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शनिवार, 22 सितंबर 2018

सद्कर्मों से लबालब हो जीवन की किताब SADKARMO SE LABLAB HO JEEVAN KI KITAB | SANTMAT-SATSANG

सद्कर्मों से लबालब हो जीवन की किताब;
मनुष्य अपने शरीर से यदि केवल भोग-विलास करे, इसे मौज-मस्ती में खर्च कर दे तो अच्छी बात नहीं है। यह सब जानवर भी करते हैं, पर मनुष्य को भगवान ने बुद्धि और विवेक देकर कुछ विशेष अधिकार दे दिए, जिनसे उन्हें निजी जीवन में लाभ उठाने के बाद परमात्मा के बनाए हुए संसार की सेवा करनी है।

इसीलिए मनुष्यों को अपने जीवन के आरंभ और अंत में मूल्यांकन करते रहना चाहिए। हमारा जीवन कोरे कागज जैसा शुरू हुआ और जब समापन होगा तो इसके सारे पृष्ठ लगभग चितेरे जा चुके होंगे। इसलिए हर रात सोते समय, सप्ताहांत में, महीने के आखिरी में और साल खत्म होने पर इस बात का चिंतन जरूर किया जाए कि अंत के वक्त हम क्या होंगे।

बीते समय में हमने क्या कुछ ऐसा श्रेष्ठ किया, जिसके लिए परमात्मा ने हमें मनुष्य बनाया है। ऋषियों ने कहा है कि हमारे साथ हमारा भगवान भी जन्म लेता है। काफी समय तक वह हमारे साथ रहता भी है। यूं कहें कि पूरा बचपन वह हमारा साथ नहीं छोड़ता। फिर जैसे-जैसे हम दुगरुणों को आमंत्रित करते हैं, उसकी विदाई होने लगती है।

याद रखिए हमारे अंत के बाद उस प्रारंभ वाले परमात्मा से मिलना जरूर होगा और उस दिन हमें उसे जवाब भी देना होगा। उसका सवाल यह होगा कि जो धरोहर मैंने तुम्हें दी थी, उसका सदुपयोग किया या नहीं? उस दिन हमारे जीवन की किताब सद्कर्मो से इतनी लबालब होनी चाहिए कि ईश्वर को अपनी कृति पर संतोष हो सके।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

दुनिया तो मुसाफिरखाना है | DUNIYA TO MUSAFIR KHANA HAI | जैसे नौका में कई लोग चढ़ते, बैठते और उतरते हैं परंतु कोई भी उसमें ममता या आसक्ति नहीं रखता | SANTMAT-SATSANG

दुनिया तो मुसाफिरखाना है;
यह समस्त दुनिया तो एक मुसाफिरखाना है। दुनियारूपी सराय में रहते हुए भी उससे निर्लेप रहना चाहिए। जैसे कमल का फूल पानी में रहता है परंतु पानी की एक बूँद भी उस पर नहीं ठहरती, उसी प्रकार संसार में रहना चाहिए।
संत तुलसीदासजी कहते हैं:-

तुलसी इस संसार में भांति भांति के लोग।
हिलिये मिलिये प्रेम सों नदी नाव संयोग।।

जैसे नौका में कई लोग चढ़ते, बैठते और उतरते हैं परंतु कोई भी उसमें ममता या आसक्ति नहीं रखता, उसे अपना रहने का स्थान नहीं समझता, ऐसे ही हम भी संसार में सबसे हिल-मिलकर रहे परंतु संसार में आसक्त न बनें। जैसे, मुसाफिरखाने में कई चीजें रखी रहती हैं किंतु मुसाफिर उनसे केवल अपना काम निकाल सकता है, उन्हें अपना मानकर ले नहीं जा सकता। वैसे ही संसार के पदार्थों का शास्त्रानुसार उपयोग तो करें किंतु उनमें मोह-ममता न रखें। वे पदार्थ काम निकालने के लिए हैं, उनमें आसक्ति रखकर अपना जीवन बरबाद करने के लिए नहीं हैं।
संसार को सदेव मुसाफिरखाना ही समझना चाहिये……..


घर मकान महल न अपने, तन मन धन बेगाना है,
चार दिनों का चैत चमन में, बुलबुल के लिए बहाना है,
आयी खिजाँ हुई पतझड़, था जहाँ जंगल, वहाँ वीराना है,
जाग मुसाफिर कर तैयारी, होना आखिर रवाना है,
दुनिया जिसे कहते हैं, वह तो स्वयं मुसाफिरखाना है।

अपना असली वतन आत्मा है। उसे अच्छी तरह से जाने बिन शांति नहीं मिलेगी और न ही यह पता लगेगा कि ‘मैं कौन हूँ’। जिन्होंने स्वयं को पहचाना है, उन्होंने ईश्वर को जाना है।
।।जय गुरु।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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गुरुवार, 20 सितंबर 2018

महर्षि और परमहंस की उपाधियों का इतिहास ... | History of the titles of Maharishi and Paramhansa | Santmat-Satsang | SantMehi | SadguruMehi

"सद्गुरू मेँहीँ के साथ 'महर्षि' और 'परमहंस' की उपाधियों का इतिहास"

'शान्ति-सन्देश' पत्रिका के प्रथम सम्पादक परमाराध्य श्रीसद्गुरू महाराजजी के परम भक्तोपासक प्रो0 श्रीविश्वानंदजी थे| पत्रिका में और विविध साहित्यों में भी सम्पादक महोदय के द्वारा परमाराध्य श्रीसद्गुरू महाराजजी का नाम केवल "स्वामी मेँहीँ दास" ही छपता था| कुछ समय पीछे सत्संगी श्रद्धालुओं और सेवक-शिष्यों के आपसी आग्रह एवं सम्पादक महोदय के हठ-प्रभुत्व के कारण नाम के अंत में 'जी महाराज' जोड़ा जाने लगा और तब सभी कोई आदर एवं पूज्य भाव से "स्वामी मेँहीँ दासजी महाराज" करके संबोधन एवं पत्रिका एवं साहित्यों में प्रकाशित करने लगे|
बाद में प्रो0 विश्वानन्दजी की जगह चंद्रधर प्रसाद नन्दकुलियारजी सम्पादक बने|इस प्रकार कई सम्पादक समयानुकूल बने और हटे| फिर टीकापट्टी निवासी श्री आनन्दजी सम्पादक बने|
काफी समय तक परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी का उपर्युक्त नाम ही प्रकाशित होता रहा| एक बार श्री आनन्दजी ने अग्यात प्रेरणावश सोचा कि जब महर्षि अरविन्द,महर्षि रमण और महर्षि वेदव्यास आदि नाम महर्षि की उपाधि से विभूषित होकर जगतविख्यात हो सकता है,तो हमारे परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी का नाम महर्षि से विभूषित क्यों नहीं हो सकता है|
उन्होंने बिना किसी की सलाह और समर्थन लिए ही पत्रिका में परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी का नाम "महर्षि" और "परमहंस" से संयुक्त कर "महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज" छपवा दिया|
संयोगवश वह पत्रिका किसी के द्वारा परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी के हाथ लग गई| उलट-पलटकर देखने के क्रम में जैसे ही उनकी निगाह उक्त उपाधियों से विभूषित अपने नाम पर पड़ी,वैसे ही इनका भयंकर रौद्री रोष प्रकट हो गया|सामने जाने की हिम्मत किसी की नहीं हो रही थी| श्रीआनंदजी तो आश्रम छोडकर ही पलायन कर गये|

परिणाम यह हुआ कि पत्रिका-प्रकाशन का कार्य दीर्घ समय तक स्थगित हो गया| फिर उस समय के 'अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महासभा' के महामंत्री श्री लक्ष्मी प्रसाद चौधरी 'विशारद' जी ने तमाम संतमत-सत्संगियों का प्रतिनिधि बनकर एवं स्वयं भी श्रद्धापूरित होकर डरे हुए से परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी के पास जाकर प्रार्थना की- "हुजूर! पत्रिका प्रकाशन का कार्य बंद हो चूका है| सत्संगियों को इस अभाव की हार्दिक पीड़ा है| दूसरी बात यह है कि हुजूर का जो नाम पत्रिका में छप चूका है,उसको बदलने से सत्संगियों की आस्था पर ठेस पहुँचेगी और सब के सब दुखी हो जाएँगे|
अत: हुजूर से प्रार्थना है कि जो हो गया,उसके लिए हम भक्तों को क्षमा-दान कर पत्रिका-प्रकाशन के लिए स्वीकृति देने की कृपा की जाय|"
उपर्युक्त प्रार्थना के समय परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी अपने युगल कमल नेत्रों को बंद कर मौन बने रहे| तभी से इनके नाम में "महर्षि" और "परमहंस" की उपाधियाँ लगने लगी|
इन्हें बड़े-बड़े विद्वान लोग महान-से महान और अति पावन उपाधि देकर भी तृप्त नहीं होते थे| इनके महिमामय व्यक्तित्व और कृतित्व के सामने सभी उपाधियाँ निरा पंगु ही लगती थी|
इनमें इतनी अहंकार-शून्यता थी की एक बार गैदुहा सत्संग में एक महिला इन्हें प्रणाम निवेदित करती हुई बोली- 'स्वामीजी! मुझको आशीर्वाद दीजिए!' यह सुनकर गुरू महाराज ने उस महिला पर खूब गुस्साये, और कहा- "मैं तुम्हारा स्वामीजी हूँ,मैं तो दास का भी दास नहीं हूँ|" और कहकर रोने लगे|
वास्तव में जो पुरूष तीनों अवस्थाओं को पारकर तुरियातीत-अवस्था को प्राप्त किये होते हैं,अर्थात् नि:शब्द-परम-पद को प्राप्त किये होते हैं,वे किसी उपाधि या पद-प्रतिष्ठा के बंधन में नहीं होते हैं| इससे तो उन्हें तकलीफ ही होतीे है|


किसी संत ने बड़ा अच्छा कहा है-
"मान-बड़ाई जबसे आइ,तबसे किस्मत फूटी|"

परम-पद को प्राप्त किये हुए भी हमारे गुरू महाराज अपने को हमेशा "मोरी मति अति नीच अनाड़ी" तथा "मोको सम कौन कुटिल खल कामी|" कहा करते थे| ये उनकी अहंकार-शून्यता नहीं थी तो क्या थी?

परन्तु, आजकल तीन अवस्थाओं में पड़े रहनेवाले महात्माओं में भी अपने आप को "स्वामी", "महर्षि" "परमहंस" इत्यादि उपाधि पाने के लिए होड़ सी लगी हुई है| वे अपने आप को इन उपाधियों से महिमामंडित होने पर फूले नहीं समाते हैं|
जबकि परमाराध्य श्रीसद्गुरू महाराजजी 5.4.1977 ई0 को महेश योगी के आश्रम  ऋषिकेश में कहने की कृपा की थी-
..."महर्षि मेँहीँ हम कभी नहीं| महर्षि नाम से हम बहुत डरते हैं| अगर कोई मुझे महर्षि कह देते हैं,तो मैं अपने को बहुत लज्जा मानता हूँ|"
एक बार संत की उपाधि के लिए भी कहने की कृपा की थी-
..."मैं अपने को संत नहीं मानता; क्योंकि पूरे संत से एक चींटी को भी कष्ट नहीं होता| मेरे नहीं चाहने पर भी बहुतों को कष्ट हो जाता है|"
ऐसे महान विभूति थे हमारे परमाराध्य "श्रीसद्गुरू महाराज"|
(बोलिए प्रेम से श्री सद्गुरू महाराज की जय)
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बुधवार, 19 सितंबर 2018

ईश्वर का साकार दर्शन करने के बाद मोह हो सकता है... | Eshwar darshan ke baad moh ho sakta hai | Santmat-Satsang


ईश्वर का साकार दर्शन करने के बाद मोह हो सकता है, काम, क्रोध, कपट, बेईमानी रह सकती है। कैकेयी, मंथरा, शूर्पणखा, दुर्योधन, शकुनि आदि ईश्वर का दर्शन करते थे फिर भी उनमें दुर्गुण मौजूद थे क्योंकि भगवान का दर्शन आत्मरूप से कराने वाले सदगुरूओं का संग उन्होंने नहीं किया।
शरीर की आँखों से भले ही कितना भी दर्शन करें, लेकिन जब तक ज्ञान की आँख नहीं खुलती तब तक आदमी थपेड़े खाता ही रहता है। दर्शन तो अर्जुन ने भी किये थे श्री कृष्ण के, परंतु जब श्रीकृष्ण ने उपदेश देकर कृष्ण तत्त्व का दर्शन कराया तब अर्जुन कहता है:

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितिऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।

'हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और स्मृति प्राप्त हो गई है। मैं सन्देह रहित होकर स्थित हूँ। अब मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।' (गीताः18.73)

शिवजी का दर्शन हो जाय, राम जी का हो जाय या श्री कृष्ण का हो जाय लेकिन जब तक सदगुरू आत्मा-परमात्मा का दर्शन नहीं कराते तब तक काम, क्रोध, लोभ, मोह, पाखंड और अहंकार रह सकता है। सदगुरू के तत्त्वज्ञान को पाये बिना इस जीव की, बेचारे की साधना अधूरी ही रह जाती है। तब तक वह मन के ही जगत् में ही रहता है और मन कभी खुश तो कभी नाराज। कभी मन में मजा आया तो कभी नहीं आया।
इसलिये कबीर साहब ने कहा है;

भटक मूँआ भेदू बिना पावे कौन उपाय।
खोजत-खोजत जुग गये, पाव कोस घर आय।।

यह जीव चाहता है तो शांति, मुक्ति और अपने नाथ से मिलना। मृत्यु आकर शरीर छीन ले और जीव अनाथ होकर मर जाय उसके पहले अपने नाथ से मिलना चाहिए, परंतु मन भटका देता है बाहर की, संसार की वासनाओं में। कोई-कोई भाग्यशाली होते हैं वे ही दान-पुण्य करना समझ पाते होंगे। उनसे कोई ऊँचा होता होगा वह सत्संग में आता है और उनसे भी ऊँचाई पर जब कोई बढ़ता है तब वह सत्यस्वरूप आत्मा परमात्मा में पहुँचता, उसे परम शांति मिलती है, जिस परम शांति के आगे, इन्द्र का वैभव भी कुछ नहीं।

आपूर्यमाणचलं प्रतिष्ठं, समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।

'जैसे जल द्वारा परिपूर्ण समुद्र में सम्पूर्ण नदियों का जल चारों ओर से आकर मिलता है पर समुद्र अपनी मर्यादा में अचल प्रतिष्ठित रहता है, ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्य में विकार उत्पन्न किये बिना ही उसको प्राप्त होते हैं, वही मनुष्य परम शांति को प्राप्त होता है, भोगों की कामना वाला नहीं।' (गीताः 2.70)

जैसे समुद्र में सारी नदियाँ चली जाती हैं फिर भी समुद्र अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता, सबको समा लेता है, ऐसे ही उस निर्वासनिक पुरूष के पास सब कुछ आ जाय फिर भी वह परम शांति में निमग्न पुरूष ज्यों का त्यों रहता है। ऐसी अवस्था का ध्यान कर अगर साधन-भजन किया जाय तो मनुष्य शीघ्र ही अपनी उस मंजिल पर पहुँच ही जाता है।
।।जय गुरु महाराज।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

मंगलवार, 18 सितंबर 2018

ध्यानाभ्यासी सुख-दुख दोनों सहते रहते हैं | जिनके जीवन में आत्मशांति प्राप्त करने की रूचि व तत्परता है, वे इस पृथ्वी के देव ही हैं | Santmat-Satsang

ध्यानाभ्यासी  सुख-दु:ख दोनों- सहते रहते हैं!
शरीर में बरतते हुए प्रारब्ध का भोग नहीं हो, कब संभव है? कितना ही ध्यान में चढ़ा हो, उसका फल भोगना ही पड़ेगा; किंतु उसका भोग वैसा होगा, जैसे कोई मद्य या भांग पीनेवाला मस्त हो जाता है, तब कहीं चोट लगने से उसका दर्द उसे कम मालूम होता है। डॉक्टर किसी रोगी को क्लोरोफॉर्म देकर चीर-फाड़ करता है; किंतु उसका दर्द उसे मालूम नहीं होता है, उसी प्रकार भजन के नशे में उसे कर्मफल- भोग का दु:ख और सुख कभी कम और कभी कुछ भी मालूम नहीं होता। संसार का सुख भी उसे आकर्षित नहीं करता। वह सुख को सह लेता है। साधारण लोग सुख नहीं सह सकते, दु:ख को भले ही सह लें। सांसारिक सुख में लिप्त होना और अहंकारी बनना, सुख नहीं सह सकना है,  किंतु ध्यानाभ्यास- द्वारा ऊर्ध्वगति होती है और  अभ्यासी कर्म-मंडल को पार कर जाता है, उसका कर्म-बीज जल जाता है और उसके तीनों कर्म नष्ट हो जाते हैं। -महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज

जिनके जीवन में आत्मशांति प्राप्त करने की रूचि व तत्परता है, वे इस पृथ्वी के देव ही हैं। देव दो प्रकार के माने जाते हैं- एक तो स्वर्ग में रहने वाले और दूसरे धरती पर के देव। इनमें भी धरती पर के देव को श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि स्वर्ग के देव तो स्वर्ग के भोग भोगकर अपना पुण्य नष्ट कर रहे हैं जबकि पृथ्वी के देव अपने दान, पुण्य, सेवा, सुमिरन आदि के माध्यम से पाप नष्ट करते हुए हृदयामृत का पान करते हैं। सच्चे सत्संगी मनुष्य को पृथ्वी पर का देव कहा जाता है।

कबीर साहब के पास ईश्वर का आदेश आया कि तुम वैकुण्ठ में पधारो। कबीर जी की आँखों में आँसू आ गये। इसलिए नहीं कि अब जाना पड़ता है, मरना पड़ता है.... बल्कि इसलिए कि वहाँ सत्संग नहीं मिलेगा।

कबीर साहब लिखते हैं:-

राम   परवाना   भेजिया,   वाँचत   कबीरा   रोय।
क्या करूँ तेरी वैकुण्ठ को, जहाँ साध-संगत नहीं होय।।

।।जय गुरु।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम




शनिवार, 15 सितंबर 2018

मानव जीवन में आचरण का महत्व | Maanav Jeevan me aachran ka mahatva | Santmat-Satsang

मानव जीवन में आचरण का महत्व!
☘मानव जीवन में आचरण का बहुत महत्व है। शक्तिशाली इंसान भी निर्बल है, धनवान भी निर्धन है, महाज्ञानी भी अज्ञानी है, अगर जीवन में अच्छा आचरण अर्थात धर्म नही है। धर्म किसी व्यक्ति के आवरण से नहीं व्यवहार से प्रकट होता है।  मनुष्य जो  अपने लिए चाहता है, वही व्यवहार दूसरों के साथ भी करना चाहिए। धर्म जीवन में प्रवेश करता है तो शान्ति देता है। धनी होना सौभाग्य की बात है मगर परम सौभाग्य तब होगा जब हम धार्मिक बनेंगे। धार्मिक आदमी की पहचान है जो खुद भी सुख से जीता है और दूसरों को भी सुख से जीने देता है। दूसरों का सुख नहीं छीनता। अपने किये खोटे कर्मो के प्रति प्रायश्चित करता है हे इश्वर जो हो गया सो गया अब बदल रहा हूं। आदमी का कर्म ही धर्म तक जाने वाला रास्ता है। धर्म इंसानियत के विकास मे सहायक होता है।

जीवन में धार्मिकता लाने के लिए :-
ऐसा नही कमाना, पाप हो जाए
ऐसा नही बोलना, क्लेश हो जाए
ऐसा नही खर्चना, कर्ज हो जाए
ऐसा नही खाना, मर्ज हो जाए

"तन पवित्र सेवा किए, धन पवित्र कर दान।
मन पवित्र हरि भजन कर, होत त्रिविध कल्याण।।"

जय गुरु महाराज
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम, हरियाणा
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सत्संग का निवेदन व आमंत्रण | Request and invitation of Satsang | Santmat-Satsang | Maharshi-Mehi | SANTMEHI | SADGURUMEHI

सत्संग का निवेदन व आमंत्रण
हर मनुष्य चाहता है कि वह स्वस्थ रहे, समृद्ध रहे और सदैव आनंदित रहे, उसका कल्याण हो। मनुष्य का वास्तविक कल्याण यदि किसी में निहित है तो वह केवल सत्संग में ही है। सत्संग जीवन का कल्पवृक्ष है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है:-


बिनु सत्संग विवेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।
सतसंगत मुद मंगल मूला।
सोई फल सिचि सब साधन फूला।।

'सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्रीरामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में नहीं मिलता। सत्संगति आनंद और कल्याण की नींव है। सत्संग की सिद्धि यानी सत्संग की प्राप्ति ही फल है। और सब साधन तो फूल हैं।'
सत्संग की महत्ता का विवेचन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास आगे कहते हैं-
एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साधु की हरे कोटि अपराध।।

आधी से भी आधी घड़ी का सत्संग यानी साधु संग करोड़ों पापों को हरने वाला है। अतः

करिये नित सत्संग को बाधा सकल मिटाय।
ऐसा अवसर ना मिले दुर्लभ नर तन पाय।।

हम सबका यह परम सौभाग्य है कि हजारो-हजारों, लाखों-लाखों हृदयों को एक साथ ईश्वरीय आनन्द में सराबोर करने वाले, आत्मिक स्नेह के सागर, सत्यनिष्ठ सत्पुरूष पूज्यपाद महर्षि हरिनंदन परमहंस जी महाराज  सांप्रत काल में समाज को सुलभ हुए हैं।
आज के देश-विदेश में घूमकर मानव समाज में सत्संग की सरिताएँ ही नहीं अपितु सत्संग के महासागर लहरा रहे हैं। उनके सत्संग व सान्निध्य में जीवन को आनन्दमय बनाने का पाथेय, जीवन के विषाद का निवारण करने की औषधि, जीवन को विभिन्न सम्पत्तियों से समृद्ध करने की सुमति मिलती है। इन महान विभूति की अमृतमय योगवाणी से ज्ञानपिपासुओं की ज्ञानपिपासा शांत होती है, दुःखी एवं अशान्त हृदयों में शांति का संचार होता है एवं घर संसार की जटिल समस्याओं में उलझे हुए मनुष्यों का पथ प्रकाशित होता है।

हमारे कर्म बंधनकारी भी हो सकते हैं और मुक्ति प्रदाता भी !
हमारा हर वो कर्म जो अहं भाव व स्वार्थ से प्रेरित होगा वह बंधनकारी होगा !
हमारा हर वो कर्म जो साक्षी भाव से, निस्वार्थ, बिना आसक्ति से अर्थात कर्तापन के अहंकार से मुक्त है वह मोक्षदायक होगा !
मोक्ष-परम आनंद में प्रवेश,संपूर्ण मानसिक शांति तथा विक्षेपों का अंत है!

।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...