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सोमवार, 30 जुलाई 2018

एक संत ने एक रात स्वप्न देखा कि उनके पास एक देवदूत आया है, देवदूत के हाथ में एक सूची है। Ek Sant ka swapna | Ek Katha |

एक संत ने एक रात स्वप्न देखा कि उनके पास एक देवदूत आया है, देवदूत के हाथ में एक सूची है। उसने कहा, ‘यह उन लोगों की सूची है, जो प्रभु से प्रेम करते हैं।’ संत ने कहा, ‘मैं भी प्रभु से प्रेम करता हूँ, मेरा नाम तो इसमें अवश्य होगा।’ देवदूत बोला, ‘नहीं, इसमें आप का नाम नहीं है।’ संत उदास हो गए - फिर उन्होंने पूछा, ‘इसमें मेरा नाम क्यों नहीं है। मैं ईश्वर से ही नहीं अपितु गरीब, असहाय, जरूरतमंद सबसे प्रेम करता हूं। मैं अपना अधिकतर समय दूसरो की सेवा में लगाता हूँ, उसके बाद जो समय बचता है उसमें प्रभु का स्मरण करता हूँ - तभी संत की आंख खुल गई।


दिन में वह स्वप्न को याद कर उदास थे, एक शिष्य ने उदासी का कारण पूछा तो संत ने स्वप्न की बात बताई और कहा, ‘वत्स, लगता है सेवा करने में कहीं कोई कमी रह गई है।’ तभी मैं ईश्वर को प्रेम करने वालो की सूची में नहीं हूँ - दूसरे दिन संत ने फिर वही स्वप्न देखा, वही देवदूत फिर उनके सामने खड़ा था। इस बार भी उसके हाथ में कागज था। संत ने बेरुखी से कहा, ‘अब क्यों आए हो मेरे पास - मुझे प्रभु से कुछ नहीं चाहिए।’ देवदूत ने कहा, ‘आपको प्रभु से कुछ नहीं चाहिए, लेकिन प्रभु का तो आप पर भरोसा है। इस बार मेरे हाथ में दूसरी सूची है।’ संत ने कहा, ‘तुम उनके पास जाओ जिनके नाम इस सूची में हैं, मेरे पास क्यों आए हो ?’
देवदूत बोला, ‘इस सूची में आप का नाम सबसे ऊपर है।’ यह सुन कर संत को आश्चर्य हुआ - बोले, ‘क्या यह भी ईश्वर सेप्रेम करने वालों की सूची है।’ देवदूत ने कहा, ‘नहीं, यह वह सूची है जिन्हें प्रभु प्रेम करते हैं, ईश्वर से प्रेम करने वाले तो बहुत हैं, लेकिन प्रभु उसको प्रेम करते हैं जो सभी से प्रेम करता हैं। प्रभु उसको प्रेम नहीं करते जो दिन रात कुछ पाने के लिए प्रभु का गुणगान करते है।’ - प्रभु आप जैसे निर्विकार, निस्वार्थ लोगो से ही प्रेम करते है। संत की आँखे गीली हो चुकी थी - उनकी नींद फिर खुल गयी -वो आँसू अभी भी उनकी आँखों में थे ।
।। जय गुरु ।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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बुधवार, 25 जुलाई 2018

धन की तीन गति- दान, भोग और नाश | Dhan ki teen gati-Daan bhog Naash | Santmat-Satsang

‘दानं भोगं नाशः …’
पञ्चतन्त्र के नीतिवचन: धन की तीन गति- दान, भोग और नाश;
समाज में धन की महत्ता सर्वत्र प्रायः सबके द्वारा स्वीकारी जाती है, और धनसंचय के माध्यम से स्वयं को सुरक्षित रखने का प्रयत्न कमोबेश सभी लोग करते हुए देखे जाते हैं। कदाचित् विरले लोग ही इस प्रश्न पर तार्किक चिंतन के साथ विचार करते होंगे कि धन की कितनी आवश्यकता किसी को सामान्यतः हो सकती है। यदि किसी मनुष्य को असीमित मात्रा में धन प्राप्त होने जा रहा हो तो क्या उसने उस पूरे धन को स्वीकार कर लेना चाहिए, या उसने इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि किस प्रयोजन से एवं किस सीमा तक उस धन के प्रति लालायित होना चाहिए। नीतिग्रंथों में प्राचीन भारतीय चिंतकों के एतद्संबंधित विचार पढ़ने को मिल जाते हैं। ऐसा ही एक शिक्षाप्रद ग्रंथ पंचतंत्र है। उसमें धन के बारे में गंभीर सोच देखने को मिलती है। उस ग्रंथ से चुनकर दो श्लोकों को यहां पर उद्धृत किया जा रहा है:-

(स्रोत: विष्णुशर्मारचित पञ्चतन्त्र, भाग 1 – मित्रसंप्राप्ति, श्लोक १५३ एवं १५४, क्रमशः)

दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयो न कर्तव्यः।

पश्येह मधुकरिणां सञ्चितमर्थं हरन्त्यन्ये॥

(दातव्यम्, भोक्तव्यम्, धन-विषये सञ्चयः न कर्तव्यः, पश्य इह मधुकरिणाम् सञ्चितम् अर्थम् हरन्ति अन्ये।)

अर्थात: (धन का दो प्रकार से उपयोग होना चाहिए।) धन दूसरों को दिया जाना चाहिए, अथवा उसका स्वयं भोग करना चाहिए। किंतु उसका संचय नहीं करना चाहिए। ध्यान से देखा जाय तो मधुमक्खियों के द्वारा संचित धन अर्थात् शहद दूसरे हर ले जाते हैं।

पंचतंत्र के रचनाकार का मत है कि मनुष्य को धन का उपभोग कर लेना चाहिए अथवा उसे जरूरतमंदों को दान में दे देना चाहिए। अवश्य ही उक्त नीतिकार इस बात को समझता होगा कि धन कमाने के तुरंत बाद ही उसका उपभोग संभव नहीं है। उसका संचय तो आवश्यक है ही, ताकि कालांतर में उसे उपयोग में लिया जा सके। उसका कहने का तात्पर्य यही होगा कि उपभोग या दान की योजना व्यक्ति के विचार में स्पष्ट होनी चाहिए। धनोपार्जन एवं तत्पश्चात् उसका संचय बिना विचार के निरर्थक है। बिना योजना के संचित वह धन न तो व्यक्ति के भोग में खर्च होगा और न ही दान में। नीतिकार ने मधुमक्खियों का उदाहरण देकर यह कहना चाहा है कि संचित धन देर-सबेर दूसरों के पास चला जाना है। मधुमक्खियों का दृष्टांत कुछ हद तक अतिशयोक्तिपूर्ण है। वे बेचारी तो शहद का संचय भविष्य में अंडों से निकले लारवाओं के लिए जमा करती हैं, जिनके विकसित होने में वह शहद भोज्य पदार्थ का कार्य करता है। यह प्रकृति द्वारा निर्धारित सुनियोजित प्रक्रिया है। किंतु उस शहद को मनुष्य अथवा अन्य जीवधारी लूट ले जाते हैं। मनुष्य के संचित धन को भले ही कोई खुल्लमखुल्ला न लूटे, फिर भी वह दूसरों के हाथ जाना ही जाना है, यदि उसे भोग या दान में न खर्चा जाए। कैसे, यह आगे स्पष्ट किया जा रहा है।

दानं भोगं नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतिया गतिर्भवति॥

(दानम्, भोगम्, नाशः, तिस्रः गतयः भवन्ति वित्तस्य, यः न ददाति, न भुङ्क्ते, तस्य तृतिया गतिः भवति।)

अर्थात: धन की संभव नियति तीन प्रकार की होती है। पहली है उसका दान, दूसरी उसका भोग, और तीसरी है उसका नाश। जो व्यक्ति उसे न किसी को देता है और न ही उसका स्वयं भोग करता है, उसके धन की तीसरी गति होती है, अर्थात् उसका नाश होना है।

इस स्थान पर धन के ‘नाश’ शब्द की व्याख्या आवश्यक है। मेरा मानना है कि धन किसी प्रयोजन के लिए ही अर्जित किया जाना चाहिए। अगर कोई प्रयोजन ही न हो तो वह धन बेकार है। जीवन भर ऐसे धन का उपार्जन करके, उसका संचय करके और अंत तक उसकी रक्षा करते हुए व्यक्ति जब दिवंगत हो जाए तब वह धन नष्ट कहा जाना चाहिए। वह किसके काम आ रहा है, किसी के सार्थक काम में आ रहा है कि नहीं, ये बातें यह उस दिवंगत व्यक्ति के लिए कोई माने नहीं रखती हैं।

अवश्य ही कुछ जन यह तर्क पेश करेंगे कि वह धन दिवंगत व्यक्ति के उत्तराधिकारियों के काम आएगा। तब मोटे तौर पर मैं दो स्थितियों की कल्पना करता हूं। पहली तो यह कि वे उत्तराधिकारी स्वयं धनोपार्जन में समर्थ और पर्याप्त से अधिक स्व्यमेव अर्जित संपदा का भरपूर भोग एवं दान नहीं कर पा रहे हों। तब भला वे पितरों की छोड़ी संपदा का ही क्या सदुपयोग कर पायेंगे ? उनके लिए भी वह संपदा अर्थहीन सिद्ध हो जाएगी। दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि वे उत्तराधिकारी स्वयं अयोग्य सिद्ध हो जाए और पुरखों की छोड़ी संपदा पर निर्भर करते हुए उसी के सहारे जीवन निर्वाह करें। उनमें कदाचित् यह सोच पैदा हो कि जब पुरखों ने हमारे लिए धन-संपदा छोड़ी ही है तो हम क्यों चिंता करें। सच पूछें तो इस प्रकार की कोई भी स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण एवं कष्टप्रद होगी। कोई नहीं चाहेगा कि ऐसी नौबत पैदा हो। तब अकर्मण्य वारिसों के हाथ में पहुंची संपदा नष्ट ही हो रही है यही कहा जाएगा। एक उक्ति है: “पूत सपूत का धन संचय, पूत कपूत का धन संचय।” जिसका भावार्थ यही है कि सुपुत्र (तात्पर्य योग्य संतान से है) के लिए धन संचय अनावश्यक है, और कुपुत्र (अयोग्य संतान) के लिए भी ऐसा धन छोड़ जाना अंततः व्यर्थ सिद्ध होना है।
।।जय गुरु।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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रामकृष्ण ते को बड़ों, तिनहूं भी गुरु कीन | GURU | Ramkrishna | Vivekanand | 600 का नकली नोट क्यों नहीं आता, क्योंकि 600 का असली नोट ही नहीं बना |

रामकृष्ण ते को बड़ों, तिनहूँ भी गुरु कीन |
यह परमात्मा द्वारा निर्मित एक अटल नियम है | जिसे हम और आप चाह कर भी नहीं उलट सकते | ठीक वैसे ही जैसे किसी को अपनी नेत्रहीनता का उपचार कराना है, तो नेत्र चिकित्सक की ही पनाह लेनी होगी | यह नितांत अटूट नियम है | इतना अटूट कि अगर कल किसी नेत्र चिकित्सक को अपनी नेत्रहीनता के उपचार की जरूरत पड़े, तो वह भी यह उपचार स्वयं करने में असमर्थ है | उसे भी किसी अन्य नेत्र चिकित्सक की टेक लेनी ही पड़ेगी | यही कारण था सज्जनों, कि परम प्रभु श्री राम ने भी इस नियम को रजामंदी दी | गुरु वशिष्ठ के आश्रित हुए | द्वापर युगीन जगदगुरु श्री कृषण ने भी इन्ही पदचिन्हों का अनुसरण किया | वो स्वयं ऋषि दुर्वासा की शरणागत हुए -

रामकृष्ण ते को बड़ों, तिनहूँ भी गुरु कीन |

तीन लोक के नायका गुरु आगे आधीन ||

इस संदर्भ में कुछ लोग अक्सर एक प्रश्न उठा देते हैं | वह यह कि फिर मीरा, नामदेव, धन्ना आदि भक्तों ने बिना गुरु के प्रभु को कैसे पा लिया था? मीरा श्री कृषण से बातें किया करती थी | नामदेव ने 72 वार विट्ठल का  दर्शन किया था | धन्ना ने तो पत्थर तक में से भगवान को प्रकट कर लिया था | इनके पास तो कोई गुरु नहीं था | पर जो लोग ऐसा कहते हैं उनका ज्ञान अधूरा है | नि: सन्देह इन भक्तों के प्रेम व भावना के वशीभूत होकर भगवान इनके समक्ष प्रकट हो जाया करते थे | वे प्रभु के तत्त्वरूप का साक्षात्कार नहीं कर पाते थे | पर इससे इनका पूर्ण कल्याण नहीं हो पाया था | इसलिए बाद में इन सब ने भी पूर्ण गुरू की शरण ग्रहण की थी | इतिहास बताता है कि मीरा ने गुरु रविदास जी से, नामदेव ने विशोबा खेचर से व धन्ना ने स्वामी रामानंद जी से ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था |
बस समझ लो! सृष्टि के आदिकाल से वर्तमान तक जिसने भी ईश्वर को पाया, गुरु के सान्निध्य में ही पाया | नरेंद्र - रामकृष्ण, दयानंद - विरजानंद, जनक - अष्टावक्र, एकनाथ - जनादर्न, प्लोटो - सुकरात आदि जोड़े, इस बात को सिद्ध करते हैं | अब जब इन सभी ने इस हिदायत को कान दिए थे, बंधुओं, हम कैसे अनसुना कर सकते हैं? कैसे इस अटल नियम से हटकर अपना अलग राग आलाप सकते हैं?
हो सकता है, इन दलीलों को सुनकर अब आपका दिल कुछ मोम हुआ हो | गुरु शरणागति का नेक इरादा आपके मन - अम्बर पर कौंधा हो | मगर 99 प्रतिशत सम्भावना है कि इस इरादे को झट ग्रहण लग जायेगा | आपका यह नवजात हौंसला पस्त हो जाएगा | आप कहेंगे, दलीलें नि:सन्देह पुख्ता हैं | मगर इनकी तामील में बड़ी भारी समस्या है | हम जैसे ही इनसे गदगद होकर कदम आगे बढ़ाते हैं, हमारे मन के परदे पर अख़बारों की कुछ सुर्खियाँ उमड़ आती हैं | चलचित्रों के कुछ दृश्य घूम जातें हैं | इनमें उन सब स्कैंडलों या काण्डों की झलकियाँ हैं, जिनके नायक चोर, डाकू, ठग या लुटेरे नहीं, बल्कि समाज के नामी-गिरामी धर्मगुरु हैं | ये अनैतिकता और चरित्रहीनता के ज्वलंत उदाहरण बने दीखते हैं।

बिना दर्द भी आह भरने वाले बहुत मिलेंगे,
धर्म ने नाम पर गुनाह करने वाले बहुत मिलेंगे,
किसे फुर्सत है भटके हुए को राह दिखाने की,
विश्वास देकर गुमराह करने वाले बहुत मिलेंगे |
अब बताए, यहाँ कदम - कदम पर ऐसे रहबर हैं, वहां मुसाफिरों को किस पर एतबार आये? मैं आप की बात से सहमत हूँ , मगर बाजार में 500 का नकली नोट आता है, क्यों कि 500 का असली नोट है, 600 का नकली नोट क्यों नहीं आता, क्योंकि 600 का असली नोट ही नहीं बना | इस लिए अगर समाज में नकली धर्म गुरुओं की भरमार हैं, हमें उन की पहचान धार्मिक ग्रंथों के आधार पे करनी चाहिए | भगवा वस्त्र कोई संत की पहचान नहीं है, इस वस्त्र में तो रावण भी आया था और माता सीता को उठाकर ले गया था | आप किसी का भगवा वस्त्र देखकर उस को गुरु मत धारण कर लेना, वो खुद तो नर्क में जायेगा आप को भी ले डूबेगा | पूर्ण संत की पहचान उस का ज्ञान है, सभी धार्मिक ग्रन्थ इस बात का प्रमाण देते हैं कि जब भी संसार पे अधर्म बढ़ जाता है, जब उलटी बाढ़ ही खेत को खाने लग जाती है | जब धर्म गुरू ही समाज को लूटने लग जाते हैं, तब वो शक्ति शारीर रूप में इस धरा पे आती है और समाज का मार्ग दर्शन करती है | जो संत हमें हमारे शरीर में ही परमात्म दर्शन का सही मार्ग बता दे, वही पूर्ण सतगुरु है | इस लिए हमें ऐसे पूर्ण संत की खोज करनी चाहिए, तभी हमारे जीवन का लक्ष्य पूर्ण हो सकता है |
जय गुरू महाराज
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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सोमवार, 23 जुलाई 2018

भूकंप आने पर तुम भागे, मैं भी भागा! तुम बाहर की तरफ भागे और मैं अन्दर की तरफ भागा जहाँ भूकंप नहीं पहुँचता है। Japan | Bhookamp

Superb Saakhi

जापान में एक झेन फकीर को कुछ मित्रों ने भोजन पर बुलाया था। सातवीं मंजिल के मकान पर भोजन कर रहे हैं, अचानक भूकंप आ गया। सारा मकान कंपने लगा। भागे लोग। कोई पच्चीस-तीस मित्र थे। सीढ़ियों पर भीड़ हो गयी। जो मेजबान था वह भी भागा। लेकिन भीड़ के कारण अटक गया दरवाजे पर। तभी उसे ख्याल आया कि मेहमान का क्या हुआ? लौटकर देखा, वह झेन फकीर आंख बंद किये अपनी जगह पर बैठा है -जैसे कुछ हो ही नहीं रहा! मकान कंप रहा है, अब गिरा तब गिरा। लेकिन उस फकीर का उस शांत मुद्रा में बैठा होना, कुछ ऐसा उसके मन को आकर्षित किया, कि उसने कहा, अब जो कुछ उस फकीर का होगा वही मेरा होगा। रुक गया। कंपता था, घबड़ाता था, लेकिन रुक गया। भूकंप आया, गया। कोई भूकंप सदा तो रहते नहीं। फकीर ने आंख खोली, जहां से बात टूट गयी थी भूकंप के आने से, वहीं से बात शुरू की
लेकिन मेजबान ने कहा : मुझे क्षमा करें, मुझे अब याद ही नहीं कि हम क्या बात करते थे। बीच में इतनी बड़ी घटना घट गयी है कि सब अस्तव्यस्त हो गया। अब तो मुझे एक नया प्रश्न पूछना है। हम सब भागे, आप क्यों नहीं भागे?
उस फकीर ने कहा : तुम गलत कहते हो। तुम भागे, मैं भी भागा। तुम बाहर की तरफ भागे, मैं भीतर की तरफ भागा। तुम्हारा भागना दिखाई पड़ता है, क्योंकि तुम बाहर की तरफ भागे। मेरा भागना दिखाई नहीं पड़ा तुम्हें लेकिन अगर गौर से तुमने मेरा चेहरा देखा था, तो तुम समझ गये होओगे कि मैं भी भाग गया था। मैं भी यहां था नहीं, मैं अपने भीतर था। और मैं तुमसे कहता हूं के मैं ही ठीक भागा।, तुम गलत भागे। यहां भी भूकंप था और जहां तुम भाग रहे थे वहां भी भूकंप था। बाहर भागोगे तो भूकंप ही भूकंप है। मैं ऐसी जगह अपने भीतर भागा। जहां कोई भूकंप कभी नहीं पहुंचता है। मैं वहां निश्चित था। मैं बैठ गया अपने भीतर जाकर। अब बाहर जो होना हो हो। मैं अपने अमृत -गृह मैं बैठ गया, जहां मृत्यु घटती ही नहीं। मैं उस निष्कंप दशा में पहुंच गया, जहां भूकंपों की कोई बिसात नहीं
अगर तुम्हें बाहर का जोखम दिखाई पड़ जाये तो तुम्हारे जीवन में अंतर्यात्रा शुरू हो सकती है।
।। जय गुरु ।।

शनिवार, 21 जुलाई 2018

काटने (अलग करने) वाले की जगह हमेशा नीचे होती है।

कहानी : काटने (अलग करने) वाले की जगह हमेशा नीचे होती है और जोडने वाले की जगह हमेशा ऊपर होती है ।

एक दिन किसी कारण से स्कूल में छुट्टी की घोषणा होने के कारण,एक दर्जी का बेटा, अपने पापा की दुकान पर चला गया ।

वहाँ जाकर वह बड़े ध्यान से अपने पापा को काम करते हुए देखने लगा ।

उसने देखा कि उसके पापा कैंची से कपड़े को काटते हैं और कैंची को पैर के पास टांग से दबा कर रख देते हैं ।

फिर सुई से उसको सीते हैं और सीने के बाद सुई को अपनी टोपी पर लगा लेते हैं ।

जब उसने इसी क्रिया को चार-पाँच बार देखा तो उससे रहा नहीं गया, तो उसने अपने पापा से कहा कि वह एक बात उनसे पूछना चाहता है ?

पापा ने कहा-बेटा बोलो क्या पूछना चाहते हो ?

बेटा बोला- पापा मैं बड़ी देर से आपको देख रहा हूं , आप जब भी कपड़ा काटते हैं, उसके बाद कैंची को पैर के नीचे दबा देते हैं, और सुई से कपड़ा सीने के बाद, उसे टोपी पर लगा लेते हैं, ऐसा क्यों ?

इसका जो उत्तर पापा ने दिया-उन दो पंक्तियाँ में मानों उसने ज़िन्दगी का सार समझा दिया ।

उत्तर था- ” बेटा, कैंची काटने का काम करती है, और सुई जोड़ने का काम करती है, और काटने वाले की जगह हमेशा नीची होती है परन्तु जोड़ने वाले की जगह हमेशा ऊपर होती है ।

यही कारण है कि मैं सुई को टोपी पर लगाता हूं और कैंची को पैर के नीचे रखता हूं........!!



शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

गुरु सेवा गुरु के प्रति की गयी सेवा है। जब एक शिष्य अपने गुरु से प्रेम करता है वह गुरु की सेवा करता है.. | Guru Sewa |

गुरु सेवा गुरु के प्रति की गयी सेवा है। जब एक शिष्य अपने गुरु से प्रेम करता है वह गुरु की सेवा करता है। "गुरु सेवा जो सभी शिष्यों के लिए सामान्य है"  गुरु की शिक्षाओं का अनुसरण होती है और अध्यात्मिक तकनीकों का नियमित एवं अनुशासित ढंग से अभ्यास करना होता है। सभी शिष्य गुरु के प्रति भौतिक या भौगोलिक सामीप्य नहीं रखते हैं। इसलिए वे गुरु के प्रति व्यक्तिगत सेवा नहीं कर सकते हैं।

इसलिए जहाँ कहीं भी शिष्य रहता हो जीवन के किसी भी पड़ाव में निम्नवत शिक्षाओं एवं दिशानिर्देशों द्वारा सेवा कर सकता है।
                                                   
गुरु के प्रति सच्ची गुरु भक्ति या प्रेम निसंदेह गुरु की शिक्षाओं का अनुसरण करना होता है। एक शिष्य जो गुरु की शिक्षाओं का अभ्यास करता है, वह क्रोध, नुकसान, घमंड, आसक्ति एवं तामसिकता के आंतिरिक लघु परिपथों से ऊपर उठ जाएगा। वह आशीर्वाद के बारे में जो गुरु से प्रवाहित होता है दूसरों के लिए एक उदाहरण होता है। वह अध्यात्मिक रूप से फलता फूलता है एवं उसकी प्रेम एवं सेवा की सुगंध उसके गुरु को प्रदर्शित करती है तथा गौरवान्वित करती है।
               
कुछ शिष्य होते हैं जो गुरु से सामीप्य या सम्बन्ध रखते हैं। गुरु उनसे अपने लिए कुछ कार्य करने के लिए कह सकते हैं। यह भी गुरु सेवा होती है। यह कोई भी कार्य हो सकता है। यह आश्रम में झाड़ू लगाना, कपड़ों को साफ करना, पौधों की सिंचाई करना, किराने का सामान खरीदना, भोजन पकाना, गुरु के चरणों को दबाना या आगंतुकों का स्वागत करना हो सकता है। शिष्य को इमानदारी एवं समर्पण से वही कार्य करना चाहिए जो उससे कहा जाये। उसे दूसरे को दिए गए कार्य पर ध्यान नहीं देना चाहिए ना ही उसे दूसरों के  द्वारा करने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। शिष्य के मस्तिष्क में गुरु के प्रति स्वयं या पक्षपात की हीनता की भावना या अन्य नकारात्मक विचार नहीं होने चाहिए। गुरु द्वारा दिया गया कोई भी कार्य पवित्र होता है एवं उसका निष्पादन सर्वोच्च प्रतिभा के साथ होना चाहिए। प्रत्येक शिष्य को वही कार्य या सेवा दी जाती है जो गुरु द्वारा शिष्य की कार्मिक आवश्यकताओं तथा उनकी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर  भी निर्धारित किया  जाता है। किसी भी शिष्य को दूसरों को दिए गए कार्य को करने की  या ईर्ष्या की भावना नहीं रखनी चाहिए। हम लोगों द्वारा प्रेम एवं निष्ठा के साथ गुरु द्वारा तय  किये गए कार्य को करना सर्वश्रेष्ठ सेवा होती है जो हम कर सकते हैं।


 गुरु सेवा का आशीर्वाद उन क्षेत्रों को भरता तथा पूर्ण करता है जिसका शिष्य के जीवन में अभाव होता है। गुरु सेवा शिष्य के ऊपर स्वास्थ्य, अच्छे जीवन साथी, संतान, कार्य, धन, ज्ञान, बुद्धिमत्ता, आलौकिक क्ष्रमताओं, ईश्वर का आशीर्वाद  एवं निरपेक्ष से एकाकार के रूप में आशीर्वाद का प्रवाह होता है।
                                          
राम ने वशिष्ठ ऋषि के प्रति गुरु सेवा को किया तथा उन्हें प्रसन्न किया।
               
कृष्ण ने भी अपने गुरु सान्दिपनी के आश्रम में गुरु सेवा की। उन्होंने भूमि को धोया एवं स्वच्छ किया, पूजन सामग्री, अलाव एवं पानी एकत्रित किया। यद्यपि वे भगवान विष्णु के अवतार थे, वे विनीत, आज्ञाकारी तथा समर्पित थे। उन्होंने अन्य दूसरे साधारण विद्यार्थियों की तरह अपने गुरु द्वारा दिए गए समस्त कार्य को सम्पादित किया। परिणाम के रूप में वे चौंसठ दिनों में चौंसठ कलाओं में माहिर हो गए। यह सही दृष्टिकोण से संपादित की गयी गुरु सेवा का आशीर्वाद है।
                   
जो लोग गुरु सेवा करते हैं उन्हें सेवा उचित इच्छा, तत्परता एवं आज्ञा से तथा दूसरों के प्रति बिना किसी ईर्ष्या की भावना से करना चाहिए जो गुरु से निरन्तर सम्पर्क  में रहते हैं। जो लोग दूर हैं और गुरु से सीधे सम्पर्क नहीं रख सकते हैं, उन्हें नियमित रूप से मंत्र जाप एवं ध्यान करना चाहिए और सिखाये गए अध्यात्मिक अभ्यासों के दूसरे नियमों का अनुसरण करना चाहिए। गुरु सेवा सर्वोच्च सम्भावित पुरस्कारों को प्रदान करती है।
                   
गुरु सेवा स्वयं में एक पुरस्कार है। सदैव गुरु की सेवा तन, मन, धन, एवं आत्मा से करें।
जय गुरु महाराज
Posted by S.K.Mehta, Gurugram

गुरुवार, 19 जुलाई 2018

गुरु सेवा ते भगति कमाई, तब यह मानस देही पाई | Guru Sewa te bhakti kamai tab yah manush dehi pai | Santmat-Satsang

गुरु सेवा ते भगति कमाई, तब यह मानस देही पाई!

हे जीव! यह मनुष्य देह तुझे गुरु की सेवा तथा भक्ति की कमाई करने के लिए मिली है। इस देह के लिए देवी-देवता भी तरसते हैं। वह भी चाहते हैं कि हम मनुष्य शरीर को धारण करके गुरु की भक्ति कर सकें। हे जीव तू इस मूल्यवान शरीर को पाकर भजन के काम में आलस्य करता है तथा भजन के कार्य को कल पर छोड़ता है, सो यह तेरी उस व्यक्ति वाली मिसाल है जिसे एक साधु की सेवा करने से एक सप्ताह के लिए पारस मिला था परंतु उसने उससे कोई भी लाभ न लिया। एक व्यक्ति साधु-संतों की सेवा किया करता था। एक बार एक साधु उस के घर आया जिसके पास पारसमणि थी। उस व्यक्ति ने अपने नम्र स्वभावानुसार उस साधु की सेवा की। साधु ने प्रसन्न होकर कहा, 'यह पारसमणि मैं तुझे एक सप्ताह के लिए दे जा रहा हूँ इसमें यह गुण छिपा हुआ है कि यदि लोहा इससे छू जाए तो वह लोहा स्वर्ण में बदल जाता है। एक सप्ताह के भीतर तुम जितना चाहे सोना बना लेना परन्तु सात दिन व्यतीत होने पर यह वस्तु तुम से वापस ले ली जायेगी। यह कह कर साधु चला गया। तत्पश्चात वह व्यक्ति पारस को घर रख कर बाजार चला गया। लोहे का भाव पूछने लगा। मालूम हुआ कि लोहा दो रुपये सेर है। सोचने लगा शायद कल कुछ सस्ता हो जाए, आज महंगा है। यह सोचकर वापस आ गया। दूसरे दिन जब बाजार में गया तो पता चला आज भाव कल से अधिक है। वह पुन: लौट आया उसका विचार था कि लोहा सस्ता होने पर खरीदूंगा। अर्थात रोजाना बाजार में आता-जाता और लोहे का भाव पूछ कर वापस घर चला आता। सात दिन व्यतीत हो गए। साधु अपने वचनों के अनुसार आ गया उस व्यक्ति को उसी प्रकार कंगाल देखकर चकित हुए तथा कहा,' अरे मैंने तो तुझे पारस दिया था कि तू जितना चाहे सोना बना ले ताकि तेरी निर्धनता दूर हो जाए, क्या तुमने उससे कोई लाभ नहीं उठाया? वह व्यक्ति बोला महाराज! क्या करता कई बार बाजार गया परन्तु लोहे का भाव ही बहुत तेज रहा। इसलिए यह कार्य न हो सका। यह सुनकर साधु उस व्यक्ति की नादानी पर हंसा और कहने लगा, तुमने व्यर्थ ही लोहे का भाव पूछने में सात दिन गंवा दिए तथा अनमोल समय खो दिया। साधु पारस ले गया। इसलिए संत कहते हैं कि हे जीव! करोड़ों वर्षों से आवागमन के चक्कर में ठोकरें खाते हुए देख कर मालिक ने दया करके तुझे हीरे जैसा जन्म दिया था ताकि तू निम्न जन्म के कंगालपन से छूट जाए परंतु तूने यह अनमोल समय माया की गिनतियां करते हुए खो दिया तथा जो लाभ इस मानव जन्म से उठाना था वह न उठा सका।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम


तब आप पर ईश्वर की कृपा हो जाती है | Tab aap par Eshwar ki kripa ho jati hai | भक्ति और आराधना का तात्पर्य ये कदापि नहीं है कि हम हाथ में माला लिए रहें | Santmat-Satsang

तब आप पर ईश्वर की कृपा हो जाती है!
भक्ति और आराधना का  तात्पर्य ये कदापि नहीं है कि हम हाथ में माला लिए रहें। भगवान की प्रार्थना, उपासना, स्तुति का मतलब भी इतना ही नहीं है कि हम केवल अपने लिए और अपनों की सलामती के लिए ही कामना करते रहें, भगवान के नाम की माला हाथ में थामे हुए अगर केवल अपने विषय में, मालामाल होने की प्रार्थना करते रहें तो यह अनुचित हो जाएगा।

इससे मनुष्य आध्यात्मिक सम्पत्ति से कंगाल हो जाएगा। वेदों में स्पष्ट कहा गया है कि भगवान की भक्ति का सीधा सा अर्थ है उसकी आज्ञाओं का सहर्ष पालन करना और वही ईश्वरीय आज्ञाएं इंसान को सदगुरु प्रदान करते हैं।

इसलिए गुरु आज्ञा का कभी उलंघन न करें, सत्पुरुषों की न स्वयं निन्दा करें और न किसी के द्वारा किए जाने पर श्रवण करें, भगवान के अनेक नामों और स्वरूपों पर कभी भेद न करें।

जैसे शिव और विष्णु, राम और कृष्ण आदि उनमें कोई भेदभाव की दृष्टि न रखें, वैदिक विचारों की भी निन्दा अनुचित है, शास्त्रों का सम्मान करें और गुरु ज्ञानी जनों के प्रति अगाध श्रद्घा बनाए रखें। प्रेम भाव बनाए रखने से जीवन जगमगा उठता है।

ब्रह्मज्ञानी सदगुरु के द्वारा प्रदत्त सद्ज्ञान के प्रचार-प्रसार में, उनके द्वारा संचालित सेवा के महान कार्यों में सहयोगी बनकर जो व्यक्ति खड़ा हो जाता है, धर्म के प्रति जो कष्ट सहकर भी वफादारी निभाता है, उसके पुण्य के प्रताप से उसकी आने वाली सात पीढि़यां भवसागर से पार हो जाती हैं और वह भी तर जाता है।

इसलिए धर्म के पुण्य कार्यों में भागीदार बनना, सहयोग और सेवा प्रदान करना अपने जीवन का अंग बनाएं। गुरुचरणों में शीष नवाने वाले लोग, गुरु को मानने वाले लोग तो दुनिया में बहुत मिल जाएंगे। किंतु गुरु की आज्ञा का पालन करने वाले तो विरले ही होते हैं।

पर जो होते हैं उनके हृदय में स्वयं गुरु विराजमान हो जाते हैं, उन्हें ईश्वरीय असीम शक्तियों का अहसास होने लगता है, वे सुख-दुख, मान-अपमान, हानि-लाभ, जय- पराजय, यहां तक कि गुरुकार्यों की सम्पूर्णता के लिए अपना सर्वस्व लगाने से भी पीछे नहीं हटते। क्योंकि उन्हें गुरु का आदेश ईश्वर का संदेश प्रतीत होने लगता है।

गुरु भक्त आरूणी
ऐसा ही एक शिष्य था जिसे गुरु का आदेश ईश्वर का आदेश लगता था। इस शिष्य का नाम था आरुणि। एक बार गुरु ने आरूणी को आदेश दिया कि खेत में पानी लगाना है। पानी का बहाव तेज था, जिससे खेत की मेंड़ टूट गई। आरुणि ने भरसक प्रयत्न किया पानी रोकने का।

लेकिन जैसे ही वह फावड़े से खोदकर मिट्टी लगाता, वैसे ही पानी की तीव्र धरा उसे अपने साथ बहा ले जाती। आरुणि के लिए गुरु की आज्ञा सर्वोपरि थी, उसके महत्व को वह भलीभांति जानता था। पानी और मिट्टी के कीचड़ में वह स्वयं मेड़ बनकर लेट गया और लेटा ही रहा। सुबह से शाम, शाम से रात्रि और भोर होने लगी।

गुरु ने अपने अन्य शिष्यों से कहा आरुणि कहां है? सभी मौन थे, गुरु ने कहा वह तो खेत में पानी लगाने गया था। क्या वहां से लौटकर अभी तक नहीं आया। बिना कुछ कहे सबने जानकारी न होने की असमर्थता जताई। गुरु ने आदेश दिया चलो, मेरे साथ आरुणि अब तक खेत में क्या कर रहा है? और जाकर देखते हैं।

वह नशारा अद्भुत था, भोर का समय और गुरु स्वयं चलकर आरुणि की खोज कर रहे हैं। जाकर देखा आरुणि मिट्टी में धंसा हुआ है और अपनी देह से पानी के प्रवाह को रोक रहा है। मुंह में भी मिट्टी, आंखों में भी मिट्टी, सर्दी से शरीर सुन्न हो गया।

किंतु गुरु-आज्ञा की पालना के सामने ये शारीरिक, मानसिक वेदना क्या महत्व रखती हैं? कीचड़ में सने हुए आरुणि को आज उनके गुरु ने अपने सीने से लगा लिया और सिर पर हाथ रखकर कहने लगे। आरुणि! मेरे प्यारे! तुम ध्न्य हो, और तुम्हारी निष्ठा, तुम्हारी श्रद्घा, तुम्हारा प्रेम, तुम्हारा समर्पण भाव, तुम्हारी सेवा, तुम्हारी आज्ञा पालना केवल मैं नहीं ईश्वर भी देख रहे हैं, तुम्हें अवश्य ही इसका अभीष्ट फल प्राप्त होगा।

आरुणि की आंखों में आंसू हैं, पर गुरु उन प्रेम भाव में बहने वाले मोतियों को अपने हाथों में समेट रहे हैं और आरुणि के उपर हृदय से आशीर्वाद का अमृत बरसा रहे हैं। जो शिष्य गुरु के आदेश का प्राणपन से पालन करता है, प्रतिकूल स्थिति में भी विपदाओं की परवाह किए बिना, संकल्पित होकर सेवा कार्यों में लगा रहता है, उसके उपर ऐसे ही गुरु कृपा और प्रभु की दया बनी रहती है। ऐसे अनोखे शिष्य के लिए तो गुरु स्वयं चलकर उसके पास पहुंच जाते हैं। 
।। जय गुरु महाराज ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

मंगलवार, 17 जुलाई 2018

एक गरीब वृद्ध पिता के पास अपने अन्तिम समय में ... | Ek Gyanprad Kahani | Santmat-Satsang

एक गरीब वृद्ध पिता के पास अपने अंतिम समय में दो बेटों को देने के लिए मात्र एक आम था। पिताजी आशीर्वादस्वरूप दोनों को वही देना चाहते थे, किंतु बड़े भाई ने आम हठपूर्वक ले लिया। रस चूस लिया छिल्का अपनी गाय को खिला दिया। गुठली छोटे भाई के आँगन में फेंकते हुए कहा- ' लो, ये पिताजी का तुम्हारे लिए आशीर्वाद है।'

छोटे भाई ने ब़ड़ी श्रद्धापूर्वक गुठली को अपनी आँखों व सिर से लगाकर गमले में गाढ़ दिया। छोटी बहू पूजा के बाद बचा हुआ जल गमले में डालने लगी। कुछ समय बाद आम का पौधा उग आया, जो देखते ही देखते बढ़ने लगा। छोटे भाई ने उसे गमले से निकालकर अपने आँगन में लगा दिया। कुछ वर्षों बाद उसने वृक्ष का रूप ले लिया। वृक्ष के कारण घर की धूप से रक्षा होने लगी, साथ ही प्राणवायु भी मिलने लगी। बसंत में कोयल की मधुर कूक सुनाई देने लगी। बच्चे पेड़ की छाँव में किलकारियाँ

भरकर खेलने लगे।
पेड़ की शाख से झूला बाँधकर झूलने लगे। पेड़ की छोटी-छोटी लक़िड़याँ हवन करने एवं बड़ी लकड़ियाँ
घर के दरवाजे-खिड़कियों में भी काम आने लगीं। आम के पत्ते त्योहारों पर तोरण बाँधने के काम में आने लगे। धीरे-धीरे वृक्ष में कैरियाँ लग गईं। कैरियों से अचार व मुरब्बा डाल दिया गया। आम के रस से घर-परिवार के सदस्य रस-विभोर हो गए तो बाजार में आम के अच्छे दाम मिलने से आर्थिक स्थिति मजबूत हो गई। रस से पाप़ड़ भी बनाए गए, जो पूरे साल मेहमानों व घर वालों को आम रस की याद दिलाते रहते। ब़ड़े बेटे को आम फल का सुख क्षणिक ही मिला तो छोटे बेटे को पिता का ' आशीर्वाद' दीर्घकालिक व सुख- समृद्धिदायक मिला।

यही हाल हमारा भी है परमात्मा हमे सब कुछ देता है सही उपयोग हम करते नही हैं दोष परमात्मा और किस्मत को देते हैं। जय गुरु।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

महर्षि मेँहीँ गुफा दर्शन | कुप्पाघाट भागलपुर | Maharshi Mehi Gufa Darshan | Kuppaghat Bhagalpur | SANT MEHI | SADGURU MEHI

।। श्री सद्गुरुवे नमः ।।

पूरा सतगुरु सोए कहावै, दोय अखर का भेद बतावै।।
एक छुड़ावै एक लखावै, तो प्राणी निज घर जावै।।

जै पंडित तु पढ़िया, बिना दउ अखर दउ नामा।।
परणवत नानक एक लंघाए, जे कर सच समावा।।

वेद कतेब सिमरित सब सांसत, इन पढ़ि मुक्ति न होई।।
एक अक्षर जो गुरुमुख जापै, तिस की निरमल होई।।

गुरु नानक जी महाराज अपनी वाणी द्वारा समझाना चाहते हैं कि पूरा सतगुरु वही है जो दो अक्षर के जाप के बारे में जानता है। जिनमें एक काल व माया के बंधन से छुड़वाता है और दूसरा परमात्मा को दिखाता है और तीसरा जो एक अक्षर है वो परमात्मा से मिलाता है।

           ऐसे ही हमारे पूरण पुरूष गुरुदेव (संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज) हैं, जिनकी महिमा अपरम्पार है। उन्होंने वर्षों जिन गुफा में तपस्या कर परमात्वस्वरूप के दर्शन किये, उन्हीं गुफा का दर्शन करने का सौभाग्य हम सब को पुनः प्राप्त हुआ दिनांक: 23 जून 2018 को महर्षि मेंहीं आश्रम कुप्पाघाट स्थित भागलपुर में। एकदम शीतल-शान्त वातावरण!
आज भी यह जगह गुरुदेव के अटल भक्ति की शक्ति एवं उनके आलोक से आलोकित हो रहा है! जिसकी आभास वहाँ पहुँचने वाले हर अभ्यासी को सदैव ही होता रहता है।

         गुफा की कुछ तस्वीरें देखिए, जो उस समय हम सब ने मोबाइल से लिया था।
          और आइये संक्षेप में जानते हैं कि गुरुदेव किस तरह से कितने समय कहाँ-कहाँ बिता कर कठिन साधना किये और अंत में इसी जगह पर परमात्मा का साक्षात्कार किये।

हे मेरे गुरुदेव!!!

         परमाराध्य श्री सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज जन्मसिद्ध महायोगेश्वर और एक समर्थ पूरण पुरूष थे। इनका अवतार प्राणिमात्र की अन्तरात्मा को शरीर और संसार के बंधन से मुक्त करने के लिए ही हुआ था। बाल्यावस्था से ही एक श्रेष्ठ मुमुक्षु साधक का आदर्श आचरण प्रस्तुत कर निर्वाण दशा की उपलब्धि का सहज मार्ग खोल दिया है।
         उन्होंने दृष्टियोग की अविराम कठोर साधना और उपासना सन् 1909 ई० से 1922 ई० तक की, जिसमें अन्तिम के तीन महीने उन्होंने धरहरा गाँव में जमीन के अन्दर एक कूप में की इसे उपासना-कूप कह सकते हैं। और यहीं पर उन्होंने दृष्टियोग की साधना पूरी कर एवं स्वरूप-दर्शन अथवा आत्मलाभ होकर परमात्म-दर्शन जो एकमात्र नादानुसंधान या सुरत-शब्द-योग द्वारा ही सम्भव है की दृढ़-साधना में लग गए। जो ग्यारह वर्षों तक अबाध गति से चलता रहा।


            एक बार पुनः शान्त-एकान्त निर्विघ्न स्थान में सूरत-शब्द-योग का दृढ़ साधना के संकल्प के साथ उपयुक्त स्थान की तलाश करते-करते, बहुत से स्थानों का बहुविध निरीक्षण किए, किन्तु अनुकूल नहीं जँचा।
          अंततोगत्वा गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज) सन् 1933 ई० में सिकलीगढ़ धरहरा से येन-केन-प्रकारेण मुरादाबाद होते हुए गढ़मुक्तेश्वर पहुँचे। वहाँ भगवती भगीरथी के सुरम्य पावन तट पर ये कई दिनों तक ध्यानावस्थित रहे। पुनः वहाँ से प्रस्थान कर छपरा में सरयू नदी के मनोरम प्रान्त में तीन दिन तक ध्यानजनित आन्तरिक आनंद में डूबे रहे। वहाँ से कुछ दिन रक्सौल में निवास करते हुए भागलपुर पधारे। भागलपुर शहर के मायागंज मुहल्ले में गंगा नदी के पावन तट पर एक प्राचीन सुरम्य सुरंग के परिदर्शन से अपने उद्देश्य की प्राप्ति में अनुकूल जानकर इनका हृदय अतीव प्रसन्नता से भर गया। इन्होंने इसी सौभाग्यशालिनी गुफा को आत्मज्ञान-प्राप्ति हेतु सूरत-शब्द-योग की ऐकान्तिक गम्भीर साधना करने के लिए अत्यंत उपयुक्त लगने पर इसका चयन किये।
           गुरुदेव ने इस गुफ की आवश्यक मरम्मत व जीर्णोद्धार करवाकर सन् 1933 ई० से सन 1934 ई० के नवम्बर माह तक सूरत-शब्द-योग की कठोर साधना करते रहे। अंततोगत्वा इन्हें पूर्ण आत्मज्ञान प्राप्त हो गया।
           इसी सूरत-शब्द-योग की साधना ने इन्हें निज आत्मस्वरूप की अपरोक्षानुभूति कराकर सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी और पूर्णकाम बना दिया।
           आत्मस्वरूप की अपरोक्षानुभूति कर लेने पर परमाराध्य सद्गुरु महाराज ने समस्त महत्वपूर्ण साधनभूत सामग्रियों का परित्याग कर उन्मुन्यावस्था धारण कर सत्संग, प्रवचन, ग्रंथलेखन और लोकवार्ता-द्वारा जगत् का कल्याण करने लगे।
             यद्यपि इनको अब कुछ भी करना शेष नहीं था, तब भी ये लोककल्याणार्थ आजीवन संध्या-वंदन, स्तुति-प्रार्थना, भोजन-शयन, अध्ययन-मनन और मिलन-भ्रमण आदि समस्त मानवोचित कर्तव्य उचित समय पर करते रहे।
          ऐसे गुरुदेव के चरणों में मैं बारम्बार शिश  नवाकर भव-सागर से पार उतारने की हृदय से प्रार्थना करता हूँ। गुरुदेव के ध्यान करने की जगह जहाँ पर उन्होंने परमात्वस्वरूप के दर्शन किये ऐसे जगह पर अपने को पाकर धन्य-धन्य हो गया। जय गुरु महाराज।
श्री सद्गुरु महाराज की जय।
    --शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम


गुरुवार, 12 जुलाई 2018

एक टक्कर कालहूं से लिजै!! | श्री नंदकुमार तुलसी जी के मुख से ― | Ek adbhut ghatna | SANTMEHI | SADGURU MEHI | Maharshi Mehi | Santmat-Satsang

!! एक ठक्कर कालहूँ से लीजै!!

श्री नंदकुमार तुलसी जी के मुख से ―

७-अक्टूबर शुक्रवार को दोपहर के समय पूर्ण उदारता के अवतार, पूर्ण करुणा स्नेह तथा मंगल प्रदान करने वाले श्री गुरुदेव जी को श्रीमती शीला चमड़िया के निवास स्थान पर अपने कमरे में बैठे हुए थे। कि अचानक पूज्य गुरुदेव लेखक को फरमाने लगे कि,यहां से परसों 9 अक्टूबर को हमारी जो यात्रा पंजाब के लिए होने वाली है । उस दिन तो रविवार है और  पंजाब पश्चिम की ओर पड़ता है इसलिए उस ओर यात्रा उस दिन नहीं बनती है । इस पर श्री संतसेवी बाबा ने नर्मता से कहा कि पंजाब जाने वाले हम सब लोगों की संख्या बहुत है और 9 अक्टूबर की बताअनुकूलित रेल गाड़ी में जगह सुरक्षित हो चुकी है उसको इस समय रद्द करवा कर फिर किसी दूसरे दिन के लिए सुरक्षित करवाने में बड़ी कठिनाई और असुविधा होगी। जो सीटें इस रविवार वाली गाड़ी में सुरक्षित करवाई गई है । बड़ी मुश्किल से मिली है । यह सुनकर श्री सदगुरुदेव महाराज एक 2 मिनट तक चुप रहे फिर गंभीर हो गए, और उसे गंभीरता में कहने लगे कि अच्छा तब । *जो स्वर चले ताहि पग आगे दीजै, एक ठक्कर कालों से लीजै।*  इतना कहकर श्री गुरुदेव विश्राम करने के लिए लेट गए इन शब्दों का अर्थ व रहस्य इशारा हम लोगों की समझ में नहीं आया सिर्फ इतना जान पड़ा कि कुछ अशुभ सा होने वाला है । श्री संतसेवी जी महाराज ने भी यही अनुभव किया, परंतु उन्होंने गुरु-चरणों में पूर्ण विश्वास जताते हुए यह कहा कि श्री गुरु महाराज तो साथ ही हैं । इसलिए भय कैसा, मुझे भी उनके इन शब्दों से ढाढस हुआ। हिम्मत भी आई। रविवार 9 अक्टूबर के सुबह 10:30 बजे डीलक्स गाड़ी हावड़ा स्टेशन से अमृतसर के लिए खुली, उसमें श्री गुरु महाराज अपने भक्तों समेत पंजाब यात्रा के लिए चले, गाड़ी अपनी रफ्तार में चलती रही, भोजनोपरांत रात्रि के लगभग 10:30 बजे श्री सदगुरु महाराज रात्रि शयन के लिए लेट गए और बाकी को भी उन्होंने आदेश दिया कि आप लोग भी सो जाएं । इस समय श्री सदगुरु महाराज बहुत गंभीर लग रहे थे। परंतु उनके मुखारविंद पर किसी भी प्रकार की चिंता का कोई भी चिन्ह नजर नहीं आ रहा था । इसलिए हम सब श्री सद्गुरु के चरणों में हर रात्रि की नाई निश्चित हो गए पूरी गहरी नींद में हम थे । कि एक बहुत जोर का खौफनाक धमाका हुआ और दिल को हिला देने वाली रेल की पटरियों की आवाजें हुई । उस समय रात अंधेरी थी । गाड़ी बहुत जोर से धक्के दे-देकर खड़ी हो रही थी गाड़ी के डब्बे अंधकार से भर गए और रुक गए हम सब लोग घबरा गए और भय से जय गुरु- जय गुरु का जाप करते हुए उठ बैठे अपने आप को अंधेरे में पाया परंतु, तुरंत ही ज्ञात हुआ कि पूज्य श्री सदगुरु महाराज तो हमारे साथ ही हैं । इसलिए जल्द ही संभल गए और पहले सबकी नजर श्री गुरु महाराज की सीट की ओर गई अंधेरे में कुछ नजर नहीं आ रहा था टॉर्च बतिया जलाई गई तो देखा कि सभी सुरक्षित है। किसी को कुछ नहीं हुआ है । मात्र पूज्य श्री गुरुदेव अपनी सीट से नीचे सोए हुए श्री भागरथ बाबा तथा श्री राम लगन बाबा के सिर पर आ गिरे थे। हम लोगों ने श्री सदगुरु महाराज को उठाया और सीट पर बिठा दिया पता चला कि नैनी स्टेशन के यार्ड में खड़ी एक मालगाड़ी से यह डीलक्स गाड़ी टकरा गई है। बहुत से लोग मारे गए बहुत से जख्मी हुए, पीड़ा से कढ़ाह रहे थे। इंजन का तो पता ही नहीं चलता है कि कहां गया और इंजन के पीछे के डिब्बे टक्कर के धक्के से एक दूसरे के ऊपर बड़ी ऊंचाई तक चढ़ गए हैं। कुछ डिब्बे गिर पड़े हैं । परंतु हम लोग के डिब्बे उन सब गिरे हुए चकनाचूर हुए डिब्बे के पीछे सुरक्षित है । पटरी के ऊपर ही है यह सुनकर हम लोगों के हृदय में किस-किस तरह का विचार आए और गए इसका वर्णन मैं क्या करूं आप सब ऐसी परिस्थिति को स्वयं ही समझ सकते हैं या सदगुरु महाराज की महान अनुकंपा थी कि अपने ऊपर सारी आपदाओं को लेकर हम लोगों की रक्षा कि, ऐसे संकट हारक सतगुरु महाराज के चरणों में बारंबार नमन जयगुरु महाराज

मंगलवार, 10 जुलाई 2018

प्रसिद्ध व धनवान व्यक्ति कैसे बनें? | Prasidh aur dhanwan vyakti kaise bane |

प्रसिद्ध व धनवान व्यक्ति कैसे बनें ?
दोस्तों ! व्यक्तित्व को ऊंचा उठाने के लिए दान करना अनिवार्य है| जीवन की सबसे सुखद अनुभूति देने में है | दुनिया एपीजे अब्दुल कलाम, मदरटरेसा, बिलगेट्स, अक्षय कुमार जैसे देने वालो को नाम याद रखती है | आपको किसी भिखारी का नाम याद है ? आपने किसी भिखारी को प्रसिद्ध होते हुए सुना है ? ब्रज मोहन जी कहते हैं कि - 

"धनवान वही बनते है जो अपनी जेब खोलते हैं मतलब जो अपनी कमाई में से कुछ हिस्सा दुसरो की मदद के लिए दान करते हैं"

कैसे ? जब आप किसी की निस्वार्थ मदद करते हैं तो लेने वाले का ह्रदय प्रसन होता है | लेने वाला आंतरिक मन से देने वाले को दुआ देता है | वो दुआ उसे यशस्वी बनाती है | और लोग आपकी तरफ आकर्षित होने लगते हैं | पोजेटिव एनर्जी आकर्षित होने लगती है | इससे आपका मनोबल बढ़ने लगता है | जो विपरीत परिस्थति में भी आगे बढ़ने का रास्ता खोज लेता है| और तब आप के आगे बढ़ने का रास्ता खुद ब खुद खुलता जाता  हैं | 

जब किसी को देते है तो महान बन जाते हैं | और जब किसी से लेते हैं तो डाउन हो जाते हैं | इसलिए अगर महान बनना है, धनवान बनना है, प्रसिद्ध बनना है तो अपनी कमाई का कुछ हिस्सा दान करें | वैसे भी जो धन तिजौरी में बंद पड़ा है किसी की मदद में , किसी गरीब  लड़की  की शादी करने में या किसी धार्मिक कार्य करने में खर्च नही किया जाता ऐसे धन का क्या करोगे ?  बच्चों के लिए जोड़ोगे ?

 "बच्चों को विरासत में धन देने की बजाए संस्कार दो, हॉइयर एजुकेशन दो जिससे कल वो आपकी विरासत पर नियत ना रखें बल्कि  आपसे ज्यादा कमा सकें, आपसे बेटर लाइफ जी सकें और समाज में आपका नाम रोशन कर सकें"

किसी गरीब को रोटी कपडा देना ही दान नही है | हर जीव व प्राणी मात्र के प्रति करुणा रखना भी दान है | मानव जीवन का ये उद्देश्य होना चाहिए कि समाज के कल्याण के लिए सहयोग करें और ओर लोगो में सहयोग की भावना जगाएं | अपने से कमजोर तबके के लोगो को स्वालंबी बनाने व ऊपर उठने में सहयोग करें | परमात्मा ने आपको सक्षम बनाया है तो आप दुसरो को सक्षम बनाने में सहयोग करें |

अपना तन मन धन उपकार में लगा सकें तभी जीवन सार्थक है |  तभी जीवन उपयोगी है |  जीवन का बड़ा होना अनिवार्य नही है उपयोगी होना अनिवार्य है | जितना समाज व मानव उथान के हित के लिए आगे बढ़ेंगे उतना ही जीवन सार्थक होगा | तभी अपनी लाइफ में आगे बढ़ सकोगे बड़ा बन सकोगे | 

हर मानव को खुद से एक सवाल करना चाहिए कि में इस दुनिया में क्यों आया हूँ ? मेरा इस जग में भेजने का परमात्मा का उद्देश्य क्या रहा होगा ? धरती नदी पर्वत हवा जीव, जंतु, पौधे, सभी हम लोगो को कुछ ना कुछ देते हैं |अन कंडिशनली देते हैं विदाउट ऐनी सेल्फ इन्टरेष्ट देते हैं | जो भी उनके पास है वो दिए जाते हैं बिना किसी कंडीशन के बिना किसी एक्सेप्टेशन के  बिना कोई कीमत लिए |  

हम ने अपने परिवार को समाज को व अपने देश को क्या दिया ? माली भी जब एक पौधा लगाता है उसे सालो सींचता है खाद देता है विपरीत परिस्थति में उसकी रक्षा करता है लेकिन जब उस पर फल लगते हैं तब  उन्हें सब खाते हैं | 

मजबूत बनो, हल्के बर्तन की तरह मत बनो | हल्के बर्तन चूल्हे पर चढ़ते ही आग बबूला हो जाते हैं उसमे डाले गए पदार्थ उफनने लगते हैं पर भारी भरकम बर्तनो में जो पकता है उसकी गति तो धीमी होती है पर परिपाक उन्ही में ठीक से बन पड़ता हमे बबूले की तरह फूलना फुदकना नही चहिये  ऐसी रीति नीति स्थिर नही रहती वह कुछ क्षण में टूट जाती है | 
।। जय गुरु महाराज ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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परमात्मा को केवल माने नहीं, जाने भी | Parmatma ko kewal jane nahi mane bhi | Satntmat-Satsang |

परमात्मा को केवल माने नहीं, जाने भी!

कहै कबीर जब जान्या, जब  जान्या  तौ  मन मान्या।
मनमाने लोग नही पतीजै, नही पतीजै तौ  हम का कीजै।।

प्र्स्तुत पद संत कबीरदास जी द्वारा रचित है। इस में कबीरदास जी कह्ते है कि - 'जब मैने परमात्मा को अपने भीतर देखा, जाना, तभी मेरा मन परमात्मा को मानने लगा और यदि मनमुख लोग इस बात को नहीं स्वीकारते, तो मैं क्या करूँ ? न करें स्वीकार !
यह बात अगर आज भी किसी मनुष्य को समझाई जाए, तो वह स्वीकार नहीं करता। लोगों  ने परमात्मा को केवल मानने तक ही सीमित कर दिया है। कोई भी उसे जानने का कोशिश नहीं करता। जब बात ईश्वर दर्शन के विषय में आती है, तो लोगो को हजम नही होती। वे अपने व्यर्थ तर्को द्वारा इस तथ्य को झूठा ठहराने की कोशिश करते है। जब कि महापुरषों ने कभी ऐसा नही किया। उन्होने परमात्मा को केवल माना नहीं, अपितु जाना भी। आप जरा क्ल्पना करे कि  एक बेटा अपने पिता को जाकर कहे के,'पिता जी, मै आप को अपना पिता मानता हूँ। तो ऐसे मे वह पिता क्या सोचेगा ? यही न कि, 'अरे मूर्ख ! अभी तू मुझे  केवल अपना पिता मान ही रहा है ! तुने अभी तक जाना नही कि मै तेरा पिता हूँ । कितनी हस्यास्पद बात है न यह !
पर जरा ठहरे ! क्या यह ह्स्यस्पद बात हम लोगो पर लागू नही होती? हम भी तो आज अपने परम पिता परमात्मा को 'मानने' का ही दावा करते है। उसे 'जान ने' का दावा हम में से कितने लोग करते है ? यह दावा तो केवल और केवल एक पूर्ण संत ही कर सकते है या फिर उनके शिष्य जिन्हें उन्होने दीक्षा प्रदान की है। 'दीक्षा' का अर्थ ही होता है - 'दिखाना' अर्थात 'जानना' ।
स्वामी विवेकानन्द जी का इस बारे में स्पष्ट कथन है - जिन्हे अत्मा की अनुभूति या ईश्वर - साक्षात्कार न हुआ हो, उन्हें यह कहने का क्या अधिकार है कि अत्मा या ईश्वर है ? यदि ईश्वर है, तो उसका साक्षात्कार करना होगा। यदि आत्मा नामक कोई चीज है, तो उसकी उपलब्धि करनी होगी। अन्था विश्वास ना करना ही भला। ढोंगी होने से स्पष्टवादी नास्तिक होना अच्छा है।' पर आज हम फिर भी लकीर के फकीर बने हुए हैं। सत्य का सन्देश मिलने पर भी अपनॊ मन की बनाई हुई चार दीवारी से ही घिरे रहना पसन्द करते है । बड़े गर्व से कह्ते है - 'जी, मैं इतने देवी- देवताओ को मानता हूँ। इतने अवतारो को मानता हूँ ....बस मानना ही मानना है । देखा नही है । भीतर कुछ साक्षात्कार नहीं हुआ। ऐसे खाली मानने पर टिका हुआ विश्वास पल - भर मे बिखर जाता है। एक बार की घट्ना है -
एक संत महापुरूष आसन पर बैठे हुए थे । एक आदमी उनके पास आया । आकर प्रणाम किया। बड़ा खुश ! संत ने पूछा, क्या हुआ भाई, आप बड़े खुश लग रहे हो? कह्ता है, महाराज ! मै आस्तिक बन गया। संत जी बड़े हैरान हुए - आस्तिक बन गया ! इस से पहले संत  कुछ कह्ते, वह व्यक्ति आपनी कहानी सुनाने लगा । कह्ता है - बहुत समय से मेरे बेटे की नौकरी नहीं लग रही थी । मै एक दिन हनुमान जी के मन्दिर मे गया । वहां मैने हनुमान जी को अल्टीमेटम दे दिया कि अगर पन्द्रह दिन के अन्दर अन्दर मेरे बेटे की नौकरी लग गई, तो मै तुम्हें मानना शुरू कर दूंगा। आस्तिक बन जाऊगा। तुम्हारे मन्दिर में भी आया करूंगा। प्रभु ने मेरी सुन ली। पन्द्रह दिन के अन्दर ही मेरे बेटे की नौकरी लग गई । इस लिए मै आस्तिक बन गया हूँ ! यह बात सुनकर, संत जी ने उस व्यक्ति को समझाते हुए कहा, आप की आस्तिकता की चादर बहुत पतली है । आप के विश्वास के पीछे स्वार्थ की बैसाखियां लगी हुई है । ऐसा विश्वास कभी भी लड़खड़ा कर गिर सकता है । इस लिए इस आधार पर परमात्मा को मानना ठीक नही। मेरी मानो तो आगे से कभी परमात्मा को अल्टीमेटम मत देना । पर यह तो स्वभाव सिद्ध है कि मनुष्य जिस काम मे एक बार सफल हो जाए, तो उसे दोबारा जरूर करता है । ऐसा ही हुआ। कुछ समय के बाद उस आदमी की पत्नी बीमार हो गई । उस ने सोचा कि क्यो ना फिर वही फार्मूला लगाया जाए । भगवान को चेतावानी दी जाए । जाकर फिर हनुमान जी को अल्टीमेटम दे दिया - हनुमान जी ! अगर सात दिनो के अन्दर मेरी पत्नी ठीक नहीं हुई, तो मै आप को मानना छोड दूंगा। फिर से नास्तिक बन जाऊँगा। होता तो वही है जो विधाता ने लिखा हुआ था । पाचवें दिन ही  उस की पत्नी मर गई । वह व्यक्ति फिर से नास्तिक बन गया । कहने का मतलब, उस का परमात्मा को मानना या ना मानना बस एक खेल था । अ:त जरूरत है कि हम तर्को वितर्को व अपनी धारणाओं के आधार पर परमात्मा को सिर्फ़ मानने तक ही सीमित न रहे । बल्कि एक पूर्ण गुरू की शरणागत होकर उस का दर्शन भी करे । उसे तत्व से जाने। तभी हमारा उस पर विश्वास अडिग होगा।
।। जय गुरु ।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram


शनिवार, 7 जुलाई 2018

सफलता बाहर नहीं, भीतर है | Safalta baahar nahi bhitar hai | उस राजा ने महात्मा बुद्ध से ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को सफल किया | Santmat-Satsang

सफलता बाहर नहीं, भीतर है!

सफल जीवन की परिभाषा क्या है? संसारियों के दृष्टिकोण से उन्हीं व्यक्तियों का जीवन सफल है, जिनके पास आपर धन - संपदा है, जो उच्च पद पर आसीन हैं, हजारों - लाखों लोग जिनके मान - सम्मान में सिर झुकाते
हैं |

परन्तु महापुरषों ने धन-पद- प्रतिष्ठा को सफलता का मापदंड कभी नहीं माना | उनके अनुसार सफलता क्षणभंगुरता में नहीं, शाश्वत में है | माया में नहीं, ब्रह्म में है | छाया में नहीं, यथार्थ में है | और चूँकि संसार के ये सभी पदार्थ क्षणभंगुर है, संसार स्वयं माया है, यथार्थ की छाया है, इसलिए इन्हें प्राप्त कर लेने में जीवन की सफलता हो नहीं सकती |

महात्मा बुद्ध के विषय में आता है - एक बार वे बनारस में एक बृक्ष के नीचे ध्यान - साधना में बैठे थे | तभी वहां से वाराणसी का राजा अपने घोड़े पर गुजरा | एकाएक उसकी दृष्टि महात्मा बुद्ध के चेहरे पर पड़ी | उनके मुखमंडल पर दिव्य ओज था, एक अलौकिक आकर्षण! वे अत्यंत आनंद की अवस्था में दिख रहे थे | राजा घोड़े से उतरा और महात्मा बुद्ध के पास गया | उन्हें प्रणाम करके बोला - भगवन, आपको देखकर मेरे मन में एक द्वंद्ध खड़ा हुआ है | कृपा उस का समाधान करें | ...मैं वाराणसी का राजा हूँ | मेरे पास आपर धन - संम्पदा है, वैभव है | यह जो मैंने मुकुट पहना हुआ है, इसमें हजारों अमूल्य रत्न लगे हैं | मेरे ये वस्त्र और जूते भी वेशकीमती रत्नों से जड़े हैं | इतना ही कीमती मेरा यह घोडा है | कई राज्यों - देशों पर मैं विजय प्राप्त कर चुका हूँ | विशाल साम्राज्य का स्वामी हूँ | पर इतना मात्र होते हुए भी मैं दुखी हूँ | लगता है कि संसार में सब कुछ पाकर भी कुछ नहीं पाया | असफल ही रहा | आपके पास कुछ नहीं है | फिर भी आप प्रफुल्लित हैं, प्रसन्न हैं | आप के रोम - रोम से आनन्द का झरना फूट रहा है! ऐसा क्यों?

बुद्ध मुस्कराए! फिर बोले - 'राजन! सफलता बाहर नहीं, भीतर है | सांसारिक वस्तुओं का परिग्रह कर लेने में नहीं, परमात्मा की प्राप्ति में है | एक समय मैं भी तुम्हारी तरह दरिद्र - समृद्ध था | हो सकता है, उस समय मेरे पास बाहरी तो सब कुछ था, पर आंतरिक कुछ नहीं | महल तो सुख साधनों से अटे पड़े थे | पर आंतरिक घर सूना था | इसलिए मैं समृद्ध होते हुए भी दरिद्र था | जब मैंने अंतर्जगत में परवेश किया, तो पाया यह प्रदेश प्रभु का साम्राज्य है | साक्षात् ब्रह्म इस राज्य का स्वामी है | जब तक आपने अंतर्दृष्टि के द्वारा उसका साक्षात्कार नहीं किया, उससे एकाकार नहीं हुए, तब तक बाकी सब होते हुए भी आप दरिद्र हो | और उस एक को मिलने पर बाकी कुछ न होते हुए भी समृद्द हो | यह समृद्धि ही जीवन में शांति व आनंद देती है | जीवन को पूर्णता व सफलता प्रदान करती है | आगे ये कथा बताती है की उस राजा ने महात्मा बुद्ध से ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को सफल किया |

सारत: सफलता माया को प्राप्त करने में नहीं, ब्रह्म की प्राप्ति में है | इसलिए एक पूर्ण गुरु की शरणागत होकर अपने घट में इश्वर का साक्षात्कार दर्शन करो | तदोपरांत साधना की गहराईयों में उतारकर उससे एकमिक हो | साथ ही, इस महान ब्रह्मज्ञान का जन - जन तक प्रचार परसार करो! तभी आपका जीवन सफलता की परिभाषा बन सकता है |
जय गुरु महाराज!
Posted by S.K.Mehta, Gurugram

बुधवार, 4 जुलाई 2018

भारत भर में गुरु पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है | Guru Purnima | इस दुःखरुप संसार में गुरुकृपा ही एक ऐसा अमूल्य खजाना है जो मनुष्य को आवागमन के कालचक्र से मुक्ति दिलाता है | Santmat-Satsang | SADGURUMEHI | SANTMEHI

।।श्री सदगुरुवे नम :।।
भारत भर में गुरुपूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूम धाम से मनाया जाता है।
यह जानकर अपार हर्ष होगा कि परम पावन पर्व "गुरु पूर्णिमा" इस महीने के 27 जुलाई 2018, शुक्रवार को है। समस्त स्नेही और विद्द्वतजन को गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनायें देते हुए, मैं निवेदन करता हूँ कि जहां भी गुरुदेव का आश्रम मंदिर है वहाँ आकर लाभ उठाएँ।

'गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु र्गुरूदेवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥'

गुरु को अपनी महत्ता के कारण ईश्वर से भी ऊँचा पद दिया गया है। शास्त्र वाक्य में ही गुरु को ही ईश्वर के विभिन्न रूपों- ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर के रूप में स्वीकार किया गया है। गुरु को ब्रह्मा कहा गया क्योंकि वह शिष्य को बनाता है नव जन्म देता है। गुरु, विष्णु भी है क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करता है गुरु, साक्षात महेश्वर भी है क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संहार भी करता है।
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी।  जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।

गुरु पूर्णिमा का यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे।

'राम कृष्ण सबसे बड़ा उनहूँ तो गुरु कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी गुरु आज्ञा आधीन॥'

गुरु तत्व की प्रशंसा तो सभी शास्त्रों ने की है। ईश्वर के अस्तित्व में मतभेद हो सकता है, किन्तु गुरु के लिए कोई मतभेद आज तक उत्पन्न नहीं हो सका है। गुरु की महत्ता को सभी धर्मों और सम्प्रदायों ने माना है। प्रत्येक गुरु ने दूसरे गुरुओं को आदर-प्रशंसा एवं पूजा सहित पूर्ण सम्मान दिया है। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी है। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।

'हरिहर आदिक जगत में पूज्य देव जो कोय।
सदगुरु की पूजा किये सबकी पूजा होय॥'

आप कितने ही कर्म करो, कितनी ही उपासनाएँ करो, कितने ही व्रत और अनुष्ठान करो, कितना ही धन इकट्ठा कर लो और कितना ही दुनिया का राज्य भोग लो लेकिन जब तक सदगुरु के दिल का राज्य तुम्हारे दिल तक नहीं पहुँचता, सदगुरुओं के दिल के खजाने तुम्हारे दिल तक नही उँडेले जाते, जब तक तुम्हारा दिल सदगुरुओं के दिल को झेलने के काबिल नहीं बनता, तब तक सब कर्म, उपासनाएँ, पूजाएँ अधुरी रह जाती हैं। देवी-देवताओं की पूजा के बाद भी कोई पूजा शेष रह जाती है किंतु सदगुरु की पूजा के बाद कोई पूजा नहीं बचती।
एक सदगुरु अंतःकरण के अंधकार को दूर करते हैं। आत्मज्ञान के युक्तियाँ बताते हैं गुरु प्रत्येक शिष्य के अंतःकरण में निवास करते हैं। वे जगमगाती ज्योति के समान हैं जो शिष्य की बुझी हुई हृदय-ज्योति को प्रकटाते हैं। गुरु मेघ की तरह ज्ञानवर्षा करके शिष्य को ज्ञानवृष्टि में नहलाते रहते हैं। गुरु ऐसे वैद्य हैं जो भवरोग को दूर करते हैं। गुरु वे माली हैं जो जीवनरूपी वाटिका को सुरभित करते हैं। गुरु अभेद का रहस्य बताकर भेद में अभेद का दर्शन करने की कला बताते हैं। इस दुःखरुप संसार में गुरुकृपा ही एक ऐसा अमूल्य खजाना है जो मनुष्य को आवागमन के कालचक्र से मुक्ति दिलाता है।
।।श्री सद्गुरु महाराज की जय।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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मंगलवार, 3 जुलाई 2018

शिष्य वही, जिस पे गुरु शासन कर सके | Shishya vahi jis pe Guru shasan kar sake | Always deserve, but never Desire | जो सच को ईमान बना लेते हैं, अपने आप को इन्सान बना लेते हैं |

शिष्य वही, जिस पे गुरु शासन कर सके!

एक व्यक्ति के पास तीन प्रकार के धनुष्य थे | पहला धनुष्य बोला कि, 'हे मालिक, कहीं मुझे यू  ही  पड़े - पड़े जंग न लग जाये, इसलिए तू मेरा इस्तेमाल कर |' दूसरे ने कहा, तू मेरी प्रत्यंचा चढ़ा | लेकिन देखो, ध्यान से ! कहीं मैं टूट न जाओं  ? तीसरे धनुष्य ने कहा,' तू जैसे चाहे मेरा इस्तेमाल कर, बेशक मैं टूट क्यों न जाओं | ठीक ऐसे ही तीन प्रकार के लोग गुरु के पास पहुँचते हैं | पहली प्रकार के लोग पहले धनुष्य कि भांति गुरु की सेवा तो करते हैं, लेकिन इस डर से कहीं सांसारिक कष्ट हमें खत्म न कर दें | कहीं हमारे जीवन में दुःख न आ जाएँ | ये व्यापारी किस्म के होते हैं |

दूसरी प्रकार के भक्त, दूसरे धनुष्य जैसे होते हैं जो कहते हैं हमारी प्रत्यंचा चढाओ, लेकिन ध्यान रखना कहीं हम टूट न जाएँ | ऐसे भक्त सेवा तो करते हैं, लेकिन अपने आप को सुरक्षित रखकर | स्वयं का नुकसान नहीं देख सकते | पहली प्रकार के भक्त तो फिर भी समझाने से समझ जाते हैं | लेकिन ये दूसरे प्रकार के भक्त इतने डरपोक और कायर होते हैं कि समझाने पर भी इनका विवेक जागृत नहीं होता | ये भक्त मुश्किलों से घबराकर, इस पथ को छोड़ देते हैं, इस मार्ग से टूट जाते हैं |और जब टूटते हैं तो दोष भी गुरु को देते हैं , लेकिन ऐसे भक्त भली - भांति समझ लें, कि अगर वे पूर्ण ज्ञान का आनंद नहीं उठा पा रहे इस का एक मात्र कारण यही है क वे उचित मूल नहीं दे रहे | आपको समर्पण और त्याग रुपी मूल्य देना होगा | उसी समय  आप को परमानन्द का अनुभव होगा |
तीसरी प्रकार के शिष्य वे हैं जो कहते हैं , 'हे गुरुवर, हमें अपनी सेवा में लगा लो | बदले में चाहे हम खत्म ही क्यों न हो जाएँ | ऐसे शिष्यों कि तुलना वारिश में सीधे पड़े घड़े के साथ कि जा सकती है | इनमें पात्रता होती है | ये गुरु कृपा को समेट पाते हैं | ये योग्य बनते हैं पर कुछ नहीं मांगते | लोग कहते हैं  First deserve, then desire   पहले योग्य बनो फिर इच्छा करो | पर हमारे वेदों ने कहा Always deserve, but never Desire -  सदा योग्य बने रहो, लेकिन कभी इच्छा मत करो | क्यों कि तुम्हारा अंतरयामी  गुरु सब जनता है कि तुम्हे कब क्या चाहिए | जो भक्त गुरु के सिवा कुछ देखते नहीं, बोलते नहीं, सुनते नहीं, सोचते नहीं, उनका तो सदैव गुरु भी चिंतन किया करते हैं |
आप भी महाराज  जी के निर्देशों को समझें और उनके मुतबिक चलते चलें | खुशकिस्मत होते हैं वो लोग, जिनका चुनाव समय का रहवर करता है | मिटटी के खिलोने को तो एक दिन टूटना ही है | अच्छा होगा अगर हम सत्य कि राहों पर चलते हुए अपने आप को कुर्बान कर दें | मन  से, तन से, अंदर से, बाहर से - सब ओर से गुरु के लक्ष्य  के लिए कुर्बान हो जाएँ | किसी ने खूब कहा है -

जो सच को ईमान बना लेते हैं,
अपने आप को इन्सान बना लेते हैं |
आ जाता है सच पर मरना जिन्हें,
वो मरने को वरदान बना लेते हैं |

अंत  में मैं यही कहना चाहूँगा कि हम सभी ने तीसरे प्रकार का गुरु भक्त बनने का प्रयास करना है | हम ने गुरु को स्वतंत्रता  देनी है, कि वे हमें तराश सके | दूसरों को या ज्ञान को या गुरु को दोष देने की बजाय स्वयं पर दृष्टिपात करना है | कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारा दामन अब तक इस लिए खाली है क्यों कि हमने उसके छेद बंद नहीं किए | सच मानिए, गुरु चोबीस घंटे आपका इंतजार कर रहा है कि कब मेरा शिष्य मेरे पास आए | उसके इंतजार को निराशा नहीं देनी, बल्कि ऐसा शिष्य बनना है जिस की उसे तलाश है | वह  शिष्य जिस पर वह शासन कर सके, अपनी मर्ज़ी लागू कर सके | जय गुरु महाराज

प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

सोमवार, 2 जुलाई 2018

बाप पतंग उड़ा रहा था बेटा ध्यान से देख रहा था | Baap patang ura raha tha beta dhyan se dekh raha tha | घर | परिवार | अनुशासन | दोस्ती |

बाप पतंग उड़ा रहा था  बेटा ध्यान से देख रहा था

थोड़ी देर बाद बेटा बोला पापा ये धागे की वजह से पतंग और ऊपर नहीं जा पा रही है इसे तोड़ दो

बाप ने धागा तोड़ दिया

पतंग थोडा सा और ऊपर गई और उसके बाद निचे आ गई

तब बाप ने बेटे को समझाया

बेटा जिंदगी में हम जिस उचाई पर है, हमें अक्सर लगता है , की कई चीजे हमें और ऊपर जाने से  रोक रही है, जैसे
            घर,

          परिवार,
        अनुशासन,
           दोस्ती,

और हम उनसे आजाद होना चाहते है, मगर यही चीज होती है
जो हमें उस उचाई पर बना के रखती है.

उन चीजो के बिना हम एक बार तो ऊपर जायेंगे मगर बाद में हमारा वो ही हश्र होगा, जो पतंग का हुआ.

इसलिए जिंदगी में कभी भी
          अनुशासन का,
           घर का ,
           परिवार का,
           दोस्तों का,
     रिश्ता कभी मत तोड़ना...

प्रेम की रीत निराली | Prem ki reet nirali | भगवान राम लक्ष्मण व सीता सहित चित्रकूट पर्वत की ओर जा रहे थे | Santmat-Satsang

प्रेम की रीत निराली

प्रेम की रीत निराली भगवान राम लक्ष्मण व सीता सहित चित्रकूट पर्वत की ओर जा रहे थे! राह बहुत पथरीली और कंटीली थी! सहसा प्रभुके चरणों में एक कांटा चुभ गया! फलस्वरूप वह रूष्ट या क्रोधित नहीं हुए, बल्कि हाथ जोड़कर धरती से एक अनुरोध करने लगे ! बोले - "माँ, मेरी एक विनम्र प्रार्थना है तुमसे !!
क्या स्वीकार करोगी ?
धरती बोली - "प्रभु प्रार्थना नही, दासी को आज्ञा दीजिए!
'माँ, मेरी बस यही विनती है कि जब भरत मेरी खोज में इस पथ से गुज़रे, तो तुम नरम हो जाना! कुछ पल के लिए अपने आँचल के ये पत्थर और कांटे छुपा लेना ! मुझे कांटा चुभा सो चुभा ! पर मेरे भरत के पाँव में अघात मत करना!', प्रभु विनत भाव से बोले! प्रभु को यूँ व्यग्र देखकर धरा दंग रह गई ! पूछा - "भगवन, धृष्टता क्षमा हो! पर क्या भरत आपसे अधिक सुकुमार है ? जब आप इतनी सहजता से सब सहन कर गए, तो क्या कुमार भरत नहीं कर पाँएगें ? और फिर मैंने तो सुना है कि वे संतात्मा है! संत तो स्वभाव से ही सहनशील व धैर्यवान हुआ करते है! फिर उनको लेकर आपके चित में ऐसी व्याकुलता क्यों ? प्रभु बोले - 'नहीं .....नहीं माता! आप मेरे कहने का अभिप्राय नहीं समझीं! भरत को यदि कांटा चुभा, तो वह उसके पाँव को नहीं, उसके हृदय को विदीर्ण कर देगा! ''हृदय विदीर्ण !! ऐसा क्यों प्रभु ?', धरती माँ जिज्ञासा घुले स्वर में बोलीं!' अपनी पीडा़ से नहीं माँ, बल्कि यह सोचकर कि इसी कंटीली राह से मेरे प्रभु राम गुज़रे होंगे और ये शूल उनके पगों में भी चुभे होंगे! मैया, मेरा भरत कल्पना में भी मेरी पीड़ा सहन नहीं कर सकता ! इसलिए उसकी उपस्थिति में आप पंखुड़ियों सी कोमल बन जाना'!
जय हो.....जय श्री राम!
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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रविवार, 1 जुलाई 2018

प्रतिज्ञा का पालन न करना, वचन का निर्वाह न करना झूठ ही है | पूज्यपाद स्वामी श्री छोटेलाल दास जी | Santmat-Satsang

प्रतिज्ञा का पालन न करना, वचन का निर्वाह न करना झूठ ही है। इससे पुण्य का क्षय होता है और संसार में अपकीर्ति होती है। बड़े लोग जो प्रण कर लेते हैं, उसपर मरते दम तक अडिग रहते हैं। किसी को कोई वचन दे देते हैं, तो उसका निर्वाह करना किसी भी कीमत पर वे अपना परम कर्तव्य समझते हैं। राजा हरिश्चन्द्र ने अपना राजपाट स्वप्न में विश्वामित्र को दान कर दिया था। स्वप्न की बात को भी उन्होंने सत्य करके दिखाया। इसके लिए उन्हें कितना कष्ट सहना पड़ा, लोग जानते ही हैं।महात्मा सुकरात ने जहर का प्याला स्वीकार किया; परन्तु सत्य के रास्ते से हटकर जीना पसंद नहीं किया। घोर राजनीति के बीच महात्मा गाँधी ने भी अनेकानेक कष्ट झेलते हुए सत्य और अहिंसा का मार्ग नहीं छोड़ा था।

जो सत्य बोलता है, सत्य ही उसकी रक्षा करता है। घोर संकट में पड़कर भी वह उबर जाता है। वह बड़ा निर्भय होता है, उसे अंतर-ही-अंतर बड़ा संतुष्टिकारक आनंद मिलता है। सत्य व्यवहार से सब लोग प्रसन्न रहते हैं और अपने ही अपने हो जाते हैं। सत्यनिष्ठा बुरे लोगों को भी प्रभावित करती है। -पूज्यपाद स्वामी श्री छोटेलाल दास जी 
 प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...