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बुधवार, 21 नवंबर 2018

सेवा से ऊब क्यों? | आत्मा का स्वभाव है - प्रेम और प्रेम की परिणति है सेवा | SEWA SE UB KYON | SANTMAT-SATSANG

सेवा साधना से ऊब क्यों?
मैंने इतना तो कर लिया, क्या अब सदा मैं ही करता रहूँगा। दूसरों को सेवा कार्य करना चाहिए। ऐसा सोचना उचित नहीं। सेवा कार्य आत्मा की आवश्यकता का पोषण है।.....

किसी पर एहसान करने के लिए दूसरों के सहायक और उपकारी बनने के लिए, अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए भी नहीं, यश के लिए भी नहीं, सेवा का प्रयोजन आत्मा की गरिमा को अक्षुण्ण रखने और उसका जीवन साधन जुटाये रखने के लिए है .....आत्मा का स्वभाव है - प्रेम और प्रेम की परिणति है सेवा। उससे छुट्टी कैसी? उससे ऊब क्यों? उसे छोड़ा कैसे जा सकता हैं?

जो सेवा की आवश्यकता और महत्ता को समझता है। उसे उससे कभी भी ऊब नहीं आती। जो ऊबता हो समझना चाहिए, अभी उसे सेवा का रस नहीं आया।...

बदला है अब समाँ,
थोड़ा तुम भी बदल जाना।
बिगड़ तो हैं बहुत चुके,
अब इंसान भी बन जाना।

मिटा कर सभी रंजिश मन की,
आओ नई शुरुआत करें।
सेवा करें दीन-हीनों का,
दिल की हर एक बात करें।

अपने लिए तो सब हैं करते,
थोड़ा औरों के लिए भी जरूरी है,
बदल रहा है देश हमारा,
योगदान हमारा भी जरूरी है।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

संतों के विचार को अपनाए बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता। -महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज के वचन | SANTMAT-SATSANG | MAHARSHI HARINANDAN

संतों के विचार को अपनाए बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता। 

संतों के विचार को अपनाए बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता। हमारे गुरुदेव ने कहा कि संतों के विचार को जानने के लिए सत्संग करो। अगर अपना उद्धार चाहते हो, मुक्ति चाहते हो, दुखों से छुटकारा चाहते हो तो संत का संतान बनो। संतो के बतलाए मार्ग पर चलें तभी संत के संतान बनने के अधिकारी हैं। संत उस ओर जाने के लिए कहता है जिस ओर जीव बंधन मुक्त हो जाता है। कोई बंधन नहीं रहता। उन्होंने कहा कि इस शरीर में नौ द्वार है। फिर भी हम नहीं निकल पाते। कारण यह कष्ट का मार्ग है। जब शरीर की अवधि समाप्त हो जाती है तब यम की मार खाकर इस नौ द्वार में से एक से निकलता है। मनुष्य के शरीर में एक गुप्त मार्ग है। यह मार्ग केवल मनुष्य के शरीर में ही है। इस मार्ग से निकलने में कोई कष्ट नहीं होता। 

-- महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज
  जय गुरु
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

आत्मा की पुकार | उस आत्मा की आवाज सुनना हम सबका कर्तव्य है | मन तथा हृदय का पवित्र होना नितांत जरूरी |आत्मा ही देखने योग्य, सुनने योग्य, मनन करने योग्य और पाने योग्य है | SANTMAT-SATSANG

आत्मा की पुकार - उस आत्मा की आवाज सुनना हम सबका कर्तव्य है।

महर्षि याज्ञवल्क्य अपनी समस्त सम्पत्ति को दोनों पत्नियों में बराबर बाँटकर गृह त्याग के लिए तैयार हुए। मैत्रेयी को सन्तोष नहीं हुआ, आखिर वह पूछ ही बैठी ‘‘भगवन् ! क्या मैं इस सबको लेकर जीवन- मुक्ति का लाभ प्राप्त कर सकूँगी ?’’ क्या मैं अमर हो जाऊँगी? आत्मसन्तोष प्राप्त कर सकूँगी ?’’ महर्षि ने कहा- ‘‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकेगा। साधन- सुविधा सम्पन्न सुखी जीवन जैसा तुम्हारा अब तक रहा, इसी तरह आगे भी चलता रहेगा। अन्य सांसारिक लोगों की तरह तुम भी अपना जीवन सुख- सुविधा के साथ बिता सकोगी। ’’   
मैत्रेयी का असन्तोष दूर नहीं हुआ और वे बोलीं ‘‘येनाहंनामृतास्यां किमहं तेन कुर्याम ?’’ ‘‘ जिससे मुझे अमृतत्व प्राप्त न हो, उसे लेकर मैं क्या करूँगी? देव ! मुझे यह सुख- सुविधा सम्पन्न सांसारिक जीवन नहीं चाहिए।’’ 
(बृहदारण्यक उप०- २.४.३)  

‘‘तो फिर तुम्हें क्या चाहिए ’’ महर्षि ने जैसे ही पूछा मैत्रेयी की आँखों से अश्रुधारा बह निकली। उसका हृदय सम्पूर्ण भाव से उमड़ पड़ा। महर्षि के चरणों में शिर झुकाते हुए बोलीं- ‘‘असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृतंगमय।’’   

‘‘हे प्रभो ! मुझे असत्य से सत्य की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर गति प्रदान करें। मैत्रेयी ने महर्षि के सान्निध्य में सुख- समृद्धि, सम्पन्नता का जीवन बिताया था, किन्तु उसके अन्तस् का यह प्रश्न अभी तक अधूरा था। उसका समाधान अभी तक नहीं हो पाया था।  हम जीवन भर नाना प्रकार की सम्पत्ति, वैभव एकत्र करते हैं। आश्रय, धन, बहुमूल्य सामग्री जुटाते हैं और अन्तस् में स्थित मैत्रेयी को सौंपते हुए कहते हैं ‘‘लो ! इससे तुम्हें प्रसन्नता होगी, आनन्द मिलेगा। ’’ किन्तु अन्तस् में बैठी मैत्रेयी कहती है, ‘‘येनाहं नामृतास्यां किमहं तेन कुर्याम्।’’ इन सब सामग्रियों में जीवन के शाश्वत प्रश्न का समाधान नहीं मिलता।   

ऊँचे से ऊँचे पद प्राप्त करते हैं। अखबारों से लेकर दूरदर्शन में छाये रहते हैं। अन्तरात्मा से कहते हैं लो! तुम्हारा तो बड़ा सौभाग्य है। पूरी दुनिया तुम्हें याद कर रही है, किन्तु अन्तरात्मा कहती है ‘‘येनाहं नामृतास्यां किमहं तेन कुर्याम्?’’ आत्मा निरन्तर छटपटाती रहती है, उस महत्त्वपूर्ण तथ्य की प्राप्ति के लिए जो उसे सत्य, प्रकाश, अमृत की प्राप्ति करा सके, दुःखों से छुटकारा दिलाकर आनन्दमय बना सके।  मैत्रेयी चाहती थी उस परम तत्त्व का साक्षात्कार जो सत्य, ज्योतिर्मय स्वरूप है। मैत्रेयी ने अपने अनुभव की कसौटी पर जान लिया था कि संसार और इसके सारे पदार्थ, सम्बन्ध, नाते- रिश्ते मरणशील हैं। भौतिक पाप- तापों की पीड़ा जीव को सदा ही अशान्त, भयभीत बनाए रखती है। इसलिए मैत्रेयी को किसी ऐसी वस्तु की अभिलाषा थी, जो नाशवान् न हो तथा अन्धकार से सर्वथा मुक्त हो। अन्तस् में विराजमान मैत्रेयी की अन्तरात्मा की इस प्रार्थना को हम एकाग्रता के साथ सुनें।  ‘‘येनाहं नामृतास्यां किमहं तेन कुर्याम्?’’ यह हमारा जीवन मन्त्र बन जाय। मैत्रेयी की आकुलता देखकर आत्मतत्त्व का विश्लेषण करते हुए याज्ञवल्क्य ने भी यही कहा था। ‘‘आत्मा वा अरे मैत्रेयी ! दृष्टव्यः श्रोतव्य मन्तव्यो निदिध्यासितव्ये ’’

अरे मैत्रेयी ! आत्मा ही देखने योग्य, सुनने योग्य, मनन करने योग्य और पाने योग्य है।              (बृहदारण्यक उप० ४.५.६)  
उस आत्मा की आवाज सुनना हम सबका कर्तव्य है।
।। जय गुरु ।।
शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

बुधवार, 14 नवंबर 2018

धैर्य; | मनु भगवान ने धर्म के दस लक्षणों का वर्णन करते हुए धृति (धैर्य) को पहला स्थान दिया | SANTMAT=SATSANG

 धैर्य;
मनु भगवान ने धर्म के दस लक्षणों का वर्णन करते हुए धृति (धैर्य) को पहला स्थान दिया है। वास्तव में धैर्य का स्थान जीवन में इतना ही ऊँचा है कि उसे प्रारम्भिक सद्गुण माना जाए। हर एक कार्य कुछ समय उपरान्त फल देता है, हथेली पर सरसों जमते नहीं देखी जाती, किसान खेत बोता है और फसल की प्रतीक्षा करता रहता है। यदि हम अधीर होकर बोये हुए दानों का फल उसी दिन लेना चाहे तो उसे निराश ही होना पड़ेगा।

 लोग किसी कार्य को उत्साहपूर्वक आरम्भ करते हैं किन्तु फल की शीघ्रता के लिए इतने उतावले होते हैं कि थोड़े समय तक प्रतीक्षा करना या धैर्य धारण करना उन्हें सहन नहीं होता। अपितु प्रतिभा, योग्यता, कार्यशीलता, बुद्धिमत्ता सभी कुछ  होने के बावजूद भी अधीरता और उतावलेपन का एक ही दोष उन सारे गुणों पर पानी फेर देता है।

धर्म का आरम्भिक लक्षण धैर्य है। हमें चाहिए कि किसी कार्य को खूब आगा-पीछा सोच-समझने के बाद आरम्भ करें किन्तु जब आरम्भ कर दें तो दृढ़ता और धैर्य के साथ उसे पूरा करने में लगे रहें। विषम कठिनाइयाँ, असफलताएं, हानियाँ प्रायः हर एक अच्छे कार्य के आरम्भ में आती देखी गई हैं पर यह बात भी निश्चय है कि कोई व्यक्ति शान्त चित्त से उस मार्ग पर डटा रहे तो एक दिन पथ के वे काँटे फूल बन जाते हैं और सफलता प्राप्त होकर रहती है।
।। जय गुरु ।।
शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

मंगलवार, 13 नवंबर 2018

महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट | MAHARSHI MEHI SEWA TRUST |

ॐ श्री सद्गुरवे नमः
परम आदरणीय सभी साधु-महात्मागण, वरिष्ठ साधकों, सत्संगी प्रेमीगण - गुरु भक्तों एवं अन्य सभी!

जैसा कि आप सबों  को मालूम है कि २०वीं सदी के महान संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के ज्ञान को  जन-जन तक पहुँचाने एवं ईश्वर-भक्ति, देश भक्ति, समाज सेवा एवं संगत सेवा की ओतप्रोत भावना से सेवा कार्य के लिए *"महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट"* का निर्माण किया गया है,  जो सामाजिक सेवा, आध्यात्मिक सेवा, शैक्षणिक सेवा, चिकित्सकीय सेवायें एवं समस्त सामाजिक उत्थान हेतु समर्पित होकर काम करेगा। (खासकर के गुरु महाराज के लिए, संतमत-सत्संग के लिए एवं गुरु महाराज में आस्था रखने वाले दीन-हीन भक्तो के लिए विशेषकर काम करेगी।) महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट के लिए गुरु महाराज के बाद उनके जितने भी परम प्रिय शिष्य हुए जो अब शरीर में नहीं हैं, वे सभी परम पूजनीय है, सम्माननीय हैं, और जो वर्तमान में  सशरीर हैं वे भी अति पूजनीय, सम्माननीय हैं। यह ट्रस्ट किसी की  अवहेलना या किसी के प्रति बैर या द्वेष भाव नहीं रखती है, सबके लिए समान भाव है। महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट किसी भी बाबा विशेष पर आधारित नहीं है और न ही इस पर आधारित होकर बनाया गया है। ट्रस्ट का उद्देश्य सेवा देना, सेवा के द्वारा सामाज में परिवर्तन लाना, विशेष कर गरीबों के लिए काम करना उनके सामाजिक एवं आध्यात्मिक स्तर को ऊँचा उठाना है और भी बहुत कुछ। किन्तु आपके बिना कुछ भी सम्भव नहीं है। परिवर्तन लाने, इन कामों को करने में महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट को आप सब की सहायता एवं सहयोग की जरूरत है और हमेशा रहेगी। महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट में आप सभी का स्वागत है! आप ट्रस्ट से जुड़ कर तन-मन-धन से सेवा दें।

बहुत से सत्संगी प्रेमियों की  शुरुआती समय से ही महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट का खाता संख्या एवं खाता विवरण की मांग हो रही थी, जो उस समय अनुपलब्ध था, अब उपलब्ध हो गया है। महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट की ओर से सभी के साथ साझा किया जा रहा है। इसमें जिस भी सत्संगी महानुभावों, माताओं-बहनों, गुरु भक्तों को महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट में सेवा करने, दान देने की इच्छा हो वे निम्नलिखित खाता में रूपया डाल सकते हैं, ऑनलाइन फंड ट्रांसफर कर सकते हैं। उतना रूपया डाल सकते हैं जितना आपकी इच्छा हो।

Bank Account details:-
Name of account: Maharshi Mehi Sewa Trust
Current A/c No. 2113244029
IFSC Code: KKBK0000291
Branch: Kotak Mahindra Bank, DLF Galleria Complex, DLF City, Phase-IV, Gurgaon

उदारता के साथ सहयोग करें।

निवेदक:- *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
सम्पर्क नं० : 9899777447/9991944155/ 8700828044

बहुत-बहुत धन्यवाद।
जय गुरु महाराज। 

सोमवार, 12 नवंबर 2018

अन्तःकरण की शुद्धि; | संसार में भले कुछ प्रतिष्ठा हो, किन्तु उसे मोक्ष नहीं मिलता | संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस | SANT SADGURU MAHARSHI MEHI | SANTMAT-SATSANG

श्री सद्गुरवे नमः

अपने शरीर को शौच से पवित्र करो।

अपने शरीर को शौच से पवित्र करो। लेकिन यह इतने से ही पवित्र नहीं होता है। हृदय की पवित्रता असली पवित्रता है। हृदय में पाप विचार न आने पाये। हृदय में पाप विचार आने से भी पाप होता है। जिसे कोई नहीं देखता परमात्मा देखते हैं। अन्तःकरण की शुद्धि पवित्र कर्म करने से होती है। तुम्हारा शरीर शिवालय है, विष्णु मन्दिर है। इसके लिए पैसे खर्च करने की जरूरत नहीं। अपना अन्तःकरण शुद्ध करना होता है। बाहर में लोग शिवालय, देवालय बनाते हैं। इससे संसार में भले कुछ प्रतिष्ठा हो, किन्तु उसे मोक्ष नहीं मिलता। यदि अपने अन्तःकरण को शुद्ध करता तो उसे मोक्ष हो जाता। जैसे शिवालय को पवित्रता से रखते हैं, उसी तरह अपने शरीर को भी पवित्र रखो। जिस किसी ने संसार में बड़ा-बड़ा काम किया है, उसका नाम आज है; किन्तु उसको मोक्ष नहीं मिला। यदि अपने शरीर को, अपने अन्तःकरण को पवित्र रखो, ध्यान करो तो मोक्ष मिलेगा। सारे दुःखों से छूट जाओगे।
    -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस
।।जय गुरु महाराज।।
शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

शनिवार, 10 नवंबर 2018

ध्यान की साधना और मन की दौड़; DHYAN KI SADHNA AUR MAN KI DAUR |

 ध्यान की साधना और मन की दौड़;
 एक व्यक्ति ने किसी साधु से कहा, “मेरी पत्नी धर्म-साधना-आराधना में बिलकुल ध्यान नहीं देती। यदि आप उसे थोड़ा बोध दें तो उसका मन भी धर्म-ध्यान में रत हो।”

 साधु बोला, “ठीक है।””

 अगले दिन प्रातः ही साधु उस व्यक्ति के घर गया। वह व्यक्ति वहाँ नजर नहीं आया तो  साफ सफाई में व्यस्त उसकी पत्नी से साधु ने उसके बारे में पूछा। पत्नी ने कहा, “वे जूते वाले की दुकान पर गए हैं।”

 पति अन्दर के पूजाघर में माला फेरते हुए ध्यान कर रहा था। उसने पत्नी की बात सुनी। उससे यह झूठ सहा नहीं गया। त्वरित बाहर आकर बोला, “तुम झूठ क्यों बोल रही हो, मैं पूजाघर में था और तुम्हे पता भी था।””

 साधु हैरान हो गया। पत्नी ने कहा- “आप जूते वाले की दुकान पर ही थे, आपका शरीर पूजाघर में, माला हाथ में किन्तु मन से जूते वाले के साथ बहस कर रहे थे।”

 पति को होश आया। पत्नी ठीक कह रही थी। माला फेरते-फेरते वह सचमुच जूते वाले की दुकान पर ही चला गया था।  कल ही खरीदे जूते क्षति वाले थे, खराब खामी वाले जूते देने के लिए, जूते वाले को क्या क्या सुनाना है वही सोच रहा था। और उसी बात पर मन ही मन जूते वाले से बहस कर रहा था।

 पत्नी जानती थी उनका ध्यान कितना मग्न रहता है। वस्तुतः रात को ही वह नये जूतों में खामी की शिकायत कर रहा था, मन अशान्त व असन्तुष्ट था। प्रातः सबसे पहले जूते बदलवा देने की बेसब्री उनके व्यवहार से ही प्रकट हो रही थी, जो उसकी पत्नी की नजर से नहीं छुप सकी थी।

 साधु समझ गया, पत्नी की साधना गजब की थी और ध्यान के महत्व को उसने आत्मसात कर लिया था। निरीक्षण में भी एकाग्र ध्यान की आवश्यकता होती है। पति की त्रृटि इंगित कर उसे एक सार्थक सीख देने का प्रयास किया था।

 धर्म-ध्यान का मात्र दिखावा निर्थक है, यथार्थ में तो मन को ध्यान में पिरोना होता है। असल में वही ध्यान साधना बनता है। यदि मन के घोड़े बेलगाम हो तब मात्र शरीर को एक खूँटे से बांधे रखने का भी क्या औचित्य?
।। जय गुरु ।।
शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...