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बुधवार, 30 मई 2018

संतों की पहचान | SANT | Santon ki pahchan | Santmat | Santmat Satsang |

|| संत ||

☘संतों की पहचान कोई अध्यात्म ज्ञान को जानने वाला सेवक ही कर सकता है। इनका सम्पूर्ण जीवन व सभी कर्म दूसरों के लिए हैं। जैसे स्वाति बूंद अम्बर से गिरकर सीप के मुख में गिरती है तभी सीप मोती बनाता है। जिस प्रकार चन्दन की खुशबू हवा के द्वारा वन के अन्य वृक्षों की दुर्गन्ध को बदलकर उसको भी सुगनिधत कर देती है तथा सम्पूर्ण वन चन्दनमय हो जाता हैं उसी प्रकार संत भी परमात्मा की अमृत रूपी खुशबू को श्रद्धावान मानव के जीवन में प्रकट करके उसे सुगंधित कर देते हैं। सच्चे संत मधुमक्खी की तरह होते हैं जैसे मक्खी तो कर्इ प्रकार की होती हैं किन्तु मधुमक्खी के अलावा अन्य मकिखयाँ फूल से शहद एकत्र नहीं कर सकती बलिक उसे गंदा कर देती हैं तथा भोजन पर बैठने से उसे भी गंदा कर देती हैं जिससे कर्इ प्रकार की बीमारियां हो जाती हैं। जबकि मधुमक्खी फूल से शहद उठाती है। मधुमक्खी अपने मल-मूत्र, बच्चों एवं शहद को एक ही छत्ते में रखती है फिर भी उसके शहद को औषधि के रूप में कर्इ प्रकार के रोगों के निवारण हेतु प्रयोग किया जाता है इसी प्रकार संत योग साधन करके अपने जीवन रूपी फूल में शहद रूपी अमृत की खुशबू को प्रकट करते हैं तथा सदा परमानन्द में रमण करते हैं तथा उनके सानिध्य में जो भी श्रद्धावान मानव पहुंचता है। वह उनसे ''अध्यात्म सत्संग सुनकर जिज्ञासु बनकर विनम्र प्रार्थना करके एवं तन-मन-धन से सेवा करके ''अध्यात्म ज्ञान को प्राप्त करता है तथा वे उस जिज्ञासु को भी उसी ''सुमिरण साधन का अभ्यास बताते हैं जिसके द्वारा उन्होंने अपने जीवन में अमृत खुशबू को प्राप्त किया। जिससे वह अपने जन्म-जन्मान्तरों के कर्म संस्कारों के मृत्यु रोग को जीते जी में मिटाकर अपने आप को जीवन मुक्त कर लेता है। रेशम का कीड़ा अपनी लार थूक के रेशम का धागा तैयार करता है इस रेशम के धागे से बने वस्त्रों से अन्य मनुष्यों की शोभा एवं सुन्दरता बढ़ती है। रेशम को कीड़ा स्वयं अपने प्रयोग में नहीं लेता है उसी प्रकार संत का सम्पूर्ण जीवन व सभी कर्म दूसरों के लिए होते हैं क्योंकि इनके पूर्व जन्मों के संस्कार ज्ञानमय रहे होते हैं। सबका जन्म गृहस्थ में ही हेाता है तथा ''अध्यात्म ज्ञान सम्बन्धी पूर्व जन्मों के कर्म संस्कार सभी में रहते हैं किन्तु मानव को अध्यात्म ज्ञान प्राप्त हेाते ही पूर्व जन्म के कर्म संस्कार तथा सेवा, सत्संग व साधन के कर्म संस्कार भी जुड़ जाते हैं तब पूर्ण साधक की प्रबल धारणा बनकर संसार से विमुख होकर परमात्मा की ओर बहने लगती है। जैसे एक नदी की तीव्र धारा मिटटी को कटान करके अपनी पुरानी धारा से विमुख होकर अन्य दिशा में बहने लगती है तथा पुरानी दिशा में एक बूंद भी नहीं बहती है। इसी प्रकार संतों के ज्ञान सम्बन्धी योग साधन किये हुए पूर्व कर्म संस्कार बहुत मजबूत एवं शकितशाली होते हैं तथा उनकी परमात्मा में धारणा, ध्यान व समाधि स्वत: हो जाती है। ऐसे संत का जीवन कांच के गिलास की तरह होता है जिसके बाहर भीतर स्पष्ट दिखायी देता है। जैसे वृक्ष अपने फल दूसरों को ही प्रदान करता है स्वयं ग्रहण नहीं करता। इसी प्रकार संत भी समदर्शी सेवक बनकर समाज के अशान्त मानव को शान्ति पहुंचाते हैं। सांसारिक गृह को त्यागकर ब्रह्राचरित्र का पालनकर मानव के अन्दर इस पवित्र ''अध्यात्म ज्ञान का प्रत्यक्ष बोध कराते हैं। इस प्रकार इनके द्वारा दिया हुआ ज्ञान ही सेवक में फलीभूत होता है। ''अध्यात्म ज्ञान” के अभाव में आज के मानव में अशान्ति एवं आतंक का वातावरण छाया हुआ है। संत ही मानव के जीवन में स्थायी शान्ति का वातावरण स्थापित कर सकते हैं। जैसे एक सूर्य सम्पूर्ण सौर मंडल को प्रकाशित करता है उसी प्रकार महात्मा की आत्मा परमात्मा के योग से 'अध्यात्म’ सूर्य बनकर अन्य भटकी हुर्इ जीवात्माओं के अंधकारमय जीवन को प्रकाशित कर देती है। जैसे तीन नदियों के संगम होने पर उनके पानी को अलग-अलग नहीं किया जा सकता है उसी प्रकार परमात्मा, महात्मा की आत्मा तथा जीवात्मा का ज्ञान से संयोग हो जाने पर उन्हें अलग-अलग नहीं किया जा सकता है। यही अमर ज्ञान है। जय गुरु।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता
गुरुग्राम, हरियाणा

सोमवार, 28 मई 2018

इंसान की पहचान पहनावे से नहीं, कर्म से होती है I Insaan ki pahchan pahnave se nahi karm se hoti hai | Santmat Satsang | जीवन में कोई भी पाप व बुरे कर्म नहीं करने चाहिए |

इंसान की पहचान पहनावे से नहीं, कर्म से होती है।

जिस तरह दीपक की पहचान उसकी लौ से होती है, न कि उसके रंग-रूप या बनावट से। उसी प्रकार इंसान अपने स्वभाव से जाना जाता है। उसकी पहचान उसके कर्म से होती है। न कि उसकी शक्ल, सूरत व पहनावे से।’ सूरत से तो बगुला-हंस, भूंड-भंवरा एक से लगते हैं, पर कर्म से पहचाने जाते हैं कि कौन क्या है। ऐसे ही इंसान की भी स्थिति है। कोई पाताल में बैठकर नेकी कर रहा है वो भी प्रकट होगी। कोई यदि किसी कोने में छिपकर बदी कर रहा है, वो भी सामने आएगी। अपने आपसे न कोई बचा है, न बच सकता है। हर इंसान अपने स्वभाव के अधीन होता है। चाहे कोई लाख यत्न कर ले, पर अपनी सोच, कर्म, फितरत को नहीं छिपा सकता। अपने अंदर के विपरीत भाव का रुपांतरण किया जा सकता है। जब बड़े-बड़े पापी-कपटी, कामी-क्रोधी, लोभी बदल सकते हैं, तो हम क्यों नहीं बदल सकते। बस वैसा कर्म करना पड़ेगा। पहले भी पारस छूने से लोहा सोना बन जाता था, आज भी वैसा ही है। इंसान भी सही मार्ग दर्शन से अच्छाई का मार्ग अपना सकता है। इसके लिए पूर्ण संत सद्गुरु की शरण में जाना पड़ेगा। यह मानव तन हम सभी को बहुत सौभाग्य से मिला है। इसलिए हमें अपने जीवन में कोई भी पाप व बुरे कर्म नहीं करने चाहिए। जय गुरु।
प्रस्तुति: एस.के.मेहता

शनिवार, 26 मई 2018

सठ सुधरहिं सतसंगति पाई | महर्षि मेँहीँ बोध-कथाएँ | अच्छे संग से बुरे लोग भी अच्छे होते हैं ओर बुरे संग से अच्छे लोग भी बुरे हो जाते हैं | Maharshi Mehi | Santmat Satsang

महर्षि मेँहीँ की बोध-कथाएँ!

सठ सुधरहिं सतसंगति पाई

हमारा समाज अच्छा हो, राजनीति अच्छी हो और सदाचार अच्छा हो – इसके लिए अध्यात्म ज्ञान चाहिए। अध्यात्म-ज्ञान सत्संग से होता है। इसीलिए सत्संग की आवश्यकता है –

‘सठ सुधरहिं सतसंगति पाई।
परस परसि कुधातु सुहाई।।’

           (रामचरितमानस, बालकाण्ड)

अर्थात् सत्संग पाकर दुष्ट आदमी इस तरह सुधर जाते हैं, जिस तरह पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना (सुन्दर सोना) हो जाता है।

इस कलिकाल में भगवान् बुद्ध हुए, ढाई हजार वर्ष से कुछ पहले की बात है। उनके समय में एक ब्राह्मण-पुत्र था। उसको गुरु ने दक्षिणा में एक हजार आदमियों को मारने के लिए कहा था। गुरु के मन में कुछ संदेह हो गया था, इसीलिए उसने ऐसी दक्षिणा मांगी थी कि वह अनेक को मरेगा, तो इसको भी कोई मार देगा। इसीलिए वह ब्राह्मण-पुत्र गुरु की आज्ञा से लोगों को मार-मारकर अँगुलियों की माला बना लेता था। इसीलिए उसका नाम ही ‘अंगुलिमाल’ हो गया।

उसके चलते लोगों में आतंक फैल गया; हाहाकार मच गया। सैकड़ों लोगों को उसने मारा। भगवान् बुद्ध को जब सुचना मिली कि ‘अंगुलिमाल’ नामक हत्यारा बड़ी निर्ममता से लोगों की हत्या कर रहा है, तो वे उनकी ओर चल पड़े। लोगों ने बहुत मना किया कि भगवन्! उस ओर मत जाएँ। अंगुलिमाल बहुत बड़ा हत्यारा है। वह आप पर भी प्रहार कर सकता है। भगवान् ने किसी की भी बात नहीं सुनी, सीधे अंगुलिमाल की तरफ चलते रहे। जब अंगुलिमाल ने भगवान् बुद्ध को अपनी ओर आते देखा, तो जोर से भगवान् से कहा, “तुम कौन हो, ठहरो!”
भगवान् ने कहा कि मैं तो ठहरा हुआ हूँ, तुम ठहरो। भगवान् बुद्ध धीरे-धीरे चल रहे थे ओर अंगुलिमाल तेजी से उनको पकड़ना चाहता था, फिर भी वह नहीं पकड़ पाता था। वह दौड़ते हुए रथ ओर दौड़ते हुए घोड़े को पकड़ लेता था; लेकिन भगवान् को नहीं पकड़ पा रहा था।
जब वह थककर रुक गया, तो भगवान् ने उसे स्पर्श करते हुए कहा कि अरे! यह क्या करते हो! लोगों की निर्ममतापूर्वक क्यों हत्या कर रहे हो? भगवान् का उस पर इतना प्रभाव पड़ा कि वह अपना हथियार फेंककर भगवान् के चरणों पर गिर पड़ा। भगवान् ने उसको समझाया, तो उसको अपने कर्मों से घृणा हुई ओर वह संन्यासी बन गया।

अच्छे संग से बुरे लोग भी अच्छे होते हैं ओर बुरे संग से अच्छे लोग भी बुरे हो जाते हैं।

इसलिए सत्संग अवश्य करो। सत्संग से अच्छे लोगों का संग होता है।

"शान्ति-सन्देश, जून-अंक, सन् १९९६ ई०"

Speech of Baba Devi | Baba Devi Sahab ki Vaani | Sant Sadguru Maharishi Mehi | Santmat-Satsang

Speech Of Baba Devi on Devotion --

हरि सेती हरिजन बरे, समझ देख मन माहिं ।
कहे कबीर जग हरि विषै, सो हरि हरिजन माहिं ।।

मुल्तान से चल कर बाबा देवी साहब क्वेटा होकर बीच के स्थानों पर उपदेश करते हुए कराँची पहुँचे और वहाँ उनका 'भक्ति' विषय पर व्याख्यान हुआ --

मित्रो ! इस समय मैं आपके सामने एक ऐसे विषय पर कुछ कहना चाहता हूँ कि जिसका वार्तालाप समस्त भूमण्डल के लोगों की जिह्वा पर प्राय: सब समय रहता है; परन्तु वे उस पर तनिक भी ध्यान नहीं देते और उसको एक साधारण वस्तु समझते हैं । मेरी समझ में तो यह एक बहुत ही मूल्यवान् वस्तु है, जिसको सब मतों के साधु पुरुष अपने-अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त करने के लिए एक अत्यावश्यक वस्तु समझते हैं और इसी को वे सिद्धान्तसार जान-मान कर अन्य सिद्धान्तों को इसका दास और सेवक समझते हैं । वे यह भी मानते हैं कि इसकी सहायता के बिना कोई सिद्धान्त नहीं चल सकता और न किसी ऐहिक वा पारलौकिक कार्य में साफल्य प्राप्त हो सकता है । यदि हम इसको एक 'रहस्य' का नाम दें, तो नि:संदेह यह इसका पात्र है; क्योंकि समस्त रहस्यों क रहस्य वह परमेश्वर है, परन्तु यह भी अपने पद में उससे कम नहीं है, किन्तु परमेश्वर और इसमें समानता का सम्बन्ध है और उसमें भी यह अपना प्रथम पद रखता है और परमेश्वर द्वितीय । यदि परमेश्वर ताला है, तो यह उसके खोलने की कुञ्जी है; क्योंकि इसकी सहायता के बिना न तो अब तक किसी को परमेश्वर का रहस्य खुला और न स्रिष्टि-रचना के कारणों का रहस्य किसी के सामने आया । जिस किसी के पास इस सम्पत्ति की थोरी बहुत मात्रा भी होती है, वह उक्त दोनों रहस्यों का ज्ञाता हो जाता है, अन्यथा लाखों मनुष्य परमेश्वर और स्रिष्टि के रहस्यों को बिना जाने ही इस संसार से उठ जाते हैं ।
अब प्रश्न यह है कि इसका क्या नाम है और यह कहाँ है ? इसका नाम भक्ति, इश्क और लव (Love) है । देखने में ये तीनों शब्द अलग हैं; परन्तु इन सबका अर्थ एक ही है । भक्ति कहो, चाहे इश्क अथवा 'लव' । इसमें मेल करा देने का स्वभाव है कि जिसके प्रभाव से दो अलग पदार्थ मिल जाया करते हैं और एक नूतन आक्रिति का निर्माण होकर उसका स्वयं प्रादुर्भाव हो जाता है । आक्रितियाँ छोटी और बरी, इस प्रकार कई भाँति की होती हैं । कुछ आक्रितियाँ इस समय ऐसी विशाल हैं कि जिनको देखते ही हमको उनका ज्ञान हो जाता है कि यह अमुक पदार्थ है । और, कुछ आक्रितियाँ ऐसी छोटी हैं कि उनका ज्ञान हमको सूक्ष्मदर्शक यन्त्र से भी नहीं हो सकता कि यह क्या है । ऐसी दशा में यह गहन विषय किस प्रकार सर्वसाधारण के समझने योग्य हो सकता है ।
इस प्रत्यक्षीकरण से स्पष्ट है कि इन परमाणुऔं पर अवश्य कोई ऐसी वस्तु काम करती है कि जिसका स्वभाव मिलान का है । यदि कोई ऐसी वस्तु काम करने वाली न होती, तो ये कुल शरीर और पिण्ड आदि प्रादुर्भाव में न आते, और न यह इतना विशाल संसार द्रिष्टिगोचर होता । परमाणु से लेकर समस्त संसार तक, सब भक्ति के एक तार में बँधे हुए हैं, किसी प्रकार वे डावाँडोल नहीं हो सकते । यदि इनमें से भक्ति का अंश निकल जावे तो समस्त संसार और इसके परमाणु खुलकर अलग-अलग हो जावें । इससे यह समझ लेना चाहिए कि भक्ति ही समस्त संसार के जीवन का प्राण है, जिससे कि परमाणु से लेकर समस्त शरीर और पिण्ड आदि की स्थिति है ।
यह कुल पिण्ड अर्थात् तारे और नक्षत्र जो आकाश में भरे हुए हैं, भक्तिपूर्ण होकर पूर्व से पश्चिम को चले जा रहे हैं, और अपनी शक्ति अर्थात् प्रकाश और जीवन को किरणों के द्वारा सीधे धरती पर प्रविष्ट कर रहे हैं कि जो उसके जीवन का हेतु है । इस प्रकार भक्ति-भाव से प्रेरित होकर यह प्र्‍थ्वी (धरती) भी सर्वदा नाचती रहती है और अपनी असंख्य शक्ति-धाराओं को रस के रुप में वनस्पतियों में प्रविष्ट कर रही है कि जो उसके जीवन का हेतु है । भक्ति भाव में आकर ही वनस्पति उमर-उमर कर अपनी शक्ति को धाराओं के द्वारा अन्नादि रुप मे पशुओं के अन्दर प्रविष्ट करती है कि जो उसके जीवन का हेतु है और इसी भक्ति में तन्मय होकर पशु अपनी शक्ति को दुग्ध-धाराओं के द्वारा अपने बच्चों मे प्रविष्ट किया करते हैं ।
अब हम इस आश्चर्य में हैं कि यह स्रिष्टि है या कि सर्वव्यापी प्रेमालय है कि जहाँ स्रिष्टि का प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने इष्ट को सामने रखकर प्रेम की धूम मचा रहा है और अपने-अपने प्रेमपात्र में विलीन हो रहा है । यह कुल अन्तकाल तक इतना काम करते हैं कि अपने-अपने प्रेमपात्रों में विलीन हो जाते हैं । देखो, ज्योतिष्मान पदार्थ तारे नक्षत्रादि तो खनिज पदार्थों के आकार को बढाते-बढाते लुप्त होते हैं और खनिज पदार्थ आदि वनस्पतियों के लिये काम करते-करते चल बसते हैं । इसी प्रकार, वनस्पतियाँ पशुओं के काम में आते-आते नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं ।
भक्ति को हम मद्य कहें या क्लोरोफोर्म, क्या कहें और क्या न कहें कि जिसके मद में समस्त संसार डूबा हुआ है । देखो, भक्ति न तो कोई फल है और न कोई मिष्टान्न है तथापि यह ऐसी स्वादयुक्त वस्तु है कि यदि इसका नाम भी कोई जिह्वा पर ले आवे और कहे कि प्रेम ! भक्ति ! तो इसका नाम सुनते ही मनुष्य-ह्र्‍दय में, चाहे वह बालक हो या बुढा और चाहे हो वह युवा, एक तरंग उठती है और संपूर्ण शरीर की नस-नस में प्रविष्ट होकर एक उन्माद (मस्ती) उत्पन्न कर देती है । भक्ति का यह एक विचित्र स्वभाव है कि यह जिसकी ओर अपना थोडा भी मुँह फेरती है कि उसको अपना कर लेती है और वह इसी का पक्षपाती हो जाता है । सेवक की तरह वह हर समय इसके सामने करबद्ध खडा रहता है कि जो आज्ञा हो, उसका पालन करूँ ।
भक्ति ने अपने चमत्कार संसार में डिण्डिम घोष से जता रखा है कि बडे-बडे हिंसक जंतुओं को अपने वश में करके सरकस के खेल में स्त्री और बालकों के समान नचाती, कुदाती और खेल दिखाती है । भक्ति से एक छोटे पद का लेखक (मुहरिर) अथवा चपरासी अपने अधिकारी को ऐसा अनुकूल और अनुग्राहक बना लेता है कि अपनी इच्छा के अनुसार उनसे काम बनवा सके, और सब सरकारी नियम व आज्ञाएँ बसा खडी-खडी देखा करें । भक्ति से ही एक मुनीम या कारिन्दा स्वामी को अपने ऊपर आक्रिष्ट कर लेता है कि उससे यथेष्ट पदार्थ प्राप्त कर सके, और उसके सब भाई-बंधु-संबंधी उस समय सिर पटकते ही रह जाते हैं । यही नहीं, भक्ति से संपूर्ण शक्तियाँ और समस्त देव अपने वश में हो जाते हैं और भक्ति के संकेत व प्रेरणा से वे ऐसे-ऐसे काम करते हैं कि वहाँ मनुष्य की बुद्धि चकरा जाती है और वह उसको चमत्कार, सिद्धि अथ्वा दूसरी भाषा में मौजजा, सहर या जादू का नाम देता है ।
भक्ति के द्वारा परमेश्वर और मनुष्य में एक मेल, स्नेह और संबंध हो जाता है; इस लोक और परलोक के संबंध में आदेश और उपदेश प्रादुर्भाव में आते हैं कि जिनको लोग इलहाम के नाम से पुकारते हैं । भक्ति के द्वारा लोग आगे की होनेवाली बातों को बताते हैं और इसी के द्वारा असंभव संभव और संभव असंभव हो जाते हैं । भक्ति द्वारा जादू के सब आक्रमण और प्रभाव और विविध रोग नष्ट हो जाते हैं । भक्तिमान् पुरुष की ही स्तुति और प्रार्थना स्वीक्रित होती है । भक्ति के द्वारा मनुष्य अत्यन्त समझदार और निर्मल-बुद्धि हो जाता है । भक्तिमान् पुरुष के सामने अर्थशुद्धि (ईमानदारी) और सच्चाई हाथ बाँधे खडी रहती है । भक्ति समस्त संसार का धर्म है और कोई मत, सम्प्रदाय वा पंथ इसकी सहायता के बिना स्थिर नहीं रह सकता । भक्ति में मुख्य विशेषता यह है कि मनुष्य के भीतर परमेश्वर तक का सरल मार्ग खोल देती है, जिससे मनुष्य अपने केन्द्र या लक्ष्य पर पहुँच जाता है और फिर वह कभी नहीं लौटता । सारांश यह कि भक्ति एक ऐसी वस्तु है कि जिसके बिना सांसारिक अथवा पारलौकिक कोई भी कार्य पूर्ण नहीं हो सकता । जो भक्ति-रहस्य से जानकारी रखता है, वही मनुष्य है और जिसका हर्‍दय (heart) भक्ति भावों से रिक्त है, वह पशु ही नहीं; किन्तु उससे भी निक्रिष्ट है ।
अब प्रश्न यह है कि वह भक्ति कि जिसके गुणों का इतने विस्तार से वर्णन किया गया, क्या पदार्थ है? यह स्वयं कोई पुरातन पदार्थ है अथवा किसी से उत्पन्न हुआ है, वह क्या पदार्थ है? स्रिष्टि की उत्पत्ति के प्रारम्भ से अब तक तीन प्रकार के महापुरुष हो चुके हैं, जो बडे बुद्धिमान् और पवित्रात्मा माने जाते हैं, उन्हीं की समझ के ऊपर समस्त संसार में मत, दर्शन, और विज्ञान की आधारशिला रही है । कुछ महापुरुषों का कथन है कि भक्ति मध्य-वस्तु है, जिसमें प्राचीनता या नूतनता का प्रश्न ही नहीं । दूसरे यह विचार रखते हैं कि भक्ति ही स्वयं (परमेश्वर) है, वह किसी से उत्पन्न नहीं हुई है । परमेश्वर और उसमे केवल नाम का भेद है, अन्यथा एक ही वस्तु है । तीसरे अपनी सम्मति यह रखते हैं कि भक्ति एक उत्पत्तिमान् पदार्थ है और वह जीवात्मा से उत्क्रिष्ट परन्तु परमेश्वर से निक्रिष्ट है ।
जब विचार किया जाता है तो यद्यपि देखने में भक्ति की उक्त तीन आक्रितियाँ हैं; परन्तु वास्तव में एक ही पदार्थ हैं; क्योंकि प्रथम सम्मति के अनुसार यदि यह कोई मध्य-वस्तु है तो भी कुछ-कुछ परमेश्वर के समान आदरणीय है कि जो भक्ति का भण्डार है । यदि दूसरे विचारानुसार, भक्ति स्वयं परमेश्वर है तो परमेश्वर ही उसका भण्डार है । यदि तीसरी सम्मति के अनुकूल भक्ति जीवात्मा से ऊपर और परमेश्वर से नीचे है तो भी परमेश्वर उसक केन्द्र है । अन्त मे मुझे यह कहना पडता है कि चाहे भक्ति वस्तु है अथवा स्वयं परमेश्वर और या यह जीवात्मा से कोई उत्क्रिष्ट पद रखती है, इन तीनों अवस्थाओं में गुण समान ही हैं, इससे सिद्ध होता है कि इसका कारण भी एक ही है, अनेक नहीं ।
भक्ति समस्त संसार की जान है और अभी कहीं चली नहीं गई है, अपितु स्रिष्टि के आवरण वस्त्र में छिपकर अपने प्रभावों का रंग दिखा रही है । इस बात को जाँचने के लिए समीपस्थ से समीपस्थ मनुष्य को ही देख लीजिये कि यदि इसमें भक्ति का अंश न होता तो यह संसार में कंकड-पत्थर के समान एक ही स्थान पर पडा रहता । यह भक्ति की ही शक्ति है कि जिससे मनुष्य चल-फिर रहा है और उसके कुल काम हो रहे हैं; क्योंकि प्रत्येक चेष्टा तथा प्रेरणा कि जिससे मनुष्य प्रेरित हो रहा है या उसके कुल कार्य हो रहे हैं, उन सबका एकमात्र हेतु भक्ति ही है । भक्ति वह आवश्यक पदार्थ है कि कोई कार्य चाहे वह लौकिक हो अथवा पारलौकिक; इसके बिना पूर्ण नहीं हो सकता; क्योंकि मनुष्य जिन कामों को करने में पूरे चाव से लगा हुआ है, वे पूर्ण हो जाते हैं और जिन कामों में चाव की कमी है, वह काम पूरे नहीं होते या अधूरे रह जाते हैं ।
तात्पर्य यह कि भक्ति अथवा प्रेम हर एक बात और हर एक काम को पूरा करने के लिए एक अत्यावश्यक वस्तु है और इसी को हर एक काम में सफलता प्राप्त करने के लिए एक विशेष अंग समझा गया है । अत: बुद्धिमान् मनुष्य को किसी काम को आरंभ करने से पूर्व यह देखना चाहिये कि उस कार्य को पूरा करने के योग्य अपने में भक्ति की मात्रा पर्याप्त है या नहीं । यदि है तो उस कार्य को प्रारम्भ करे अन्यथा मौन साध ले और भक्ति की मात्रा प्राप्त करने का प्रयत्न करे । जब भक्ति प्राप्त हो जावेगी तो इसके निर्धारित कार्य स्वत: होते चले जाएंगे ।
अब प्रश्न है कि भक्ति ही लोक और परलोक की प्राप्ति के लिए एक अचूक साधन है तो वह कहाँ है और कैसे प्राप्त हो सकती है ? इस विषय में प्राचीन अथवा अर्वाचीन महात्माओं का यह विचार है कि भक्ति तो सबमें विद्यमान है; परन्तु उसके आगे कुछ ऐसे आवरण लटके हुए हैं कि उसका प्रादुर्भाव नहीं होने देते, अत: ऐसे स्थान पर जाना चाहिए कि जहाँ आवरण को हटाने की विधि बताई जाती है । सन्तों और साधुओं की परिभाषा में ऐसे स्थान को सत्संग कहते हैं और वहाँ भक्ति उत्पन्न करने तथा उसके आगे से आवरण हटाने के लिए क्रियाएँ बताई जाती हैं । वे क्रियाएँ बहुत सरल और साधारण हैं कि जिन पर प्रत्येक मनुष्य आचरण कर सकता है -- प्रथम शरीर-स्वास्थ्य, द्वितीय इन्द्रिय-स्वास्थ्य और त्रितीय आत्म-स्वास्थ्य ।
शरीर-स्वास्थ्य की विधि है कि उसको उचित और पवित्र भोजन से बनाना कि जो भोजन भले लोगों के व्यवहार करने से प्राप्त होता है; क्योंकि शरीर का प्रभाव इन्द्रियों पर पडता है और इन्द्रियों का प्रभाव आत्मा पर कि जिससे परमेश्वर के भजन में अन्तर पड जाता है । यदि शरीर स्वस्थ और सबल ना हो तो उसमें पूर्ण रीति से आन्तरिक शक्तियों और तेज का विकास नहीं होता, और वह समय कि जो ईश्वर-प्रार्थना में लगाया जाता है, कुछ विशेष सफल नहीं होता और जब सफलता नहीं, तो अभ्यासी का उद्येश्य नष्ट हो जाता है ।
अपनी इन्द्रियों और मनोव्रित्तियों को सांसारिक यश, धन के अहंकार, विद्या और कुल के गर्व से सुरक्षित रखना चाहिये; क्योंकि यह सब भक्ति के शत्रु हैं, जहाँ ये रहते हैं, वहाँ से भक्ति दूर भाग जाती है । यदि भक्ति प्रकाश है तो ये सब अन्धकार हैं । जो कोई भक्ति के शत्रुओं को अपने हर्‍दय मे बैठाता है, भक्ति उससे रूठ जाती है । भक्ति के इच्छुकों को यह आवश्यक है कि वे ऐसे लोगों की संगति से दूर रहें जो अपनी वासनाओं के वशीभूत हैं; क्योंकि उनकी संगति हलाहल विष से भी अधिक घातक है । ये लोग ऐसी बातें सुनाते हैं कि जिनसे मनुष्य के उत्तम गुण नष्ट हो जाते हैं और उनमें ईर्ष्या तथा लोभ की अग्नि धधकने लगती है कि जिससे उनका चित्त सर्वदा चिन्तित और व्याकुल रहता है ।
आत्म-स्वास्थ्य इन तीनों इन्द्रियों वाणी, नेत्र और कर्ण के बाहरी तथा भीतरी सदुपयोग से होता है । (१) प्रथम, वाणी को मिथ्याभाषण से बचाकर परमेश्वर की स्तुति-प्रार्थना मे लगाना चाहिये; क्योंकि जो कोई किसी के गुण गाता है तो वह गुण गानेवाले पर प्रसन्न होता है और उससे स्वयमेव प्रेम करने लगता है । अत: जो कोई परमेश्वर के गुण गाता है, परमेश्वर उससे प्रेम करने लगते हैं । जैसे इस समय हम यह कहते हैं -- अमुक पुरुष आपकी बडी प्रशंसा करता है, तो आपका चित्त उस पर प्रसन्न हो जाता है और उसके लिए प्रेम-भाव उमड आते हैं । परमेश्वर को प्रसन्न करने और मनाने के लिये इससे उत्तम मार्ग या प्रयत्न कोई दूसरा नहीं है । संसार को उपदेश या शिक्षा देना और सन्मार्ग पर चलाना भी ईश्वर-गुणगान के अन्तर्गत है, यह तो रहा वाणी का बाहरी सदुपयोग, और भीतरी सदुपयोग यह कि कम बोलना चाहिये, बकवाद से बचकर चुप रहना चाहिये जिससे इसकी कोई चेष्टा न हो ।
(२) द्वितीय, नेत्रेन्द्रिय को संसार के विभिन्न पदार्थों का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करने में उपयुक्त करना चाहिये कि जिससे परमेश्वर की शक्ति का ज्ञान होता है और फिलास्फरों (Philosophers) के मस्तिष्कों का पता लगता है, धार्मिक विश्वास में ढ्र्‍ढता (determination) होती है कि हम सीधे मार्ग पर चल रहे हैं कि जिस पर पहले भी लोग चल चुके हैं । यह तो नेत्रेन्द्रियों को बाह्य स्रिष्टि में प्रयुक्त करने की विधि है । नेत्र को आन्तरिक संसार में उपयुक्त करने कि विधि दूसरी है, उसको 'इल्म-वसीरत' के नाम से पुकारते हैं, अर्थात् वह ज्ञान कि जो अन्त:करण में आन्तरिक द्रिष्टि से प्राप्त हो, यही ज्ञान एक ऐसा ज्ञान है कि जिसको सीखने के लिए अफलातून 13 वर्ष तक मिस्र देश के मन्दिरों में पडा रहा ।
एकान्त में अपनी द्रिष्टि को सामने अन्तरिक्ष मे स्थिर करने में नबी, अवतार, देवता और महात्माओं के ठीक-ठीक दर्शन होते हैं और ईश्वरीय तेज व प्रकाश का साक्षात्कार होता है । दोनों प्रकार के साक्षात्कार भिन्न स्वभाव रखते हैं । अवतार-देवतादि के दर्शनों से तो गुप्त भेदों का बोध होता है तथा वाणी या संकेतों द्वारा जो कुछ समय-समय पर बोला जाता है, वह यथार्थ होता है । तेज और प्रकाश के दर्शन से विविध विद्याओं का कि जो कभी न पढी और कभी न सुनी हो, प्रादुर्भाव होता है और यही विद्या और विज्ञान के प्रकट करने का मुख्य द्वार है । द्रिष्टि के इस अभ्यास को द्रिष्टि-योग साधन या विन्दु-ध्यान कहते हैं । द्रिष्टि को स्थूल पदार्थों पर स्थिर करने से बचाना चाहिये; क्योंकि उनसे पागलपन, विस्मरण, मूर्खता, छल और कपट तथा अन्य दुर्गुण तथा दुष्ट स्वभाव उत्पन्न होते हैं ।
(3) त्रितीय, कर्णेन्द्रिय से उपदेष्टाओं, गुरुओं और व्याख्यानदाताओं के कथनों को बहुत ध्यानपूर्वक सुनना और समझना चाहिये और अपने ध्यान को उस ध्वनि पर जो गाने में प्रयुक्त होती है, लगाना चाहिये । उससे भक्ति उत्पन्न होती है और आत्मा को अचूक आत्मिक भोजन प्राप्त होता है तथा उसमें एक विलक्षण आनन्द प्रतीत होता है, जो कि वर्णनातीत है । गान का प्रभाव बडे-बडे बुद्धिमानों और विद्वानों पर, जिनके हर्‍दय विविध विद्याओं तथा सभ्यता के अंगों से परिपूर्ण होते हैं, पडता है, और वह प्रकट रूप मे उन गानमण्डलियों में मग्न हो जाते हैं तथा उनके सिर उस आनन्द में झूमने लगते हैं और मुख से वाह-वाह की ध्वनि निकल पडती है, उस समय वे ऐसे बेसुध हो जाते हैं कि उनको सभा के नियमों का भी ध्यान नहीं रहता । ईश्वर के ध्यान में मग्न रहनेवाले लोग गान-ध्वनि से उस दशा में पहुँच जाते हैं कि जिसको 'वज्द' कहते हैं । इसमें उनके सिर स्वयमेव उस आनन्द में झूमा करते हैं और वे उन आनन्दों का अनुभव करते हैं कि जिनका वर्णन करना अशक्य है । पशु भी इस गान-ध्वनि के प्रभाव से बच नहीं सके, वे भी इसमें मग्न होकर नाचने लगते हैं । गान का ही यह प्रभाव है कि सैनिक रण-स्थल में अपने जीवन की चिन्ता न कर प्राणों की आहुति दे देते हैं । गान का प्रभाव शरीर, इन्द्रियों और आत्मा पर साक्षात् पडता है और उससे शारीरिक, इन्द्रिय-संबंधी तथा आत्मिक रोग नष्ट होते हैं । यह तो प्रकट गान का प्रभाव है जो कर्ण के बाहरी उपयोग से संबंध रखता है ।
दूसरा गान या ध्वनि आन्तरिक है और उसके सुनने की विधि यह है कि अपने ध्यान को उस भीतरी शब्द पर लगाना चाहिये कि जो प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में हो रहा है । शब्द मानव-जीवन की एक बहुत बडी सम्पत्ति है । जबतक मनुष्य के भीतर शब्द विद्यमान है, तबतक वह जीवित रहता है और शब्द निकलते ही उसकी इतिश्री है । अत: मुर्दे और जीवित मे यही अन्तर है कि जब मनुष्य जीवित है तो चलता-फिरता है और बोल सकता है और जब शब्द निकल जाता है तो न वह चलता-फिरता है, न कुछ बातचीत करता है । जीवन-चक्र शब्द की प्रेरणा का ही फल है और उन सब पुस्तकों का यह शब्द ही केन्द्र है कि जो इल्हामी या आस्मानी कही जाती हैं और इसके द्वारा प्राचीन काल में लोगों ने बडी-बडी आयु प्राप्त की कि जिसका आजकल के लोग विश्वास नहीं करते ।
मनुष्य के मस्तिष्क में प्राक्रितिक भाग के अतिरिक्त तीन भाग दूसरे भी हैं -- शब्द, प्रकाश और अन्धकार । शब्द की तरंग प्रकाश पर और प्रकाश से अन्धकार पर और अन्धकार से मस्तिष्क पर तथा मस्तिष्क से बारीक-बारीक नसों में प्रविष्ट होकर समस्त शरीर में फैल गई है । शरीर में इसका रूप जान है और मस्तिष्काकाश में इसका रूप प्रकाश है, सुन्न में उसका रूप शब्द है । यह शब्द एक अत्यन्त मूल्यवान पदार्थ है और प्राचीन काल में यूनानियों, मिस्रियों, रोमियों, और हिन्दुओं ने शब्द के विषय मे बहुत पुस्तकें लिखी हैं, इसलिये मैं कहता हूँ कि प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि शब्द की अनुभूत जानकारी करे कि इसका स्रोत उसमें कहाँ से प्रवाहित है ।
मित्रो ! मेरा भक्ति-विषयक कथन समाप्त हुआ । मैं फिर विनयपूर्वक निवेदन करता हूँ कि यदि कोई बात आपको असह्य हो तो क्षमा करना ।

गुरुवार, 24 मई 2018

हरि व्यापक सर्वत्र समाना | प्रेम ते प्रकट होय मैं जाना || पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय॥ Tulsidasji | Santmat Satsang

हरि व्यापक सर्वत्र समाना।

प्रेम ते प्रकट होय मैं जाना॥ 

तुलसीकृत रामचरितमानस की ये पंक्ति स्पष्ट संकेत देती है-प्रेम सहित भक्ति के महत्व का। ईश्वर सर्वव्यापी है, वह समान रूप से सर्वत्र व्यापक है। वह हमारे अंतस के प्रेम से हमारे समक्ष प्रकट होते है। कहते है कि परमात्मा प्रेम के वश में है। प्रेम भावविह्वल हो मानव जब ईश्वर को पुकारे, प्रेम भाव इतना गहरा हो कि नम आंखों के साथ आत्मा भी ईश्वर के लिए तड़प उठे, तो ईश्वर का अहसास भले ही क्षणिक हो, किंतु हृदय में अवश्य होगा। कबीरदास जी मानव को प्रेम की महत्ता बताते हुए कहते है;

'पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय॥'

भक्ति में प्रेम की बात आए तो विष का प्याला पीने वाली मीरा का दृष्टांत स्वभाविक भी है, अवश्यंभावी भी। उनकी भक्ति ही प्रेम थी और प्रेम ही भक्ति। प्रेम की गहराई इतनी कि कोई सीमा ही न हो। सुध ऐसी कि कोई सुध-बुध ही न रहे। ध्यान ऐसा कि समाधि की अवस्था भी पीछे छूट जाए।

साधक को भक्ति में एकाग्र होने के लिए प्रयत्न करना होता है और ध्यान में समाधि अवस्था के लिए इंद्रिय निग्रह भी करना पड़ता है, साथ ही दु:सह प्रयत्न भी। नि:स्वार्थ प्रेम और उसकी तल्लीनावस्था स्वयं में समाधिवस्था है। भक्ति ही प्रेम है और प्रेम ही भक्ति है। सच्ची भक्ति और सच्चा प्रेम एक समान है। प्रेम तप है, भक्ति रूप ही उसकी सार्थकता है। ईश्वर से प्रेम करने वाला हर जीव से प्रेम करेगा, उनमें ईश्वर का अंश देखते हुए। भेदभाव, वैमनस्यता, परस्पर कटुता सब समाप्त होगी। ईश्वर को किसी भी भोज्य पदार्थ की अथवा भौतिक वस्तु की अभिलाषा नहीं है। विचार करने योग्य विषय है कि जो सारे जगत का भरण पोषण करता है उसका पोषण हम भला कैसे कर पाएंगे, फिर भी यदि हम उन्हे कुछ अर्पण करना चाहे तो वह स्वीकारते है। गीता के नौवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण कहते है, 'हे अर्जुन, यदि कोई पत्र, पुष्प, फल, जल आदि मुझे प्रेम से अर्पण करता है, उस भक्त का मैं प्रेम पूर्वक अर्पण किया फलादि सगुण रूप से प्रकट होकर प्रीति सहित ग्रहण करता हूं।' अथर्ववेद कहता है, प्रेम उसी तरह करो जैसे गाय अपने बछड़े को करती है यानी स्वार्थ रहित प्रेम। यही समाज की आवश्यकता है और यही प्राथमिकता भी।

शुक्रवार, 18 मई 2018

जो कुछ करना है, इसी जीवन में करना है | Jo kuchh karna hai esi jeevan me karna hai | Santmat Satsang

जो कुछ करना है, इसी जीवन में करना है।

एक आदमी दुकानदार के पास जाकर बोला, 'तुम्हारे पास आटा है? उसने कहा है, 'है।' फिर पूछा, 'चीनी है?' दुकानदार बोला, 'है।' फिर उसने पूछा, 'घी है?' दुकानदार ने कहा, 'है।' ग्राहक बोला, 'अरे भले आदमी, तुम्हारे पास आटा है, चीनी है और घी है। फिर तुम हलुआ बनाकर क्यों नहीं बेचते? उसमें में ये तीन चीजें इस्तेमाल होती हैं।'

दुकानदार बोला, 'भाई साहब, हलुआ बनाने की सारी चीजें मेरे पास हैं, पर हलुआ बनाने की युक्ति मेरे पास नहीं है। मैं नहीं जानता कि हलुआ कैसे बनाया जाता है। यदि बिना जाने हलुआ बनाने बैठूंगा तो आटा भी खराब होगा, चीनी और घी भी खराब होगा। न हलुआ ही बनेगा और न ये चीजें ही सुरक्षित रह पाएंगी। फिर न आटा आटा रहेगा, न चीनी चीनी रहेगी और न घी घी रह पाएगा।'

हर व्यक्ति सफल होना चाहता है, रोशनी चाहता है, शिखर चाहता है, लेकिन प्रश्न सफलता और रोशनी का नहीं, विवेक का है। विवेक है इसलिए रोशनी है, रोशनी है इसलिए जिजीविषा है। जिस तरह हलुआ बनाने की सारी चीजें हैं और युक्ति नहीं है, उसी तरह जीवन को सफल बनाने की तमाम परिस्थितियों के बावजूद विवेक न होने पर व्यक्ति रोशनी के बीच भी अंधेरों से घिरा रहता है। यही कारण है इंसान आज अभाव, निराशा और हताशा को जीता है। यही निराशा और हताशा हमारे मनोबल को कमजोर कर देती है। हम जो कर भी सकते हैं, वह भी निराशा के कारण नहीं कर पाते।

सबसे पहले सोचना होगा कि हम चाहते क्या हैं? उसी के अनुरूप अपना लक्ष्य निर्धारित करना होगा और अपनी पूरी शक्ति लक्ष्य को पूरा करने में लगा देनी होगी। फिर सफलता कदम चूमेगी। जीवन के प्रति खुद को और अधिक समर्पित करना होगा। किसी को उसकी निष्क्रियता की नींद से जगाने के लिए आवाज लगा देना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है सही-गलत की पहचान कराकर जीवन को सही दिशा देना। सफलता पाने का मूल मंत्र है- आलस्य का त्याग। व्यवस्थित दिनचर्या के लिए समय-नियोजन जरूरी है। सही प्रकार से नियोजन करने से इंसान के पास न समय की कमी रहेगी और न ही काम अधूरे छूटेंगे।

रात में सही समय पर सोना और सुबह जल्दी उठना अपनी आदत में शामिल करना होगा। आपको अपना आहार-विहार, आचार-विचार सभी में छोटे-छोटे बदलावों की जरूरत है। ऐसा कोई भी कर सकता है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए खान-पान सुधारना होगा और मानसिक स्वास्थ्य के लिए सोच को सकारात्मक बनाना होगा। इंसान माता-पिता और गुरु से तो सीखता ही है, अपने परिवेश और अनुभवों से भी बहुत कुछ सीख सकता है। बस जरूरी है कि वह समय को पहचाने और उसकी कीमत को समझे। बीता समय लौटकर नहीं आता। जो कुछ करना है, इसी जीवन में और अभी करना है। जय गुरु ।
प्रस्तुतकर्ता: शिवेन्द्र कुमार मेहता
गुरुग्राम, हरियाणा

आए जगत में क्या किया तन पाला के पेट। सहजो दिन धंधे गया रैन गई सुख लेट।। Aaye jagat me kya kiya tan pala ke pet | Santmat Satsang

आए जगत में क्या किया तन पाला के पेट।☘

आए जगत में क्या किया तन पाला के पेट।
सहजो दिन धंधे गया रैन गई सुख लेट।।

संत सहजो बाई जी कहती हैं कि जगत में जन्म तो ले लिया परन्तु किया क्या ? तन को पाला या खा-खा कर पेट को बढाया | दिन तो संसार के कार्यों में गँवा दिया और रात सो कर गँवा  दी |

रैणि गवाई सोइ कै दिवसु गवाइआ खाइ ॥
हीरे जैसा जनमु है कउडी बदले जाइ ॥

श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि रात सो कर गँवा  दी और दिन खा कर गँवा  दिया | हीरे जैसे जन्म को अर्थात्त तन को कौड़ी  के भाव गँवा दिया | इस जगत में मनुष्य  की यह स्थिति है कि उसने शरीर को तो जान लिया परन्तु जीवन को भूल गया | यह अहसास नहीं है कि जीवन क्या है ? आज हम जिसे जीवन कहते हैं, वह तो पल प्रतिपल मृत्यु की  और बढ रहा है | परन्तु यह  30-40 वर्ष का जीवन, जीवन नहीं है | हम अपना जन्म दिन मनाते है, हम इतने बड़े हो गए | हमारी आयु बढ़ी नहीं, यह तो हमारे जीवन में से 30-40 वर्ष कम हो गए है, हम मृत्यु के निकट पहुँच रहे हैं | हमें विचार करना चाहिए के हम ने इतने वर्षों में क्या किया, क्या हम ने अपने जीवन के  लक्ष्य को जाना |

एक बार ईसा नदी के किनारे जा रहे थे, रस्ते में देखा कि  एक मछुआरा मछलियाँ पकड़ रहा था | उसके निकट गये उस से पूछते हैं, तुमारा नाम क्या है ? उसने कहा पीटर ! ईसा ने पूछा के पीटर, क्या तुमने जीवन को जाना ? क्या तुम जीवन को पहचानते हो ? उसने कहा हाँ मैं जीवन को जानता हूँ | मछलियाँ पकड़ता हूँ और बाजार में बेचकर अपने जीवन का निर्वाह करता हूँ |

ईसा ने कहा -पीटर ! यह जीवन, जीवन नहीं, जिसे तुम जीवन समझ रहे हो वह जीवन तो मृत्यु की तरफ बढ रहा है | आओ मैं तुम्हे उस जीवन से मिला दूं , जो  मृत्यु के बाद  भी रहता है | पीटर आश्चर्य से  कहता है कि  क्या मृत्यु के बाद भी जीवन है | ईसा कहते हैं - हाँ पीटर ! मृत्यु के बाद  भी जीवन है, इस जीवन का उदेश ही उस शश्वत जीवन को जानना है | अब  ईसा मसीह पीटर को जीवन से अवगत करने के लिए उसे अपने साथ लेकर चलते हैं | तभी कुछ  लोग आते हैं और पीटर से कहते हैं, पीटर! तुम कहाँ जा रहे हो? तुम्हारे  पिता का देहांत हो गया है |

ईसा ने पूछा, पीटर कहाँ चले? पीटर ने कहा -"पिता को दफ़नाने, उन का देहांत हो गया है, दफनाना जरूरी है |" तब ईसा ने कहा - Let the dead burry their deads. "मुर्दे को मुर्दे दफ़नाने दो" तुम मेरे साथ चलो, मैं तुम्हे जिन्दगी से मिलाता हूँ  | ईसा के कहने के भाव से स्पष्ट होता है कि  जिन के ह्रदय में प्रभु के प्रति प्रेम नहीं, जिन्हों ने जीवन के वास्तविक लक्ष्य को नहीं जाना वह जिन्दा नहीं, वरन  मरे हुए के सामान ही है | राम चरित मानस में भी कहा है -

जिन्ह हरि भगति ह्रदय नाहि आनी |
जीवत सव समान तई प्रानी ||

संत गोस्वामी तुलसी दास जी कहते है कि जिसके ह्रदय में प्रभु की भक्ति नहीं, वह जीवत प्राणी भी एक शव के समान ही है | इस लिए हमें भी चाहिए कि हम ऐसे  पूर्ण संत सद्गुरु की खोज कर, उस परम प्रभु परमात्मा को जानें और आवागमन के महा दुःख से छुटकारा पायें। तभी हमारा जीवन सफल हो सकता है | (प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम) जय गुरु महाराज


बुधवार, 16 मई 2018

जीवन का उद्देश्य | Jeevan ka udhshya | Maanav Jeevan | Santmat-Satsang |

जीवन का उद्देश्य;

मानव जीवन का उद्देश्य है कि अपने मन, वचन और काया से औरों की मदद करना। हमेशा यह देखा गया है कि जो लोग दूसरों की मदद करते हैं, उन्हें कम तनाव रहता है, मानसिक शांति और आनंद का अनुभव होता है। वे अपनी आत्मा से ज़्यादा जुड़े हुए महसूस करते हैं, और उनका जीवन संतोषपूर्ण होता है। जबकि स्पर्धा से खुद को और दूसरों को तनाव रहता है।

इसके पीछे गुह्य विज्ञान यह है कि जब कोई अपना मन, वचन और काया को दूसरों की सेवा के लिए उपयोग करता है, तब उसे सबकुछ मिल जाता है। उसे सांसारिक सुख-सुविधा की कमी कभी नहीं होती। धर्म की शुरूआत ओब्लाइजिंग नेचर से होती है। जब आप दूसरों के लिए कुछ करते हैं, उसी पल खुशी की शुरुआत हो जाती हैं।

मानव जीवन का उद्देश्य जन्मों-जन्म के कर्म बंधन को तोड़ना और संपूर्ण मुक्ति को प्राप्त करना है। इसका उद्देश्य केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए पहले आत्मज्ञान की प्राप्ति करना आवश्यक है। और यदि किसीको आत्मज्ञान प्राप्त करने का अवसर नहीं मिलता तो उसे परोपकार में जीवन व्यतीत करना चाहिए।

प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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संतमत का इतिहास | Santmat ka etihas | History of Santmat | Maharshi Mehi | Santmat Satsang

संतमत का इतिहास




विश्व के प्राय : हर देश के इतिहास में ऐसे महापुरूषों का उल्लेख मिलता है जिनका प्रादुर्भाव विश्व - उपकार - हित हुआ। सृष्टि में जब से मानव का आविर्भाव हुआ, तबसे उनके कल्याण का मार्ग-दर्शन करानेवाले कोर्इ-न-कोर्इ ऐसे महापुरूष होते ही रहे है।

सभी प्राणी सदा शान्ति की कामना रखते है। शान्ति की खोज प्राचीन काल में सर्वप्रथम ऋषियों ने की । इस शान्ति को प्राप्त करने वाले आधुनिक युग में सन्त कहलाये । इन सन्तो के मत को ही असल में सन्तमत कहते हैं। इसकी पूर्णरूप से व्याख्या ‘सन्तमत की परिभाषा’ में बहुत ही उत्तम ढंग से आ रही है, जो इस प्रकार हैं-

1 शान्ति स्थिरता वा निश्चलता को कहते है
2 शान्ति को जो प्राप्त कर लेते हैं, सन्त कहलाते हैं।
3 सन्तों के मत वा धर्म को सन्तमत कहते हैं।

4 शान्ति प्राप्त करने का प्रेरण मनुष्यों के हृदय में स्वाभाविक ही है। प्राचीन काल मे ऋषियों ने इसी प्रेरणा से प्रेरित होकर इसकी पूरी खोज की और इसकी प्राप्ति के विचारों को उप-निषदों में वर्णन किया। इन्हीं विचारों से मिलते हुए विचारों को कबीर साहब और गुरूनानक साहब आदि सन्तों ने भी भारती और पंजाबी आदि भाषाओं में सर्वसाधारण के उपकारार्थ वर्णन किया। इन विचारों को ही सन्तमत कहते है; परन्तु संतमत की मूल भित्ति तो उपनिषद् के वाक्यों को ही मानने पड़ते हैं; क्योंकि जिस ऊँचे ज्ञान का तथा उस ज्ञान के पद तक पहुँचाने के जिस विशेष साधन नादानुसन्धान अर्थात् सुरत-शब्द-योग का गौरव सन्तमत को है, वे तो अति प्राचीन काल की इसी भित्ति पर अंकित होकर जगमगा रहे हैं। भिन्न-भिन्न काल तथा देशों में सन्तों के प्रकट होने के कारण तथा इनके भिन्न-भिन्न नामों पर इनके अनुयायियों द्वारा सन्तमत के भिन्न-भिन्न नामकरण होने के कारण सन्तों के मत में पृथकत्व ज्ञात होता है; परन्तु यदि मोटी और बाहरी बातो को तथा पन्थार्इ भावों को हटा कर विचारा जाय और सन्तों के मूल एवं सार विचारों को ग्रहण किया जाय तो यही सिद्ध होगा कि सब सन्तों का एक ही मत हैं।

इस परिभाषा के अनुसार यह कहा जा सकता है कि सन्तमत का प्रचार प्राचीन काल से ही होता चला आ रहा है। लेकिन सब सन्तों का एक ही मत है, इस विचार के प्रथम प्रचारक हुए हाथरस के सन्त तुलसी साहब। ऐसे तो गोस्वामी तुलसी दास जी ने भी ‘‘यहाँ न पच्छपात कछु राखों। वेद पुरान सन्तमत भाखो ।।’’ कह कर सन्तमत को प्रश्रय दिया है, परन्तु तुलसी साहब ने किसी सम्प्रदाय का पक्ष नहीं लेकर सन्तों के विचार और मार्ग को ही श्रेष्ठता दी। उन्होंने स्पष्ट कहा-

“सन्त गुरू और पंथ न जाना। यही सन्त पन्थ हित माना।।’’

संत तुलसी साहब का इस धरती-तल पर कब आविभार्व हुआ, अज्ञात है। वे हाथरस के किले की खार्इ में रहकर साधना किया करते थे। इनके साथ में इनके शिष्य श्री गिरिधारी दास रहते थे। श्री गिरिधारी दास जी शहर से रोटियों माँग लाते और गुरू-शिष्य दोनों भोजन करते । उनकी मधुकरी वृति भी विचित्र थी। सप्ताह में छ: दिनों तक रोटियाँ माँगते और इन छ: दिनों की बची रोटियों को सातवें दिन मट्ठा माँग कर उसमें मिलाकर खा लिया करते थे। तुलसी साहब का कोर्इ विशेष जन-सम्पर्क नहीं था। संयोगवश हाथरस शहर के एक मुन्शी जी जिनका नाम श्री नवनीत राय था, को उनके दर्शन हुए। वर्षा के कारण किले की खार्इ में पानी हो गया था। इसलिये मुन्शी जी अनुनय-विनय करके उन्हें अपने घर पर ले गये। मुन्शी जी ने यथायोग्य सेवा की। वर्षा समाप्त होने पर तुलसी साहब पुन: किले की खार्इ में वापस आ गये। मुन्शी जी के पुत्र का नाम था मुन्शी महेश्वरी लाल जी। वे नि:सन्तान थे। सन्त तुलसी साहब के आशीर्वाद से मुन्शी महेश्वरी लाल जी के एक पुत्र हुआ, जिनका नाम पड़ा देवी प्रसाद। जब इनकी उम्र चार वर्ष की हुर्इ तो तुलसी साहब ने इनके माथे पर अपना कर-कमल रखकर शुभाशीष दिया। तुलसी साहब के इस शुभाशीष से आगे चलकर ये देवी साहब के नाम से प्रसिद्ध महात्मा हुए ।

बाबा देवी साहब सन्तमत-सत्संग का प्रचार जीवन-भर करते रहे। यों सन्त तुलसी साहब के बाद सन्तमत के प्रचारक सन्त राधास्वामी साहब भी थे, जिनका पूर्वनाम श्री शिवदयाल सिंह था, लेकिन इनके शरीरान्त होने पर इनके शिष्य राय बहादुर श्री शालिग्राम साहब ने सन्तमत के बदले राधास्वामी के नाम पर ही राधास्वामी मत का प्रचार करना आरम्भ किया। परिणाम स्वरूप यहाँ सन्तमत गौण हो गया और राधास्वामी मत की प्रसिद्धि हुर्इ। परन्तु बाबा देवी साहब सन्तमत के प्रचार को ही प्रश्रय देते रहे । बाबा ने भारत के प्राय: अधिकांश राज्यों (पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, कश्मीर, सिन्ध, हैदराबाद) आदि में घूम-घूम कर प्रचार के सिलसिले में आप बिहार भी आये। बिहार में भगलपुर, कटिहार, पुरैनियाँ, मुगेर, पटना, छपरा, संताल परगना आदि स्थानों मे सन्तमत का प्रचार करते रहे।

बिहार के भागलपुर के मायागंज निवासी श्री बाबू राजेन्द्र नाथ सिंह जी, बी.ए.बी.एल, जोतराम राय (पुरैनियाँ) के श्री बाबू धीरज लाल जी गुप्त, श्री रामदास जी उर्फ ध्यानानन्द परमहंस जी आदि महाशय बाबा साहब के आज्ञानुसार सन्तमत का प्रचार करते थे। 1909 र्इ. में श्री बाबू राजेन्द्र सिंह जी ने पूज्यपाद महषिर्ं मेंही परमहंस जी महाराज ने दृष्टि - योग का भेद प्राप्त किया। 1909 र्इ. में ही जब बाबा देवी साहब का शुभागमन मायागंज महल्ले में हुआ तो बाबू राजेन्द्र नाथ सिंह जी ने बाबा साहब से निवेदन किया और पूज्य महषिर्ं जी से कहा-लीजिये, मैंने आप का गुरु से हाथ पकड़वा दिया।’’ पीछे बाबा साहब से महर्षि जी को सुरत-शब्द-योग का भेद भी प्राप्त हुआ। बाबा साहब के उपदेशानुसार महर्षिं जी महाराज ने अपने जीवन के प्रथम चरण में घोर साधना की। सिकलीगढ़ धरहरा में जहाँ आप का पितृगृह है, एक आम के बगीचे में कुआँ खोद कर कर्इ महीने तक आपने साधना की। उसके बाद जब भागलपुर की कुप्पाधाट-स्थित गुफा का पता चला तो इस गुफा में 1933-34 र्इ. में भी साधना की, साधना के साथ - साथ आप सन्तमत सत्संग और साधना प्रचार भी करते रहे। आप के प्रचार का काम घोर-से घोर देहातों में रहा है। जहाँ आवागमन के लिये बैलगाड़ी के अलावा और कोर्इ दूसरा साधन नहीं, वैसे स्थानों में घूम-घूम कर आप सत्संग का प्रचार करते रहे। समाज के साधारण स्तर के लोग, जिनके पास कोर्इ नहीं जाते, जो विद्या-विहीन थे, जो हल कुदाल और खुरपी चलाने का काम करते थे, ऐसे लोगों के बीच भी आपने सन्तमत की सरल साधना का ज्ञान सत्संग के द्वारा काराया। नेपाल की तरार्इ मोरंग के बीहड़ और अति दुर्गम स्थानो में, जहाँ के लोग ठीक से वस्त्र भी पहनना नहीं जानते थे, वैसे लोगों में भी आपने संतमत के ज्ञान और साधना का प्रचार और प्रसार किया। आपका कहना है-’’जिसे कोर्इ नहीं पूछता, मै उसके पास जाता हूँ । क्या ये लोग अध्यात्म-ज्ञान के अधिकारी नहीं है ?’’ आपने सन्तमत-सिद्धान्त में यह स्पष्ट कर दिया है कि-

‘जितने मनुष तनधारि हैं, प्रभु भक्ति कर सकते सभी।’

यही कारण है जहाँ पहले सन्तमत - सत्संग में हजार दो हजार की भी उपस्थिति नहीं हो पाती थी, आज वहाँ लाखों की भीड़ होती हैं। आपके सदुपदेशों से प्रेरित होकर क्या देहात, क्या शहर ; क्या विद्वान, क्या अनपढ़ सभी स्थानों और सभी वर्गों के लोग सन्तमत की और आकृष्ट हो रहे है। साधारण से साधारण स्थानों में जब आपका पदार्पण होता है, तो उस क्षेत्र के लोग आपके दर्शन और सदुपदेश से लाभान्वित होने उमड़ पड़ते है। भारत ही नहीं विदेश-रूस, जापान, और स्वीडेन के भी कुछ लोग आपसे दीक्षित हुए है। आपने वेद, उपनिषद् और सिद्धान्त’ में निरूपित कर दिया है कि र्इश्वर का स्वरूप क्या है ? मायाबद्ध जीव आवागमन के चक्र मे पड़कर दु:ख क्यों भोग रहा है और माया से निवृत्ति का उपाय क्या है? र्इश्वर-प्राप्ति के साधन क्या है? और अन्त में सदाचार का पालन करते हुए एक सर्वेश्वर पर अचल विश्वास और पूर्ण भरोसा रखना, अपने अन्तर में उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना, सत्संग, दृढ़ ध्यानभ्यास, सदगुरू-सेवा करना; इन पाँचों को आवश्यक और अनिवार्य बतलाया है।

आप स्वावलम्बी जीवन-यापन करने का उपदेश देते है। आपका कहना है कि किसी भी वेश में रहो, र्इश्वर का भजन अर्थात् भक्ति करो और जहाँ रहो सत्संग करो। घर-वार में रहकर भी भजन हो सकता है और वैरागी भी भजन कर सकता है। देश में शान्ति के लिये आप अपने गुरू बाबा देवी साहब के इस वचन पर बहुत जोर देते है, ‘‘जब किसी देश में आध्यात्मिकता आयगी तो समाज के लोग सदाचारी होंगे। समाज के लोग जब सदाचारी हो जायेगे तो सामाजिक नीति भी उत्तम होगी। उत्तम सामाजिक नीति होने के कारण राजनीति भी पवित्र हो जायगी और देश में शान्ति विराजती रहेगी।’’ प्रात:स्मरणीय अनन्त श्री विभूषित सन्त सद्गुरू महर्षिं मेंहीं परमहंस जी महाराज संतमत के इस ज्ञान गंगा को 101 वर्ष तक प्रवाहित करते हुए 8 जून 1986 र्इ. के रात्रि साढे आठ बजे संसार से महाप्रयाण कर गये। 
उनकी इहलीला सम्वरण के पश्चात् उनके उत्तराधिकारी एवं पट्ठ शिष्य संतमत के 'वर्त्तमान आचार्य’ के पद पर महर्षिं संतसेवी परमहंस जी महाराज संतमत के ज्ञान का अलख जगाते रहे।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज ने 4 जून, 2007 ई0 की रात्रि लौकिक लीला का परित्याग कर स्थूल जगत से विदाई ले ली।
6 जून, 2007 ई0 के स्वर्णिम दिवस पर अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महासभा, साधु-समाज एवं प्रबुद्ध सत्संगियों द्वारा संतमत-सत्संग के गौरवमय ‘वर्तमान आचार्य’ के पद पर
पूज्यपाद महर्षि हरिनन्दन परमहंसजी महाराज को आसीन किया गया। तब से संतमत का उन्नयन नई ऊँचाई ले रहा है। गुरुदेव के ज्ञान की पताका आपके निर्देशन में अपनी अद्भुत चमक के साथ लहरा रही है।

सन्त-स्तुति (सांयकालीन) EVENING PRAISE | सब सन्तन्ह की बडि़ बलिहारी । Santmat-Satsang | Maharshi-Mehi Sab Santanh ki bari balihari..

सन्त-स्तुति (सांयकालीन)



प्रातः सांयकालीन सन्त-स्तुति
सब सन्तन्ह की बडि़ बलिहारी।
उनकी स्तुति केहि विधि कीजै,
मोरी मति अति नीच अनाड़ी।।सब.।।1।।
दुख-भंजन भव-फंदन-गंजन,
ज्ञान-घ्यान निधि जग-उपकारी।
विन्दु-ध्यान-विधि नाद-ध्यान-विधि
सरल-सरल जग में परचारी।।सब.।।2।।
धनि- ऋषि-सन्तन्ह धन्य बुद्ध जी,
शंकर रामानन्द धन्य अघारी।
धन्य हैं साहब सन्त कबीर जी
धनि नानक गुरू महिमा भारी ।। सब.।।3।।
गोस्वामी श्री तुलसि दास जी,
तुलसी साहब अति उपकारी।
दादू सुन्दर सुर श्वपच रवि
जगजीवन पलटू भयहारी।। सब.।।4।।
सतगुरु देवी अरू जे भये, हैं,
होंगे सब चरणन शिर धारी।
भजत है ‘मेँहीँ ’ धन्य-धन्य कहि
गही सन्त पद आशा सारी।। सब.।।5।।

अपराह्न एवं सायंकालीन विनती 
प्रेम-भक्ति गुरु दीजिये, विनवौं कर जोरी।
पल-पल छोह न छोडि़ये, सुनिये गुरु मोरी ।।1।।
युग-युगान चहुँ खानि में, भ्रमि-भ्रमि दुख भूरी।
पाएउँ पुनि अजहूँ नहीं, रहूँ इन्हतें दूरी ।।2।।
पल-पल मन माया रमे, कभुँ विलग न होता।
भक्ति-भेद बिसरा रहे, दुख सहि-सहि रोता। ।।3।।
गुरु दयाल दया करी, दिये भेद बताई।
महा अभागी जीव के, दिये भाग जगाई ।।4।।
दृष्टि टिकै सु्रति धुन रमै, अस करु गुरु दाया।
भजन में मन ऐसो रमै, जस रम सो माया ।।5।।
जोत जगे धुनि सुनि पड़ै, सु्रति चढै़ आकाशा।
सार धुन्न में लीन होई, लहे निज घर वासा ।।6।।
निजपन की जत कल्पना, सब जाय मिटाई।
मनसा वाचा कर्मणा, रहे तुम में समाई ।।7।।
आस त्रास जग के सबै, सब वैर न नेहू।
सकल भुलै एके रहे, गुरु तुम पद स्नेहू ।।8।।
काम क्रोध मद लोभ के, नहिं वेग सतावै।
सब प्यारा परिवार अरू, सम्पति नहिं भावै ।।9।।
गुरु ऐसी करिये दया, अति होइ सहाई।
चरण शरण होइ कहत हौं, लीजै अपनाई। ।।10।।
तुम्हरे जोत-स्वरूप अरु, तुम्हरे धुन-रूपा।
परखत रहूँ निशि दिन गुरु, करु दया अनूपा ।।11।।

आरती 
आरती संग सतगुरु के कीजै।
अन्तर जोत होत लख लीजै ।।1।।
पाँच तत्व तन अग्नि जराई।
दीपक चास प्रकाश करीजै ।।2।।
गगन-थाल रवि-शशि फल-फूला।
मूल कपूर कलश धर दीजै ।।3।।
अच्छत नभ तारे मुक्ताहल।
पोहप-माल हिय हार गुहीजै ।।4।।
सेत पान मिष्टान्न मिठाई।
चन्दन धूप दीप सब चीजैं ।।5।।
झलक झाँझ मन मीन मँजीरा।
मधुर-मधुर धुनि मृदंग सुनीजै ।।6।।
सर्व सुगन्ध उडि़ चली अकाशा।
मधुकर कमल केलि धुनि धीजै ।।7।।
निर्मल जोत जरत घट माँहीं।
देखत दृष्टि दोष सब छीजै ।।8।।
अधर-धार अमृत बहि आवै।
सतमत-द्वार अमर रस भीजै ।।9।।
पी-पी होय सुरत मतवाली।
चढि़-चढि़ उमगि अमीरस रीझै ।।10।।
कोट भान छवि तेज उजाली।
अलख पार लखि लाग लगीजै ।।11।।
छिन-छिन सुरत अधर पर राखै।
गुरु-परसाद अगम रस पीजै ।।12।।
दमकत कड़क-कड़क गुरु-धामा।
उलटि अलल ‘तुलसी’ तन तीजै । ।13।।

पूज्यपाद महर्षि मे मेँहीँ परमहंसजी महाराज द्वारा रचित आरती जो उपरिलिखित आरती आरती के बाद गायी जाती है - 
आरति तन मन्दिर में कीजै।
दृष्टि युगल कर सन्मुख दीजै ।।1।।
चमके विन्दु सूक्ष्म अति उज्जवल।
ब्रह्मजोति अनुपम लख लीजै ।।2।।
जगमग जगमग रूप ब्रह्मण्डा।
निरखि निरखि जोती तज दीजै ।।3।।
शब्द सुरत अभ्यास सरलतर।
करि करि सार शबद गहि लीजै ।।4।।
ऐसी जुगति काया गढ़ त्यागि।
भव-भ्रम-भेद सकल मल छीजै ।।5।।
भव-खण्डन आरति यह निर्मल।
करि ‘मेँहीँ ’ अमृत रस पीजै ।।6।।

ईश-स्तुति (प्रातः कालीन) | MORNING PRAISE | सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर औरू अक्षर पार में। निर्गुण के पार में सत् असत् हू के पार में । Santmat-Satsang | Maharshi-Mehi

ईश-स्तुति (प्रातः कालीन)



ईश-स्तुति
सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर औरू अक्षर पार में।
निर्गुण के पार में सत् असत् हू के पार में ।।1।।
सब नाम रूप के पार में मन बुद्धि वच के पार में।
गो गुण विषय पँच पार में गति भाँति के हू पार में।।2।।
सूरत निरत के पार में सब द्वन्द्व द्वैतन्ह पार में।
आहत अनाहत पार में सारे प्रप´चन्ह पार में।।3।।
सापेक्षता के पार में त्रिपुटी कुटी के पार में।
सब कर्म काल के पार में सारे ज्जालन्ह पार में।।4।।
अद्वय अनामय अमल अति आधेयता-गुण पार में।
सत्ता स्वरूप अपार सर्वाधार मैं-तू पार मे।।5।।
पुनि ओऊम् सोहम् पार में अरू सच्चिदानन्द पार में।
हैं अनन्त व्यापक व्याप्य जो पुनि व्याप्य व्यापक पार में।।6।।
हैं हिरण्यगर्भहु खर्व जासों जो हैं सान्तन्ह पार में।
सर्वेश हैं अखिलेश हैं विश्वेश हैं सब पार में।।7।।
सत्शब्द धर कर चल मिलन आवरण सारे पार में।
सद्गुरु करूण कर तर ठहर धर ‘मेँहीँ’ जावे पार में।।8।।

प्रातः सांयकालीन सन्त-स्तुति
सब सन्तन्ह की बडि़ बलिहारी।
उनकी स्तुति केहि विधि कीजै,
मोरी मति अति नीच अनाड़ी।।सब.।।1।।
दुख-भंजन भव-फंदन-गंजन,
ज्ञान-घ्यान निधि जग-उपकारी।
विन्दु-ध्यान-विधि नाद-ध्यान-विधि
सरल-सरल जग में परचारी।।सब.।।2।।
धनि- ऋषि-सन्तन्ह धन्य बुद्ध जी,
शंकर रामानन्द धन्य अघारी।
धन्य हैं साहब सन्त कबीर जी
धनि नानक गुरू महिमा भारी ।। सब.।।3।।
गोस्वामी श्री तुलसि दास जी,
तुलसी साहब अति उपकारी।
दादू सुन्दर सुर श्वपच रवि
जगजीवन पलटू भयहारी।। सब.।।4।।
सतगुरु देवी अरू जे भये, हैं,
होंगे सब चरणन शिर धारी।
भजत है ‘मेँहीँ’ धन्य-धन्य कहि
गही सन्त पद आशा सारी।। सब.।।5।।

प्रातःकालीन गुरु-स्तुति
‘‘दोहा’’
मंगल मूरति सतगुरु, मिलवैं सर्वाधार।
मंगलमय मंगल करण, विनवौं बारम्बार।।1।।
ज्ञान-उदधि अरू ज्ञान-घन, सतगुरु शंकर रूप
नमो-नमो बहु बार हीं, सकल सुपूज्यन भूप।।2।।
सकल भूल-नाशक प्रभू, सतगुरु परम कृपाल।
नमो कंज-पद युग पकडि, सुनु प्रभुं नजर निहाल।।3।।
दया दृष्टि करि नाशिये, मेरो भूल अरू चूक।
खरो तीक्ष्ण बुधि मोरि ना,पाणि जोडि़ कहुँ कूक।।4।।
नमो गुरु सतगुरु नमो, नमो नमो गुरुदेव।
नमो विघ्न हरता गुरु, निर्मल जाको भेव।।5।।
ब्रह्मरूप सतगुरु नमो, प्रभु सर्वेश्वर रूप।
राम दिवाकर रूप गुरु, नाशक भ्रम-तम-कूप।।6।।
नमो सुसाहब सतगुरु, विघ्न विनाशक द्याल।
सुबुधि विगासक ज्ञान-प्रद, नाशक भ्रम-तम-जाल।।7।।
नमो-नमो सतगुरु नमो, जा सम कोउ न आन
परम पुरूषहू तें अधिक, गावें सन्त सुजान।।8।।

छप्पय 
जय जय परम प्रचण्ड, तेज तम-मोह-विनाशन।
जय जय तारण तरण, करन जन शुद्ध बुद्ध सन।।
जय जय बोध महान, आन कोउ सरवर नाहीं।
सुर नर लोकन माहिं, परम कीरति सब ठाहीं।।
सतगुरु परम उदार हैं, सकल जयति जय-जय करें।
तम अज्ञान महान् अरू, भूल-चूक-भ्रम मम हरें।।1।।
जय जय ज्ञान अखण्ड, सूर्य भव-तिमिर-विनाशन।
जय-जय-जय सुख रूप, सकल भव-त्रास-हरासन।।
जय-जय संसृति-रोग-सोग, को वैद्य श्रेष्ठतर ।
जय-जय परम कृपाल, सकल अज्ञान चूक हर।।
जय-जय सतगुरु परम गुरु, अमित-अमित परणाम मैं।
नित्य करूँ, सुमिरत रहूँ, प्रेम-सहित गुरु नाम मैं।।2।।
जयति भक्ति-भण्डार, ध्यान अरू ज्ञान-निकेतन।
योग बतावनिहार, सरल जय-जय अति चेतन।।
करनहार बुधि तीव्र, जयति जय-जय गुरु पूरे।
जय-जय गुरु महाराज, उक्ति-दाता अति रूरे।।
जयति-जयति श्री सतगुरु, जोडि पाणि युग पद धरौं।
चूक से रक्षा कीजिये, बार-बार विनती करौं।।3।।
भक्ति योग अरू ध्यान को, भेद बतावनिहारे।
सतसंगति अरू सूक्ष्म वारता, देहि बताई
श्रवण मनननिदिध्यास, सकल दरसावनिहारे।
अकपट परमोदार न कछु, गुरु धरे छिपाई।।
जय-जय-जय सतगुरु सुखद, ज्ञान सम्पूरण अंग सम।
कृपा-दृष्टि करि हेरिये, हरिय युक्ति बेढंग मम।।4।।

प्रातः कालीन नाम-संकीत्र्तन
अव्यक्त अनादि अनन्त अजय,
अज आदिमूल परमातम जो।
ध्वनि प्रथम स्फुटित परा धारा,
जिनसे कहिये स्फोट है सो ।।1।।
है स्फोट वही उद्गीथ वही।
ब्रह्मनाद शब्दब्रह्म ओउम् वही।
अति मधुर प्रणव ध्वनि धार वही,
है परमातम-प्रतीक वही ।।2।।
प्रभु का ध्वन्यात्मक नाम वही,
है सारशबद सत्शब्द वही।
है सत् चेतन अव्यक्त वहीं,
व्यक्तो में व्यापक नाम वहीं, ।।3।।
है सर्वव्यापिनि ध्वनि राम वही,
सर्व-कर्षक हरि-कृष्ण नाम वही।
है परम प्रचण्डिनि शक्ति वही,
है शिव शंकर हर नाम वही, ।।4।।
पुनि राम नाम है अगुण वही,
है अकथ अगम पूर्ण काम वही।।
स्वर-व्यंजन-रहित अघोष वही,
चेतन ध्वनि-सिन्धु अदोष वही ।।5।।
है एक ओउम् सतनाम वही,
ऋषि-सेवित प्रभु का नाम वही,
मुनि-सेवित गुरु का नाम वही।
भजो ऊँ ऊँ प्रभु नाम यही,
भजो ऊँ ऊँ मेँहीँ नाम यही। ।।6।।

आरती 
आरती संग सतगुरु के कीजै।
अन्तर जोत होत लख लीजै ।।1।।
पाँच तत्व तन अग्नि जराई।
दीपक चास प्रकाश करीजै ।।2।।
गगन-थाल रवि-शशि फल-फूला।
मूल कपूर कलश धर दीजै ।।3।।
अच्छत नभ तारे मुक्ताहल।
पोहप-माल हिय हार गुहीजै ।।4।।
सेत पान मिष्टान्न मिठाई।
चन्दन धूप दीप सब चीजैं ।।5।।
झलक झाँझ मन मीन मँजीरा।
मधुर-मधुर धुनि मृदंग सुनीजै ।।6।।
सर्व सुगन्ध उडि़ चली अकाशा।
मधुकर कमल केलि धुनि धीजै ।।7।।
निर्मल जोत जरत घट माँहीं।
देखत दृष्टि दोष सब छीजै ।।8।।
अधर-धार अमृत बहि आवै।
सतमत-द्वार अमर रस भीजै ।।9।।
पी-पी होय सुरत मतवाली।
चढि़-चढि़ उमगि अमीरस रीझै ।।10।।
कोट भान छवि तेज उजाली।
अलख पार लखि लाग लगीजै ।।11।।
छिन-छिन सुरत अधर पर राखै।
गुरु-परसाद अगम रस पीजै ।।12।।
दमकत कड़क-कड़क गुरु-धामा।
उलटि अलल ‘तुलसी’ तन तीजै । ।13।।

पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज द्वारा रचित आरती जो उपरिलिखित आरती आरती के बाद गायी जाती है - 
आरति तन मन्दिर में कीजै।
दृष्टि युगल कर सन्मुख दीजै ।।1।।
चमके विन्दु सूक्ष्म अति उज्जवल।
ब्रह्मजोति अनुपम लख लीजै ।।2।।
जगमग जगमग रूप ब्रह्मण्डा।
निरखि निरखि जोती तज दीजै ।।3।।
शब्द सुरत अभ्यास सरलतर।
करि करि सार शबद गहि लीजै ।।4।।
ऐसी जुगति काया गढ़ त्यागि।
भव-भ्रम-भेद सकल मल छीजै ।।5।।
भव-खण्डन आरति यह निर्मल।
करि ‘मेँहीँ अमृत रस पीजै ।।6।।

सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की अमूल्य कृतियाँ | Maharshi Mehi Books | Maharshi Mehi Ashram Kuppaghat | Bhagalpur

 


(1) संतमत-सिद्धान्त और गुरु-कीर्तन- महर्षिजी द्वारा रचित यह उनकी पहली पुस्तक है। यह 1926 ई0 में युनाइटेड प्रेस, भागलपुर से प्रकाशित हुई थी। इसमें कविताएँ, सन्तमत-सिद्धान्त, संतमत की परिभाषा आदि हैं।
 (2) रामचरितमानस-सार सटीक-संत कवि मेँहीँ की यह दूसरी रचना है। यह 1930 ई0 में भागलपुर, बिहार प्रेस से प्रकाशित हुई थी। इसमें गोस्वामी तुलसीदासजी के रामचरितमानस के 152 दोहों और 951 चौपाइयों की व्याख्या की गयी है। इसका मुख्य लक्ष्य है-स्थूल भक्ति और सूक्ष्म भक्ति के साधनों को प्रकाश में लाना।
 (3) विनय-पत्रिका-सार सटीक-यह तीसरी रचना 1931 ई0 में भागलपुर के युनाइटेड प्रेस में छपी थी। इसमें गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज रचित ‘विनय-पत्रिका’ के कुछ पदों की सरल व्याख्या की गई है।
 (4) भावार्थ-सहित घटरामायण- पदावली-महर्षिजी की यह चौथी रचना है। इसका प्रकाशन सर्वप्रथम 1935 ई0 में युनाइटेड प्रेस, भागलपुर से हुआ था। इसमें संत तुलसी साहब की पुस्तक ‘घटरामायण’ के 7 छन्दों, 3 सोरठों, 3 चौपाइयों, एक दोहे और एक आरती का भावार्थ दिया गया है।
 (5) सत्संग-योग (चारो भाग)- महर्षिजी की यह पाँचवीं रचना है। इसमें सूक्ष्म भक्ति का निरूपण वेद, शास्त्र, उपनिषद्, उत्तर- गीता, गीता, अध्यात्म-रामायण, महाभारत, संतवाणी और आधुनिक विचारकों के विचारों द्वारा किया गया है। इसके स्वाध्याय और चिन्तन-मनन से अध्यात्म-पथ के पथिकों को सत्पथ मिल जाता है। इसका प्रकाशन सर्वप्रथम 1940 ई0 में हुआ था।
 (6) महर्षि मेँहीँ-पदावली-यह महर्षि मेँहीँ की छठी पुस्तक है। इसका रचना-काल 1925 से 1950 ई0 है। यह महर्षिजी की बड़ी लोकप्रिय काव्य-कृति है। इसमें 142 पद हैं। इसके पदों का वर्गीकरण विषय के आधार पर किया गया है। परम प्रभु परमात्मा, सन्तगण और मार्गदर्शक सद्गुरु, इन तीनों को एक ही के तीन रूप समझकर इन तीनों की स्तुति-प्रार्थनाओं को प्रथम वर्ग में स्थान दिया गया है । 

द्वितीय वर्ग में सन्तमत के सिद्धान्तों का एकत्रीकरण है। तृतीय वर्ग में प्रभु-प्राप्ति के एक ही साधन ‘ध्यान-योग’ का संकलन है, जो मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-साधन और नादानुसंधान या सुरत-शब्द-योग का अनुक्रमबद्ध संयोजन-सोपान है। चतुर्थ वर्ग में ‘संकीर्त्तन’ नाम देकर तद्भावानुकूल गेय पदों के संचयन का प्रयत्न है। पंचम वर्ग में आरती उतारी गई है अर्थात् उपस्थित की गई है।
 साधकों की सुविधा का ख्याल करके नित्य प्रति की जानेवाली स्तुति-प्रार्थनाओं, सन्तमत- सिद्धान्त एवं परिभाषा आदि को प्रारम्भ में ही अनुक्रम-बद्ध कर दिया गया है और उसे स्तुति-प्रार्थना का अंग मानकर उसी वर्ग में स्थान दिया गया है।
 (7) सत्संग-सुधा, प्रथम भाग-यह महर्षिजी की सातवीं पुस्तक है। इसमें उनके 18 प्रवचनों का संकलन है। इसका प्रथम प्रकाशन 1954 ई0 में हुआ था।
 (8) श्रीगीता-योग-प्रकाश-गीता के सच्चे भेद को इस रचना में उद्घाटित किया गया है। इसका प्रथम प्रकाशन सन् 1955 ई0 में हुआ था। इस पुस्तक में एक स्थल पर महर्षिजी कहते हैं-‘समत्वयोग प्राप्त कर, स्थितप्रज्ञ बन कर्म करने की कुशलता या चतुराई में दृढ़ारूढ़ रह कर्त्तव्य कर्मों के पालन करने का उपदेश गीता देती है।’
 (9) वेद-दर्शन-योग-यह महर्षिजी की नौवीं कृति है। इसमें चारो वेदों से चुने हुए एक सौ मंत्रें पर टिप्पणी लिखकर संतवाणी से उनका मिलान किया गया है। इसका प्रथम प्रकाशन 1956 ई0 में हुआ था।
 (10) सत्संग-सुधा, द्वितीय भाग-इसका प्रथम प्रकाशन 1964 ई0 में हुआ था। इसमें भी उनके 18 प्रवचनों का संकलन है। सत्संग-सुधा के दोनों भागों के अध्ययन से पाठकों को यह बोध होगा कि वेदों, उपनिषदों, गीता, सन्तवाणियों में सदा से ईश्वर-स्वरूप उसके साक्षात्कार करने की सद्युक्ति एवं अनिवार्य सदाचार-पालन के निर्देश बिल्कुल एक ही हैं।
 (11) संतवाणी सटीक-इसमें 31 सन्त- कवियों के चुने हुए पदों की व्याख्या महर्षिजी ने की है। इसका प्रथम प्रकाशन 1968 ई0 में हुआ था।
 (12) ईश्वर का स्वरूप और उसकी प्राप्ति-इसका प्रथम प्रकाशन 1963 ई0 में हुआ था। इसमें ईश्वर के स्वरूप का निरूपण किया गया है। ईश्वर का स्वरूप कैसा है, उसकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? इसका विशद विश्लेषण इसमें किया गया है। यह पूर्णियाँ जिले के डोभा गाँव में 1950 ई0 में उनका दिया गया प्रवचन है।
 (13) ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर की भक्ति-इसका रचना-काल 1970 ई0 है। इसमें बतलाया गया है कि परमात्मा को प्राप्त करने के लिए ज्ञान-योग और भक्ति का समन्वय परमावश्यक है। किसी एक के अभाव में साधना पूर्ण नहीं हो सकती।
 (14) मोक्ष-दर्शन-इसका प्रथम प्रकाशन 1967 ई0 में हुआ था। इसमें महर्षिजी ने सूत्र-रूप में प्रभु, माया, ब्रह्म, प्रकृति, जीव, अन्तस्साधना, परमपद, सद्गुरु, प्रणवनाद आदि का सुन्दर और सरल विवेचन किया है। उन्होंने बतलाया है कि सुरत-शब्द-योग किये बिना परमात्मा को प्राप्त करना असम्भव है।
 (15) महर्षि मेँहीँ-वचनामृत (प्रथम भाग)-इसका रचनाकाल 1989 ई0 है। इसमें 16 प्रवचनों का संकलन है।
 (16) सत्संग-सुधा, तृतीय भाग-2001 ई0। इसमें 18 प्रवचनों का संकलन है।
 (17) सत्संग-सुधा, चतुर्थ भाग-2003 ई0। इसमें 26 प्रवचनों का संकलन है।
 (18) महर्षि मेँहीँ-सुधा-सागर-2004 ई0। इसमें 323 प्रवचनों का संकलन है।

जीवन में सदा शांति का एहसास - भगवान बुद्ध। Jeevan me shanti ka ehsas | Bhagwan Budha | Santmat Satsang

एक बार भगवान बुद्ध अपने शिष्यों के साथ कही जा रहे थे। उनके प्रिय शिष्य आनंद ने मार्ग में उनसे एक प्रश्न पूछा -‘भगवान! जीवन में पूर्ण रूप से कभी शांति नहीं मिलती, कोई ऐसा मार्ग बताइए कि जीवन में सदा शांति का अहसास हो।

बुद्ध आनंद का प्रश्न सुनकर मुस्कुराते हुए बोले,’ तुम्हे इसका जबाब अवश्य देंगे किन्तु अभी हमें प्यास लगी है, पहले थोड़ा जल पी ले। क्या हमारे लिए थोड़ा जल लेकर आओगे?
बुद्ध का आदेश पाकर आनंद जल की खोज में निकला तो थोड़ी ही दूरी पर एक झरना नजर आया। वह जैसे ही करीब पंहुचा तब तक कुछ बैलगाड़िया वहां आ पहुंची और झरने को पार करने लगी। उनके गुजरने के बाद आनंद ने पाया कि झील का पानी बहुत ही गन्दा हो गया था इसलिए उसने कहीं और से जल लेने का निश्चय किया। बहुत देर तक जब अन्य स्थानों पर जल तलाशने पर जल नहीं मिला तो निराश होकर उसने लौटने का निश्चय किया।
उसके खाली हाथ लौटने पर जब बुद्ध ने पूछा तो उसने सारी बाते बताई और यह भी बोला कि एक बार फिर से मैं किसी दूसरी झील की तलाश करता हूँ जिसका पानी साफ़ हो । यह कहकर आनंद जाने लगा तभी भगवान बुद्ध की आवाज सुनकर वह रुक गया । बुद्ध बोले-‘दूसरी झील तलाश करने की जरुरत नहीं, उसी झील पर जाओ’ ।
आनन्द दोबारा उस झील पर गया किन्तु अभी भी झील का पानी साफ़ नहीं हुआ था । कुछ पत्ते आदि उस पर तैर रहे थे । आनंद दोबारा वापिस आकर बोला इस झील का पानी अभी भी गन्दा है । बुद्ध ने कुछ देर बाद उसे वहाँ जाने को कहा । थोड़ी देर ठहर कर आनंद जब झील पर पहुंचा तो अब झील का पानी बिलकुल पहले जैसा ही साफ़ हो चुका था । काई सिमटकर दूर जा चुकी थी, सड़े- गले पदार्थ नीचे बैठ गए थे और पानी आईने की तरह चमक रहा था ।
इस बार आनंद प्रसन्न होकर जल ले आया जिसे बुद्ध पीकर बोले कि ‘आनंद जो क्रियाकलाप अभी तुमने किया, तुम्हारा जबाब इसी में छुपा हुआ है । बुद्ध बोले -‘ हमारे जीवन के जल को भी विचारों की बैलगाड़ियां रोज गन्दा करती रहती है और हमारी शांति को भंग करती हैं । कई बार तो हम इनसे डर कर जीवन से ही भाग खड़े होते है, किन्तु हम भागे नहीं और मन की झील के शांत होने कि थोड़ी प्रतीक्षा कर लें तो सब कुछ स्वच्छ और शांत हो जाता है; "ठीक उसी झरने की तरह जहाँ से तुम ये जल लाये हो। यदि हम ऐसा करने में सफल हो गए तो जीवन में सदा शान्ति के अहसास को पा लेगे।" जय गुरु ।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

व्यर्थ का विवाद नहीं करें | Vyartha ka vivad nahi karen | Jeevan me | प्रेम ही ऐसी महान शक्ति है जो प्रत्येक दशा में जीवन को आगे बढ़ाने में सहायक होती है।

व्यर्थ का विवाद मत किया कीजिए;

ज्ञानी जनों को कभी भी किसी वाद विवाद में नहीं पड़ना चाहिए और न ही शामिल होना चाहिए।
मनुष्य अनुभूतियों और भावनाओं, विचारों और इच्छाओं द्वेष और घृणा, अभिमान और अहंकार, भय और आदर, शक्ति और सम्मान का दास है। हमें सदैव ध्यान रखना चाहिए कि हम सब लोग मनुष्य हैं देवता नहीं हैं। हमारे विचार और भावनाएं शिलाखण्ड पर लिखे अक्षर नहीं हैं। हम सब अपने को बुद्धिमान, विचारवान तथा तर्कशास्त्री होने का दावा करते रहते हैं और उसके अनुसार प्रयत्न भी करते हैं।

मानव मन अपनी स्मृतियों से स्नेह करता है। जो विचार हमारे मस्तिष्क में घर कर चुके हैं उनके प्रति सम्मान की भावना अवश्य बढ़ती रहती है। जब कोई हमारे प्रिय विचारों पर कोई प्रहार करना चाहता है तो हम अपनी पूर्ण शक्ति के साथ उनकी रक्षा करने में जुट जाते हैं। दूसरों की ओर से बिलकुल कान बन्द कर रक्षा के लिए शत्रुता का रुख धारण कर लेते हैं। यही है मानव स्वभाव। यह बात हमारे साथ, आपके साथ और के साथ है। तर्क-वितर्क, खण्डन-मण्डन में भेदभाव अधिक बढ़ता है। इसमें घृणा के कारण ऐसा अन्तर पड़ जाता है। कि उस अन्तर को भरना कठिन हो जाता है।

हम तर्क-वितर्क, वाद-विवाद तथा खण्डन-मण्डन आदि को त्यागकर मैत्रीपूर्ण ढंग से एक दूसरे से व्यहार करें। यदि हम किसी को प्रेम और सहानुभूति के साथ सन्तुष्ट कर सकें या कोई बात मनवा सकें तो निःसन्देह हम उसके वास्तविक शुभचिन्तक तथा सच्चे मित्र बन जायेंगे।

तर्क-वितर्क तथा बाल की खाल निकालने से हम मित्र नहीं बना सकते। सच्चे मित्र इस ढंग से प्राप्त नहीं होते हैं। वह मार्ग दूसरा ही है। वह प्रेम और सहानुभूति का मार्ग है जिस पर मित्र ही मित्र दिखाई पड़ते हैं। प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक बात है। यदि आप किसी को गाली देंगे तो बदले में आप गाली खायेंगे। यदि आप किसी को मूर्ख कहेंगे तो आपको भी मूर्ख बनाया जायगा। आप आलोचना करेंगे तो आपको प्रत्यालोचना मिलेगी। अतः यदि आप प्रेम करेंगे तो अवश्य प्रेम प्रतिदान होगा। जैसा बोयेंगे वैसा काटेंगे यह सीधी सी बात है।

प्रेम ही ऐसी महान शक्ति है जो प्रत्येक दशा में जीवन को आगे बढ़ाने में सहायक होती है। हमें सदैव सहनशीलता तथा धैर्य का सहारा लेना चाहिये। प्रत्येक की बात को सुनने का स्वभाव होना चाहिए। कट्टरता और कायरता को त्यागकर प्रत्येक को प्रसन्न करने का प्रयत्न करना चाहिए। दूसरों की आलोचना को छोड़ देना चाहिए, विश्वास रखिए कि आपकी प्रेम और सहानुभूतिपूर्ण सच्ची बातों को सुनने के लिए दुनिया विशेष होगी।

सही मान्यता प्रेम द्वारा ही हो सकती है। बिना प्रेम के मान्यता कृत्रिम होगी। विचार तर्क-वितर्क की दृष्टि नहीं हैं। विचारधारणा तथा विश्वास बहुकाल के सत्संग से बनते हैं। - जय गुरु महाराज।

गुरु को नित वन्दन करो... | Guru ko nit vandan karo | Shishyon ke Guru ek hai Guru ko shishya anek |

गुरु को नित वंदन करो, हर पल है गुरूवार।

गुरु ही देता शिष्य को, निज आचार-विचार।।

शिष्यों के गुरु एक है, गुरु को शिष्य अनेक।
भक्तों को हरि एक ज्यों, हरि को भक्त अनेक।।

संत मनुष्य के सच्चे मित्र हैं-संतों का प्रेम निर्मल होता है! सच्चा संत परमात्मा से मिलाता है तथा हमें अात्मदर्शन कराता है, मोह निद्रा में सोए मानव को जगाने का कार्य भी संत ही करते हैं!
बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥

अर्थात; मैं ऐसे संतों की वन्दना करता हूँ, जिनके चित्त में किसी प्रकार का भेद नहीं है, जिनका न तो कोई मित्र है और न ही कोई शत्रु है, जिस प्रकार हाथ से तोड़े गये सुगन्धित फूल उन्ही हाथों की अंजलि में रखने पर दोनों हाथों को समान रूप से सुगंधित करते हैं।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र मेहता, गुरुग्राम

गुरु भक्ति से ईश्वर प्राप्ति शीघ्र | सदगुरु से प्राप्त मंत्र को श्रद्धा-विश्वासपूर्वक जपने से कम समय में ही काम बन जाता है | Santmat-Satsang

गुरुभक्ति से ईश्वर प्राप्ति शीघ्र

सदगुरु से प्राप्त मंत्र को श्रद्धा-विश्वासपूर्वक जपने से कम समय में ही काम बन जाता है।

शास्त्रों में यह कथा आती है कि एक बार भक्त ध्रुव के संबंध में साधुओं की गोष्ठी हुई। उन्होंने कहा --
“देखो, भगवान के यहाँ भी पहचान से काम होता है। हम लोग कई वर्षों से साधु बनकर नाक रगड़ रहे हैं, फिर भी भगवान दर्शन नहीं दे रहे। जबकि ध्रुव है नारदजी का शिष्य, नारदजी हैं ब्रह्मा के पुत्र और ब्रह्माजी उत्पन्न हुए हैं विष्णुजी की नाभि से। इस प्रकार ध्रुव हुआ विष्णुजी के पौत्र का शिष्य। ध्रुव ने नारदजी से मंत्र पाकर उसका जप किया तो भगवान्‌ ध्रुव के आगे प्रकट हो गये।” इस प्रकार की चर्चा चल ही रही थी कि इतने में एक केवट वहाँ आया और बोला: “हे साधुजनों ! लगता है आप लोग कुछ परेशान से हैं। चलिये, मैं आपको जरा नौका विहार करवा दूँ।” सभी साधु नौका में बैठ गये, केवट उनको बीच सरोवर में ले गया जहाँ कुछ टीले थे। उन टीलों पर अस्थियाँ दिख रहीं थीं। तब कौतूहल वश साधुओं ने पूछा- “केवट तुम हमें कहाँ ले आये? ये किसकी अस्थियों के ढ़ेर हैं ?” तब केवट बोला: “ये अस्थियों के ढ़ेर भक्त ध्रुव के हैं। उन्होंने कई जन्मों तक भगवान्‌ को पाने के लिये यहीं तपस्या की थी। आखिरी बार देवर्षि नारद उन्हें गुरु के रूप में मिल गये और उनकी बतलायी युक्ति से उनकी तपस्या छः महीने में फल गई और उन्हें प्रभु के दर्शन हो गये। सब साधुओं को अपनी शंका का समाधान मिल गया। इस प्रकार सद्‌गुरु से प्राप्त मंत्र का विश्वासपूर्वक जप शीघ्र फलदायी होता है।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुतकर्ता: शिवेन्द्र कुमार मेहता
गुरुग्राम, हरियाणा।

मंगलवार, 15 मई 2018

।। संतमत ।। SANTMAT

।। संतमत ।।

सन्तमत --- संतों की चली आ रही अविच्छिन परम्परा, ना जाने कब से चली आ रही है, और ना जाने कब तक चलती रहेगी | सन्तमत -- एक दिव्य प्रकाश-पुँज जो परमात्मा और उन तक पहुँचने के मार्ग को भी प्रकाशित करती है | महर्षि मेँहीँ के शब्दों में ---
"सन्तमत किसी का निजी मत नहीं है |"  सन्तमत के गूढ् एवं महती ज्ञान का आविष्कारक कौन है, किसी को पता नही | इस ज्ञान का तो केवल प्रवाह ही है जो भिन्न भिन्न काल तथा देशों में भिन्न भिन्न सन्तों के अवतरित होने और उनके द्वारा किये गये अथक प्रचार से सन्तमत की ज्ञान-गंगा अब तक प्रवाहित होती आ रही है |

सन्तमत की इसी कडी में व्यास- वाल्मीकि, शुकदेव-नारद, याज्ञवल्क्य-जनक, शंकर-रामानुज, चैतन्य, नानक-कबीर, सूरदास-तुलसीदास, ज्ञानदेव-तुकाराम, तोतपुरी-रामक्रिष्ण परमहंस, शबरी-मीरा, सहजोबाई, समर्थ रामदास, ईसा मोहम्मद, शाह फकीर, गुरु तेग बहादुर, राधास्वामी, मलूक, दरिया साहब- चरणदास, तुलसी साहब ना जाने कितने जुडते चले गये और वर्तमान में बाबा देवी साहब, सतगुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज ने सन्तमत में एक सशक्त, ओजपूर्ण और सुद्रिढ प्रवाह ही भर दिया । एक ऐसा प्रवाह जिसमें डुबकी लगा कर कोई भी मनुष्य बिना किसीभेद-भाव के अपने इहलोक एवं परलोक को कल्याणमय बना सकता है और सम्पूर्ण विश्व को एक चिरकालीन शांति, सुव्यवस्था और समुचित विकास प्रदान कर सकता है । महर्षि मेँहीँ ने सन्तों की स्तुति में गाया है --

सतगुरु देवी अरु जे भये हैं ,
होंगे सब चरणन शिर धारी ।
भजत हैं 'मेँहीँ' धन्य धन्य कही,
गही सन्त पद आशा सारी ।।
अर्थात् सद्गुरु देवी और पहले के जितने भी सन्त हुए हैं, और वर्त्तमान मे जितने भी सन्त हैं और भविष्य में जितने भी सन्त होंगे, सबके चरणों में मेँहीँ अपना शिर नवाकर प्रणाम करते हैं ।
स्पष्ट है कि सन्तमत कि कडी मे और भी सन्त जुडेंगे जो द्रिष्टि योग एवं सुरत-सार-शब्द योग (नादानुसंधान योग) का अभ्यास करके 'नि:शब्दम् परमं पदं' को प्राप्त कर लेंगे । महर्षि मेँहीँ ने कहा है कि जिस मत में द्रिष्टि योग और सुरत-सार-शब्द योग का अभ्यास नही है, वह मत सन्तमत कहलाने के योग्य नहीं है । गुरु महाराज ने सदाचार और गुरु-सेवा को अध्यात्म-उन्नति के लिये परमावश्यक बतलाया है । साथ ही ये भी बतलाया है कि साधक को स्वावलम्बी होना चाहिये। अपने पसीने की कमाई से उसे अपना निर्वाह करना चाहिये।

"जीवन बिताओ स्वावलम्बी भरम भाँरे फोरिकर।
सन्तों की आज्ञा हैं ये 'मेँहीँ' माथ धर चल छोरिकर।।"

-- संत सद्गुरु महर्षि मेंहिँ परमहंस जी महाराज।
।। जय गुरु महाराज ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...