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शनिवार, 29 सितंबर 2018

आशिर्वाद से आसान होती है सफलता | AASHIRWAD SE AASAAN HOTI HAI SAFALTA | SANTMAT-SATSANG

आशीर्वाद से आसान होती है सफलता;

विनम्रता  दूसरों को प्रभावित ही नहीं करती, बल्कि कई बार स्वयं को अहंकार में भी डुबो सकती है। विनम्रता से पैदा हुआ अहंकार बहुत ही सूक्ष्म होता है।

इसलिए जब कभी हम विनम्रता का व्यवहार कर रहे हों, इस बात में सावधान रहें कि जब दूसरे हमारी विनम्रता पर हमारी प्रशंसा करें तो हम प्रशंसा को कानों से हृदय में उतरने न दें। अपनी योग्यता को कहीं न कहीं परमात्मा की शक्ति से जोड़े रखें, तो अहंकार के खतरे कम हो जाते हैं।

सुंदरकांड में भगवान श्रीराम हनुमानजी की प्रशंसा कर रहे थे, तब हनुमानजी ने कहा- मेरा लंका जाना, उसे जलाना, लौटकर आना यह सब मेरे वश में नहीं है।


सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछु मोरि प्रभुताई।।

यह सब तो श्रीरघुनाथजी! आप ही का प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता कुछ भी नहीं है। संत बताते हैं कि भगवान श्रीराम ने हनुमानजी से पूछा था- फिर समुद्र किस शक्ति से लांघा।

हनुमानजी का जवाब था आपके द्वारा दी गई अंगूठी से। भगवान श्रीराम समझ गए, ये एक बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तर है। इसमें भक्त ने स्वयं को बचाया है और श्रेय परमात्मा को दे दिया है। तब भगवान श्रीराम ने याद दिलाया कि अंगूठी तो सीताजी को दे दी थी, फिर लौटकर कैसे आए? हनुमानजी समझ गए कि इस समय भगवान जमकर परीक्षा ले रहे हैं। उन्होंने तुरंत उत्तर दिया- आते समय माता सीता ने उनकी चूड़ामणि दी थी। उसी के सहारे लौटा हूं। इस प्रताप में मेरा स्वयं का कोई योगदान नहीं है।

बड़ी सुंदर बात हनुमानजी बताते हैं कि जब गया तो पिता की कृपा थी और जब लौटा तो मां का आशीर्वाद साथ था। जिनके साथ जीवन के संघर्ष में माता-पिता के आशीर्वाद होते हैं उनकी सफलताएं सरल हो जाती हैं।
जय गुरु
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

सावधान नर सदा सुखी | SAAVDHAN NAR SADA SUKHI | SANTMAT-SATSANG

सावधान नर सदा सुखी

एक साधक ने प्रश्न कियाः
"महाराज जी ! साधनाकाल के दौरान साधक को कौन-कौन सी सावधानी रखनी चाहिए?"
महाराज जी ने एक छोटा-सा उदाहरण देते हुए कहाः
"एक बार सागर में नाव चलाने वाले खलासी लोग अपने मुखिया के पास गये और अपनी बड़ाई हाँकने लगेः
'देखो मुखिया जी ! हम लोग कितने साहसी और होशियार हैं कि वीरतापूर्वक भँवरों तक भी नाव को ले जाते हैं और भँवरों को पार करके सुरक्षित वापस आ जाते हैं। परन्तु यह जो भीमा है न, वह बहुत डरपोक है। यह तो नाव लेकर इस प्रकार भँवरों की ओर जाता ही नहीं है। कितना बुद्धु है?'
अनुभवी मुखिया ने जवाब दियाः
'तुम लोग भले ही भँवरों को पार करके आ जाते हों, परन्तु तुम्हारी अपेक्षा तो यह भीमा ज्यादा होशियार है। यह ऐसी भयानक जगह पर जाता ही नहीं कि जहाँ जिन्दगी जोखिम में हो। तुम लोग वहाँ जाते हो तो कभी ऐसे फँस जाओगे कि वापस आ ही नहीं सकोगे। नाव सहित सागर की गहराई में खो जाओगे। भीमा तो ऐसे किसी खतरे में पड़ता ही नहीं है।'
इस प्रकार सन्मार्ग के पथिकों को भी विषय-विकारों से दूर रहना चाहिए। जो विषय विकारों से दूर रहते हैं वे लोग भाग्यवान हैं और गृहस्थ आश्रम में रहकर भी जो उनसे दूर रहते हैं वे लोग ज्यादा प्रशंसनीय हैं। विषय-भोगों को भोगते-भोगते लोग विषय-भोगों को मक्खन एवं पेड़े समझते हैं, परन्तु सच तो ये है कि वे लोग चूना ही खाते हैं। चूना खाने से क्या दशा होती है यह तो आप सभी को पता ही होगा। मनुष्य बेचारा मर जाता है। जिस प्रकार साँप को हाथ लगाने से साँप काट लेता है और उसका जहर चढ़ जाता है इसी प्रकार विषय-भोग, ईर्ष्या-द्वेष, मान-सम्मान जहर के समान हैं। इन सब के पीछे थोड़ा भी जाने से पीछे से बहुत दुःख सहन करना पड़ेगा।
कोई मनुष्य जुआ नहीं खेलता, परन्तु रोज-रोज जुआरियों का संग करके उन लोगों को जुआ खेलते देखकर खुद भी जुआ खेलना सीख जाता है। फिर उसे जुआ का ऐसा चस्का लग जाता है कि वह उसके बिना नहीं रह सकता। यही स्थिति विषय-विकारों के साथ भी है इसलिए विषय-विकारों से दूर भागना चाहिए।
इसके सिवाय, साधकों को निन्दा-स्तुति, राग-द्वेष आदि के भँवर में भी नहीं जाना चाहिए। उसमें गिरकर पुनः चेत जाओ तो ठीक है, परंतु कई बार तो ऐसे भँवर में फँसकर ही जीवन पूरा हो जाता है।
लोग साधना भी करते हैं, भक्ति भी करते हैं, पूजा-पाठ भी करते हैं, ध्यान-भजन भी करते हैं, सेवा भी करते हैं, गुरु के शिष्य भी कहलाते हैं, परन्तु राग-द्वेष के भँवर में जाने की आदत नहीं जाती तो सब साधन-भजन और सेवा के ऊपर पानी फिर जाता है।

साधकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि जिन्हें खराब समझते हैं उनके साथ उदारता से व्यवहार करें, उनके गुण देखें, दोषों को भूल जायें। ऐसा करने से चित्त में शान्ति आने लगेगी। राग-द्वेष को पुष्ट करेंगे तो सभी साधन-भजन चौपट हो जायेंगे। ईर्ष्या और जलन से अन्तःकरण अशुद्ध बनेगा तो साधना का पथ लम्बा हो जायेगा।
आये थे हरिभजन को, ओटन लागे कपास।
जो संसार मिथ्या है, हर क्षण बदल रहा है, स्वप्न की तरह गुजरता जा रहा है उसकी सत्यता को दिमाग में भरने से परेशानी के सिवाय कुछ भी हाथ में नहीं आता। तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में शिवजी के मुख से कहलवाया हैः
उमां कहहूँ मैं अनुभव अपना।
सत्य हरि भजन जगत सब सपना।।
सर्वत्र केवल परमात्मा ही व्याप रहे हैं यह जानना ही 'सत्य हरिभजन' का अर्थ है। यदि इसे पूर्ण रूप से जान लिया तो राग-द्वेष, आकर्षण-विकर्षण, इच्छा-वासना सब दूर हो जायेंगे और अपना सहज स्वभाव प्रकट हो जायेगा।
साधना में विघ्न डालें ऐसी बेवकूफियों को हटाओ। दुःख देने वाले अज्ञान को मिटाओ। जगत की सत्यता को चित्त में से हटाओ और अपनी महिमा को जानो। उसके लिए जप करो, सेवा करो और अन्तःकरण को शुद्ध करो। साक्षीभाव एवं समता में रहने का अभ्यास करने से अन्तःकरण शुद्ध होगा जिससे शुद्ध आत्मरस और शुद्ध सुख प्रकट होगा। सत्पुरुषों का संग एवं सत्शास्त्रों का पठन-मनन करने से साधनाकाल की विघ्न-बाधाएँ कम होने लगेंगी" आप आगे बढ़ेंगे। जिस काम में लगे हुए हैं उसको पूरा करना आपका ही कर्तव्य है और वो पूरा कैसे हो यही जानने के लिए सत्संग है, गुरु सानिध्य है, शास्त्रों का अध्ययन है, मनन है, चिन्तन है। आप सुरक्षित, साफ और बिना ट्रैफिक वाले शार्टकट रास्ते से जल्दी पहुँचने के लिए गूगल मैप देखते हैं, समझते हैं और उसी रास्ते चलने से गंतव्य स्थान पर जल्दी पहुँच भी जाते हैं उसी तरह आप ईश्वर भक्ति में भी जल्दी से आगे बढ़ना चाहते हैं तो उपरोक्त बातों पर ध्यान दें, समझदारी से चलें तो हम सब का कल्याण भी निश्चित है।
।। जय गुरु महाराज ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है? | HAMARE JEEVAN KA LAKSHYA KYA HAI | SANTMAT-SATSANG

हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है ?

जागना कल्याण के लिए है और सोना नाश के लिए है|

मनुष्य जन्मकाल से शरीर की साधना, निद्रा, नित्य आवश्यकताओं की निवृत्ति, खान-पान, व्यायाम, विश्राम आदि में अपना समय व्यतीत करता है। उसके पश्चात् पेट के धन्धे के लिए अपना समय निकालता है। फिर घर-गृहस्थी के कामों के लिए समय व्यतीत करता है। उसके पश्चात् रिश्तेदारों, मित्रों, पड़ोसियों, मुहल्लेदारों और सहव्यवसायियों के लिए सुख-दु:ख में सम्मिलित होता है। उसके अनन्तर वह आलस्य, प्रमाद, मनोरंजन और समाचार-पत्र का शिकार हो जाता है। ये पाँच काम तो संसार का प्राय: प्रत्येक व्यक्ति करता ही है। छठा काम, ईश्वर-भक्ति, धर्मग्रन्थों का अध्ययन और सत्संग करने वाले संसार में थोड़े व्यक्ति हैं। यही अध्यात्म-जागरण का मार्ग है।

प्रत्येक मनुष्य जीवन-भर उपरोक्त पाँचों कामों में अपना समय व्यतीत कर देता है। जितनी आयु तक वह ये काम करता है वह आयु सांसारिक आयु होती है। पारमार्थिक आयु तभी से समझनी चाहिए जब से व्यक्ति में आध्यात्मिक जागरण आ जाये। यही वास्तविक आयु है, क्योंकि जीवन का लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार और परमात्म-साक्षात्कार है।

महाराज विक्रमादित्य कहीं जा रहे थे। एक अत्यंत वृद्ध पुरुष को देखकर उन्होंने पूछा, 'महाशय ! आपकी आयु कितनी है?'
वृद्ध ने अपनी श्वेत दाढ़ी हिलाते हुए कहा, 'श्रीमान जी ! केवल चार वर्ष' ।

यह सुनकर राजा को बड़ा क्रोध आया। वह बोला, 'तुम्हें शर्म आनी चाहिए। इतने वृद्ध होकर भी झूठ बोलते हो। तुम्हें अस्सी वर्ष से कम कौन कहेगा?'

वृद्ध बोला, 'श्रीमान्, आप ठीक कहते हैं। किंतु इन अस्सी वर्षों में से 76 वर्ष तक तो मैं पशु की तरह अपने कुटुम्ब का भार वहन करता रहा। अपने कल्याण की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। अत: वह तो पशु-जीवन था। अभी चार वर्ष से ही मैंने आत्म-कल्याण की ओर ध्यान दिया है। इससे मेरे मनुष्य जीवन की आयु चार वर्ष की है। और वही मैंने आपको बताई है।'

जय गुरुदेव

अभिमानरहित वचन बोलना एक कला है। ABHIMAN RAHIT HOKAR BOLNA EK KALA HAI | SANTMAT-SATSANG

अभिमानरहित वचन बोलना एक कला है;

किसी  काम को करने के बाद सफलता मिले या असफलता, लेकिन आनंद भंग न हो ऐसा कम लोग कर पाते हैं। हर बार हरेक को सफलता नहीं मिलती। चलिए, हनुमानजी से सीखते हैं।

सुंदरकांड में लंका से लौटने के बाद भगवान श्रीराम उनसे कहते हैं कि लंका के हालचाल सुनाओ। अब हनुमानजी के सामने दो स्थितियां हो सकती थीं। एक तो लंका का वर्णन सपाट करते और जो जानकारी राम जी लेना चाहते थे, केवल वही देते।

दूसरी स्थिति यह होती कि उसमें अपने किए हुए की प्रशंसा जोड़ देते। हनुमान जैसे सावधान व्यक्तित्व घटना की क्रिया और प्रस्तुति में अपने 'मैं' को अलग रखते हैं। तुलसीदासजी ने इस वार्तालाप पर लिखा :-

प्रभु प्रसन्न जान हनुमाना।
बोला बचन बिगत अभिमाना।।

हनुमानजी ने प्रभु को प्रसन्न जाना और वे अभिमानरहित वचन बोले। यहां हनुमानजी सिखा रहे हैं कि अपनी सफलता और असफलता के बाद विषय की प्रस्तुति में न तो अभिमान झलकना चाहिए और न ही उदासी।

अभिमानरहित वचन बोलना एक कला है। अच्छे-अच्छे विनम्र व्यक्तियों के शब्द भी अहंकार का स्वाद लेकर निकलते हैं। राम भगवान चाहते भी थे कि थोड़ी हनुमान की परीक्षा ली जाए। इसलिए बार-बार वे उनके पराक्रम की चर्चा करते। हनुमान जानते थे कि जरा-सी चूक हुई और अभिमान आलिंगन में ले लेगा। परमात्मा अपने भक्तों की परीक्षा अहंकार के प्रश्न-पत्र से ही लेते हैं। काम, क्रोध और लोभ की स्थितियां थोड़ी कठिनाई से निर्मित होती हैं। इसमें बाहरी योगदान की जरूरत पड़ती है, लेकिन अहंकार का खेल अंदर से चलता है। हनुमानजी अभिमानरहित वचन बोलना सिखा रहे हैं। 
जय गुरु
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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शनिवार, 22 सितंबर 2018

सद्कर्मों से लबालब हो जीवन की किताब SADKARMO SE LABLAB HO JEEVAN KI KITAB | SANTMAT-SATSANG

सद्कर्मों से लबालब हो जीवन की किताब;
मनुष्य अपने शरीर से यदि केवल भोग-विलास करे, इसे मौज-मस्ती में खर्च कर दे तो अच्छी बात नहीं है। यह सब जानवर भी करते हैं, पर मनुष्य को भगवान ने बुद्धि और विवेक देकर कुछ विशेष अधिकार दे दिए, जिनसे उन्हें निजी जीवन में लाभ उठाने के बाद परमात्मा के बनाए हुए संसार की सेवा करनी है।

इसीलिए मनुष्यों को अपने जीवन के आरंभ और अंत में मूल्यांकन करते रहना चाहिए। हमारा जीवन कोरे कागज जैसा शुरू हुआ और जब समापन होगा तो इसके सारे पृष्ठ लगभग चितेरे जा चुके होंगे। इसलिए हर रात सोते समय, सप्ताहांत में, महीने के आखिरी में और साल खत्म होने पर इस बात का चिंतन जरूर किया जाए कि अंत के वक्त हम क्या होंगे।

बीते समय में हमने क्या कुछ ऐसा श्रेष्ठ किया, जिसके लिए परमात्मा ने हमें मनुष्य बनाया है। ऋषियों ने कहा है कि हमारे साथ हमारा भगवान भी जन्म लेता है। काफी समय तक वह हमारे साथ रहता भी है। यूं कहें कि पूरा बचपन वह हमारा साथ नहीं छोड़ता। फिर जैसे-जैसे हम दुगरुणों को आमंत्रित करते हैं, उसकी विदाई होने लगती है।

याद रखिए हमारे अंत के बाद उस प्रारंभ वाले परमात्मा से मिलना जरूर होगा और उस दिन हमें उसे जवाब भी देना होगा। उसका सवाल यह होगा कि जो धरोहर मैंने तुम्हें दी थी, उसका सदुपयोग किया या नहीं? उस दिन हमारे जीवन की किताब सद्कर्मो से इतनी लबालब होनी चाहिए कि ईश्वर को अपनी कृति पर संतोष हो सके।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

दुनिया तो मुसाफिरखाना है | DUNIYA TO MUSAFIR KHANA HAI | जैसे नौका में कई लोग चढ़ते, बैठते और उतरते हैं परंतु कोई भी उसमें ममता या आसक्ति नहीं रखता | SANTMAT-SATSANG

दुनिया तो मुसाफिरखाना है;
यह समस्त दुनिया तो एक मुसाफिरखाना है। दुनियारूपी सराय में रहते हुए भी उससे निर्लेप रहना चाहिए। जैसे कमल का फूल पानी में रहता है परंतु पानी की एक बूँद भी उस पर नहीं ठहरती, उसी प्रकार संसार में रहना चाहिए।
संत तुलसीदासजी कहते हैं:-

तुलसी इस संसार में भांति भांति के लोग।
हिलिये मिलिये प्रेम सों नदी नाव संयोग।।

जैसे नौका में कई लोग चढ़ते, बैठते और उतरते हैं परंतु कोई भी उसमें ममता या आसक्ति नहीं रखता, उसे अपना रहने का स्थान नहीं समझता, ऐसे ही हम भी संसार में सबसे हिल-मिलकर रहे परंतु संसार में आसक्त न बनें। जैसे, मुसाफिरखाने में कई चीजें रखी रहती हैं किंतु मुसाफिर उनसे केवल अपना काम निकाल सकता है, उन्हें अपना मानकर ले नहीं जा सकता। वैसे ही संसार के पदार्थों का शास्त्रानुसार उपयोग तो करें किंतु उनमें मोह-ममता न रखें। वे पदार्थ काम निकालने के लिए हैं, उनमें आसक्ति रखकर अपना जीवन बरबाद करने के लिए नहीं हैं।
संसार को सदेव मुसाफिरखाना ही समझना चाहिये……..


घर मकान महल न अपने, तन मन धन बेगाना है,
चार दिनों का चैत चमन में, बुलबुल के लिए बहाना है,
आयी खिजाँ हुई पतझड़, था जहाँ जंगल, वहाँ वीराना है,
जाग मुसाफिर कर तैयारी, होना आखिर रवाना है,
दुनिया जिसे कहते हैं, वह तो स्वयं मुसाफिरखाना है।

अपना असली वतन आत्मा है। उसे अच्छी तरह से जाने बिन शांति नहीं मिलेगी और न ही यह पता लगेगा कि ‘मैं कौन हूँ’। जिन्होंने स्वयं को पहचाना है, उन्होंने ईश्वर को जाना है।
।।जय गुरु।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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गुरुवार, 20 सितंबर 2018

महर्षि और परमहंस की उपाधियों का इतिहास ... | History of the titles of Maharishi and Paramhansa | Santmat-Satsang | SantMehi | SadguruMehi

"सद्गुरू मेँहीँ के साथ 'महर्षि' और 'परमहंस' की उपाधियों का इतिहास"

'शान्ति-सन्देश' पत्रिका के प्रथम सम्पादक परमाराध्य श्रीसद्गुरू महाराजजी के परम भक्तोपासक प्रो0 श्रीविश्वानंदजी थे| पत्रिका में और विविध साहित्यों में भी सम्पादक महोदय के द्वारा परमाराध्य श्रीसद्गुरू महाराजजी का नाम केवल "स्वामी मेँहीँ दास" ही छपता था| कुछ समय पीछे सत्संगी श्रद्धालुओं और सेवक-शिष्यों के आपसी आग्रह एवं सम्पादक महोदय के हठ-प्रभुत्व के कारण नाम के अंत में 'जी महाराज' जोड़ा जाने लगा और तब सभी कोई आदर एवं पूज्य भाव से "स्वामी मेँहीँ दासजी महाराज" करके संबोधन एवं पत्रिका एवं साहित्यों में प्रकाशित करने लगे|
बाद में प्रो0 विश्वानन्दजी की जगह चंद्रधर प्रसाद नन्दकुलियारजी सम्पादक बने|इस प्रकार कई सम्पादक समयानुकूल बने और हटे| फिर टीकापट्टी निवासी श्री आनन्दजी सम्पादक बने|
काफी समय तक परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी का उपर्युक्त नाम ही प्रकाशित होता रहा| एक बार श्री आनन्दजी ने अग्यात प्रेरणावश सोचा कि जब महर्षि अरविन्द,महर्षि रमण और महर्षि वेदव्यास आदि नाम महर्षि की उपाधि से विभूषित होकर जगतविख्यात हो सकता है,तो हमारे परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी का नाम महर्षि से विभूषित क्यों नहीं हो सकता है|
उन्होंने बिना किसी की सलाह और समर्थन लिए ही पत्रिका में परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी का नाम "महर्षि" और "परमहंस" से संयुक्त कर "महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज" छपवा दिया|
संयोगवश वह पत्रिका किसी के द्वारा परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी के हाथ लग गई| उलट-पलटकर देखने के क्रम में जैसे ही उनकी निगाह उक्त उपाधियों से विभूषित अपने नाम पर पड़ी,वैसे ही इनका भयंकर रौद्री रोष प्रकट हो गया|सामने जाने की हिम्मत किसी की नहीं हो रही थी| श्रीआनंदजी तो आश्रम छोडकर ही पलायन कर गये|

परिणाम यह हुआ कि पत्रिका-प्रकाशन का कार्य दीर्घ समय तक स्थगित हो गया| फिर उस समय के 'अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महासभा' के महामंत्री श्री लक्ष्मी प्रसाद चौधरी 'विशारद' जी ने तमाम संतमत-सत्संगियों का प्रतिनिधि बनकर एवं स्वयं भी श्रद्धापूरित होकर डरे हुए से परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी के पास जाकर प्रार्थना की- "हुजूर! पत्रिका प्रकाशन का कार्य बंद हो चूका है| सत्संगियों को इस अभाव की हार्दिक पीड़ा है| दूसरी बात यह है कि हुजूर का जो नाम पत्रिका में छप चूका है,उसको बदलने से सत्संगियों की आस्था पर ठेस पहुँचेगी और सब के सब दुखी हो जाएँगे|
अत: हुजूर से प्रार्थना है कि जो हो गया,उसके लिए हम भक्तों को क्षमा-दान कर पत्रिका-प्रकाशन के लिए स्वीकृति देने की कृपा की जाय|"
उपर्युक्त प्रार्थना के समय परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी अपने युगल कमल नेत्रों को बंद कर मौन बने रहे| तभी से इनके नाम में "महर्षि" और "परमहंस" की उपाधियाँ लगने लगी|
इन्हें बड़े-बड़े विद्वान लोग महान-से महान और अति पावन उपाधि देकर भी तृप्त नहीं होते थे| इनके महिमामय व्यक्तित्व और कृतित्व के सामने सभी उपाधियाँ निरा पंगु ही लगती थी|
इनमें इतनी अहंकार-शून्यता थी की एक बार गैदुहा सत्संग में एक महिला इन्हें प्रणाम निवेदित करती हुई बोली- 'स्वामीजी! मुझको आशीर्वाद दीजिए!' यह सुनकर गुरू महाराज ने उस महिला पर खूब गुस्साये, और कहा- "मैं तुम्हारा स्वामीजी हूँ,मैं तो दास का भी दास नहीं हूँ|" और कहकर रोने लगे|
वास्तव में जो पुरूष तीनों अवस्थाओं को पारकर तुरियातीत-अवस्था को प्राप्त किये होते हैं,अर्थात् नि:शब्द-परम-पद को प्राप्त किये होते हैं,वे किसी उपाधि या पद-प्रतिष्ठा के बंधन में नहीं होते हैं| इससे तो उन्हें तकलीफ ही होतीे है|


किसी संत ने बड़ा अच्छा कहा है-
"मान-बड़ाई जबसे आइ,तबसे किस्मत फूटी|"

परम-पद को प्राप्त किये हुए भी हमारे गुरू महाराज अपने को हमेशा "मोरी मति अति नीच अनाड़ी" तथा "मोको सम कौन कुटिल खल कामी|" कहा करते थे| ये उनकी अहंकार-शून्यता नहीं थी तो क्या थी?

परन्तु, आजकल तीन अवस्थाओं में पड़े रहनेवाले महात्माओं में भी अपने आप को "स्वामी", "महर्षि" "परमहंस" इत्यादि उपाधि पाने के लिए होड़ सी लगी हुई है| वे अपने आप को इन उपाधियों से महिमामंडित होने पर फूले नहीं समाते हैं|
जबकि परमाराध्य श्रीसद्गुरू महाराजजी 5.4.1977 ई0 को महेश योगी के आश्रम  ऋषिकेश में कहने की कृपा की थी-
..."महर्षि मेँहीँ हम कभी नहीं| महर्षि नाम से हम बहुत डरते हैं| अगर कोई मुझे महर्षि कह देते हैं,तो मैं अपने को बहुत लज्जा मानता हूँ|"
एक बार संत की उपाधि के लिए भी कहने की कृपा की थी-
..."मैं अपने को संत नहीं मानता; क्योंकि पूरे संत से एक चींटी को भी कष्ट नहीं होता| मेरे नहीं चाहने पर भी बहुतों को कष्ट हो जाता है|"
ऐसे महान विभूति थे हमारे परमाराध्य "श्रीसद्गुरू महाराज"|
(बोलिए प्रेम से श्री सद्गुरू महाराज की जय)
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सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...