहर में नहीं है, अपने अंदर में है। इसलिए हनुमानजी को श्रीराम अंतर की ज्योति की खोज करने कहते हैं। जैसे अंधकार-घर की वस्तु को लोग नहीं पाते, प्रकाश होने से पाते हैं, उसी प्रकार अपने अंदर में ईश्वर है। उसे ढूँढ़ने के लिए प्रकाश की जरूरत है। अंधकार हो तो ठाकुरबाड़ी में ठाकुरजी के रहने पर भी दर्शन नहीं हो सकता। प्रकाश हो जाने से ठाकुरजी का दर्शन होगा। उसी प्रकार आपका शरीर भी ठाकुरबाड़ी है। इसमें प्रकाश कीजिए, तभी ठाकुरजी का दर्शन होगा। अभी सुना, दृश्य और अदृश्य को छोड़कर पुरुष कैवल्यस्वरूप हो जाता है। वह ब्रह्मज्ञानी नहीं, स्वयं ब्रह्मवत् हो जाता है।
केवल विचार से दृश्यमण्डल को पार नहीं कर सकता। इसीलिए दृश्यमण्डल से पार होकर जहाँ तक सीमा है, वहाँ तक आप जाइएगा। पहले ज्योति होकर गुजरना होगा, तब अदृश्य में जाइएगा। यह पहला पाठ है कि ज्योति की खोज करो। जो ज्योति की खोज नहीं करता, वह अदृश्य में नहीं जा सकता। अपने अंदर की ज्योति कोई कैसे खोज करे - अंतर में प्रवेशकर या बाहर फैलकर? अंतर्मुखी होने से ही उस प्रकाश को देख सकेंगे। आप जागते हैं, स्वप्न में जाते हैं, गहरी नींद में जाते हैं। बाहर के सब ख्यालों को छोड़कर आप स्वप्न में जाते हैं। इसलिए जानना चाहिए, अंदर में जाने के लिए। कामों की चिन्ता को छोड़कर प्रवेश कीजिए। सब चिन्ताओं को, काम को साथ में लेकर कोई अन्दर प्रवेश नहीं कर सकता। इसलिए जितने समय भजन करते हो, उतनी देर के लिए भी केवल काम-धंधा, घर की चिन्ताओं को छोड़ो, तभी अपने अंदर में प्रवेश कर सकोगे। बाहरी काम और ख्यालों को छोड़ने के लिए कोई काम चाहिए। जैसे शरीर को साबुन से धोने पर भी मैल उगता रहता है, उसी प्रकार मन में कुछ न कुछ उगता रहता है, यह स्वाभाविक है। विद्यार्थी अपने पाठ को ठीक-ठीक पढ़ेगा, तभी उसको पाठ याद होगा। मन को कुछ करने नहीं दो, ऐसा होगा ही नहीं। जबतक मन की स्थिति है, तबतक मन का काम छूट नहीं सकता। इसलिए संतों ने जप बतलाया। जप भी ऐसा हो कि एकाग्र मन से जप को जपो। चाहे माला, चाहे हाथ पर जपे तो भी अंतर में प्रवेश नहीं कर सकते। जप - वाचिक जप, उपांशु जप और मानस जप; तीन प्रकार के होते हैं। वाचिक जप बोलकर किया जाता है, उपांशु जप में होठ हिलते हैं, पर दूसरे उसे नहीं सुनते हैं और मानस जप मन-ही-मन होता है। इसमें होंठ-जीभ आदि नहीं हिलते। अन्तर में प्रवेश करने के लिए पहले मानस जप कीजिए। वैसा नाम जिसका अर्थ ईश्वर संबंधी है, उस नाम को जपिए, मानस जप के बाद मानस ध्यान कीजिए। अंतर्मुख होकर अंतर में जाना और अंतर में ठहरना मुश्किल है। बड़े अक्षरों को लिखकर ही छोटा अक्षर लिखा जाता है। अंतर की ज्योति ठीक-ठीक ग्रहण करने के लिए पहले जप करें, फिर ध्यान। जप अन्धकार में करता है, ठहरना भी अन्धकार में है। मानस-जप और मानस-ध्यान के बाद विन्दु-ध्यान कीजिए। इसके लिए ऐसा साधन चाहिए कि एकविन्दुता प्राप्त किया जाए।
 एकविन्दुता प्राप्ति के कारण पूर्ण सिमटाव का गुण ऊर्ध्वगति है। तो क्या होता है? मानस-जप, मानस-ध्यान और दृष्टियोग करने से अंधकार से प्रकाश में पहुँच जाएगा। इस प्रकार साधक स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करता है। जिस द्वार से स्थूल से सूक्ष्म, अंधकार से प्रकाश में जाना होता है, वह बता दिया। अब केवल करने मात्र की देरी है। अगर शब्द छूट जाय तो सब छूट जाता है। शब्द अदृश्य है। दृश्य के अवलंब से दृश्य को पार किया जाता है। जैसे पानी के अवलंब से पानी को पार करता है, ज्योति से ज्योति को पार करता है; उसी प्रकार शब्द को पकड़कर शब्द को पार करता है। और उसके परे जो परमात्मा है, उसको प्राप्त कर लेता है। श्रीराम ने कहा –
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्चयत्। 
अनाम गोत्रं मम रूपमीदृशं भजस्व नित्यं पवनात्मजार्त्तिहन्।। 
     - मुक्तिकोपनिषद्, अध्याय 2
हे हनुमान! अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अविनाशी, अस्वाद, अगंध, अनाम और गोत्रहीन, दुःखहरण करनेवाले मेरे इस तरह के रूप का तुम नित्य ध्यान करो। अभी आपलोगों ने संत कबीर साहब का वचन सुना -
नाद विन्दु ते अगम अगोचर, पाँच तत्त्व ते न्यार। तीन गुनन ते भिन्न है, पुरुष अलख अपार।।
विन्दुनाद में रहकर ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकते, नाद को पार करने पर ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। अपार - जिसकी सीमा नहीं है। वह कभी उत्पन्न हो, पीछे बने, संभव नहीं। वह सदा से है। ईश्वरवादी तो मानेंगे ही, किंतु जो अनीश्वरवादी हैं, उनको भी एक अपार तत्त्व को मानना ही पड़ेगा। चाहे उसको ईश्वर नहीं कहकर दूसरा ही नाम कहे। सबको ससीम मानने पर प्रश्न रहेगा ही कि उसके बाद क्या है? जबतक ऐसा नहीं कहो कि असीम है, तबतक प्रश्न हल नहीं होगा। ईश्वर को अपने से पहचानना पड़ेगा। इन्द्रियाँ उसको पहचान नहीं सकतीं।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। 
सो सब माया जानहु भाई।।
रामस्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।

उपनिषदवाक्य है –
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। 
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।
उस परे से परे (ब्रह्म) को देख लेने पर हृदय की ग्रन्थि (गाँठ-गिरह) टूट जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।
लाल लाल जो सब कोई कहे, सबकी गाँठी लाल।
गाँठी खोलि के परखे नाहीं, तासो भयो कंगाल।। 
        -कबीर साहब
कितने आदमी कहते हैं कि, वहाँ आँख नहीं है, देखेंगे कैसे? उन्हें जानना चाहिए कि आपकी सत्ता पर सब इन्द्रियाँ आश्रित हैं। इन्द्रियाँ आपके नौकर-चाकर हैं, इनको शक्ति कहाँ? आपके रहने से ही इन्द्रियाँ देखती-सुनती हैं। आप अकेले होकर रहिए, तब देखिए कि आपमें कितनी शक्ति है। अकेले रहकर ही उसकी पहचान कर सकते हैं।
कैसे पहचान करो? इसके लिए कहा -
सर्गुण की सेवा करौ, निर्गुण का करु ज्ञान। 
निर्गुण सर्गुण के परे, तहैं हमारा ध्यान।। - कबीर साहब
निर्गुण-सगुण के परे क्या है? जो कुछ देखते सुनते हैं, ये पंच विषय सगुण हैं। जड़ के सब रूप सगुण हैं। जड़ के परे चेतन, निर्गुण-सगुण के परे परमात्मा है। कोई कहते हैं - निर्गुण तो हो ही नहीं सकता। तो जिद्द करने पर कहते हैं हाँ, ठीक है। दिव्य-गुण-सहित त्रयगुण-रहित, यह भी तो एक गुण है। इसलिए यह भी सगुण ही है। इसके लिए बड़ी पवित्रता की आवश्यकता है। अंतर हृदय को पवित्र रखो, पंच पापों से बचो, एक ईश्वर पर पूरा भरोसा रखो।
मोर दास कहाइ नर आसा। 
करइ तो कहहूँ कहा विश्वासा।।
लोग यह भी कहते हैं कि सगुण ईश्वर तो प्रत्यक्ष मदद करते हैं, अर्जुन का रथ भी हाँका था। निर्गुण से तो कुछ नहीं हो सकता है। तो देखो - कबीर साहब को पानी में डुबाया गया, पहाड़ से गिराया गया, बर्तन में बंद करके चूल्हे पर चढ़ाकर औंटा गया, तो बर्तन खाली हो गया। कबीर साहब दूसरे ओर से टहलते हुए आ गए। हाथी के पैर के नीचे दबाया गया तो हाथी को वह सिंह-जैसा देखने में आया। साधु से श्राप दिलाने के लिए साधु को निमंत्रण दे दिया।
वह ईश्वर सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं। परमात्मा को साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण या सगुण-निर्गुण के परे, किसी प्रकार भी मानो, किंतु पूर्ण भरोसा रखो, सुख-दुःख में, हानि-लाभ में; सबमें भरोसा रखो। सत्संग करो, ध्यान करो और गुरुजनों की सेवा करो। -संत मेँहीँ
🙏🌹श्री सद्गुरु महाराज की जय🌹🙏

किसी जंगल मे एक गर्भवती हिरणी थी जिसका प्रसव होने को ही था | अब क्या होगा? क्या वो सुरक्षित रह सकेगी? क्या वो अपने बच्चे को जन्म दे सकेगी ? | प्रेरक कहानियाँ |

किसी जंगल मे एक गर्भवती हिरणी थी जिसका प्रसव होने को ही था। उसने एक तेज धाराएं वाली नदी के किनारे घनी झाड़ियों और घास के पास एक जगह देखी जो उसे प्रसव हेतु सुरक्षित स्थान लगा।
अचानक उसे प्रसव पीड़ा शुरू होने लगी, लगभग उसी समय आसमान में काले-काले बादल छा गए और घनघोर बिजली कड़कने लगी जिससे जंगल मे आग भड़क उठी।
वो घबरा गयी, उसने अपनी दायीं ओर देखा लेकिन ये क्या वहां एक बहेलिया उसकी ओर तीर का निशाना लगाये हुए था, उसकी बाईं ओर भी एक शेर उस पर घात लगाये हुए उसकी ओर बढ़ रहा था। अब वो हिरणी क्या करे ?,
वो तो प्रसव पीड़ा से गुजर रही है,
अब क्या होगा?,
क्या वो सुरक्षित रह सकेगी?,
क्या वो अपने बच्चे को जन्म दे सकेगी ?,
क्या वो नवजात सुरक्षित रहेगा?,
या सब कुछ जंगल की आग में जल जायेगा?,
अगर इनसे बच भी गयी तो क्या वो बहेलिये के तीर से बच पायेगी ?
या क्या वो उस खूंखार शेर के पंजों की मार से दर्दनाक मौत मारी जाएगी?
जो उसकी ओर बढ़ रहा है,
उसके एक ओर जंगल की आग, दूसरी ओर तेज धार वाली बहती नदी, और सामने उत्पन्न सभी संकट, अब वो क्या करे?
लेकिन फिर उसने अपना ध्यान अपने नव आगंतुक को जन्म देने की ओर केन्द्रित कर दिया।
फिर जो हुआ वो आश्चर्य जनक था।
कड़कड़ाती बिजली की चमक से शिकारी की आँखों के सामने अँधेरा छा गया, और उसके हाथों से तीर चल गया और सीधे भूखे शेर को जा लगा। बादलों से तेज वर्षा होने लगी और जंगल की आग धीरे-धीरे बुझ गयी।
इसी बीच हिरणी ने एक स्वस्थ शावक को जन्म दिया।
ऐसा हमारी जिन्दगी में भी होता है, जब हम चारो ओर से समस्याओं से घिर जाते हैं, नकारात्मक विचार हमारे दिमाग को जकड़ लेता है, कोई संभावना दिखाई नहीं देती, हमें कोई एक उपाय करना होता है;
उस समय कुछ विचार बहुत ही नकारात्मक होते हैं, जो हमें चिंता ग्रस्त कर कुछ सोचने समझने लायक नहीं छोड़ते।
ऐसे मे हमें उस हिरणी से ये शिक्षा मिलती है की हमें अपनी प्राथमिकता की ओर देखना चाहिए, जिस प्रकार हिरणी ने सभी नकारात्मक परिस्तिथियाँ उत्पन्न होने पर भी अपनी प्राथमिकता "प्रसव" पर ध्यान केन्द्रित किया, जो उसकी पहली प्राथमिकता थी। बाकी तो मौत या जिन्दगी कुछ भी उसके हाथ मे था ही नहीं, और उसकी कोई भी क्रिया या प्रतिक्रिया उसकी और गर्भस्थ बच्चे की जान ले सकती थी।
उसी प्रकार हमें भी अपनी प्राथमिकता की ओर ही ध्यान देना चाहिए।
हम अपने आप से सवाल करें,
हमारा उद्देश्य क्या है, हमारा फोकस क्या है ?,
हमारा विश्वास, हमारी आशा कहाँ है,
ऐसे ही मझधार मे फंसने पर हमें अपने ईश्वर को याद करना चाहिए।
उस पर विश्वास करना चाहिए जो की हमारे ह्रदय मे ही बसा हुआ है।
जो हमारा सच्चा रखवाला और साथी है..!!

शनिवार, 5 जून 2021

मध्य वृत्ति | जहाँ मन रहता है, वहीं जीव रहता है | सदाचार, सद्युक्ति, सद्ज्ञान और अभ्यास जिनमें है, वही सद्गुरु है | Maharshi Mehi | Santmat Satsang

मध्य वृत्ति 
प्यारे लोगो! 
जहाँ मन रहता है, वहीं जीव रहता है। दाईं वृत्ति में चंचलता रहती है, बाईं वृत्ति में मूढ़ता रहती है। दोनों के बीच में रहने से मन सतोगुण में रहता है। अपने मन को बीच अर्थात् सुषुम्ना में रखना चाहिए। आज्ञाचक्र का ध्यान सबसे श्रेष्ठ ध्यान है।  काम भी करो,  परन्तु मन को मध्य  में रखो। मूढ़ता और चंचलता को छोड़कर रहो। चंचलता हैरान करती है और मूढ़ता बेवकूफ बनाकर छोड़ती है। इन तीनों से बचने के लिए मध्यवृत्ति में रहो। सुषुम्ना ही मध्यवृत्ति है। 

सर्वानिन्द्रियकृतान्दोषान्वारयतीति   तेन  वरणा   भवति । 
सर्वानिन्द्रियकृतान्पापान्नाशयतीति तेन नाशी भवतीति ।।

सब पापों और इन्द्रियों के दोषों को जो दूर करता है, वह है वरणा और नासी है। दोनों भौंओं और नासिका का जो मिलन स्थान है, वहीं पर ब्रह्मज्ञानी लोग अपने मन को रखते हैं। परमात्मा की उपासना वरणा और नासी के बीच में करो। स्थूल सृष्टि और सूक्ष्म सृष्टि दोनों का मिलन स्थान भी वहीं है। 

यानि यानि हि प्रोक्तानि पंच पद्मे फलानि वे । 
तानि    सर्वानि  सुतरामेतज्ज्ञानाद्भवन्ति हि ।। -शिव-संहिता 

पाँच चक्रों के जो जो गुण कहे गए हैं, वह आज्ञाचक्र के ध्यान से प्राप्त हो जाता है। दोनों हाथों से  किसी चीज को मजबूती से पकड़ने पर सारा शरीर का बल उस ओर फिर जाता है। उसी प्रकार दृष्टियोग से दृष्टि की धारों को एक जगह पर जोड़ने से इन्द्रियों की सब धारें सिमटकर वहाँ एकत्र हो जाती हैं। इस ज्ञान को बिना सच्चे गुरु के लोग भूले हुए रहते हैं। खोजते फिरते हैं, रास्ता नहीं मिलता है। यह रास्ता मोक्ष में जाने का या ईश्वर को प्राप्त करने का है। कुछ लोग अपने मन से रास्ता ध्र लेते हैं और वही दूसरे को भी बतलाते हैं। इसी तरह परं परांदे अनेक लोग गुरु के पंजे में पड़े हुए हैं। संत कबीर साहब का वचन है- 
बिन सतगुरु नर रहत भुलाना,  खोजत फिरत राह नहीं जाना । 
सतगुरु वह है, जो सद्युक्ति जाने और सदाचार का पालन करते हुए अभ्यास में रत रहे। सदाचार, सद्युक्ति, सद्ज्ञान और अभ्यास जिनमें है, वही सद्गुरु है। ऐसे गुरु नहीं मिलने पर सही ज्ञान नहीं मिलता है और भटकता रहता है। मन गरेडि़या है, जीव सिंह का बच्चा है। इन्द्रियाँ भेड़-बकरियाँ हैं। इस ज्ञान को जाननेवाला साधु-संत हैं। जो जीवों की दशा को जानते हैं, उसे साधु-संत कहते हैं। तुम मन इन्द्रियों के वश में मत रहो, तुम इनके संचालक हो। भांओं से नीचे अर्ध है और भौंओं से ऊपर ऊर्ध्व है। इनके बीच अर्थात् सुषुम्ना में ध्यान लगाओ। बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो जाओ; यही संतों की युक्ति है। पंडितों का वेद और  संतों का भेद है।  

शुक्रवार, 28 मई 2021

तीन प्रकार के शब्द | महर्षि मेँहीँ | Teen prakar ke shabd | Three types of words | Maharshi Mehi | Pravachan | Santmat | Satsang

संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज का प्रवचन:- 
तीन प्रकार के शब्द :
यन्मनसा न   मनुते   येनाहुर्मनो मतम् । 
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।  -केनोपनिषद् खंड-1 
इन्द्रियगम्य पदार्थ और देशकाल से घिरे हुए पदार्थ को ब्रह्म नहीं कहते हैं। जो रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द नहीं है, वह ब्रह्म है। जो देश-कालातीत है, उसको प्राप्त करने पर जीवन्मुक्त हो जाता है। संत कबीर साहब कहते हैं- 
जीवन मुक्त सो मुक्ता हो । 
जब लग जीवन मुक्ता नाहीं।
तब लग दुःख सुख भुगता हो।।
इन्द्रियगम्य पदार्थों में पड़ा रहना बड़ी हानि है। शरीर के रहते ही जीवन्मुक्त होता है।  आकाश एक ही है, लेकिन घर और बाहर के आकाश को अलग- अलग समझने पर वह भिन्न मालूम पड़ता है। सर्वव्यापी का मतलब है कि पिण्ड को भरकर भी बाहर हो। संसार भर के पोथियों को पढ़ जाओ, फिर भी परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकते हो। वह आत्मा से ही पहचाना जाता है। रूप क्या है, जो नेत्र से ग्रहण होता है। चेतन आत्मा पर जड़ शरीर का आवरण पड़ा हुआ है, इसलिए आत्मा का ज्ञान नहीं होता है। कैवल्य दशा में रहकर जानो तब वह जानने में आता है। 1904 ई0 से इस सत्संग से मैं जुड़ा हुआ हूँ। मैंने यही जाना है कि बिना सुरत-शब्द-योग से परमात्मा की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती है। नाद की खोज अन्दर में करनी चाहिए। जिस गूँज में शान्ति है, वह अन्तर्नाद है। मुझको ईश्वर के बारे में बाबा देवी साहब का वचन पसन्द है। उन्होंने कहा-जैसे लाह से लपेटी हुई लकड़ी को अग्नि के ऊपर रखो तो वह लाह अग्नि के द्वारा झड़ जाती है। उसी प्रकार साधन की अग्नि के द्वारा अंदर के आवरणों को दूर किया जाता है। चेतन आत्मा के पवित्र सुख को निर्मल सुख कहते हैं। ऊपर उठने के लिए प्रकाश और शब्द अवलम्ब है। रूप तक प्रकाश पहुँचाता है और अरूप तक शब्द पहुँचाता है।  ज्योति ध्यान,  विन्दु ध्यान पहला साधन  है।  यह देखने  की युक्ति से  होता  है।   

काजर दिये से का भया, ताकन को  ढब   नाहिं ।।  ताकन को ढब नाहिं, ताकन की गति है न्यारी ।      एकटक  लेवै  ताकि ,  सोई   है  पिव  की प्यारी ।।  ताकै     नैन    मिरोरि,  नहीं   चित   अंतै   टारै ।    बिन ताकै  केहि काम, लाख कोउ   नैन  संवारै ।।
ताके     में    है  फेर,  फेर     काजर    में   नाहीं। 
भंगि मिली जो नाहिं, नफा  क्या जोग   के माहीं।। 
पलटू सनकारत रहा, पिय को खिन खिन माहिं । 
काजर दिये से का भया, ताकन को  ढब  नाहिं ।। 
आँखें बन्द करके देखो, एकटक देखो और चित्त को स्थिर करके देखो। मन की एकाग्रता होने पर वृत्ति का सिमटाव होता है। सिमटाव से ऊर्ध्वगति होती है और ऊर्ध्वगति  से परदों का छेदन होता है। इस प्रकार वह  एक  तल से दूसरे तल पर पहुँचता है। शब्द विहीन संसार कभी नहीं होगा। स्थूल, सूक्ष्म आदि मण्डलों में भी शब्द है। श्रवणात्मक, ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक;  तीन प्रकार के शब्द होते हैं। जो केवल सुरत से सुनते हैं  वह श्रुतात्मक है। अनाम से नाम उत्पन्न हुआ। अशब्द से शब्द हुआ। 

आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह । 
परसत  ही  कंचन  भया, छूटा बंधन मोह ।।    
               -संत कबीर साहब 

नाम, अनाम में पहुँचा देता है। संत सुन्दरदासजी महाराज कहते हैं- 
श्रवण बिना  धुनि  सुनै  नयन  बिनु   रूप  निहारै । 
रसना     बिनु     उच्चरै    प्रशंसा   बहु   विस्तारै ।। 
नृत्य   चरण   बिनु   करै  हस्त  बिनु  ताल बजावै । 
अंग बिना  मिलि   संग   बहुत   आनन्द   बढावै ।। 
बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को सेवक भाव  लिये  रहै । 
मिलि परमातम सों आतमा परा भक्ति  सुन्दर कहै।। 
गगन की समाप्ति में मीठी और सुरीली आवाज होती है। वही सार शब्द है गोरखनाथजी महाराज कहते हैं- 
गगन शिखर मँहि बालक बोलहिं वाका नाम धरहुगे कैसा।। 
तथा-    
छः सौ सहस एकीसो जाप। 
अनहद उपजै आपै आप ।। 
शब्द ही परमात्मा तक ले जाएगा। इसीलिए ध्यान करो।     
पूजा  कोटि  समं  स्तोत्रम, स्तोत्र  कोटि   समं  जपः।      
जाप  कोटि  समं  ध्यानं,  ध्यानं  कोटि   समो  लयः ।।  
(यह प्रवचन दिनांक 3-10-1949 ई0 को मुरादाबाद (यू0 पी0) सत्संग मंदिर में अपराह्नकालीन सत्संग के शुभ अवसर पर हुआ था।)
संकलन: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

खरी कसौटी राम की काँचा टिकै न कोय | Khari kasauti Ram ki Kancha tikai na koi | Santmat-Satsang

खरी कसौटी राम की काँचा टिकै न कोय!
गुरु खरी कसौटी के आधार पर शिष्य को परखते हैं, कहीं मेरे शिष्य का शिष्यत्व कच्चा तो नहीं है। ठीक एक कुम्हार की तरह! जब कुम्हार कोई घड़ा बनाता है, तो उसे बार-बार बजाकर भी देखता है - 'टन!टन!' वह परखता है कि कहीं मेरा घड़ा कच्चा तो नहीं रह गया। इस में कोई खोट तो नहीं है।

ठीक इसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य को परीक्षाओं के द्वारा ठोक-बजाकर देखते हैं। शिष्य के विश्वास, प्रेम, धेर्य, समर्पण, त्याग को परखते हैं। वे देखते हैं कि शिष्य कि इन भूषनों में कहीं कोई दूषण तो नहीं! कहीं आंह की हलकी सी भी कालिमा तो इसके चित पर नहीं छाई हुई ? यह अपनी मन-मति को बिसारकर, पूर्णत: समर्पित हो चूका है क्या ?

क्योंकि जब तक स्वर्ण में  मिटटी का अंश मात्र भी है, उससे आभूषण नहीं गढ़े जा सकते। मैले दागदार वस्त्रों पर कभी रंग नहीं चढ़ता। उसी तरह, जब तक शिष्य में जरा सा भी अहम्, स्वार्थ, अविश्वास या और कोई दुर्गुण है, तब तक वह अध्यात्म के  शिखरों को नहीं छू सकता। उसकी जीवन - सरिता परमात्म रुपी सागर में नहीं समा सकती।

यही कारण है कि गुरु समय समय पर शिष्यों की  परीक्षाएं लेते हैं। कठोर न होते हुए भी कठोर दिखने की लीला करते हैं। कभी हमें कठिन आज्ञाएं देते हैं, तो कभी हमारे आसपास प्रतिकूल परिस्थियाँ पैदा करते हैं। क्योंकि अनुकूल परिस्थियाँ में हर कोई शिष्य होने का दावा करता है। जब सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा होता है, तो हर कोई  गुरु-चरणों  में श्रद्धा-विश्वास के फूल आर्पित करता है।

🌿कौन सच्चा प्रेमी है ? इस की पहचान तो विकट परिस्थियाँ में  ही होती है। क्योंकि जरा-सी विरोधी व् प्रतिकूल परिस्थियां आई नहीं कि हमारा सारा स्नेह, श्रद्धा और विश्वास बिखरने लगता है। शिष्त्यव डगमगाने लगता है।

जब श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने शिष्यों को कसौटी पर कसा, तो हजारों के झुण्ड में से सिर्फ पांच  पियारे ही निकले। इस  लिए सच्चा शिष्य तो वही है, जो गुरु की कठिन आज्ञा को भी शिरोधार्य करने का दम रखता है। चाहे कोई भी परिस्थिति  हो, उसका विश्वास, उसकी प्रीत गुरु -चरणों में अडिग रहती है। सच! शिष्य का विश्वास चट्टान की तरह मजबूत होना चाहिए। वह विश्वास नहीं जो जरा-सी विरोध की आँधियों में डगमगा जाए !!
गुरु की परीक्षाओं के साथ  एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य जुड़ा है। वह यह कि परीक्षाएं शिष्य  को केवल परखने के लिए ही नहीं, निखारने के लिए भी होती है। गुरु की परीक्षा एक ऐसी कसौटी है, जो शिष्य के सभी दोष-दुर्गुणों को दूर कर देती है। परीक्षाओं की अग्नि में तपकर जो एक शिष्य कुंदन बन पाता है। कहने का आशय कि गुरु की परीक्षाएं शिष्यों के हित के लिए ही होती है। परीक्षायों के कठिन दौर बहुत कुछ सिखा जाते हैं। याद रखें, सबसे तेज आंच में तपने वाला लोहा ही, सबसे से बड़ा इस्पात बनता है।

इस लिए एक शिष्य के हृदय  में सदैव यही प्रार्थना के स्वर गूंजने चाहिए - 'हे गुरुवर,मुझ में वह सामर्थ्य नहीं कि आपकी कसौटियां पर खरा उतर सकूं। आपकी परीक्षाओं में उतीर्ण हो सकूं। पर आप अपनी कृपा का हाथ सदा मेरे मस्तक पर रखना। मुझे इतनी शक्ति देना कि मैं हर परिस्थिति में इस मार्ग पर अडिग  होकर चल पाऊँ। मुझे ऐसी भक्ति देना कि आपकी कठिन से कठिन आज्ञा को भी पूर्ण समर्पण के साथ शिरोधार्य कर सकूँ। 
(प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम)
🙏जय गुरु महाराज🙏



गुरुवार, 27 मई 2021

हम किधर को जाएँगे, मालूम नहीं ! -महर्षि मेँहीँ | MAHARSHI MEHI | SANTMAT

यहाँ सब कोई मुसाफिर हैं, फिर भी कहते हैं कि मेरा घर है। किसी को यह यकीन नहीं है कि मैं सदा नहीं रहूँगा। 
माया मुलुक को कौन चलावे संग न जात शरीर।

हम किधर को जाएँगे, मालूम नहीं है। संत कबीर जी को बड़ी चिन्ता हो रही है कि संसार से जाना जरूर है। बहुत अन्देशे की बात है। लोग अपना मार्ग नहीं जानते कि कहाँ जाएँगे। यह संसार अज्ञानता का शहर है। इसमें दो जुल्मी फाटक है-एक पुरुष का देह है दूसरा स्त्री का देह है। स्त्री देह में आवे तो भी विकार, पुरुष देह में आवे तो भी विकार। यहाँ से जाने का विचार होता है तो कुबुद्धि उसको जाने नहीं देती। संसय में मत रहो, संसार से हटने (अनासक्त होने) की साधन करो। यहाँ गाफिल मत सोओ। यहाँ मेरा तुम्हारा कोई नहीं। सदा ईश्वर में प्रेम रखो। काम क्रोध लोभ और अहंकार बड़े कठिन कठोर हैं। यह सब शरीर के स्वभाव हैं। उनके वश जो रहते हैं, वे दुःख पाते हैं। जो साधु भजन करता है, उसकी वृत्ति प्रकाश में चली जाती है। उससे निहोरा करो। उस पुरुष का स्वभाव बाहर में बड़ा उत्तम होता है। वह बराबर भजन करता रहता है, जिससे उसका विकार दूर हो जाता है। उनको दया होगी और वे आपको सच्ची राह में लगा देगें। जो पुरुष सच्चा अभ्यासी हो, संयम-नियम से रहता हो उससे निवेदन करो। वह तुमको सही रास्ता पर चढ़ा देगा। उलटो अर्थात बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो जाओ। नौ द्वारों से दसवें द्वार की ओर चलो, यह मकरतार है। आप जिस चेतन धारा से आए हैं वही आपका रास्ता है। वह चेतन धार ज्योति और शब्द रूप में है। अपने पसरे हुए मन को समेटो। सिमटाव होगा तो ऊर्ध्वगति होगी और ऊर्ध्वगति होने से अपने स्थान पर चले जाओगे। शब्द ही संसार का सार है। शब्द ही वह स्फोट है जिससे संसार बना है। सब बनावट कम्पनमय है। कम्प शब्दमय है। सृष्टि गतिशील, कम्पनमय है। जो उस शब्द को पकड़ता है वह सृष्टि के किनारे पर पहुँचता है। जिसके ऊपर सृष्टि नहीं है, वह परमात्मा है। मानसजप, मानसध्यान से दृष्टियोग करने की योग्यता होती है। दृष्टियोग से  शब्द मार्ग में चलने की योग्यता होती है। 
सद्गुरु वैद्य वचन विश्वासा।
संयम यह न विषय की आशा।

सद्गुरु वचन पर विश्वास करो, संयम से रहो सत्संग भजन करते रहो इसी में कल्याण है। 
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज।

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...