आत्मा की पुकार - उस आत्मा की आवाज सुनना हम सबका कर्तव्य है।
महर्षि याज्ञवल्क्य अपनी समस्त सम्पत्ति को दोनों पत्नियों में बराबर बाँटकर गृह त्याग के लिए तैयार हुए। मैत्रेयी को सन्तोष नहीं हुआ, आखिर वह पूछ ही बैठी ‘‘भगवन् ! क्या मैं इस सबको लेकर जीवन- मुक्ति का लाभ प्राप्त कर सकूँगी ?’’ क्या मैं अमर हो जाऊँगी? आत्मसन्तोष प्राप्त कर सकूँगी ?’’ महर्षि ने कहा- ‘‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकेगा। साधन- सुविधा सम्पन्न सुखी जीवन जैसा तुम्हारा अब तक रहा, इसी तरह आगे भी चलता रहेगा। अन्य सांसारिक लोगों की तरह तुम भी अपना जीवन सुख- सुविधा के साथ बिता सकोगी। ’’
मैत्रेयी का असन्तोष दूर नहीं हुआ और वे बोलीं ‘‘येनाहंनामृतास्यां किमहं तेन कुर्याम ?’’ ‘‘ जिससे मुझे अमृतत्व प्राप्त न हो, उसे लेकर मैं क्या करूँगी? देव ! मुझे यह सुख- सुविधा सम्पन्न सांसारिक जीवन नहीं चाहिए।’’
(बृहदारण्यक उप०- २.४.३)
‘‘तो फिर तुम्हें क्या चाहिए ’’ महर्षि ने जैसे ही पूछा मैत्रेयी की आँखों से अश्रुधारा बह निकली। उसका हृदय सम्पूर्ण भाव से उमड़ पड़ा। महर्षि के चरणों में शिर झुकाते हुए बोलीं- ‘‘असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृतंगमय।’’
‘‘हे प्रभो ! मुझे असत्य से सत्य की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर गति प्रदान करें। मैत्रेयी ने महर्षि के सान्निध्य में सुख- समृद्धि, सम्पन्नता का जीवन बिताया था, किन्तु उसके अन्तस् का यह प्रश्न अभी तक अधूरा था। उसका समाधान अभी तक नहीं हो पाया था। हम जीवन भर नाना प्रकार की सम्पत्ति, वैभव एकत्र करते हैं। आश्रय, धन, बहुमूल्य सामग्री जुटाते हैं और अन्तस् में स्थित मैत्रेयी को सौंपते हुए कहते हैं ‘‘लो ! इससे तुम्हें प्रसन्नता होगी, आनन्द मिलेगा। ’’ किन्तु अन्तस् में बैठी मैत्रेयी कहती है, ‘‘येनाहं नामृतास्यां किमहं तेन कुर्याम्।’’ इन सब सामग्रियों में जीवन के शाश्वत प्रश्न का समाधान नहीं मिलता।
ऊँचे से ऊँचे पद प्राप्त करते हैं। अखबारों से लेकर दूरदर्शन में छाये रहते हैं। अन्तरात्मा से कहते हैं लो! तुम्हारा तो बड़ा सौभाग्य है। पूरी दुनिया तुम्हें याद कर रही है, किन्तु अन्तरात्मा कहती है ‘‘येनाहं नामृतास्यां किमहं तेन कुर्याम्?’’ आत्मा निरन्तर छटपटाती रहती है, उस महत्त्वपूर्ण तथ्य की प्राप्ति के लिए जो उसे सत्य, प्रकाश, अमृत की प्राप्ति करा सके, दुःखों से छुटकारा दिलाकर आनन्दमय बना सके। मैत्रेयी चाहती थी उस परम तत्त्व का साक्षात्कार जो सत्य, ज्योतिर्मय स्वरूप है। मैत्रेयी ने अपने अनुभव की कसौटी पर जान लिया था कि संसार और इसके सारे पदार्थ, सम्बन्ध, नाते- रिश्ते मरणशील हैं। भौतिक पाप- तापों की पीड़ा जीव को सदा ही अशान्त, भयभीत बनाए रखती है। इसलिए मैत्रेयी को किसी ऐसी वस्तु की अभिलाषा थी, जो नाशवान् न हो तथा अन्धकार से सर्वथा मुक्त हो। अन्तस् में विराजमान मैत्रेयी की अन्तरात्मा की इस प्रार्थना को हम एकाग्रता के साथ सुनें। ‘‘येनाहं नामृतास्यां किमहं तेन कुर्याम्?’’ यह हमारा जीवन मन्त्र बन जाय। मैत्रेयी की आकुलता देखकर आत्मतत्त्व का विश्लेषण करते हुए याज्ञवल्क्य ने भी यही कहा था। ‘‘आत्मा वा अरे मैत्रेयी ! दृष्टव्यः श्रोतव्य मन्तव्यो निदिध्यासितव्ये ’’
अरे मैत्रेयी ! आत्मा ही देखने योग्य, सुनने योग्य, मनन करने योग्य और पाने योग्य है। (बृहदारण्यक उप० ४.५.६)
उस आत्मा की आवाज सुनना हम सबका कर्तव्य है।
।। जय गुरु ।।
शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम