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रविवार, 14 अक्तूबर 2018

सेवा की भावना-अनेक सद्गुणों के कारण मनुष्य जीवन की महत्ता मानी गई है | SANTMAT-SATSANG | SEWA | MAHARSHI MEHI SWA TRUST

सेवा की भावना
अनेक सद्गुणों के कारण मनुष्य जीवन की महत्ता मानी गई है। उनमें से एक महत्वपूर्ण गुण है-सेवा। एक-दूसरे के प्रति सद्भाव, एक दूसरे के व्यक्तित्व का आदर, समस्याओं को सुलझाने में सहयोग और समर्पण-ये सब सेवा के रूप हैं। ये अहिंसा और दया के ही विभिन्न पथ हैं। भगवान महावीर स्वामी का यह कथन महत्वपूर्ण है कि मेरी उपासना से भी अधिक महान है-किसी वृद्ध, रुग्ण और असहाय की सेवा करना। सेवा से व्यक्ति साधना के उच्चतम पद को भी प्राप्त कर सकता है। मानव में यदि परस्पर सहयोग की आकांक्षा नहीं है तो एक पत्थर और उसमें कोई अंतर नहीं रह जाता। एक पत्थर के टुकड़े को यदि हम तोड़ते हैं तो क्या पास में पड़े दूसरे पत्थर की कोई दया और संवेदना की प्रतिक्रिया होती है? परंतु यदि मानव के समक्ष ऐसा हो और यदि उसकी चेतनता विकसित है तो संवेदना अवश्य होगी। अगर ऐसी परिस्थितियों में मानव की चेतना में कोई अनुकंपन नहीं है तो उसमें प्राणों का स्पंदन भले ही हो, पर मानवीय चेतना का स्पंदन अभी नहीं हुआ है। आज समाज में मानवीय चेतना का स्पंदन भौतिकता के भार तले दमित होता जा रहा है। परिणामत: विश्व में आज आतंकवाद का बोलबाला हो रहा है। मनुष्य की चेतना आज पाशविक चेतना में परिवर्तित हो गई है। किसी संस्कृति में जीवन के संकल्प जितने विराट होंगे उतने ही उदात्त आदर्श होंगे। हमारी मानवीय चेतना भी उतनी ही विकसित होगी।

भारतीय संस्कृति में सेवा, समर्पण और सद्भाव के विराट आदर्श प्रस्तुत किए गए हैं। यहां व्यक्ति का मूल्यांकन धन-ऐश्वर्य और सत्ता के आधार पर नहीं, सेवा व सद्गुणों के आधार पर किया गया है। हमारा तत्वचिंतन यह नहीं पूछता है कि तुम्हारे पास सोने-चांदी का कितना ढेर है? बल्कि वह पूछता है कि तुमने अपने ऐश्वर्य को जन-जीवन के लिए कितना अर्पित किया है? पद एवं सेवा का उपयोग जनसेवा के लिए कितना किया है? हाथ का महत्व हीरे और पन्ने की अगूंठियां पहनने में नहीं, बल्कि हाथ से दान करने में है। सेवा से आत्मा में परमात्मा का दर्शन होता है। सेवा के लिए अपनी सुख-वृत्ति को तिलांजलि देनी पड़ती है। इस कारण सेवा एक बड़ा तप है। अपनी इच्छाओं का संयमन किए बगैर कोई कैसे किसी की सेवा कर सकता है? सेवा के लिए वैयक्तिक सुखों का त्याग करना पड़ता है। सेवा के समान कोई धर्म नहीं है। वास्तव में सेवा मानवता का सर्वोच्च लक्षण है।

।। जय गुरु ।।

सेवा है मानव जीवन का सौन्दर्य | यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था- 'लोक में श्रेष्ठ धर्म क्या है? | SANTMAT-SATSANG | SANTMEHI | SADGURUMEHI

सेवा है मानव जीवन का सौंदर्य;

यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था- 'लोक में श्रेष्ठ धर्म क्या है? इसके उत्तर में युधिष्ठिर ने कहा था- 'समाज और संसार में दया ही श्रेष्ठ धर्म है।' अगर अपने से दीन-हीन, असहाय, अभावग्रस्त, आश्रित, वृद्ध, विकलांग, जरूरतमंद व्यक्ति पर दया दिखाते हुए उसकी सेवा और सहायता न की जाए, तो समाज भला कैसे उन्नति करेगा? सच तो यह है कि सेवा ही असल में मानव जीवन का सौंदर्य और शृंगार है। सेवा न केवल मानव जीवन की शोभा है, अपितु यह भगवान की सच्ची पूजा भी है। भूखे को भोजन देना, प्यासे को पानी पिलाना, विद्यारहितों को विद्या देना ही सच्ची मानवता है। सेवा से मिलता मेवा: दूसरों की सेवा से हमें पुण्य मिलता है- यह सही है, पर इससे तो हमें भी संतोष और असीम शांति प्राप्त होती है। परोपकार एक ऐसी भावना है, जिससे दूसरों का तो भला होता है, खुद को भी आत्म-संतोष मिलता है। मानव प्रकृ ति भी यही है कि जब वह इस प्रकार की किसी उचित व उत्तम दिशा में आगे बढ़ता है और इससे उसे जो उपलब्धि प्राप्त होती है, उससे उसका आत्मविश्वास बढ़ता है। सौ हाथों से कमाएं, हजार हाथों से दान दें: अथर्व वेद में कहा गया है 'शतहस्त समाहर सहस्त्र हस्त सं किर'। अर्थात् हे मानव, तू सैकड़ों हाथों से कमा और हजारों हाथों से दान कर। प्रकृति भी मनुष्य को कदम-कदम पर परोपकार की यही शिक्षा देती है। हमें प्रसन्न रखने और सुख देने के लिए फलों से लदे पेड़ अपनी समृद्धि लुटा देते हैं। पेड़-पौधे, जीव-जंतु उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं और मानव का जितना भी उपकार कर सकते हैं, करते हैं तथा बाद में प्रकृति में लीन हो जाते हैं। उनके ऐसे व्यवहार से ऐसा लगता है कि इनका अस्तित्व ही दूसरों के लिए सुख-साधन जुटाने के लिए हुआ हो। सूर्य धूप का अपना कोष लुटा देता है और बदले में कुछ नहीं मांगता। चंद्रमा अपनी शीतल चांदनी से रात्रि को सुशोभित करता है। शांति की ओस टपकाता है और वह भी बिना कुछ मांगे व बिना किसी भेदभाव के। प्रकृति बिना किसी अपेक्षा के अपने कार्य में लगी है और इससे संसार-चक्र चल रहा है। दया है धर्म, परपीड़ा है पाप: दूसरों के साथ दयालुता का दृष्टिकोण अपनाने से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। इसी तरह अगर किसी को अकारण दुख दिया जाता है और उसे पीड़ा पहुंचाई जाती है, तो इसके समान कोई पाप नहीं है। ऋषि-मुनियों ने बार-बार कहा है कि धरती पर जन्म लेना उसी का सार्थक है, जो प्रकृति की भांति दूसरों की भलाई करने में प्रसन्नता का अनुभव करे। एक श्रेष्ठ मानव के लिए सिर्फ परोपकार करना ही काफी नहीं है, बल्कि इसके साथ-साथ देश और समाज की भलाई करना भी उसका धर्म है। बेशक, आज के युग में भी कुछ ऐसे लोग हैं, जो अपने सुखों को छोड़कर दूसरों की भलाई करने में और दूसरों का जीवन बचाने में अपना जीवन होम कर रहे हैं, पर साथ ही, कुछ ऐसे अभागे इंसान भी हैं, जिन्हें आतंक और अशांति फैलाने में आनंद की अनुभूति होती है। ऐसे लोग मानव होते हुए भी क्या कुछ खो रहे हैं, इसका उन्हें अहसास नहीं है। सबका हित, अपना हित: गीता (12.4) में लिखा है, 'जो सब प्राणियों का हित करने में लगे हैं, वे मुझे ही प्राप्त करते हैं।' विद्वान लोग विद्या देकर, वैद्य और डॉक्टर रोगियों की चिकित्सा करके, धनी व्यक्ति निर्धनों की सहायता करके तथा शेष लोग अपने प्रत्येक कार्य से सभी का हित करें, तो धरती पर मौजूदा सभी प्राणियों का भला हो सकता है। यही सच्ची भक्ति है। 'सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय'- इस भाव को अपनाकर ही देश और समाज का भला हो सकता है। चाणक्य ने कहा था- 'परोपकार ही जीवन है। जिस शरीर से धर्म नहीं हुआ, यज्ञ न हुआ और परोपकार न हो सका, उस शरीर का क्या लाभ?' सेवा या परोपकार की भावना चाहे देश के प्रति हो या किसी व्यक्ति के प्रति, वह मानवता है। इसलिए हर व्यक्ति को यह समझना होगा कि परोपकार से ही ईश्वर प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
।। जय गुरु ।।

होना है जिस देह को, पंचतत्व में विलीन | HONA HAI DEH KO PANCHTATVA ME VEELIN | SANTMAT-SATSANG

होना है जिस देह को, पंचतत्व में लीन।

होना है जिस देह को, पंचतत्व में लीन।
उसको साज संवारने, क्यों ? रहा कन्डे बीन।।
कर पाए तो शीघ्र कर, इससे अब सत्काम।
वरना यह मलमूत्र का, भांडा "रोटीराम "।।
भोजन-निद्रा -भोग तो, हम अरु पशु समान।
यह तन तब ही दिव्य है, जब जापे भगवान।।
गर नहीं आज विवेक से, ले पाया तू काम।
तो सौ प्रतिशत sure है, पुनर्जन्म पशुचाम।।

(नीति शतक) में लिखा है कि, 
आहार - निद्रा - भय मैथुनम् च, सामान्य मेतत् पशु भिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषा मधिको विशेषो, धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।।

आहार - निद्रा - भय और मैथुन तो पशु शरीर और मानव शरीर में एक समान ही है, मनुष्य  को जो विवेक रूपी निधि मिली हुई है, बस  वही हमें पशुओं से अलग करती है।
विवेक का  इस्तेमाल करके हम तो सत्कर्मों के द्वारा धर्म पथ पर चल कर परमात्म तत्व को पा सकते हैं, पशु नहीं। इसलिए अगर मनुष्य तन पाकर भी अगर  हमने इस शरीर को यूँ हीं गँवा दिया तो, हममें और पशु में क्या ? अंतर रह गया।
।। जय गुरु ।।

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2018

एक प्रेरणा: एक कौआ जंगल में रहता था ...

|| एक प्रेरणा ||
एक कौआ जंगल में रहता था और अपने जीवन से संतुष्ट था...
एक दिन उसने एक हंस को देखा......
"यह हंस कितना सफ़ेद है,कितना सुन्दर है...मन ही मन उसने सोचा"......

उसे लगा यह सुन्दर हंस संसार का सबसे सुखी पंछी होगा, जबकि मैं कितना काला हूँ.....
यह सोच कर,अब तक, अपने जीवन को संतुष्टि से गुज़ारने वाला कौआ परेशान हो उठा, उससे रहा नहीं गया और उसने अपने मनोभाव हंस को बताये....
हंस बोला नहीं मित्र वास्तविकता ऐसी है, कि पहले मैं ख़ुद को आसपास के सभी पक्षियों में सुखी समझता था किन्तु जब मैंने तोते को देखा तो पाया उसके दो रंग हैं और वह कितना मीठा बोलता है, तबसे मुझे लगा सब पंछियों में तोता ही सुन्दर तथा सुखी है...
अब कौआ तोते के पास गया....
तोते ने कहा,
मैं सुखी जीवन जी रहा था, लेकिन जब मैंने मोर को देखा तब मुझे लगा मुझमें तो दो ही रंग हैं परंतु मोर तो विविधरंगी है..
भाई मुझे तो मोर ही सर्वाधिक सुखी लगता है...
कौआ उड़ कर प्राणी संग्रालय गया, वहां कई पर्यटक मोर को देख कर उसकी ख़ूबसूरती की प्रसंशा कर रहे थे, जब सब दर्शक अन्यत्र गए, तो कौए ने मोर से पुछा मित्र तुम तो अति सुन्दर हो...
प्रतिदिन हज़ारों लोग तुम्हें देखने आते, तुमको देख कर खुश होते, जबकि मुझको देखते ही लोग मुझे उड़ा देते, कोई मुझे पसंद नहीं करता...
लगता है पृथ्वी पर हम सभी पक्षियों में तुम्ही सबसे ज्यादा सुखी हो....।
मोर ने गहरी सांस लेते हुए कहा..
मैं हमेशा सोचता था कि मैं   इस पृथ्वी पर अति सुन्दर हूँ,मैं ही अति सुखी हूँ परंतु मेरे सौंदर्य के कारण ही मैं यहाँ पिंजरे में कैद हूँ...
मित्र , मैंने सारे पंछी गौर से देखे, तो पाया कि सिर्फ कौआ ही ऐसा है जिसे पिंजरे में बंद नहीं किया जाता...
मुझे तो लगता काश मैं भी तुम्हारी तरह कौआ होता तो स्वतंत्रता से कहीं भी घूमता-उड़ता...सुखी रहता....।

बस यही है हमारी समस्या...
हम अनावश्यक ही दूसरों से अपनी तुलना किया करते और दुखी-उदास बनते हैं...
हम कभी भी,जो हमें प्रभु से मिला है, उसकी क़द्र नहीं करते, इसी के कारण दुःख के विषचक्र में फंसे रहते...
हमें प्रत्येक दिन भगवान् की भेंट समझ कर उसको धन्यवाद देते हुए जीना चाहिए...
तो शायद सम्पूर्ण जीवन सफल हो जाये।
प्यार से कहिये जी...
  जय गुरुदेव
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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सोमवार, 1 अक्तूबर 2018

संध्या वंदन है सभी का कर्तव्य | SANDHYA VANDAN SABHI KA KARTABYA | SANTMAT-SATSANG

संध्या वंदन है सभी का कर्तव्य;

'सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है।'☘

वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, गीता और अन्य धर्मग्रंथों में संध्या वंदन की महिमा और महत्व का वर्णन किया गया है। प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है संध्या वंदन करना। संध्या वंदन प्रकृति और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का माध्यम है। कृतज्ञता से सकारात्मकता का विकास होता है। सकारात्मकता से मनोकामना की पूर्ति होती है और सभी तरह के रोग तथा शोक मिट जाते हैं।

संध्या के समय मौन भी रहा जा सकता है और रहना भी चाहिए। इस समय के दर्शन मात्र से ही शरीर और मन के संताप मिट जाते हैं। संध्याकाल में भोजन, नींद, यात्रा, वार्तालाप और संभोग आदि नहीं किया जाना चाहिए! अर्थात इस समय में इन सब बातों का ध्यान रखकर संध्योपासना में लगकर आत्मकल्याण करना उत्तम कार्य है। संध्या वंदन में 'पवित्रता' का विशेष ध्यान रखना चाहिए। यही वेद नियम है। यही सनातन सत्य है। संध्या वंदन के नियम है। संध्‍या वंदन में प्रार्थना ही सर्वश्रेष्ठ मानी गई है।
जय गुरु

उदार हृदय के लिए संसार ही कुटुम्ब है | UDAAR HRIDAYA KE LIYE SANSAR HI KUTUMB HAI | SANTMAT-SATSANG

उदार हृदय के लिए संसार ही कुटुंब है;
कोशिश  करिए कि आप अजातशत्रु बन जाएं। इसके दो अर्थ हैं - पहला यह कि आप हमेशा शत्रुओं को पराजित करते हैं, ये सांसारिक अर्थ है।

आध्यात्मिक अर्थ है कि आपका कोई शत्रु ही नहीं होता। लेकिन फिर संसार कहता है जिसका कोई शत्रु नहीं होता, उसका कोई मित्र भी नहीं होता। दरअसल शत्रुता और मित्रता का संबंध यदि उद्योग, कर्म से जोड़ें तो अर्थ दूसरे होंगे। यदि इसमें भावना की बात करें तो मतलब बदल जाएंगे।

चलिए, एक रूपक पर विचार करते हैं। हमारे शरीर के कई हिस्से हैं जैसे हाथ-पैर, मन-मस्तिष्क आदि इंद्रियां। ऊपर से देखें तो इन सबके काम अलग-अलग हैं, लेकिन सब मिलकर परिणाम शरीर को देते हैं। कहीं न कहीं एक-दूसरे के हित में लगे हैं। यदि शरीर के अलग-अलग भाग एक-दूसरे को नुकसान पहुंचाने की वृत्ति में सक्रिय हो जाएं तो शरीर के लिए अहितकारी होता है।

इसी बात को संसार से जोड़ा जाए। जब हम अपने कार्यस्थल पर हों, तो साथियों के बीच ऐसा ही भाव रखें। आपके जितने भी वरिष्ठ व अधीनस्थ लोग हैं, उन्हें अपने शरीर के अंग मानकर व्यवस्था का हिस्सा बन जाएं। हमारे शास्त्रों में लिखा गया है कि जिनका हृदय उदार है, उनके लिए सारा संसार ही कुटुंब है। हममें और जानवरों में यही फर्क है। वे भी मिल-जुलकर रहते हैं, पर उसे झुंड कहते हैं। हम जब मिल-जुलकर रहते हैं तो हमने इसे कुटुंब कहा है। अपने कार्यालय को कुटुंब मानकर कार्य करें, तब आप अजातशत्रु हो जाएंगे। जैसे हमारे एक घर में कई घर शामिल होते हैं, हर सदस्य का अपना-अपना घर है, फिर भी कुटुंब का भाव सबको एक कर देता है।
हर एक के हृदयों में क्षमा, दया, शांति, तितिक्षा, शील, सौजन्‍यता, सच्‍ची आस्तिकता और उदारता का होना अनिवार्य हैं, तभी हम सच्‍चे सुहृदयी कहला सकते हैं।
जय गुरु

शनिवार, 29 सितंबर 2018

आशिर्वाद से आसान होती है सफलता | AASHIRWAD SE AASAAN HOTI HAI SAFALTA | SANTMAT-SATSANG

आशीर्वाद से आसान होती है सफलता;

विनम्रता  दूसरों को प्रभावित ही नहीं करती, बल्कि कई बार स्वयं को अहंकार में भी डुबो सकती है। विनम्रता से पैदा हुआ अहंकार बहुत ही सूक्ष्म होता है।

इसलिए जब कभी हम विनम्रता का व्यवहार कर रहे हों, इस बात में सावधान रहें कि जब दूसरे हमारी विनम्रता पर हमारी प्रशंसा करें तो हम प्रशंसा को कानों से हृदय में उतरने न दें। अपनी योग्यता को कहीं न कहीं परमात्मा की शक्ति से जोड़े रखें, तो अहंकार के खतरे कम हो जाते हैं।

सुंदरकांड में भगवान श्रीराम हनुमानजी की प्रशंसा कर रहे थे, तब हनुमानजी ने कहा- मेरा लंका जाना, उसे जलाना, लौटकर आना यह सब मेरे वश में नहीं है।


सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछु मोरि प्रभुताई।।

यह सब तो श्रीरघुनाथजी! आप ही का प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता कुछ भी नहीं है। संत बताते हैं कि भगवान श्रीराम ने हनुमानजी से पूछा था- फिर समुद्र किस शक्ति से लांघा।

हनुमानजी का जवाब था आपके द्वारा दी गई अंगूठी से। भगवान श्रीराम समझ गए, ये एक बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तर है। इसमें भक्त ने स्वयं को बचाया है और श्रेय परमात्मा को दे दिया है। तब भगवान श्रीराम ने याद दिलाया कि अंगूठी तो सीताजी को दे दी थी, फिर लौटकर कैसे आए? हनुमानजी समझ गए कि इस समय भगवान जमकर परीक्षा ले रहे हैं। उन्होंने तुरंत उत्तर दिया- आते समय माता सीता ने उनकी चूड़ामणि दी थी। उसी के सहारे लौटा हूं। इस प्रताप में मेरा स्वयं का कोई योगदान नहीं है।

बड़ी सुंदर बात हनुमानजी बताते हैं कि जब गया तो पिता की कृपा थी और जब लौटा तो मां का आशीर्वाद साथ था। जिनके साथ जीवन के संघर्ष में माता-पिता के आशीर्वाद होते हैं उनकी सफलताएं सरल हो जाती हैं।
जय गुरु
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...