यह ब्लॉग खोजें

बुधवार, 29 अगस्त 2018

उठो जागो कुछ कर दिखाओ | रुक! जरा ठहर तो! किधर जा रहा है? सेवा के लिए ही न?... | एक वे थे सेवक हनुमान, जो अपने स्वामी राम जी का काज संवारने हेतु आतुर रहते थे |

उठो! जागो! कुछ कर दिखाओ! फिर यह अवसर मिले न मिले!

रुक! जरा ठहर तो! किधर जा रहा है? सेवा के लिए ही न?...अच्छा, फिर दो पल बैठ | मैं तेरा ही जमीर हूँ | आज तुझसे कुछ बातें सांझी करना चाहता हूँ | तुझे झकझोर कर जगाना चाहता हूँ | तू मेरी आवाज को अनसुना मत करना | अपनी दलीलों के शोर से मुझे मत दबाना | मैं जो पूछूं या कहूँ उस पर सोचना, गोर करना |
गुरु सेवा - कितनी सहजता से ये शब्द बोल उठता है तू! पर कभी इनकी गहराई, इनकी महिमा जानी है? सेवादारी क्या होती है? सेवक किसे कहते हैं ? उसका शिंगार क्या है ? कुछ खबर है इन सबकी ? शायद नहीं! तभी तुम बड़े आराम से! 7:00 वजे की सेवा के लिए 7:30 वजे घर से जा रहा है | वह भी बड़े आराम से! कहीं दिल में खींच नहीं | क़दमों में रफ़्तार नहीं! कोई बेसबरी या जल्दी नहीं!

एक वे थे सेवक हनुमान, जो अपने स्वामी राम जी का काज संवारने हेतु आतुर रहते थे | आतुर! बड़ा मार्मिक है यह लफ्ज! एक होता है, सेवा के लिए तैयार रहना | दूसरा होता है, आतुर रहना | जो सेवक तैयार रहता है, वह इंतजार करता है| सेवा हाथ में आती है, तो उसे अंजाम देता
है | पर जो सेवक आतुर है, वह इंतजार करना नहीं जनता | सेवा के बगैर छटपटा उठता है | इसलिए यहाँ सेवा होती है, वहां स्वयं पहुंच जाता है | लपक के उसे लूट ता है| ठीक जैसे एक भूखा व्यक्ति | सेवा के लिए ऐसी भूख होती है एक सेवादार में! सच बता, क्या तुझमें है? नहीं न! तुझे तो गुरुघर से बुलावे भेजने पड़ते हैं | तब  कहीं जाकर तेरे कदम उठते हैं...और कई बार तो तेरी सुग्रीव जैसी हालत होती है | बढ - चढ़ कर सेवा करने के दावे तो कर आता है | पर फिर दुनिया में मस्त होकर उन्हें बिसर बैठता है | गफलत की नींद सो जाता है | टेलीफ़ोन की जोरदार घंटियाँ  से तुझे जगाना पड़ता है | क्यों? क्यों है तेरी आँखों में ऐसी गाढ़ी नींद, जो टूटटी ही नहीं? कहते हैं, लक्ष्मण  बनवास के 14 वर्षों तक ऐसी कच्ची नींद सोया था, की यदि उसके स्वामी राम के पास एक पत्ता भी हिलता, तो वह जाग उठता था | यह होती है एक सेवक की जागरूकता! सेवा के प्रति उस की सजगता !

तुझे याद है गुरु महाराज जी के वचन - गुरु सभी को श्रेष्ठ सेवा सोंपता है, पर प्रसन्न  उन्ही से होता है, जो उसे पूर्ण करते हैं | अरे, गुरू सिर्फ हमारे सिर  झुकाने से खुश  नहीं होता | ठीक है, भावनाओं की अपनी कीमत है | उन्हें भी गुरु-चरणों में समर्पित करना है | पर खाली मत्था रगड़ने से काम नहीं चलेगा | गुरु का सच्चा सपूत है, तो तन मन को सेवा में झोंक कर दिखा | वह भी पूरी लगन से, निष्ठां से, डूब के! जिस मिशन रुपी गोवर्धन को गुरु महाराज जी ने उठाया हुआ है, तू उसमें अपने सहयोग की छड़ी लगाकर दिखा | ऐसे नहीं की ढीले- ढाले होकर...लापरवाही से...जितना हो गया, सेवा पूजा है! एक पवित्र आरती है | गुरु चरणों में समर्पित परम वंदना है | तेरी भावनाओं को परखने की सच्ची कसोटी है....इस लिए सेवा को पूरी ईमानदारी और जिम्मेवारी  से निभाया कर |
मैं तेरा जमीर हूँ | इसलिए मुझसे कुछ नहीं छिपा| मैं तेरी अंतर्तम भावनाओं को जानता हूँ | ये भावनाएं भीतर क्यों उठती हैं ? उनकी जड़ क्या है? यही की तू अपने आप को कर्ता मानकर सेवा करता है | सोचता है, सेवा करने वाला तू है | इस लिए गिरता उड़ता है | अर्जुन का भी यही हाल था | सीना तान कर, गांडीव - शंडीव  धारण कर  कुरुक्षेत्र  में उतर आया | पर ज्यों ही चोनौतिपूर्ण नजारा देखा, कंधे लटक गई | होसलें पस्त हो गए | उत्साह धराशाही होकर गिर पड़ा | वह कह उठा - 'प्रभु मैं यह सेवा नहीं कर सकता | मैं इस कार्य के योग्य नहीं | ऐसे में प्रभु ने क्या किया ? उसे अपना विराट स्वरूप  दिखाया | उसमें सभी विपक्षी योद्धगन चुर्नित होते दिखाए | स्पष्ट किया - तू सेवा करने वाला है ही नहीं | देख इन्हें तो मैं पहले ही यमपुरी पहुंचा चूका हूँ | तुझे तो इस सेवा का निमित्त मात्र बनाया है | इसलिए बस जैसा कह रहा हूँ, करता जा | एक सेवादार का यही धरम है कि जो मालिक ने कहा, पूरी भावना से  वह करता जाए | सेवा होगी या नहीं और अगर हो गयी , तो क्यों हुए - ये सब सोचकर मन भारी करने का क्या मतलब | कर्ता पुरष  तो गुरु हैं | हो सकता है, उन्हें  यही मंजूर हो |

वे ब्रह्माण्ड के सूर्ये हैं | सकल विश्व को अकेले ही रोशन कर सकते हैं | पर दया कर, परम क्रपालु  होकर, तुझ जैसे जुगनुओं को चमकने का मोका दे रहे हैं | सितारों को टिमटमाने  का अवसर दे रहे हैं | तुझे यह मोका हरगिज नहीं चूकना है | अपनी सारी ताकत, सारी भावनाएं बटोरकर सेवा व्रत निभाना है | जिगर में सेवा भाव की ज्वाला जलानी है, जिस में जलकर तेरे  सारे नीच और बाधक विचार राख हो जाएँ | ताकि तू दमक उठे | तेरे सिर  पर गुरु के लिए कुछ कर गुजरने का जनून हो | तेरे विचारों के ताने बाने में, दिल के हर अफसाने में एक ही भाव गूंथा हो - सेवा!सेवा!सेवा ! तेरे कर्म का, धर्म का, ईमान का, सारे जीवन का एक ही सार हो - सेवा! सेवा!सेवा! तू सेवा करते - करते सेवारूप  हो जाए | तभी सच्चा सेवक कहलाएगा, मेरे मीत! तू सच्चा सेवक कहलाएगा! इस लिए हम सब ने ऐसे सेवक बनना है और गुरू महाराज जी के उमीदों को पूर्ण करना है | फिर वह दिन दूर नहीं जब हम सब विश्व शांति का लक्ष्य साकार होते हुए देखेंगे।

जय गुरु महाराज!
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम


पूर्ण के आगे पूर्ण समर्पण | समर्पण क्या है? मन का अर्पण है | समर्पण मात्र शरीर का अर्पण नहीं है | मस्तक का झुकना भर नहीं है | जब हमारा गुरु पूर्ण है | उनका प्रेम पूर्ण है | उनकी कृपा पूर्ण है | अपनाना पूर्ण है |

पूर्ण के आगे पूर्ण समर्पण!

जहाँ न + मन है, वही नमन है।
जहाँ नमन है, वही चमन है।

समर्पण मात्र शरीर का अर्पण नहीं है | मस्तक का झुकना भर नहीं है | 

समर्पण क्या है? मन का अर्पण है | इस हद  तक कि जहाँ एक भाव - तरंग भी अपनी चेष्टा या कामना से न उठे | तभी तो समर्पण की विशालता को स्वयं गुरु महाराज जी ने केवल एक पंकित में बंधते हुए यही कहा था -' समर्पण वह है, यहाँ इष्ट का एक पल का भी आभाव आपको बैचैन कर दे |' माने उसके इशारों का आभाव हमारी जीवन - प्रणाली ही ठप्प कर के रख दे | मन को कंगाल कर दे | जीवन की गति के गुरु ही आधार, गुरु ही सार हो जाएँ | तन  - मन अपनी चाल चलना छोड़कर उनके इशारों पर थिरकने लगे | यह है समर्पण | मात्र घर छोड़ कर आना भर समर्पण नहीं | सर्वात्म को उलीच कर देना - यह है समर्पण |

जब  हमारा गुरु पूर्ण  है | उनका प्रेम पूर्ण है | उनकी कृपा पूर्ण  है | अपनाना पूर्ण है | तो बदले में हमारा देना पूर्ण क्यों नहीं है? समर्पण पूर्ण क्यों नहीं है ? मैं अपना भी रहूँ और समर्पित भी कहलाऊँ - यह तो आडम्बर होगा | समर्पण का मजाक उड़ाना होगा | समझ लें, खंडित समर्पण, समर्पण नहीं होता | अपने में से थोडा सा निकल कर गुरु को अर्पित कर देना - यह समर्पण है ही नहीं | अधूरी आंशिक आहुतियों से कभी समर्पण की ज्वाला जाज्वल्यमान नहीं होती | अपूर्णता में तो वह अपनी सारी गरिमा, सारी  महिमा  खो बैठती है | इस लिए समर्पण सदा सर्वात्म देकर महिमामंडित होता है | पूर्णता की पीठिका पर ही सीधा स्थिर खड़ा रह पाता है | जय गुरु!
(प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम)

प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती | आज भी परमात्मा का दर्शन संभव है, जरूरत है एक..... | Santmat-Satsang

प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्कयता नहीं होती!
बहुत सारे व्यक्तियों के मन में यह सवाल अक्सर होता है कि संत - महापुरष अपने प्रवचनों में अक्सर हर बात सिद्ध करने के लिए शास्त्र - ग्रंथों का सहारा लेते हैं। पर इस बात का ही क्या प्रमाण है कि ग्रंथों में जो लिखा है, वह पूरी पूर्णत: सत्य है?

उत्तर :  महापुरषों ने कब कहा कि आप ग्रंथों की वाणियों को आँख मूँदकर मान लीजिए। इन ग्रंथों को ऐसे पढ़ें, जैसे chemistry (रसायन शास्त्र ) पढ़ते हैं। रसायन शास्त्र का विधार्थी सर्वप्रथम एक समीकरण को अपनी पुस्तक में पढता है। फिर प्रयोगशाला में जाकर प्रयोगात्मक  (practical) ढंग से उसका परीक्षण (experiment) करता है। जैसे उसने पढ़ा - 2H2 + O2 = 2H2O.

अब वह इस समीकरण के आधार पर प्रयोगशाला (laboratory) में हाड्रोजन और आक्सीजन, दोनों गैसों को सही मात्र  में मिलाएगा। फिर उसमें से विधुत गुजारेगा। यदि पानी बनकर सामने आ गया, तो समीकरण की सत्यता स्वत: ही प्रमाणित हो जाएगी।
धार्मिक ग्रंथों के सन्दर्भ में भी हमें यही पद्धित अपनानी है। सबसे पहले उनमें लिखित अध्यात्मिक तथ्यों को ध्यान से पढ़ें। फिर उन पर प्रयोगात्मक परीक्षण करें। यदि ग्रंथों में लिखा है कि गुरु कृपा से अंतहिर्दय  में परमात्मा का दर्शन होता है, तो बढ़ें आगे और पूर्ण गुरु की खोज करें। उनसे ज्ञान दीक्षा ग्रहण कर स्वयं अपने भीतर प्रभु का दर्शन करें।
नि: सन्देह, ये ग्रन्थ  कपोल कल्पनाओं का आधार पर नहीं लिखे गए। ये ब्रह्मज्ञानी ऋषियों द्वारा लिखे गए हैं। ऋषि का अर्थ ही होता है - 'द्रष्टा' अर्थात देखने वाला। ग्रंथों को लेखनीबद्ध करने से पहले उन्होंने सभी तथ्यों को अपने जीवन में प्रयोगात्मक रूप से अनुभव किया था। इसलिए इनमें दर्ज एक - एक तथ्य प्रयोगात्मक कसौटी पर कसा जा सकता है। आप इन सभी को अपने जीवन में प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं और प्रत्यक्ष को अन्य किसी प्रमाण की आवश्कयता ही नहीं होती!
आज भी परमात्मा का दर्शन संभव है, जरूरत है एक केवल पूर्ण सतगुरु की, जो हमारी दिव्य चक्षु को खोल के परमात्मा के प्रकाश स्वरूप का दर्शन करा दे।
।। जय गुरु ।।

शनिवार, 25 अगस्त 2018

हतोत्साहित नहीं प्रोत्साहित करें | Hatotsahit nahi protsahit karen | Motivational thoughts |

हतोत्साहित नहीं प्रोत्साहित करें;
एक दिन एक किसान का गधा कुएं में गिर गया। वह गधा घंटों जोर-जोर से रेंकता (गधे के बोलने की आवाज) रहा... और किसान सुनता रहा और विचार करता रहा कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं। 

आखिर उसने निर्णय लिया कि गधा काफी बूढ़ा हो चूका है, उसे बचाने से कोई लाभ होने वाला नहीं है इसलिए उसे कुएं में ही दफना देना चाहिए। 

किसान ने अपने सभी पड़ोसियों को मदद के लिए बुलाया। सभी ने एक-एक फावड़ा पकड़ा और कुएं में मिट्टी डालनी शुरू कर दी। जैसे ही गधे कि समझ में आया कि यह क्या हो रहा है, वह और जोर से चीख कर रोने लगा। और फिर, अचानक वह आश्चर्यजनक रुप से शांत हो गया। 

सब लोग चुपचाप कुएं में मिट्टी डालते रहे। तभी किसान ने कुएं में झांका तो वह हैरान रह गया। अपनी पीठ पर पड़ने वाले हर फावड़े की मिट्टी के साथ वह गधा एक आश्चर्यजनक हरकत कर रहा था। वह हिल-हिल कर उस मिट्टी को नीचे गिरा देता था और फिर एक कदम बढ़ाकर उस पर चढ़ जाता था। 

जैसे-जैसे किसान तथा उसके पड़ोसी उस पर फावड़ों से मिट्टी गिराते वैसे वह हिल कर उस मिट्टी को गिरा देता और एक सीढी ऊपर चढ़ आता। जल्दी ही सबको आश्चर्यचकित करते हुए वह गधा कुएं के किनारे पर पहुंच गया और फिर कूदकर बाहर भाग गया। 

संक्षेप में :
आपके जीवन में भी बहुत तरह कि मिट्टी फेंकी जाएगी, बहुत तरह कि गंदगी आप पर गिरेगी। जैसे कि, आपको आगे बढ़ने से रोकने के लिए कोई बेकार में ही आपकी आलोचना करेगा, कोई आपकी सफलता से ईर्ष्या के कारण आपको बेकार में ही भला बुरा कहेगा। 

कोई आगे निकलने के लिए ऐसे रास्ते अपनाता हुआ दिखेगा जो आपके आदर्शों के विरुद्ध होंगे। 

ऐसे में आपको हतोत्साहित होकर कुएं में ही नहीं पड़े रहना है बल्कि साहस के साथ हिल-हिल कर हर तरह कि गंदगी को गिरा देना है और उससे सीख लेकर, उसे सीढ़ी बनाकर, बिना अपने आदर्शों का त्याग किए अपने कदमों को आगे बढ़ाते जाना है। 
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कु० मेहता, गुरुग्राम


शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

संत की पहचान दुर्लभ है | Sant ki pahchan durlabh hai | जब हम सच्चाई को खुद जान लेंगे तब उस परम शक्ति की सत्ता पर स्वत: प्रतीति हो जाएगी।

संत की पहचान दुर्लभ है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदास जी को लिखना पड़ा; -

जाने बिनु न होई परतीती।
बिनु परतीति होई नहिं प्रीती॥
प्रीति बिना नहीं भगति दृढ़ाई।
जिमि खगेश जल की चिकनाई॥
==========================
सर्वव्यापक परमात्मा को जानकर ही उन पर प्रतीति यानी विश्वास किया जा सकता है। इसके लिए स्वयं अपने भीतर निरीक्षण करके देखना है कि क्या सचमुच मुझमें शांति है। विश्व के सभी संतों, सत्पुरुषों और मुनियों ने यही सलाह दी है कि ‘अपने आपको जानो’। स्पष्ट है कि उनकी सलाह बिना जाने ही मान लेने की नहीं है। उन्होंने साफ तौर पर यह सलाह दी है कि पहले जानो तब मानो। यहां यह बात भी छिपे रूप से कही गयी है कि जब मनुष्य अपने आपको जान लेगा तब उसे उस परम शक्ति का भी ज्ञान हो जाएगा जिसका वह खुद अंश है। लेकिन इस बात को भी हमारे मनीषियों ने केवल बुद्धि के स्तर पर स्वीकार करने के लिए नहीं कहा है, भावावेश में आकर या श्रद्धा के मारे स्वीकार करने की सलाह नहीं दी है, बल्कि अपनी अनुभूति के स्तर पर अपने बारे में सचाई को जानने का ईशारा किया है। क्योंकि जब हम सच्चाई को खुद जान लेंगे तब उस परम शक्ति की सत्ता पर स्वत: प्रतीति हो जाएगी।
।।जय गुरु महाराज।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram

पूर्ण संत | सतगुरु | Purna Sant | Sadguru | SantMehi | Sanatan-Mehi | Santmat-Satsang | पूरा सतगुरु सोए कहावै, दोय अखर का भेद बतावै। एक छुड़ावै एक लखावै, तो प्राणी निज घर जावै।।

पूर्ण संत : सतगुरु!

परमेश्वर स्वयं आकर या अपने परमज्ञानी संत को भेज कर सच्चे ज्ञान के द्वारा धर्म की पुनः स्थापना करता है। वह भक्ति मार्ग को शास्त्रों के अनुसार समझाता है। वह संत सभी धर्म ग्रंथों का पूर्ण जानकार होता है।

“सतगुरु के लक्षण कहूं, मधूरे बैन विनोद।
चार वेद षट शास्त्रा, कहै अठारा बोध।।“

सतगुरु गरीबदास जी महाराज अपनी वाणी में पूर्ण संत की पहचान बता रहे हैं कि वह चारों वेदों, छः शास्त्रों, अठारह पुराणों आदि सभी ग्रंथों का पूर्ण जानकार होगा अर्थात् उनका सार निकाल कर बताएगा।

पूरा सतगुरु सोए कहावै, दोय अखर का भेद बतावै।
एक छुड़ावै एक लखावै, तो प्राणी निज घर जावै।।

जै पंडित तु पढ़िया, बिना दउ अखर दउ नामा।
परणवत नानक एक लंघाए, जे कर सच समावा।

वेद कतेब सिमरित सब सांसत, इन पढ़ि मुक्ति न होई।।
एक अक्षर जो गुरुमुख जापै, तिस की निरमल होई।।

गुरु नानक जी महाराज अपनी वाणी द्वारा समझाना चाहते हैं कि पूरा सतगुरु वही है जो दो अक्षर के जाप के बारे में जानता है। जिनमें एक काल व माया के बंधन से छुड़वाता है और दूसरा परमात्मा को दिखाता है और तीसरा जो एक अक्षर है वो परमात्मा से मिलाता है।

जो मम संत सत उपदेश दृढ़ावै, वाके संग सभि राड़ बढ़ावै।
या सब संत महंतन की करणी, धर्मदास मैं तो से वर्णी।।

कबीर साहेब अपने प्रिय शिष्य धर्मदास को इस वाणी में ये समझा रहे हैं कि जो मेरा संत सत भक्ति मार्ग को बताएगा उसके साथ सभी नकली संत व महंत झगड़ा करेंगे। ये उसकी पहचान होगी।

कबीर, सतगुरु  शरण  में  आने से, आई टले बलाय।
जै मस्तिक में सूली हो वह कांटे में टल जाय।।

भावार्थ:- सतगुरु अर्थात् तत्वदर्शी सन्त से उपदेश लेकर मर्यादा में रहकर भक्ति करने से प्रारब्ध कर्म के पाप अनुसार यदि भाग्य में सजाए मौत हो तो वह पाप कर्म हल्का होकर सामने आएगा। उस साधक को कांटा लगकर मौत की सजा टल जाएगी।

संतों सतगुरु मोहे भावै, जो नैनन अलख लखावै।
ढोलत ढिगै ना बोलत बिसरै, सत उपदेश दृढ़ावै।।

आंख ना मूंदै कान ना रूदैं ना अनहद उरझावै।
प्राण पूंज क्रियाओं से न्यारा, सहज समाधी बतावै।।

संत तो जैसे नदी और वृक्ष का जन्म परोपकार के लिए है, वैसे ही संतों का जन्म केवल परोपकार के लिए है। स्वार्थ का तो संतों में लेशमात्र भी नहीं हो सकता। संत बच्चों जैसे निष्पाप होते हैं। हमेशा मन में सागर सी शांति होती है, सभी के लिए असीम दया होती है। सदैव क्षमाशील बर्ताव होता है तथा सात्विक गुणों से परिपूर्ण होते हैं। समर्पण ही संतों का नाम है और कार्य है। करुणा के सिवा जीवन का दूसरा कोई अर्थ होता है, यह संत नहीं जानते। संत भी देहधारी होते हैं क्योंकि हर देह का प्रारब्ध है किंतु वे देह में रहते हैं क्या और अगर देह में रहते हैं तो कहां?  संतों के बारे में कल्पना करना भी सामान्य जनों के लिए संभव नहीं है। उन्हें जानने में संत ही समर्थ होते हैं और कोई नहीं। आम जन संत के साथ भी रहकर संत को पहचानने में असमर्थ होते हैं। 
।।जय गुरु महाराज।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram

बुधवार, 22 अगस्त 2018

एक -दूजे के पूरक विज्ञान और अध्यात्म | Ek duje ke purak adhyatm aur vigyan | जब इन दोनों को मिलाकर समाज के उत्थान हेतु उपयोग में लाया जाए, तभी इनकी असल... | Santmat-Satsang

एक-दूजे के पूरक विज्ञान और अध्यात्म!
ऐसा माना जाता है कि विज्ञान और अध्यात्म एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी और विरोधाभासी हैं। अक्सर यह आम धारणा लोगों के दिमाग में घर कर जाती है और वे इससे अलग सोचना नहीं चाहते। लेकिन यही सोच दरअसल वैचारिक विकास के रुकने का भी संकेत है। जब हम अध्यात्म को संकीर्णताओं के घेरे में कैद कर देते हैं तब भी और जब हम विज्ञान का उपयोग विध्वंस के लिए करने लगते हैं तब भी, दोनों ही तरीकों से हम विनाश की ओर कदम बढ़ाते हैं तथा विकास से कोसों दूर होते चले जाते हैं। 

अध्यात्म तथा विज्ञान दोनों की उत्पत्ति सृजन के मूल मंत्र के साथ हुई है। सृष्टि ने यह विषय बाहरी जगत तथा अंतरात्मा को जोड़ने के उद्देश्य से उपहारस्वरूप मनुष्य को दिए हैं। विज्ञान और अध्यात्म परस्पर शत्रु नहीं मित्र हैं, एक-दूजे के संपूरक हैं । 

विज्ञान हमें अध्यात्म से जोड़ता है और अध्यात्म हमें वैज्ञानिक तरीके से सोचने का सामर्थ्य देता है। विज्ञान का आधार है तर्क तथा नई खोज और किसी धर्मग्रंथ में भी इन्हीं बातों को कहा गया है। इसलिए अध्यात्म एवं विज्ञान में एक जैसी समानताएँ और एक जैसे विरोधाभास हैं। 

यदि विज्ञान बाहरी सच की खोज है तो अध्यात्म अंतरात्मा के सच को जानने का जरिया है। दोनों ही माध्यमों द्वारा हम इस सच को जानने के लिए ज्ञान के मार्ग पर बढ़ते हैं और उद्देश्य उक्त सच को जानकर, उस पर मनन कर प्राणीमात्र की भलाई में उसका उपयोग करना होता है। दोनों ही जगह ज्ञान का क्षेत्र अनंत है। विज्ञान के जरिए आप प्रकृति को प्रेम करना सीखते हैं। तकनीक या विज्ञान कभी भी प्राणियों को जाति या धर्म के नाम पर बाँटता नहीं, और यही अध्यात्म का असल अर्थ भी है। 

जब इन दोनों को मिलाकर समाज के उत्थान हेतु उपयोग में लाया जाए, तभी इनकी असल परिभाषा सार्थक होती है। जिस प्रकार शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए वैज्ञानिक उपायों तथा खोजों की आवश्यकता होती है, ठीक उसी प्रकार मन को स्वस्थ बनाए रखने के लिए अध्यात्मरूपी मनन जरूरी होता है। इन दो मित्रों की मैत्री को अटूट बनाकर सारे समाज में शांति और स्नेह का वातावरण निर्मित किया जा सकता है।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति एस.के. मेहता, गुरुग्राम


सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...