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बुधवार, 29 अगस्त 2018

लोगों मे यह विश्वास हैं कि बहुत विद्या पढ़ने से लोग भले बनते हैं। -महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज | Maharshi Mehi Paramhansji Maharaj | Santmat-Satsang

लोगों मे यह विश्वास हैं कि बहुत विद्या पढ़ने से लोग भले बनते हैं। परन्तुु बहुत विद्या पढ़ने पर भी उनकी विद्या अविद्या बन जाती है। काम क्रोधादि विकार जबतक उनके मन मे हैं, तबतक विद्या अविद्या बनी रहती है। जिस विद्या से दुर्गुणों से बचा जाय, वही विद्या असली विद्या है। विद्या धर्म की रक्षा के वास्ते है। दुनियाँ में केवल कमाकर खाने के लिए विद्या नहीं है। अपने देश मे साधु संत, महात्मा बहुत हुए हैं। आचरण पवित्र होने के कारण ही वे लोग महान हुए हैं। पढ़े लोग भी अच्छे होते है। परंतु आचरण की पवित्रता केवल विद्या पढ़ने से ही नहीं होती है। इस युग की नमूना किसी से छिपी नहीं है। असली विद्या यह है कि साधु संतो के पास जाकर उनके सत्संग से अध्यात्म विद्या को ग्रहण करना। केवल वर्तमान शरीर के लिए प्रबंध करो, सो नहीं। इसके आगे के जीवन का कोई प्रबंध नहीं किया तो कहाँ चले जाओगे, तुमको मालूम नहीं है। दुःख में जाना कोई पसंद नहीं करते। यदि पहले इसका ख्याल नहीं किया कि शरीर छुटने के बाद भी जीवन रहता है, जिसे सुखी बनाना है।

एक शरीर छुटने के बाद का बहुत लंबा जीवन है जीवात्मा का। यह ज्ञान साधु सन्तों के सत्संग में सिखलाया जाता है बतलाया जाता है।  यदि आगे के जीवन का प्रबंध नहीं करते हो, तो अपनी बहुत हानि करते हो।

आगे का जो लंबा जीवन है, उसके शुभ के लिए प्रबंध यह है कि ईश्वर का भजन करो। ईश्वर के भजन से तुमको शरीर छुटने के बाद भी सुख होगा। विद्या बहुत पढ़ोगे, लेकिन ईश्वर का भजन  नहीं करोगे तो, उतना लाभ नहीं होगा। -महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज

आप कौन-सी श्रेणी के भक्त हैं? | आज संसार में देखें, तो हर कोई किसी - न - किसी तरीके से भक्ति करता नजर आता है | Santmat-Satsang

आप कौन-सी श्रेणी के भक्त हैं ?

आज संसार में देखें, तो हर कोई किसी - न - किसी तरीके से भक्ति करता नजर आता है | कोई सकाम, कोई निष्काम | अधिकतर लोग सकाम भक्ति में संलग्न है | सकाम अर्थात वह भक्ति जो अपने मन के अनुसार किसी इच्छा पूर्ति के लिए की जाती है | वहीं निष्काम भक्ति वह है, जहाँ एक भक्त सभी सांसारिक कामनाओं से रहित होकर केवल ईश्वर प्राप्ति की इच्छा रखता है | श्रीमदभगवद गीता (7/16) में भगवान श्री कृषण कहते हैं -
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥७-१६॥
अर्थात हे भारत श्रेष्ट अर्जुन! आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी, ऐसे चार प्रकार के लोग मुझे भजते हैं |
आर्त भक्त कैसे होते हैं ? आइए पहले इनके विषय में जाने | आर्त का सामान्य अर्थ होता है - दुःख से पीड़ित व्यक्ति | अत: आर्त भक्त वे हैं, जो अपनी किसी दुख के  निवारण के लिए भक्ति करते हैं | ये प्रभु को पुकारते तो हैं | इनके भीतर भगवान की याद भी उमड़ती है | लेकिन कब ? तभी जब इन्हें कोई शारीरक या मानसिक कष्ट आ घेरता है |
अब दूसरे प्रकार के भक्त होते हैं - अर्थार्थी  | ये वे भक्त हैं जो सांसारिक पदार्थों की कामना के लिए भक्ति करते हैं | धन - वैभव, संतान आदि नियामतें पाने के लिए इबादत करते हैं | आज मंदिर, तीर्थ आदि धार्मिक स्थल क्षद्धालुओं से खचाखच  भरे दिखाई देते हैं | भक्तजन  बढ - चढ़कर पूजा अर्चना करते हैं | लेकिन किस भाव से ? यही कि बदले में अमुक सांसारिक वास्तु मिल जाए  | फलां बिगड़ा काम बन जाए  | कोई मन्नत  या मांग पूर्ण हो जाए | पर महापुरष कहते हैं कि यह मांगना  ही भक्ति मार्ग में सबसे बड़ी बाधक है | जब किसी हेतु से भक्ति की जाती है, तो वह भक्ति नहीं व्यापार बन जाती है |
इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में,
वह इबादत नहीं, एक तरह की तिजारत है ||
तिजारत कहते हैं सोदेबाजी को | आज मनुष्य भक्ति के क्षेत्र में भी ऐसा ही व्यापारी बन गया है | अपनी कुछ क्षण की पूजा आराधना  के बदले में उस करतार से सांसारिक पदार्थ चाहता है | ये सभी पदार्थ क्षणभुंगर और नश्वर हैं | दूसरा ये आनंद तो क्या, सच्चा सुख नहीं दे सकते | यूं तो अमरीका सर्वाधिक धनी देश है | फिर भी वहां के नागरिक घोर अशांति से पीड़ित हैं |सूचना के मुताबिक वहां हर दसवां इन्सान तनावग्रस्त है |
तीसरे प्रकार के भक्त जिज्ञासु प्रविर्ती के होते हैं | इनमें ईश्वर को जानने की तीव्र ललक होती है | इस कारण ये शास्त्र ग्रंथों का गहन अध्ययन  व् रटन करते हैं | पोथी पंडित बन जाते हैं | फलस्वरूप इनका बोधिक विकास तो हो जाता है | ये शास्त्रर्थ करने में निपुण हो जाते हैं | परन्तु आत्मिक लाभ नहीं उठा पाते |
चौथी श्रेणी ज्ञानी भक्तों की है | ये वे भक्त हैं, जो ब्रह्मज्ञान से दीक्षित हैं | ये शाब्दिक जानकारियों, शास्त्रों की कथा - कहानियों में नहीं उलझते | अपितु एक पूर्ण सतगुरू की शरणागत होकर ईश्वर का प्रत्यक्ष  दर्शन कर लेते हैं | लेकिन ऐसा नहीं इनके जीवन में कोई सांसारिक अभाव नहीं होता | लेकिन ये उस अभाव की पूर्ति के लिए ईश्वर से कभी गुहार नहीं करते | प्रभु से केवल प्रभु को मांगते हैं | उसके अतिरिक्त किसी की कामना नहीं करते | इन भक्तों के विषय में ही भगवान श्री कृषण ने निम्न श्लोक में कहा :-
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥७-१७॥

अर्थात इन चार प्रकार के भक्तों में, परमात्मा के साथ नित्ययुक्त अनन्य प्रेम करने वाला ज्ञानी विशेष है, क्यों कि ज्ञानी के लिए मैं अत्यंत प्रिय हूँ, तथा मेरे लिए वह अत्यंत प्रिय है |
अत: सत्संग प्रेमियों, हम सब भी ज्ञानी भक्तों की श्रेणी में आने का प्रयास करें | आज चाहे हम आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु किसी भी श्रेणी में खड़े हों, पूर्ण संत की खोज कर ईश्वर का दर्शन करें | ज्ञानी बनें | तभी हम अपने मानव जीवन के लक्ष्य को पूर्ण कर पाएँगे |
।। जय गुरु ।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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इस संसार में मानव आखिर कौन है? | Es Sansar me manav akhir kaun ? | Maharshi Harinandan Paramhans | Santmat-Satsang

इस संसार में मानव आखिर कौन है?
जिनमें उत्तम कर्म हो, जीने की कला जानकर सही ढंग से जीते हो, वही वास्तव में मानव है।

संसार में केवल अपने लिए साधारण जीव भी जी लेते हैं, जैसे पशु पक्षी, कीट पतंग आदि। लेकिन नियम निष्ठा से जीना कोई विरला संत ही जानते हैं। संसार में ऐसे बहुत कम लोग होते हैं, जो चाहते हैं कि हमारे द्वारा दूसरे को भी सुख पहुंचे और इसके लिए वे सदा प्रयत्नशील रहते हैं। मनुष्य का शरीर चौरासी लाख प्रकार की योनियों में सबसे श्रेष्ठ है, लेकिन मनुष्य शरीर रहते हुए भी अगर हमारे अंदर मानवीय गुण सन्निहित नहीं है, तो जैसे रावण ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी राक्षस की गिनती में गिने गए, कंस मनुष्य के रूप में होते हुए भी राक्षस कहलाये, उसी तरह हमारे अंदर मानवीय गुण नहीं रहने पर राक्षस कहलाएंगे। मनुष्य के पास मे दो तरह के गुण होते हैं :-
1) दैवी गुण, 2) दानवीय गुण। 

दैवी गुण क्या है?  दूसरों के सुखों का ख्याल रखना। चाहे आप कितने भी कष्ट में पड़े हुए हैं, लेकिन दूसरे के सुख का ख्याल रखते हैं, तो दैवी गुण है। लेकिन दानवीय स्वभाव वाले सिर्फ अपना ही ख्याल रखते हैं और दूसरों को सुखी, उन्नति समृद्धि देखकर जलते हैं, ऐसे गुण जिनमें समाहित होते हैं, वे मनुष्य के रूप में दानव हैं। एक-दूसरे को सुख पहुँचाने, आदर देने का गुण मानव शरीर में है। यह गुण हममें नहीं है, तो हम मानव नहीं, पशु तुल्य हैं। -महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज
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Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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आनंदित रहने की कला | Anandit rahne ki kala | Santmat-Satsang

।। आनंदित रहने की कला ।।
एक राजा बहुत दिनों से विचार कर रहा था कि वह राजपाट छोड़कर अध्यात्म (ईश्वर की खोज) में समय लगाए। राजा ने इस बारे में बहुत सोचा और फिर अपने गुरु को अपनी समस्याएँ बताते हुए कहा कि उसे राज्य का कोई योग्य वारिस नहीं मिल पाया है । राजा का बच्चा छोटा है, इसलिए वह राजा बनने के योग्य नहीं है । जब भी उसे कोई पात्र इंसान मिलेगा, जिसमें राज्य सँभालने के सारे गुण हों, तो वह राजपाट छोड़कर शेष जीवन अध्यात्म के लिए समर्पित कर देगा ।

गुरु ने कहा, "राज्य की बागड़ोर मेरे हाथों में क्यों नहीं दे देते ? क्या तुम्हें मुझसे ज्यादा पात्र, ज्यादा सक्षम कोई इंसान मिल सकता है ?"*

राजा ने कहा, "मेरे राज्य को आप से अच्छी तरह भला कौन संभल सकता है ? लीजिए, मैं इसी समय राज्य की बागड़ोर आपके हाथों में सौंप देता हूँ ।"

गुरु ने पूछा, "अब तुम क्या करोगे ?"

राजा बोला, "मैं राज्य के खजाने से थोड़े पैसे ले लूँगा, जिससे मेरा बाकी जीवन चल जाए ।"

गुरु ने कहा, "मगर अब खजाना तो मेरा है, मैं तुम्हें एक पैसा भी लेने नहीं दूँगा ।"

राजा बोला, "फिर ठीक है, "मैं कहीं कोई छोटी-मोटी नौकरी कर लूँगा, उससे जो भी मिलेगा गुजारा कर लूँगा ।"

गुरु ने कहा, "अगर तुम्हें काम ही करना है तो मेरे यहाँ एक नौकरी खाली है । क्या तुम मेरे यहाँ नौकरी करना चाहोगे ?"

राजा बोला, "कोई भी नौकरी हो, मैं करने को तैयार हूँ ।"

*गुरु ने कहा, "मेरे यहाँ राजा की नौकरी खाली है । मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे लिए यह नौकरी करो और हर महीने राज्य के खजाने से अपनी तनख्वाह लेते रहना ।"*

एक वर्ष बाद गुरु ने वापस लौटकर देखा कि राजा बहुत खुश था । अब तो दोनों ही काम हो रहे थे । जिस अध्यात्म के लिए राजपाट छोड़ना चाहता था, वह भी चल रहा था और राज्य सँभालने का काम भी अच्छी तरह चल रहा था । अब उसे कोई चिंता नहीं थी ।

इस कहानी से समझ में आएगा की वास्तव में क्या परिवर्तन हुआ ? कुछ भी तो नहीं! राज्य वही, राजा वही, काम वही; दृष्टीकोण बदल गया ।

इसी तरह हम भी जीवन में अपना दृष्टीकोण बदलें । मालिक बनकर नहीं, बल्कि यह सोचकर सारे कार्य करें की, "मैं ईश्वर कि नौकरी कर रहा हूँ" अब ईश्वर ही जाने । और सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दें । फिर ही आप हर समस्या और परिस्थिति में खुशहाल रह पाएँगे ।आपने देखा भी होगा की नौकरों को कोई चिंता नहीं होती मालिक का चाहे फायदा हो या नुकसान वो मस्त रहते हैं । सब छोड़ दो वही जानें!!
।। जय गुरु ।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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उठो जागो कुछ कर दिखाओ | रुक! जरा ठहर तो! किधर जा रहा है? सेवा के लिए ही न?... | एक वे थे सेवक हनुमान, जो अपने स्वामी राम जी का काज संवारने हेतु आतुर रहते थे |

उठो! जागो! कुछ कर दिखाओ! फिर यह अवसर मिले न मिले!

रुक! जरा ठहर तो! किधर जा रहा है? सेवा के लिए ही न?...अच्छा, फिर दो पल बैठ | मैं तेरा ही जमीर हूँ | आज तुझसे कुछ बातें सांझी करना चाहता हूँ | तुझे झकझोर कर जगाना चाहता हूँ | तू मेरी आवाज को अनसुना मत करना | अपनी दलीलों के शोर से मुझे मत दबाना | मैं जो पूछूं या कहूँ उस पर सोचना, गोर करना |
गुरु सेवा - कितनी सहजता से ये शब्द बोल उठता है तू! पर कभी इनकी गहराई, इनकी महिमा जानी है? सेवादारी क्या होती है? सेवक किसे कहते हैं ? उसका शिंगार क्या है ? कुछ खबर है इन सबकी ? शायद नहीं! तभी तुम बड़े आराम से! 7:00 वजे की सेवा के लिए 7:30 वजे घर से जा रहा है | वह भी बड़े आराम से! कहीं दिल में खींच नहीं | क़दमों में रफ़्तार नहीं! कोई बेसबरी या जल्दी नहीं!

एक वे थे सेवक हनुमान, जो अपने स्वामी राम जी का काज संवारने हेतु आतुर रहते थे | आतुर! बड़ा मार्मिक है यह लफ्ज! एक होता है, सेवा के लिए तैयार रहना | दूसरा होता है, आतुर रहना | जो सेवक तैयार रहता है, वह इंतजार करता है| सेवा हाथ में आती है, तो उसे अंजाम देता
है | पर जो सेवक आतुर है, वह इंतजार करना नहीं जनता | सेवा के बगैर छटपटा उठता है | इसलिए यहाँ सेवा होती है, वहां स्वयं पहुंच जाता है | लपक के उसे लूट ता है| ठीक जैसे एक भूखा व्यक्ति | सेवा के लिए ऐसी भूख होती है एक सेवादार में! सच बता, क्या तुझमें है? नहीं न! तुझे तो गुरुघर से बुलावे भेजने पड़ते हैं | तब  कहीं जाकर तेरे कदम उठते हैं...और कई बार तो तेरी सुग्रीव जैसी हालत होती है | बढ - चढ़ कर सेवा करने के दावे तो कर आता है | पर फिर दुनिया में मस्त होकर उन्हें बिसर बैठता है | गफलत की नींद सो जाता है | टेलीफ़ोन की जोरदार घंटियाँ  से तुझे जगाना पड़ता है | क्यों? क्यों है तेरी आँखों में ऐसी गाढ़ी नींद, जो टूटटी ही नहीं? कहते हैं, लक्ष्मण  बनवास के 14 वर्षों तक ऐसी कच्ची नींद सोया था, की यदि उसके स्वामी राम के पास एक पत्ता भी हिलता, तो वह जाग उठता था | यह होती है एक सेवक की जागरूकता! सेवा के प्रति उस की सजगता !

तुझे याद है गुरु महाराज जी के वचन - गुरु सभी को श्रेष्ठ सेवा सोंपता है, पर प्रसन्न  उन्ही से होता है, जो उसे पूर्ण करते हैं | अरे, गुरू सिर्फ हमारे सिर  झुकाने से खुश  नहीं होता | ठीक है, भावनाओं की अपनी कीमत है | उन्हें भी गुरु-चरणों में समर्पित करना है | पर खाली मत्था रगड़ने से काम नहीं चलेगा | गुरु का सच्चा सपूत है, तो तन मन को सेवा में झोंक कर दिखा | वह भी पूरी लगन से, निष्ठां से, डूब के! जिस मिशन रुपी गोवर्धन को गुरु महाराज जी ने उठाया हुआ है, तू उसमें अपने सहयोग की छड़ी लगाकर दिखा | ऐसे नहीं की ढीले- ढाले होकर...लापरवाही से...जितना हो गया, सेवा पूजा है! एक पवित्र आरती है | गुरु चरणों में समर्पित परम वंदना है | तेरी भावनाओं को परखने की सच्ची कसोटी है....इस लिए सेवा को पूरी ईमानदारी और जिम्मेवारी  से निभाया कर |
मैं तेरा जमीर हूँ | इसलिए मुझसे कुछ नहीं छिपा| मैं तेरी अंतर्तम भावनाओं को जानता हूँ | ये भावनाएं भीतर क्यों उठती हैं ? उनकी जड़ क्या है? यही की तू अपने आप को कर्ता मानकर सेवा करता है | सोचता है, सेवा करने वाला तू है | इस लिए गिरता उड़ता है | अर्जुन का भी यही हाल था | सीना तान कर, गांडीव - शंडीव  धारण कर  कुरुक्षेत्र  में उतर आया | पर ज्यों ही चोनौतिपूर्ण नजारा देखा, कंधे लटक गई | होसलें पस्त हो गए | उत्साह धराशाही होकर गिर पड़ा | वह कह उठा - 'प्रभु मैं यह सेवा नहीं कर सकता | मैं इस कार्य के योग्य नहीं | ऐसे में प्रभु ने क्या किया ? उसे अपना विराट स्वरूप  दिखाया | उसमें सभी विपक्षी योद्धगन चुर्नित होते दिखाए | स्पष्ट किया - तू सेवा करने वाला है ही नहीं | देख इन्हें तो मैं पहले ही यमपुरी पहुंचा चूका हूँ | तुझे तो इस सेवा का निमित्त मात्र बनाया है | इसलिए बस जैसा कह रहा हूँ, करता जा | एक सेवादार का यही धरम है कि जो मालिक ने कहा, पूरी भावना से  वह करता जाए | सेवा होगी या नहीं और अगर हो गयी , तो क्यों हुए - ये सब सोचकर मन भारी करने का क्या मतलब | कर्ता पुरष  तो गुरु हैं | हो सकता है, उन्हें  यही मंजूर हो |

वे ब्रह्माण्ड के सूर्ये हैं | सकल विश्व को अकेले ही रोशन कर सकते हैं | पर दया कर, परम क्रपालु  होकर, तुझ जैसे जुगनुओं को चमकने का मोका दे रहे हैं | सितारों को टिमटमाने  का अवसर दे रहे हैं | तुझे यह मोका हरगिज नहीं चूकना है | अपनी सारी ताकत, सारी भावनाएं बटोरकर सेवा व्रत निभाना है | जिगर में सेवा भाव की ज्वाला जलानी है, जिस में जलकर तेरे  सारे नीच और बाधक विचार राख हो जाएँ | ताकि तू दमक उठे | तेरे सिर  पर गुरु के लिए कुछ कर गुजरने का जनून हो | तेरे विचारों के ताने बाने में, दिल के हर अफसाने में एक ही भाव गूंथा हो - सेवा!सेवा!सेवा ! तेरे कर्म का, धर्म का, ईमान का, सारे जीवन का एक ही सार हो - सेवा! सेवा!सेवा! तू सेवा करते - करते सेवारूप  हो जाए | तभी सच्चा सेवक कहलाएगा, मेरे मीत! तू सच्चा सेवक कहलाएगा! इस लिए हम सब ने ऐसे सेवक बनना है और गुरू महाराज जी के उमीदों को पूर्ण करना है | फिर वह दिन दूर नहीं जब हम सब विश्व शांति का लक्ष्य साकार होते हुए देखेंगे।

जय गुरु महाराज!
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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पूर्ण के आगे पूर्ण समर्पण | समर्पण क्या है? मन का अर्पण है | समर्पण मात्र शरीर का अर्पण नहीं है | मस्तक का झुकना भर नहीं है | जब हमारा गुरु पूर्ण है | उनका प्रेम पूर्ण है | उनकी कृपा पूर्ण है | अपनाना पूर्ण है |

पूर्ण के आगे पूर्ण समर्पण!

जहाँ न + मन है, वही नमन है।
जहाँ नमन है, वही चमन है।

समर्पण मात्र शरीर का अर्पण नहीं है | मस्तक का झुकना भर नहीं है | 

समर्पण क्या है? मन का अर्पण है | इस हद  तक कि जहाँ एक भाव - तरंग भी अपनी चेष्टा या कामना से न उठे | तभी तो समर्पण की विशालता को स्वयं गुरु महाराज जी ने केवल एक पंकित में बंधते हुए यही कहा था -' समर्पण वह है, यहाँ इष्ट का एक पल का भी आभाव आपको बैचैन कर दे |' माने उसके इशारों का आभाव हमारी जीवन - प्रणाली ही ठप्प कर के रख दे | मन को कंगाल कर दे | जीवन की गति के गुरु ही आधार, गुरु ही सार हो जाएँ | तन  - मन अपनी चाल चलना छोड़कर उनके इशारों पर थिरकने लगे | यह है समर्पण | मात्र घर छोड़ कर आना भर समर्पण नहीं | सर्वात्म को उलीच कर देना - यह है समर्पण |

जब  हमारा गुरु पूर्ण  है | उनका प्रेम पूर्ण है | उनकी कृपा पूर्ण  है | अपनाना पूर्ण है | तो बदले में हमारा देना पूर्ण क्यों नहीं है? समर्पण पूर्ण क्यों नहीं है ? मैं अपना भी रहूँ और समर्पित भी कहलाऊँ - यह तो आडम्बर होगा | समर्पण का मजाक उड़ाना होगा | समझ लें, खंडित समर्पण, समर्पण नहीं होता | अपने में से थोडा सा निकल कर गुरु को अर्पित कर देना - यह समर्पण है ही नहीं | अधूरी आंशिक आहुतियों से कभी समर्पण की ज्वाला जाज्वल्यमान नहीं होती | अपूर्णता में तो वह अपनी सारी गरिमा, सारी  महिमा  खो बैठती है | इस लिए समर्पण सदा सर्वात्म देकर महिमामंडित होता है | पूर्णता की पीठिका पर ही सीधा स्थिर खड़ा रह पाता है | जय गुरु!
(प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम)

प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती | आज भी परमात्मा का दर्शन संभव है, जरूरत है एक..... | Santmat-Satsang

प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्कयता नहीं होती!
बहुत सारे व्यक्तियों के मन में यह सवाल अक्सर होता है कि संत - महापुरष अपने प्रवचनों में अक्सर हर बात सिद्ध करने के लिए शास्त्र - ग्रंथों का सहारा लेते हैं। पर इस बात का ही क्या प्रमाण है कि ग्रंथों में जो लिखा है, वह पूरी पूर्णत: सत्य है?

उत्तर :  महापुरषों ने कब कहा कि आप ग्रंथों की वाणियों को आँख मूँदकर मान लीजिए। इन ग्रंथों को ऐसे पढ़ें, जैसे chemistry (रसायन शास्त्र ) पढ़ते हैं। रसायन शास्त्र का विधार्थी सर्वप्रथम एक समीकरण को अपनी पुस्तक में पढता है। फिर प्रयोगशाला में जाकर प्रयोगात्मक  (practical) ढंग से उसका परीक्षण (experiment) करता है। जैसे उसने पढ़ा - 2H2 + O2 = 2H2O.

अब वह इस समीकरण के आधार पर प्रयोगशाला (laboratory) में हाड्रोजन और आक्सीजन, दोनों गैसों को सही मात्र  में मिलाएगा। फिर उसमें से विधुत गुजारेगा। यदि पानी बनकर सामने आ गया, तो समीकरण की सत्यता स्वत: ही प्रमाणित हो जाएगी।
धार्मिक ग्रंथों के सन्दर्भ में भी हमें यही पद्धित अपनानी है। सबसे पहले उनमें लिखित अध्यात्मिक तथ्यों को ध्यान से पढ़ें। फिर उन पर प्रयोगात्मक परीक्षण करें। यदि ग्रंथों में लिखा है कि गुरु कृपा से अंतहिर्दय  में परमात्मा का दर्शन होता है, तो बढ़ें आगे और पूर्ण गुरु की खोज करें। उनसे ज्ञान दीक्षा ग्रहण कर स्वयं अपने भीतर प्रभु का दर्शन करें।
नि: सन्देह, ये ग्रन्थ  कपोल कल्पनाओं का आधार पर नहीं लिखे गए। ये ब्रह्मज्ञानी ऋषियों द्वारा लिखे गए हैं। ऋषि का अर्थ ही होता है - 'द्रष्टा' अर्थात देखने वाला। ग्रंथों को लेखनीबद्ध करने से पहले उन्होंने सभी तथ्यों को अपने जीवन में प्रयोगात्मक रूप से अनुभव किया था। इसलिए इनमें दर्ज एक - एक तथ्य प्रयोगात्मक कसौटी पर कसा जा सकता है। आप इन सभी को अपने जीवन में प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं और प्रत्यक्ष को अन्य किसी प्रमाण की आवश्कयता ही नहीं होती!
आज भी परमात्मा का दर्शन संभव है, जरूरत है एक केवल पूर्ण सतगुरु की, जो हमारी दिव्य चक्षु को खोल के परमात्मा के प्रकाश स्वरूप का दर्शन करा दे।
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सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...