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शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

उत्तम वाणी, सत्य वचन, धीर गंभीर मृदु वाक्य | SANTMAT-SATSANG

उत्‍तम वाणी, सत्‍य वचन, धीर गंभीर मृदु वाक्‍य!

मनुष्‍य को सदा उत्‍तम वाणी अर्थात श्रेष्‍ठ लहजे में बात करना चाहिये, और सत्‍य वचन बोलना चाहिये, संयमित बोलना, मितभाषी होना अर्थात कम बोलने वाला मनुष्‍य सदा सर्वत्र सम्‍मानित व सुपूज्‍य होता है। कारण यह कि प्रत्‍येक मनुष्‍य के पास सत्‍य का कोष (कोटा) सीमित ही होता है और शुरू में इस कोष (कोटा) के बने रहने तक वह सत्‍य बोलता ही है, किन्‍तु अधिक बोलने वाले मनुष्‍य सत्‍य का संचित कोष समाप्‍त हो जाने के बाद भी बोलते रहते हैं, तो कुछ न सूझने पर झूठ बोलना शुरू कर देते हैं, जिससे वे विसंगतियों और उपहास के पात्र होकर अपमानित व निन्‍दनीय हो अलोकप्रिय हो जाते हैं। अत: वहीं तक बोलना जारी रखो जहॉं तक सत्‍य का संचित कोष आपके पास है। धीर गंभीर और मृदु (मधुर) वाक्‍य बोलना एक कला है जो संस्‍कारों से और अभ्‍यास से स्‍वत: आती है।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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मंगलवार, 27 नवंबर 2018

दुनिया तो मुसाफिरखाना है; | Yah duniya to musafirkhana hai | Santmat-Satsang

दुनिया तो मुसाफिरखाना है!

यह समस्त दुनिया तो एक मुसाफिरखाना है। दुनियारूपी सराय में रहते हुए भी उससे निर्लेप रहना चाहिए। जैसे कमल का फूल पानी में रहता है परंतु पानी की एक बूँद भी उस पर नहीं ठहरती, उसी प्रकार संसार में रहना चाहिए।

तुलसीदासजी कहते हैं : -
तुलसी इस संसार में भांति भांति के लोग।
हिलिये मिलिये प्रेम सों नदी नाव संयोग।।

जैसे नौका में कई लोग चढ़ते, बैठते और उतरते हैं परंतु कोई भी उसमें ममता या आसक्ति नहीं रखता, उसे अपना रहने का स्थान नहीं समझता, ऐसे ही हम भी संसार में सबसे हिल-मिलकर रहे परंतु संसार में आसक्त न बनें। जैसे, मुसाफिरखाने में कई चीजें रखी रहती हैं किंतु मुसाफिर उनसे केवल अपना काम निकाल सकता है, उन्हें अपना मानकर ले नहीं जा सकता। वैसे ही संसार के पदार्थों का शास्त्रानुसार उपयोग तो करें किंतु उनमें मोह-ममता न रखें। वे पदार्थ काम निकालने के लिए हैं, उनमें आसक्ति रखकर अपना जीवन बरबाद करने के लिए नहीं हैं।

☘संसार को सदैव मुसाफिरखाना ही समझना चाहिये……..☘

घर मकान महल न अपने, तन मन धन बेगाना है,
चार दिनों का चैत चमन में, बुलबुल के लिए बहाना है,
आयी खिजाँ हुई पतझड़, था जहाँ जंगल, वहाँ वीराना है,
जाग मुसाफिर कर तैयारी, होना आखिर रवाना है,
दुनिया जिसे कहते हैं, वह तो स्वयं मुसाफिरखाना है।

अपना असली वतन आत्मा है। उसे अच्छी तरह से जाने बिन शांति नहीं मिलेगी और न ही यह पता लगेगा कि ‘मैं कौन हूँ’।
जिन्होंने स्वयं को पहचाना है, उन्होंने ईश्वर को जाना है।
संसार को सदैव मुसाफिरखाना ही समझना चाहिये…….
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति : शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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गुरुवार, 22 नवंबर 2018

गुरु नानक जयन्ती | GURU NANAK JAYANTI | SANTMAT=SATSANG | प्रभु सत्य एवं उसका नाम सत्य है।

।। श्री सद्गुरवे नमः ।।
| गुरुनानक देव जी की जयन्ती |
गुरूनानक देव सिखों के प्रथम गुरु (आदि गुरु) हैं। ये संत सद्गुरु, योगी, दार्शनिक, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु- सभी के गुण समेटे हुए थे।

गुरुनानक देव जी के बचपन में कई चमत्कारिक घटनाएं घटी, जिन्हें देखकर गांव के लोग इन्हें दिव्य व्यक्तित्व मानने लगे।

इन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में फैली कुरीतियों को मिटाने का प्रयास किया एवं ईश्वर भक्ति का संदेश दिया। गुरुनानक देवजी के दोहों में लाइफ मैनेजमेंट के अनेक सूत्र छिपे हैं जो आज के समय में भी प्रासंगिक हैं।

साचा साहिबु साचु नाइ भाखिआ भाउ अपारू।
आखहि मंगहि देहि देहि दाति करे दातारू।

प्रभु सत्य एवं उसका नाम सत्य है। अलग अलग विचारों एवं भावों तथा बोलियों में उसे भिन्न भिन्न नाम दिये गये हैं।
प्रत्येक जीव उसके दया की भीख मांगता है, तथा सब जीव उसके कृपा का अधिकारी है, और वह भी हमें अपने कर्मों के मुताबिक अपनी दया प्रदान करता है। -गुरुनानक देव जी
उनके परम पावन जयन्ती पर कोटि-कोटि नमन् ।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता

बुधवार, 21 नवंबर 2018

एक बहुत बड़े दानवीर हुए रहीम | DAANVEER RAHIM | देंन हार कोई और है, भेजत जो दिन रैन।

एक बहुत बड़े दानवीर हुए रहीम;
उनकी ये एक खास बात थी कि जब वो दान देने के लिए हाथ आगे बढ़ाते तो अपनी नज़रें नीचे झुका लेते थे।
ये बात सभी को अजीब लगती थी..कि ये रहीम कैसे दानवीर है, ये दान भी देते हैं और इन्हें शर्म भी आती है।

ये बात जब एक संत तक पहुँची तो उन्होंने रहीम को चार पंक्तियाँ लिख कर भेजी जिसमें लिखा था :-

ऐसी  देनी  देन  जु, कित  सीखे  हो  सेन।
ज्यों ज्यों कर ऊंचो करें, त्यों त्यों नीचे नैन।।

इसका मतलब था कि, रहीम तुम ऐसा दान देना कहाँ से सीखे हो। जैसे जैसे तुम्हारे हाथ ऊपर उठते है वैसे वैसे तुम्हारी नज़रें तुम्हारे नैन नीचे क्यूँ झुक जाते है।

रहीम ने इसके बदले में जो जवाब दिया वो जवाब इतना गजब का था कि जिसने भी सुना वो रहीम का भक्त हो गया इतना प्यारा जवाब आज तक किसी ने किसी को नहीं दिया। रहीम ने जवाब में लिखा:-

देंन हार कोई और है, भेजत जो दिन रैन।
लोग भरम हम पर करें, तासो नीचे नैन।।

मतलब देने वाला तो कोई और है वो मालिक है वो परमात्मा है वो दिन रात भेज रहा है। परन्तु लोग ये समझते हैं कि मैं दे रहा हूँ रहीम दे रहा है, ये विचार कर मुझे शर्म आ जाती है और मेरी आँखे नीचे झुक जाती है।

सच में मित्रो ये ना समझी ये मेरे पन का भाव यदि इंसान के अंदर से मिट जाये तो वो जीवन को और बेहतर जी सकता है। 
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

सेवा से ऊब क्यों? | आत्मा का स्वभाव है - प्रेम और प्रेम की परिणति है सेवा | SEWA SE UB KYON | SANTMAT-SATSANG

सेवा साधना से ऊब क्यों?
मैंने इतना तो कर लिया, क्या अब सदा मैं ही करता रहूँगा। दूसरों को सेवा कार्य करना चाहिए। ऐसा सोचना उचित नहीं। सेवा कार्य आत्मा की आवश्यकता का पोषण है।.....

किसी पर एहसान करने के लिए दूसरों के सहायक और उपकारी बनने के लिए, अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए भी नहीं, यश के लिए भी नहीं, सेवा का प्रयोजन आत्मा की गरिमा को अक्षुण्ण रखने और उसका जीवन साधन जुटाये रखने के लिए है .....आत्मा का स्वभाव है - प्रेम और प्रेम की परिणति है सेवा। उससे छुट्टी कैसी? उससे ऊब क्यों? उसे छोड़ा कैसे जा सकता हैं?

जो सेवा की आवश्यकता और महत्ता को समझता है। उसे उससे कभी भी ऊब नहीं आती। जो ऊबता हो समझना चाहिए, अभी उसे सेवा का रस नहीं आया।...

बदला है अब समाँ,
थोड़ा तुम भी बदल जाना।
बिगड़ तो हैं बहुत चुके,
अब इंसान भी बन जाना।

मिटा कर सभी रंजिश मन की,
आओ नई शुरुआत करें।
सेवा करें दीन-हीनों का,
दिल की हर एक बात करें।

अपने लिए तो सब हैं करते,
थोड़ा औरों के लिए भी जरूरी है,
बदल रहा है देश हमारा,
योगदान हमारा भी जरूरी है।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

संतों के विचार को अपनाए बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता। -महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज के वचन | SANTMAT-SATSANG | MAHARSHI HARINANDAN

संतों के विचार को अपनाए बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता। 

संतों के विचार को अपनाए बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता। हमारे गुरुदेव ने कहा कि संतों के विचार को जानने के लिए सत्संग करो। अगर अपना उद्धार चाहते हो, मुक्ति चाहते हो, दुखों से छुटकारा चाहते हो तो संत का संतान बनो। संतो के बतलाए मार्ग पर चलें तभी संत के संतान बनने के अधिकारी हैं। संत उस ओर जाने के लिए कहता है जिस ओर जीव बंधन मुक्त हो जाता है। कोई बंधन नहीं रहता। उन्होंने कहा कि इस शरीर में नौ द्वार है। फिर भी हम नहीं निकल पाते। कारण यह कष्ट का मार्ग है। जब शरीर की अवधि समाप्त हो जाती है तब यम की मार खाकर इस नौ द्वार में से एक से निकलता है। मनुष्य के शरीर में एक गुप्त मार्ग है। यह मार्ग केवल मनुष्य के शरीर में ही है। इस मार्ग से निकलने में कोई कष्ट नहीं होता। 

-- महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज
  जय गुरु
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

आत्मा की पुकार | उस आत्मा की आवाज सुनना हम सबका कर्तव्य है | मन तथा हृदय का पवित्र होना नितांत जरूरी |आत्मा ही देखने योग्य, सुनने योग्य, मनन करने योग्य और पाने योग्य है | SANTMAT-SATSANG

आत्मा की पुकार - उस आत्मा की आवाज सुनना हम सबका कर्तव्य है।

महर्षि याज्ञवल्क्य अपनी समस्त सम्पत्ति को दोनों पत्नियों में बराबर बाँटकर गृह त्याग के लिए तैयार हुए। मैत्रेयी को सन्तोष नहीं हुआ, आखिर वह पूछ ही बैठी ‘‘भगवन् ! क्या मैं इस सबको लेकर जीवन- मुक्ति का लाभ प्राप्त कर सकूँगी ?’’ क्या मैं अमर हो जाऊँगी? आत्मसन्तोष प्राप्त कर सकूँगी ?’’ महर्षि ने कहा- ‘‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकेगा। साधन- सुविधा सम्पन्न सुखी जीवन जैसा तुम्हारा अब तक रहा, इसी तरह आगे भी चलता रहेगा। अन्य सांसारिक लोगों की तरह तुम भी अपना जीवन सुख- सुविधा के साथ बिता सकोगी। ’’   
मैत्रेयी का असन्तोष दूर नहीं हुआ और वे बोलीं ‘‘येनाहंनामृतास्यां किमहं तेन कुर्याम ?’’ ‘‘ जिससे मुझे अमृतत्व प्राप्त न हो, उसे लेकर मैं क्या करूँगी? देव ! मुझे यह सुख- सुविधा सम्पन्न सांसारिक जीवन नहीं चाहिए।’’ 
(बृहदारण्यक उप०- २.४.३)  

‘‘तो फिर तुम्हें क्या चाहिए ’’ महर्षि ने जैसे ही पूछा मैत्रेयी की आँखों से अश्रुधारा बह निकली। उसका हृदय सम्पूर्ण भाव से उमड़ पड़ा। महर्षि के चरणों में शिर झुकाते हुए बोलीं- ‘‘असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृतंगमय।’’   

‘‘हे प्रभो ! मुझे असत्य से सत्य की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर गति प्रदान करें। मैत्रेयी ने महर्षि के सान्निध्य में सुख- समृद्धि, सम्पन्नता का जीवन बिताया था, किन्तु उसके अन्तस् का यह प्रश्न अभी तक अधूरा था। उसका समाधान अभी तक नहीं हो पाया था।  हम जीवन भर नाना प्रकार की सम्पत्ति, वैभव एकत्र करते हैं। आश्रय, धन, बहुमूल्य सामग्री जुटाते हैं और अन्तस् में स्थित मैत्रेयी को सौंपते हुए कहते हैं ‘‘लो ! इससे तुम्हें प्रसन्नता होगी, आनन्द मिलेगा। ’’ किन्तु अन्तस् में बैठी मैत्रेयी कहती है, ‘‘येनाहं नामृतास्यां किमहं तेन कुर्याम्।’’ इन सब सामग्रियों में जीवन के शाश्वत प्रश्न का समाधान नहीं मिलता।   

ऊँचे से ऊँचे पद प्राप्त करते हैं। अखबारों से लेकर दूरदर्शन में छाये रहते हैं। अन्तरात्मा से कहते हैं लो! तुम्हारा तो बड़ा सौभाग्य है। पूरी दुनिया तुम्हें याद कर रही है, किन्तु अन्तरात्मा कहती है ‘‘येनाहं नामृतास्यां किमहं तेन कुर्याम्?’’ आत्मा निरन्तर छटपटाती रहती है, उस महत्त्वपूर्ण तथ्य की प्राप्ति के लिए जो उसे सत्य, प्रकाश, अमृत की प्राप्ति करा सके, दुःखों से छुटकारा दिलाकर आनन्दमय बना सके।  मैत्रेयी चाहती थी उस परम तत्त्व का साक्षात्कार जो सत्य, ज्योतिर्मय स्वरूप है। मैत्रेयी ने अपने अनुभव की कसौटी पर जान लिया था कि संसार और इसके सारे पदार्थ, सम्बन्ध, नाते- रिश्ते मरणशील हैं। भौतिक पाप- तापों की पीड़ा जीव को सदा ही अशान्त, भयभीत बनाए रखती है। इसलिए मैत्रेयी को किसी ऐसी वस्तु की अभिलाषा थी, जो नाशवान् न हो तथा अन्धकार से सर्वथा मुक्त हो। अन्तस् में विराजमान मैत्रेयी की अन्तरात्मा की इस प्रार्थना को हम एकाग्रता के साथ सुनें।  ‘‘येनाहं नामृतास्यां किमहं तेन कुर्याम्?’’ यह हमारा जीवन मन्त्र बन जाय। मैत्रेयी की आकुलता देखकर आत्मतत्त्व का विश्लेषण करते हुए याज्ञवल्क्य ने भी यही कहा था। ‘‘आत्मा वा अरे मैत्रेयी ! दृष्टव्यः श्रोतव्य मन्तव्यो निदिध्यासितव्ये ’’

अरे मैत्रेयी ! आत्मा ही देखने योग्य, सुनने योग्य, मनन करने योग्य और पाने योग्य है।              (बृहदारण्यक उप० ४.५.६)  
उस आत्मा की आवाज सुनना हम सबका कर्तव्य है।
।। जय गुरु ।।
शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...