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शनिवार, 30 जून 2018

वर्तमान में जीने से मिलता है सुख और कल्पनाएं देती हैं दुख | Vartmaan me jeene se milta hai sukh aur kalpnayen deti hai dukh | Santmat-Satsang

वर्तमान में जीने से मिलता है सुख और कल्पनाएं देती हैं दुख

प्रसन्न जीवन का सीधा फार्मूला है कि हम वर्तमान में जीना सीखें। जो लोग अतीत में या भविष्य में जीते हैं, उनके ऐसे जीने के अपने खतरे हैं। वे अतीत से इतने गहरे जुड़ जाते हैं कि उससे अपना पीछा नहीं छुड़ा पाते। सोते-जागते, बीती बातों में ही खोए रहते हैं। उन्हें नहीं पता कि अतीत सुख से ज्यादा दुख देता है। स्मृतियां सुखद हैं तो कल्पना में हर समय वे ही छाई रहती हैं। बात-बात में आदमी जिक्र छेड़ देता है कि मैंने तो वह दिन भी देखे हैं कि मेरे एक इशारे पर सामने क्या-क्या नहीं हाजिर हो जाता था। क्या ठाट थे। खूब कमाया और खूब लुटाया। एक फोन से घर बैठे कितने लोगों के काम करा देता था- इस तरह की न जाने कितनी बातें। इससे उन्हें एक अव्यक्त सुख मिलता है, मगर उससे कहीं ज्यादा दुख मिलता है कि अब वैसे दिन शायद नहीं आएंगे।
हालांकि पीड़ा और दुख सार्वभौमिक घटनाएं हैं। इसका कारण है दूसरों का अनिष्ट चिंतन करना। इस तरह का व्यवहार स्वयं को भारी बनाता है और प्रसन्नता लुप्त कर देता है। किसी का बुरा चाहने वाला और बुरा सोचने वाला कभी प्रसन्न नहीं रह सकता। वह ईर्ष्या और द्वेष की आग में हर समय जलता रहता है। मलिनता हर समय उसके चेहरे पर दिखाई देगी। एक अव्यक्त बेचैनी उस पर छाई रहेगी। उद्विग्न और तनावग्रस्त रहना उसकी नियति है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि प्रसन्नता को कायम रखना है तो दूसरों के लिए एक भी बुरा विचार मन में नहीं आना चाहिए। मन में एक भी बुरा विचार आया तो वह तुम्हारे लिए पीड़ा और दुख का रास्ता खोल देगा। दूसरे के लिए सोची गई बुरी बात तुम्हारे जीवन में ही घटित हो जाएगी।
।। जय गुरु महाराज ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

संतमत के वर्तमान आचार्य महर्षि हरिनन्दन परमहंस महराज की जीवनी | Santmat AAcharya | Jeevni | Maharshi Harinandan Paramhans | Santmat-Satsang

संतमत के वर्तमान आचार्य महर्षि हरिनन्दन परमहंस महराज की जीवनी। 

भारत-भूमि का बिहार राज्य अपनी विशिष्टताओं के कारण अत्यन्त गौरवशाली है। बिहार के मिथिलांचल को इसका श्रेय जाता है। पूर्वकाल से ही मिथिलांचल सन्त-महात्माओं एवं बड़े-बड़े विद्वानों की तपस्या-भूमि तथा उनका कार्य-क्षेत्र रहा है। इसी मिथिलांचल के कोशी प्रक्षेत्र में सुपौल जिले के त्रिवेणीगंज प्रखण्डान्तर्गत 'मनहाद्ध नाम की एक सघन आबादीवाली बस्ती है। सद्गुरू महर्षि मेंहीँ परमहंसजी महाराज के सेवक शिष्य स्वामी श्री हरिनन्दन दासजी महाराज का जन्म इसी ग्राम में चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को सन् 1934 ई0 को हुआ था। (पूज्य आचार्यश्री का जन्म 23 मार्च 1934 को हुआ था। आज 25 मार्च 2018 को उनकी 85वीं जयन्ती (84वीं वर्षगाँठ अथवा सालगिरह) है भारतीय तिथि के अनुसार)। यदुकुलभूषण स्व0 कैलू प्रसाद यादवजी इनके सौभाग्यशाली पिता थे। स्वर्गीय सुखिया देवी इनकी पूजनीया माताजी थीं। आपके पिताजी बहुत ही सात्त्विक विचार, सरल स्वभाव एवं शान्त प्रकृति के धर्मात्मा व्यक्ति थे। आपकी पूजनीया माताजी भी बहुत ही षुद्ध, सरल एवं कोमल स्वभाव की परम साध्वी भक्तिमती महिला थीं। माता-पिता की छाया में उनके सदाचरण का सुप्रभाव आपके मन पर पड़ा, जिसने आपको अन्य बालकों से भिन्न तथा भगवद्भक्तिपरायण बना दिया। बालपन में पड़ोस के बच्चों के साथ खेलते हुए रामानन्दी सम्प्रदाय के महात्माओं को देखकर आप भी उन्हीं की तरह वेष बनाकर पूजन किया करते थे। घर पर बहुत ही पवित्रता तथा श्रद्धा के साथ खेलते हुए रामानन्दी सम्प्रदाय के महात्माओं को देखकर आप भी उन्हीं की तरह वेष बनाकर पूजन किया करते थे। घर पर बहुत ही पवित्रता तथा आप देवी-देवताओं की पूजा देर तक किया करते थे। आप दो भाई तथा आपकी तीन बहनें हैं। बडे़ भाई स्व0 दरोगीप्रसाद यादव थे।

शिक्षा एवं आध्यात्मिक जीवन: उस समय आपके गाँव में पढे़-लिखे लोगों की संख्या बहुत कम थी। माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ने-लिखने को विशेष रूप से प्रेरित नहीं करते थे। आपके पिताजी ने भी आपको विद्यालय जाने और पढ़ने के लिए नहीं कहा। लेकिन दूसरे बच्चों को स्कूल जाता देख आपने स्वयं ही विद्यालय जाने की इच्छा प्रकट की और पिताजी की आज्ञा लेकर स्कूल जाने लगे। पढने में आपका बहुत मन लगता था पाठय-पुस्तकों के अतिरिक्त आपने अन्यान्य विषयों की पुस्तकों पुस्तकालय से लाकर पढ़नी शुरू कर दी। आपकी परिश्कृत अभिरूचि तथा संस्कारों ने आपकी क्रमशः आध्यात्मिक पुस्तकों के अध्ययन-मनन की ओर प्रवृत्त किया। आपकी प्राथमिक शिक्षा ग्रामीण स्कूल से आरम्भ हुई और माध्यमिक शिक्षा के लिए आप त्रिवेणीगंज पढ़ने जाते थे। वहाँ से आपने दसवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की। आप अपने वर्ग में प्रथम स्थान पाते हुए सभी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होते थे। स्वयं तथा ग्रामवासियों के लिए कीमती पुस्तकें खरीदकर पढ़ना सम्भव नहीं है, यह सोचकर आपने गाँव में एक पुस्तकालय की स्थापना करने का निश्चय किया। आपने अपने मित्रों के साथ मिलकर इस योजन को कार्यरूप में परिणत करने के लिए प्रयत्न शुरू कर दिया। गाँववालों ने भी सर्वहित के इस कार्य में सहयोग दिया। स्थानीय सत्संग मन्दिर में पूज्य मोती बाबा ने इस पुस्तकालय के लिए एक कक्ष प्रदान करने की कृपा की। पामाराध्य गुरूदेव महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज के नाम इस पुस्तकालय की स्थापना हो गई। गुरूदेव के शुभाषीर्वाद के फलस्वरूप थोडे़ ही समय में पुस्तकालय की बहुत उन्नति हो गई। पुस्तकालय के संचालन का पूरा भार आपने ही स्वेच्छा से उठा लिया और इसी क्रम में अपना वासा भी सत्संग मन्दिर मं ही रख लिया। वहाँ होनवाली स्तुति-प्रार्थना में आप नियमित रूप से सम्मिलित होते तथा सत्संग-प्रवचन सुनने का सौभाग्य आपको अनायास ही प्राप्त होने लगा। फलतः, आपका झुकाव सत्संग की ओर विषेश रूप से होने लगा। अतः आपने आध्यात्मिक ज्ञान की पिपासा के कारण पढाई स्थगित कर दी। आपकी प्रवृत्ति और सत्संग के प्रति आपके आकर्षण को देखकर पिताजी ने आपका विवाह कर देना ही श्रेयस्कर समझा। किन्तु आपने विवाह करना अस्वीकार कर दिया। इस दिशा  में आपके पिताजी के सारे प्रयत्न आपके दृढ़ निष्चय के समक्ष निष्फल हुए।

    धीरे-धीरे आपका अधिकांश समय सत्संग मन्दिर में ही व्यतीत होने लगा, जहाँ आप सत्संग की पुस्तकें तथा अन्य आध्यात्मिक ग्रन्थों का अध्ययन-अनुशीलन करते रहते थे। भोजन के लिए भी जब आपने घर जाना बन्द कर दिया तो आपकी माताजी स्नेहवश स्वयं भोजन लेकर सत्संग मन्दिर आ जाती थीं। सन् 1954 ई0 के अक्टूबर माह की बात है। उस समय गुरूदेव सिकलीगढ़ धरहरा में विराज रहे थे। आपने वहाँ जाकर उनसे भजन-भेद की दीक्षा ले ली और घर से विरक्त होकर अधिकांश समय सत्संग मन्दिर में साधना -भजन और अध्ययन-चिन्तन में व्यतीत करने लगे।
    जब स्कूली शिक्षा का त्याग कर आप मचहा सत्संग मन्दिर में पुस्तकालय का संचालन करते हुए वैरागी साधु की तरह रहने लगे, तब करीब दो वर्षो के बाद अप्रैल, 1957 ई0 में महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज सत्संग-प्रचार के सिलसिले में मचहा ग्राम पधारे। वहाँ तीन दिनों तक सत्संग का आयोजन हुआ। उस सत्संग में आप भी सम्मिलित हुए और महर्षि जी के दर्शन-प्रवचन से बहुत प्रभावित हुए। सत्संग में आपको विचि़त्र शान्ति का अनुभव हुआ, अशांत मन को शान्त करने का संबल मिला। सत्संग के दौरान अपने प्रवचन में गुरू महाराज ने आपको लक्ष्य करके कहा था- ’’जिन्होंने माता-पिता और घर का त्याग कर दिया है, उनका किसी छोटे कार्य में उलझे रहना ठीक नहीं है। जिस ध्येय की प्राप्ति के लिए माता-पिता के स्नेह-बंधन को तोड़ा है, उसके लिए यत्न नहीं किया जाय तो उनका गृह-त्याग देना महत्त्वहीन है। उनका छोटे-मोटे व बाहरी कार्यों में उलझे रहने से कल्याण नहीं होगा।’’ गुरू महाराज की अमृत वाणी आपके अन्तर में बद्धमूल हो गयी और आपके मन में वैराग्य की भावना प्रबलतर हो उठी। आपका मन गुरूसेवा के लिए विचलित हो उठा। गुरू महाराज के कल्याणकारी सांकेतिक वचनों से पुस्तकालय-प्रभारी के दायित्वों से विचलित होकर उसी समय आपने गुरू महाराज से विनीत प्रार्थना की कि ’मुझे भी अपनी सेवा में रख लेने की कृपा करें।’

    उस समय गुरूदेव की सेवा में पहले से ही दो सेवक पूज्य श्री सन्तसेवी जी महाराज तथा पूज्य श्री भूपलाल बाबा मौजूद थे। किसी अन्य सेवक की उस समय गुरू महाराज को आवष्यकता नहीं थी, किन्तु आपकी प्रार्थना को स्वीकार करते हुए उन्होंने आपको अपने साथ रख लेने की कृपा की। तब से आप गुरू महाराज के साथ ही रहने लगे। उस समय गुरू महाराज द्वारा सम्पादित ’सत्संग-योग’ का प्रथम संस्करण प्रकाषित हुआ था, जिसमें बहुत सारी अषुद्धियाँ रह गई थीं। इन अशुद्धियों को आप मनिहारी आश्रम में रहकर शुद्ध किया करते थे। यह काम 1961 ई0 तक चलता रहा। इसके बाद से आप गुरूदेव के भण्डारी का काम करने लगे, जो 1973 ई0 तक लगातार चलता रहा। 1974 ई0 से 1975 ई0 तक ’शांति -सन्देश’-प्रेस के कार्य-भार का दायित्व आपने अपने ऊपर ले लिया। सन् 1964 ई0 में गुरू महाराज ने आपको संन्यासी वस्त्र का अधिकारी मानकर गैरिक वस्त्र प्रदान किया था, साथ ही शब्दयोग की क्रिया भी बतायी थी।
    एक बार की घटना है कि गुरू महाराज किसी का कोई चढ़ाव नहीं लेते थे, चाहे वह अन्न, वस्त्र, रूपये-पैसे कुछ भी हो। गुरूदेव की सेवा करने से वंचित हो जाने के कारण श्रद्धालु भक्त जन व्याकुल थे। तब पूज्य श्री हरिनन्दन जी महाराज लोगों के बहुत अनुनय-विनय पर उनके द्वारा दी गई वस्तुओं और रूपयों को अपने पास रख लेते थे, ताकि उनकी भक्ति-भावना आहत न हो और गुरू महाराज को इसकी जानकारी नहीं देते। सन् 1971 ई0 में जब गुरू महाराज अस्वस्थ हुए तो पूज्य श्री हरिनन्दन जी महाराज ने भक्तों द्वारा दिये हुए रूपयों से पटना में चिकित्सा करवाई और शेष रूपयों को पास में ही रहने दिया। गुरूदेव तो अन्तर्यामी थे। स्वस्थ होने पर उन्होंने पूछा कि मेरी चिकित्सा के लिए रूपये कहाँ से खर्च हुए? तब गुरूदेव को सारी बातों से अवगत कराया गया और बताया गया कि इतने रूपये शेष हैं। उन रूपयों को वर्तमान आचार्य महर्षि हरिनन्दन जी महाराज ने लाकर गुरूदेव के सम्मुख रख दिया। इसपर गुरू महाराज ने कहा, ’’तुम्हारा हाथ कभी पैसे से खाली नहीं रहेगा।’’


    विद्यार्थी जीवन से ही अध्ययन और पठन-पाठन का जो क्रम पूज्य हरनिन्दन जी महाराज के साथ चला, वह आज भी अनवरत रूप से जारी है। आध्यात्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त आपने विभिन्न विषयों की अनेकानेक पुस्तकें पढ़ीं और उनसे ज्ञान का संचय किया। इसी अध्ययन से आपको प्राकृतिक चिकित्सा का विस्तृत ज्ञान प्राप्त हुआ और इस चिकित्सा पद्धत्ति पर आपका विशवास दृढ़ हुआ। सन् 1972 ई0 मे अस्वस्थ होने पर आपने प्राकृतिक चिकित्सा करवायी थी। गुरू महाराज के भोजन बनाने के लिए आपने गुरूप्रसाद दासजी को प्रषिक्षित किया और एक दिन परमाराध्य गुरूदेव से प्रार्थना की, ’’हुजूर! मेरी इच्छा हो रही है कि मैं एक बार अपनी प्राकृतिक चिकित्सा करवाऊँ। गुरू प्रसादजी आपके लिए भोजन बनाना सीख गये हैं। जबतक मैं उपचार में रहूँगा, ये आपका भोजन बनाते रहेंगे।’’ गुरू महाराज ने सहर्श आपको आज्ञा प्रदान करने की कृपा की। आप उपचार के लिए रानीपतरा गये, किन्तु गरू महाराज के सान्निध्य का लाभ छोड़ कर रहने में आपका चित्त विचलित रहने लगा। अतः इलाज बीच मेें ही छोड़कर आप वापस कुप्पाघाट आश्रम आ गये और फिर इलाज भी वहीं करवाया। आपके स्वास्थ्य-लाभ के बाद गुरू महराज गुरूप्रसादजी को वहीं भेजना चाहते थे, जहाँ से वह आये थे, किन्तु आपकी विनती पर गुरू महाराज ने उनको भी हमेशा के लिए अपने पास ही रख लिया।
    इस तरह महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज गुरू महाराज की सेवा में सदा तत्पर रहा करते थे। पूज्य श्री शाही स्वामीजी महाराज के बाद स्वामी श्रीचतुरानन्द बाबा महर्षि मेंहीं आश्रम, कुप्पाघाट के व्यवस्थापन का कार्य करते थे। तत्पश्चात् यह दायित्व आपके ऊपर आ गया। अ0 भा0 सन्तमत-सत्संग-महासभा के निर्णयानुसार सन् 1987 ई0 से आपने भजन-भेद देना प्रारम्भ किया। अभी तक आपने कई हजारों लाखों की संख्या में सत्संगी श्रद्धालुओं को दीक्षित किया है।
     परम पूज्य आचार्य श्री हरिनन्दन परमहंस जी महाराज बहुत ही ध्यानी संत हैं। इनका जीवन सादगी और सात्त्विकता का प्रतीक है। जय गुरु।
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गुरुवार, 28 जून 2018

दान | Daan | Donation | व्यक्ति के व्यक्तित्व को ऊंचा उठाने के लिए महत्त्वपूर्ण है ‘दान’ | Santmat-Satsang

|| दान ||

व्यक्ति के व्यक्तित्व को ऊंचा उठाने के लिए महत्त्वपूर्ण है ‘दान’। किसी संस्था, मंदिर या किसी गरीब को सहयोग कर देना ही दान नहीं है। प्रेम, सहयोग और करुणा का दान भी आपके जीवन का अंग होना चाहिए।
परमात्मा की प्रकृति में बादलों का स्वभाव ही देना है। उनकी महत्ता इसी बात में है कि वे बरसें। संसार के लिए जो वस्तु उपयोगी है, वही महत्त्वपूर्ण है।

हमारा उपयोग जब समाज और मानवता के हित में हो, तभी हम और आप उपयोगी और पूजनीय कहलाएंगे। स्वयं से यह प्रश्न अवश्य करें कि परिवार को आपने क्या दिया? समाज को आपने क्या दिया? राष्ट्र को आपने क्या दिया? धरती को आपने क्या दिया? संसार को क्या देकर जाएंगे? पेड़-पौधे सब अपने बीज धरती पर छोड़कर जाते हैं। यह परंपरा चलती रहनी चाहिए। हरियाली की परंपरा, फलों की परंपरा, फूलों की परंपरा, जाते समय संसार को कुछ-न-कुछ देकर जाने की परंपरा संसार से मिटनी नहीं चाहिए। जो व्यक्ति बांटना सीख गया, देना सीख गया, उसे जीना आ गया।

आप दाता बनें इसके लिए यह जरूरी नहीं कि कोई दूसरे भिखारी बनें। दान सहयोग है, प्रेम है जो एक भाई दूसरे भाई को देना चाहता है। एक दूसरे के प्रति सहयोग ही दान है। किसी को खून की आवश्यकता पड़ गयी तो आपने खून दे दिया, अहसान जताने की कोई बात नहीं। इंसान दूसरे इंसान के काम आया, यह दान है। समाज मे सहयोग की भावना पैदा करना और सहयोग की भावना जगाना भी दान है। कमजोर को बलवान बनाने की चेष्टा करना दान है। फिर जब वह बलवान हो जाए तब उसको तैयार करना कि वह भी किसी कमजोर का सहयोग कर उसे स्वावलंबी बनाए। इसे दान भावना कहा गया है।

तीन लोक नौ खंड में गुरु से बड़ा न कोय।
करता करे न करिय सके, गुरु करे सो होय।।

जय गुरु महाराज ! 
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

रविवार, 24 जून 2018

एक मुंह और दो कान का अर्थ ... | Ek munh aur do kaan ka artha | हम अगर एक बात बोलें तो कम से कम दो बात सुनें भी | Santmat-Satsang

"एक मुँह और दो कान का अर्थ है कि हम अगर एक बात बोलें तो कम से कम दो बात सुनें भी।"

दूसरे को दबाना अहंकार कहलाता है!
एक जीव दूसरे जीव का शत्रु नहीं होता, बल्कि मित्र होता है। हमारे द्वारा किये गये पाप कर्म ही वास्तव में हमारे शत्रु हैं। ज्ञानी वही है जो दूसरों के दोष न देखकर गुणों को देखता है।
अहंकारी व्यक्ति सामने वाले को नीचा दिखाने का प्रयत्न करता है। नीचा दिखाने वाला नीच और ऊंचा उठाने वाला उच्च व्यक्ति होता है। पद प्रतिष्ठा, धन दौलत आदि पाकर सामने वाले को दबाना और नीचा दिखाना अहंकार कहलाता है।

मद आठ प्रकार के होते हैं, मद मूढ़ता और अनायतन हमारी श्रद्धा को खंडित करती है। श्रद्धा के बिना कार्य की सिद्धी नहीं होती। परमात्मा की प्राप्ति के लिए श्रद्धा सीढ़ी का कार्य करती है। श्रद्धा को मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी कहा गया है।
सत्संग भाग्य से मिलता है। ध्यान-भजन करना पड़ता है। भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाला व्यक्ति, चमक दमक में रहने वाला, पद - प्रतिष्ठा चाहने वाला, अहंकार से युक्त व्यक्ति कभी भी पूर्ण ईश्वर भक्त नहीं हो सकता। ऐसे व्यक्ति सिर्फ़ अपनी स्वार्थ सिद्धि एवं वर्चस्व के लिए धर्म में प्रवेश करता है। ऐसे व्यक्ति बाहर से धार्मिक कहलाते हैं अन्दर से होते नहीं। समय का इंतजार न करें बल्कि समय का सदुपयोग कर अन्तः स्थल से धार्मिक बनें। अगर हमारा लक्ष्य सत्संग है, प्रभु प्राप्ति है तो हमें समय रहते ही सचेत होकर असल मन से पवित्रात्मा होकर उस ओर लगना चाहिए, न कि किसी वाद -विवाद में पड़ कर समय नष्ट करना चाहिए। सोच ऊंची और बड़ी होनी चाहिए। तभी हम असल में धार्मिक हो सकते हैं।
दूसरों की निंदा न करें, निंदा करने वाला अपने ऊपर कीचड़ उछालकर अपनी आत्मा को काला करता है। दूसरों की प्रशंसा करोगे तो लोग आपकी प्रशंसा करेंगे। यदि आप किसी को सहारा नहीं दे सकते तो धक्का देकर मत गिराओ।

याद रखें...
"देने के लिए दान, लेने के लिए ज्ञान, और त्यागने के लिए अभिमान सर्वश्रेष्ठ है।"
-"महान बनने की चाहत तो हर एक में हैं... पर पहले इंसान बनना अक्सर लोग भूल जाते हैं..."
"यदि किसी भूल के कारण कल का दिन दु:ख में बीता है तो उसे याद कर आज का दिन व्यर्थ में न बर्बाद करो।" - स्वामी विवेकानंद
-"जिस समय हम किसी का अपमान कर रहे होते हैं, दरअसल, उस समय हम अपना सम्मान खो रहे होते है..."
-"किसी शांत और विनम्र व्यक्ति से अपनी तुलना करके देखिए, आपको लगेगा कि, आपका घमंड निश्चय ही त्यागने जैसा है। "

प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

शनिवार, 23 जून 2018

संतों का दर्शन और सत्संग का फल बहुत बड़ा होता है। Sant Darshan | Satsang ka fal bahut bara hota hai | एक होता है कर्म, दूसरी होती है भक्ति, तीसरा होता है ज्ञान | Santmat-Satsang

संतो का दर्शन और सत्संग का फल बहुत बड़ा होता है। 
अपने जीवन में आप तीर्थ करते है तो बहुत अच्छी बात है। आप दान-पुण्य करते है तो बहुत अच्छी बात है।  यज्ञ-याग करते है तो बहुत अच्छी बात है। लेकिन इनका पुण्य फल आपको सुख देकर फल नष्ट हो जायेगा। पाप पुण्य का फल दुःख देकर पाप नष्ट हो जाता है। पुण्य सुख देकर नष्ट हो जाता है। लेकिन सत्संग का वो फल नष्ट नहीं होता।

तीर्थ नाये एक फल संत मिले फल चार। (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष)
सतगुरु मिले अनंत फल कहत कबीर विचार।।

जो सतगुरु का सत्संग पहुंचाते है, अखबार वाले, मुख्य संपादक है, पत्रकार जो भी उसमें सक्रिय होते हैं मुझे तो उनपे मधुर संतोष, प्रसन्नता होती है।
एक होता है कर्म, दूसरी होती है भक्ति, तीसरा होता है ज्ञान। लेकिन ये तब तक कर्म-कर्म रहता है, भक्ति-भक्ति रहती है, ज्ञान-ज्ञान रहता है। जब तक उसमें ईश्वर का रस, ईश्वर का महत्त्व और ईश्वर को पाये महापुरुष का सहयोग नहीं मिलता तब हम कर्म में फँसे रहते हैं। जब सत्संग मिल जाता है तो हमारा कर्म, कर्मयोग हो जाता है। ये सब कर्म – कर्मयोग होता है।भक्ति-भक्तियोग हो जाती है और ज्ञान- ज्ञानयोग हो जाता है। योग माना जिससे हम बिछड़े है, उससे मिलाने वाला सत्संग मिल गया। बिछड़े है जो प्यारे से दलबदल भटकते-फिरते है। अपने आनंदस्वरूप प्रभु से बिछड़कर दुखी हैं। लेकिन सत्संग अपने आप में सुखी कर देता है, अपने-आप में तृप्त कर देता है। _*सतृप्त भवति, संसतुष्ट भवति, स अमृतो भवति स तारन्ति लोकांतारिति।*_ वो तरता है दूसरों को तारता है। जय गुरु।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

सोमवार, 18 जून 2018

मांस का मूल्य | Maans ka mulya | Shakahaar |

"मांस का मूल्य"
मगध सम्राट् बिंन्दुसार ने एक बार अपनी राज्य-सभा में पूछा: "देश की खाद्य समस्या को सुलझाने के लिए सबसे सस्ती वस्तु क्या है?"

मंत्री परिषद् तथा अन्य सदस्य सोच में पड़ गये।

चावल, गेहूं, ज्वार, बाजरा आदि... तो बहुत श्रम बाद मिलते हैं और वह भी तब, जब प्रकृति का प्रकोप न हो। ऐसी हालत में अन्न तो सस्ता हो नहीं सकता।

शिकार का शौक पालने वाले एक अधिकारी ने सोचा कि मांस ही ऐसी चीज है, जिसे बिना कुछ खर्च किये प्राप्त किया जा सकता है।

उसने मुस्कुराते हुऐ कहा: राजन्.. सबसे सस्ता खाद्य पदार्थ मांस है। इसे पाने में पैसा नहीं लगता और पौष्टिक वस्तु खाने को मिल जाती है।

सभी ने इस बात का समर्थन किया, लेकिन मगध का प्रधान मंत्री आचार्य चाणक्य चुप रहे।

सम्राट ने उससे पूछा: आप चुप क्यों हो? आपका इस बारे में क्या मत है?

चाणक्य ने कहा: यह कथन कि मांस सबसे सस्ता है, एकदम गलत है। मैं अपने विचार आपके समक्ष कल रखूँगा।

रात होने पर आचार्य चाणक्य सीधे उस सामन्त के महल पर पहुंचे, जिसने सबसे पहले अपना प्रस्ताव रखा था।

आचार्य चाणक्य ने द्वार खटखटाया..

सामन्त ने द्वार खोला, इतनी रात गये चाणक्य को देखकर वह घबरा गया। उनका स्वागत करते हुए उसने आने का कारण पूछा?

चाणक्य ने कहा: संध्या को महाराज एकाएक बीमार हो गए हैं। उनकी हालत नाजुक है। राजवैद्य ने उपाय बताया है कि किसी बड़े आदमी के हृदय का दो तोला मांस मिल जाय तो राजा के प्राण बच सकते हैं।

आप महाराज के विश्वास पात्र सामन्त है। इसलिए मैं आपके पास आपके हृदय का दो तोला मांस लेने आया हूँ।

इसके लिए आप जो भी मूल्य लेना चाहें, ले सकते हैं। कहें तो लाख स्वर्ण मुद्राऐं दे सकता हूँ।

यह सुनते ही सामान्त के चेहरे का रंग फीका पड़ गया। वह सोचने लगा कि जब जीवन ही नहीं रहेगा, तब लाख स्वर्ण मुद्राऐं किस काम की ?

उसने चाणक्य के पैर पकड़ कर माफी चाही और अपनी तिजोरी से एक लाख स्वर्ण मुद्राऐं देकर कहा, कि इस धन से वह किसी और सामन्त के हृदय का मांस खरीद लें।

मुद्राऐं लेकर आचार्य चाणक्य बारी-बारी सभी सामन्तों, सेनाधिकारियों के द्वार पर पहुँचे और सभी से राजा के लिऐ हृदय का दो तोला मांस मांगा, लेकिन कोई भी राजी न हुआ।

सभी ने अपने बचाव के लिये चाणक्य को दस हजार, एक लाख, दो लाख और किसी ने पांच लाख तक स्वर्ण मुद्राऐं दे दीं।

इस प्रकार करीब दो करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का संग्रह कर आचार्य चाणक्य सवेरा होने से पहले अपने महल पहुँच गए।

राज्यसभा में आचार्य चाणक्य ने राजा के समक्ष दो करोड़ स्वर्ण मुद्राऐं रख दीं।

सम्राट ने पूछा: यह सब क्या है? यह मुद्राऐं किसलिऐ हैं?

आचार्य चाणक्य ने सारा हाल सुनाया और बोले: दो तोला मांस खरीदने के लिए इतनी धनराशि इक्कट्ठी हो गई फिर भी दो तोला मांस नहीं मिला।

अपनी जान बचाने के लिऐ सामन्तों ने ये मुद्राऐं दी हैं। राजन अब आप स्वयं सोच सकते हैं कि मांस कितना सस्ता है?

जीवन अमूल्य है। हम यह न भूलें कि जिस तरह हमें अपनी जान प्यारी होती है, उसी तरह सभी जीवों को प्यारी होती है।

हर किसी को स्वेछा से जीने का अधिकार है। प्राणी मात्र की रक्षा हमारा धर्म है।

शुद्ध आहार शाकाहार...
मानव आहार शाकाहार...

शाकाहार अपनाअो 

ईश्वर का रूप है पिता | Eshwar ka roop hai pita | International Father's Day | वैसे तो हमारी भारतीय संस्कृति में माता-पिता का स्थान पहले ही सर्वोच्च रहा है |

ईश्वर का रूप हैं 'पिता' -
International father's day,

वैसे तो हमारी भारतीय संस्कृति में माता-पिता का स्थान पहले ही सर्वोच्च रहा है, किन्तु आजकल वैश्वीकरण के प्रभाव में हम विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय दिवसों को भी ख़ुशी-ख़ुशी सेलिब्रेट करते हैं. वैसे भी हमारी संस्कृति हर तरह के सद्विचारों और मूल्यों का स्वागत करती रही है और इस लिहाज से प्रत्येक वर्ष जून के तीसरे रविवार को 'इंटरनेशनल फादर्स डे' (International father's day) का दिन प्रत्येक व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण है। आखिर, हर कोई किसी न किसी की 'संतान' तो होता ही है और इसलिए उसका फ़र्ज़ बनता है कि वह अपने पिता के प्रति अपने जीवित रहने तक सम्मान का भाव रखे, ताकि अगली पीढ़ियों में उत्तम संस्कार का प्रवाह संभव हो सके। अक्सर गलतियों पर टोकने, बाल बढ़ाने, दोस्तों के साथ घूमने और टी.वी. देखने के लिए डांटने वाले पिता की छवि शुरु में हम सबके बालमन में हिटलर की तरह रहती है. लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, हम समझते जाते हैं कि हमारे पिता के हमारे प्रति कठोर व्यवहार के पीछे उनका प्रेम ही रहता है. बचपन से एक पिता खुद को सख्त बनाकर हमें कठिनाइयों से लड़ना सिखाता है तो अपने बच्चों को ख़ुशी देने के लिए वो अपनी खुशियों की परवाह तक नहीं करता। एक पिता जो कभी मां का प्‍यार देते हैं तो कभी शिक्षक बनकर गलतियां बताते हैं तो कभी दोस्‍त बनकर कहते हैं कि 'मैं तुम्‍हारे साथ हूं'। इसलिए मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि पिता वो कवच हैं जिनकी सुरक्षा में रहते हुए हम अपने जीवन को एक दिशा देने की सार्थक कोशिश करते हैं। कई बार तो हमें एहसास भी नहीं होता कि हमारी सुविधाओं के लिए हमारे पिता ने कहाँ से और कैसे व्यवस्था की होती है। यह तब समझ आता है, जब कोई बालक पहले किशोर और फिर पिता बनता है।


जाहिर है, अपने बच्चे के लिए तमाम कठिनाईयों के बाद भी पिता के चेहरे पर कभी शिकन नहीं आती। शायद इसीलिए कहते हैं कि पिता ईश्वर का रूप होते हैं, क्योंकि खुद सृष्टि के रचयिता के अलावा दुसरे किसी के भीतर ऐसे गुण भला कहाँ हो सकते हैं। हमें जीवन जीने की कला सिखाने और  अपना सम्पूर्ण जीवन हमारे सुख के लिए न्योछावर कर देने वाले पिता के लिए वैसे तो बच्चों को हर समय तत्पर रहना चाहिए, लेकिन अगर इतना संभव न हो तो, कम से कम साल में एक खास दिन (International father's day) तो हो ही! उनके त्याग और परिश्रम को चुकाया नहीं जा सकता, लेकिन कम से कम हम इतना तो कर ही सकते हैं कि उनके प्रति 'कृतज्ञ' बने रहे। हालाँकि 'फादर्स डे' मनाना हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं रहा है और मूल रूप से यह यूएस में जून महीने के तीसरे रविवार को मनाया जाता है, लेकिन आधुनिक ज़माने की संस्कृति ने हमें 'फादर्स डे' के रूप में अगर यह अवसर दिया है, तो हमें अच्छी चीजों और परम्परों का धन्यवाद कहना ही चाहिए! इससे हम अपनी भावनाएं जो चाहकर भी नहीं कह पाते, वह इस अवसर पर कह सकते हैं. उन्हें वो अपनापन महसूस करा सकते हैं जिससे वो अपने आपको बुढ़ापे में सुरक्षित महसूस कर सकें। उनको ये एहसास करा सकते हैं कि 'आज मैं जो भी हूं' वो आपके बिना संभव नहीं था। जाहिर है, हर मनुष्य के भीतर फीलिंग होती है और अगर किसी को उसकी संतान शुभकामनाएं दे तो उसे अच्छा ही लगेगा।
आप जितने भी सफल व्यक्तियों को देखेंगे, तो उनके जीवन की सफलता में उनके पिता का रोल आपको नज़र आएगा. उन्होंने अपने पिता से प्रेरणा ली होती है और उनको आदर्श माना होता है। इसके पीछे सिर्फ यही कारण होता है कि कोई व्यक्ति लाख बुरा हो, लाख गन्दा हो, लेकिन अपनी संतान को वह 'अच्छी बातें और संस्कार' ही देने का प्रयत्न करता है। ऐसे कई उदाहरण हैं कि कोई व्यक्ति नालायक होता है, शराबी होता है, जुआरी होता है लेकिन ज्योंही वह पिता बनता है, अपनी गन्दी आदतें इसलिए छोड़ देता है ताकि उसके बच्चों पर बुरा असर न पड़े। हालाँकि, यह संसार बहुत बड़ा है और इसमें लोग भी भिन्न प्रकार के हैं। पर यह कहा जा सकता है कि अपने बच्चे के लिए हर पिता बेहतर कोशिश करता है, अपनी क्षमता से कहीं ज्यादा! इसलिए वह तारीफ़ के काबिल तो होता ही है। अपने पिता से अफ़सोस और शिकायतें तो सिर्फ वो लोग करते हैं जिन्होंने जिंदगी में अपने आप को साबित नहीं किया वरना हर पिता का जीवन सीखने योग्य होता है. पिता ही दुनिया का एक मात्र शख्‍स है, जो चाहते है कि उसका बच्‍चा उससे भी ज्‍यादा तरक्‍की करे, उससे भी ज्‍यादा नाम कमाये। इसके लिए वह कई बार सख्त रूख भी अख्तियार करते हैं, क्योंकि जीवन में आगे बढ़ने के लिए 'अनुशासन' का सहारा लेना ही पड़ता है।
हालाँकि, बदलते ज़माने के साथ पिता का स्वरुप भी बदला है और हमेशा गम्भीर और कठोर दिखने वाले पिता की जगह अब अपने बच्चों के संग खेलने और मस्ती करने वाले पिता ने ले लिया है. समय के साथ बदलाव तो स्वाभाविक हैं, लेकिन पिता के कर्त्तव्य में कोई बदलाव नहीं आएगा और यही हमारी संस्कृति रही है। बदलते ज़माने और रोजगार की जरूरतों की वजह से आज हम में से कई अपने माता-पिता से दूर हो गए हैं, ऐसे में हम उन बुजुर्ग कदमों को चाह कर भी सहारा नहीं दे पा रहे हैं, उनका अकेलापन नहीं दूर कर पा रहे हैं, तो मन में बस एक टीस भर जाती है अपनों के लिए, जो बेहद बेचैन करती है। ऐसे में हमें विभिन्न अवसरों, त्यौहारों पर उन्हें समय अवश्य ही देना चाहिए, बेशक वह अवसर फादर्स डे ही क्यों न हो! हालाँकि, आज संयुक्त परिवारों के बिखण्डन से बुजुर्ग माँ-बाप की समस्याएं कहीं ज्यादा विकराल हो गयी हैं। 'बागवान' जैसी फिल्में हम देख ही चुके हैं और यह समाज की सच्चाई सी बन गयी है, जहाँ बच्चे बस अपने माँ-बाप की संपत्ति से मतलब रखते हैं, लेकिन उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियों को अनदेखा कर देते हैं। जाहिर है, संस्कार कहीं न कहीं बिगड़े हैं और इसे सुधारने का प्रयत्न करना ही 'फादर्स डे' की सार्थकता कही जाएगी, अन्यथा फिर यह अन्य 'पश्चिमी औपचारिकताओं' की तरह 'औपचारिकता' बन कर रह जायेगा।
पिता के चरणों में बारम्बार नमन्।
।। जय गुरु ।।

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