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रविवार, 24 नवंबर 2019

यूकिको फ्यूजिता- जापानी महिला सत्संगी | Yukiko Fujita (Japanies Lady}


बात 1966-67 की है। जापान के टोकियो शहर में 'यूकिको फ्यूजिता' ऩामक महिला ने स्वप्न देखा कि समुद्र की गहराई में एक विशाल मंदिर के द्वार पर एक साधु खड़े हैं जिनके शरीर से दिव्य प्रकाश निकल रहा है। नींद टूटने पर उस रुप को प्रत्यक्ष देखने के लिए उनके मन में एक बेचैनी जगी। भारत को साधु-संतों का देश जानते हुए वह भारत आयी तथा उस स्वप्न-दर्शित रुप की एक झलक हेतु हिमालय से कन्याकुमारी तक भटकी। पर असफल रही व अपने देश लौट गई। 
पर दर्शन की व्याकुलतावश पुनः दूसरे वर्ष आई। इस बार कुप्पाघाट आश्रम व पूज्य गुरुदेव के बारे में सुनकर कुप्पाघाट आश्रम आई। संयोग से उस समय गुरुदेव आश्रम में नहीं थे। पर दीवार पर गुरुदेव की एक तस्वीर को देख कर वह हर्ष से उछल पड़ी और कहने लगी-" ये वही बाबा हैं, जिनके दर्शन स्वप्न में हुए थे।" तत्पश्चात पत्र द्वारा समय लेकर कुछ ही दिनों के बाद हरिद्वार में उन्होने परमाराध्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ के पवित्र दर्शन किये। दीक्षा देने के निवेदन करने पर गुरुदेव ने उनको कुप्पाघाट आश्रम आन कोे कहा। नियत समय पर वह आश्रम आई व गुरुदेव से दीक्षा ली। 

दीक्षा के बाद गुरुदेव ने उनको वहीं ध्यान करने कहा। गुरुदेव की असीम दया से वह ध्यान में घंटों तक अंतर्जगत् के अद्भुत् दृश्यों को देखती रही जिसे उन्होने गुरुदेव के आदेशानुसार चित्रित भी किया। किसी ने जब उनसे संतमत की साधना-पद्धति के बारे में पूछा तो उन्होने उत्तर दिया-" Very easy and very high."
ऐसे थे हमारे गुरुदेव जो आंतरिक प्रेरणा देकर अपने भक्तों को स्वप्न द्वारा जापान से भी बुला लेते थे। वस्तुतः थे कहना गलत होगा, वे आज भी हैं हम भक्तों के हृदय में। ऐसे महान् संत पूज्य गुरुदेव के पावन चरण कमलों में कोटि-कोटि प्रणाम । जय गुरु ।💐👏🌹🙏🌹

सत्संग जीवन पर्यन्त करो- सद्गुरु मेँहीँ | SANT SADGURU MAHARSHI MEHI PARAMHANS JI MAHARAJ

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
🌸सत्संग जीवन पर्यन्त करो🌸
प्यारे लोगो!
संत कबीर साहब का वचन है-
निधड़क बैठा नाम बिनु, चेति न करै पुकार।
यह तन जल का बुदबुदा, बिनसत नाहीं बार।।
हे लोगो! तुम बिना डर के बैठे हुए हो, चेतते नहीं हो। इस शरीर के रहते हुए तुम नाम-भजन कर लो। जल के बुलबुले के समान यह शरीर कभी भी नष्ट हो सकता है।
शरीर छूट जाने पर हम दुःख में न पड़ जाएँ, यह डर रहता है।
*नहिं बालक नहिं यौवने, नहिं बिरधी कछु बंध।* 
*वह अवसर नहिं जानिये, जब आय पड़े जम फंद।।*  
       -गुरु नानकदेव
प्रत्यक्ष देखते हैं कि प्रत्येक अवस्था के लोग मर जाते हैं। नाम-भजन करके आवागमन के दुःख से बच सकते हो। नाम (शब्द) सुनने में आता है, देखने में नहीं आता। सुर लय को लोग कैसे लिख सकता है? ईश्वर का नाम वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक दोनों है। 
*दादू सिरजनहार के, केते नावँ अनन्त।* 
*चित आवै सो लीजिए, यों सुमरै साधू संत।।* 
अपने अंदर में अजपा-जाप की ध्वनि स्वाभाविक हो रही है। सुरत को उसमें लगाकर रखना भजन है। सुरत की डोरी इन्द्रियों की घाटों पर लगी हुई है। तिल के द्वार पर मजबूती से देखना, दोनों आँखों की दृष्टि को मजबूती से जोड़ना, यही सुरत को खींचना है।
*सुखमन कै घरि राग सुनि, सुन मण्डल लिवलाइ।* 
शून्य मण्डल में लौ लगाना दृष्टियोग से होता है। पहले सुरत को स्थूल से सूक्ष्म मण्डल में ले जाओ। वैष्णवी मुद्रा  करते हुए नादानुसन्धान करो। उत्तम आचरण से नहीं रहनेवाला यह नाम-भजन नहीं कर सकता है। निकृष्ट आचरणवाले विषयों में लगे रहते हैं। इन्द्रियों को विषयों में लोलुप रखना निकृष्ट आचरण है और विषयों में लोलुप नहीं रखना उत्तम आचरण है। बिना उत्तम आचरण रखे कोई भी नाम-भजन नहीं कर सकता है। जो फँसाव को कम करता जाता है, तब भजन ठीक है और यही भजन की तैयारी है। पहले मानस जप और मानस ध्यान है। ध्यान में भी स्थूल और सूक्ष्म है। उत्तम आचरण रखते हुए जप और ध्यान की डोर को पकड़े रहना नाम-भजन में रत हो जाना है। यही है मरने के बाद दुःख में नहीं जाना। सदा का सुख भजन में ही है। हमारी मौत बहुत नजदीक है। इसका प्रबन्ध ठीक नहीं होने से बराबर मौत से डरते रहेंगे।
डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार।
डरत रहै सो ऊबरै, गाफिल खावै मार।।
हमलोगों का शरीर मंदिर है। नियमित रूप से प्रतिदिन इसमें भजन करना चाहिए। मृत्यु के समय भी भजन करने का अभ्यास हो जाए तो बहुत ठीक है। भजन में विलम्ब मत करो।
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 

सुचिता और पुण्य संचय जरूरी | SAINTLY ACCUMULATION | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🌸शुचिता और पुण्य संचय जरूरी🌸
🌿खूब सारे लोग रोजाना घण्टों तक अपनी-अपनी पूजा पद्धतियों के अनुरूप भजन-पूजन और साधना करते रहते हैं। इनमें से अधिकांश लोग इस कामना से साधना और पूजा करते हैं कि उनके कामों में कोई बाधाएं सामने न आएं, जो समस्याएं और अभाव हैं वे दूर हो जाएं तथा उन्हें अपनी कल्पना के अनुरूप सब कुछ प्राप्त होता रहे।
बहुसंख्य लोगों द्वारा इसी उद्देश्य को लेकर सकाम भक्ति की जाती है। गिनती के कुछेक ही ऎसे लोग होते हैें जो लौकिक कामनाओं की बजाय पारलौकिक सुख के लिए पूजा-पाठ करते रहे हैं। नगण्य लोग ही ऎसे हो सकते हैं जो लौकिक एवं पारलौकिक कामनाओं की बजाय आत्म आनंद, आत्म साक्षात्कार या ईश्वर को पाने की तितिक्षा जगाए रखते हैं।

इन सभी प्रकार के भक्तों और साधकों या मुमुक्षुजनों केअपने लक्ष्य प्राप्त करने की दिशा में सर्वाधिक उत्प्रेरक की भूमिका में यदि कोई है तो वह है व्यक्तिगत शुचिता एवं दिव्यता। जो जितना अधिक शुद्ध चित्त और निर्मल मन वाला होता है वह दूसरों के मुकाबले काफी पहले अपने लक्ष्य को पा लेता है। लेकिन वे लोग पूरी जिन्दगी लक्ष्य से दूर ही रहते हैं जो अपने जीवन में सभी प्रकार की शुचिता नहीं रख पाते हैं।
चाहे ये लोग कितने ही घण्टे पूजा-पाठ करते रहें, माईक पर गला फाड़-फाड़ कर वैदिक ऋचाओं और पौराणिक मंत्रों व स्तुतियों का गान करते रहें, आरती पर आरती उतारते रहें, यज्ञ-अनुष्ठान में मनों और टनों घी एवं हवन सामग्री होम दें, दुनिया भर के नगीनों, अंगुठियों, मालाओं से लक-दक रहें, पूरे शरीर को तिलक-छापों और भस्म से सराबोर करते रहें या फिर दिन-रात मंत्र जाप और संकीर्तन करते रहकर आसमाँ गूंजा दें, इसका कोई चमत्कारिक प्रभाव न वे महसूस कर सकते हैं, न ये जमाना।
ईश्वर को पाने, आत्म साक्षात्कार और अपने सभी प्रकार के संकल्पों की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा हमारे मन-मस्तिष्क और शरीर की मलीनता ही होती है और यह मलीनता हमें लक्ष्य से हमेशा दूर रखती है।

जो लोग मन से साफ व मस्तिष्क से पवित्र होते हैं उनके लिए हर प्रकार की साधना का सौ फीसदी परिणाम शीघ्र ही सामने आ जाता है जबकि जो लोग मन-मस्तिष्क में गंदे विचार लिए होते हैं, जिन्हें शरीर की स्वच्छता और स्वास्थ्य का भान नहीं होता, ऎसे लोग हमेशा अपने सभी प्रकार के लक्ष्यों से दूर ही रहा करते हैं, चाहे ये जमाने भर में अपने आपको कितना ही बड़ा और सच्चा साधक, सिद्ध, पण्डित, आचार्य, संत-महात्मा, महंत, योगी, ध्यानयोगी, बाबाजी या महामण्डलेश्वर अथवा स्वयंभू भगवान ही क्यों न सिद्ध करते रहें।
हर प्रकार की साधना अपने लक्ष्य को पूरा करने से पूर्व चित्त की भावभूमि को शुद्ध करती है और हृदय को शुचिता के मंच के रूप में तैयार करती है। इसके बाद ही व्यक्ति के संकल्पों को साकार होने के लायक ऊर्जा प्राप्त हो सकती है।
हममें से कई सारे लोग रोजाना काफी समय पूजा-पाठ में लगाते हैं, जप और संकीर्तन, सत्संग में रमे रहते हैं और साल भर नित्य पूजा के साथ ही किसी न किसी प्रकार  की नैमित्तिक और काम्य साधना के उपक्रमों में जुटे रहते हैं।

इसके बावजूद हमारे संकल्पों को पूरा होने में या तो बरसों लग जाया करते हैं या फिर ये पूरी जिन्दगी बीत जाने के बावजूद सिद्ध नहीं होते। निरन्तर परिश्रम और समय लगाने के बावजूद इस प्रकार की विषमता और अभाव का क्या कारण है? इस बारे में यदि गंभीरता से सोचा जाए तो यही सामने आएगा कि हमने पूजा-पाठ, साधन भजन और धार्मिक गतिविधियों में जिन्दगी भर का बहुत बड़ा हिस्सा गँवा दिया, बावजूद इसके जहाँ थे वहीं हैं, कुछ भी बदलाव न आया, न देखने को मिला।
इसका मूल कारण यही है कि साधना के साथ-साथ अपने कत्र्तव्य कर्म और रोजमर्रा की जीवनचर्या में शुचिता भी जरूरी है, और अपनी मामूली ऎषणाओं पर नियंत्रण भी। हम रोजाना जितने मंत्र-स्तोत्र पाठ, स्तुतियाँ और भजन-पूजन आदि करते हैं उनसे कई गुना इच्छाएं हमारी रोजाना बनी रहती हैं, ऎसे में जो पुण्य प्राप्त होता है, जो ऊर्जा हमें मिलती है, उसका उन्हीं रोजमर्रा की कामनाओं को पूरी करने में क्षरण हो जाता है और कोई पुण्य या दैवीय ऊर्जा बचती ही नहीं है। ऎसे में हमारी संकल्पसिद्धि हमेशा संदिग्ध ही बनी रहती है, पुण्य के प्रभाव से छोटे-मोटे काम हो जाएं, वह अलग बात है किन्तु कोई बड़ा लक्ष्य प्राप्त कर पाने में हम सदैव विफल रहते हैं।

इसके साथ ही बाहरी एवं हराम का खान-पान, पतितों के साथ रहने और उनकी सेवा-चाकरी करने, दान-दक्षिणा और मिथ्या संभाषण, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, व्यभिचार, कामचोरी, षड़यंत्रों में रमे रहने, बुरे लोगों के साथ काम करने और रहने आदि कारणों से भी रोजाना पुण्यों का क्षय होता रहता है।
इन्हीं वजहों से हमारे खाते में उतने पुण्य अपेक्षित मात्रा में संचित नहीं हो पाते हैं जितने कि हमारे संकल्प की सिद्धि के लिए जरूरी हुआ करते हैं। हम रोज कुआ खोदकर रोज पानी पीने की विवशता भरी स्थिति में आ जाते हैं।
 यही सब हमारी विफलता के बुनियादी तत्व हैं। जीवन में इच्छित कामनाओं की प्राप्ति और संकल्प सिद्धि के लिए यह जरूरी है कि साधना और भजन-पूजन के साथ-साथ समानान्तर रूप से शुचिता और दिव्यता को बनाए रखने के प्रयत्न भी होते रहने चाहिए ताकि पुण्यों की कमी पर लगाम लग सके और अपने पुण्यों के संचय, सत्कर्मों, साधनाओं का ग्राफ अपेक्षित स्तर को प्राप्त कर पाए। ऎसा जब तक नहीं होगा, तब तक घण्टों, माहों और बरसों तक की जाने वाली पुण्य कर्म, साधना का कोई विशेष प्रभाव अनुभव नहीं हो सकता, इस सत्य को समझने की जरूरत है।
हमारे आस-पास ऎसे खूब सारे लोग हैं जो घण्टों मन्दिरों में भगवान की मूर्तियों के पास बने रहते हैं, घण्टियां हिलाते रहते हैं, गला फाड़कर और माईक पर चिल्ला-चिल्ला कर आरतियां, अभिषेक, कथा, सत्संग आदि करते रहते हैं फिर भी बरसों से वैसे ही हैं, न साधक बन पाए न सिद्ध। और ऎसे ही खूब सारे लोगों को हम बरसों से श्मशान तक छोड़ते आ रहे हैं। सभी प्रकार की शुचिता और पुण्य संचय के बिना न हम साधक हो सकते हैं न सिद्धावस्था प्राप्त कर सकते हैं। भगवत्कृपा या साक्षात्कार की बात तो बहुत दूर है।
🙏🌹जय गुरु महाराज🌹🙏
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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सदाचार- महर्षि संतसेवी परमहंस | Virtue | MORALITY | GOOD BEHAVIOR | DECORUM | Maharshi Santsevi Paramhans

यह सुनिश्चित है कि जो ईश्वर-भक्ति करके सदाचार का पालन करेंगे, उनका अन्तःकरण शुद्ध और शान्त होगा। फलतः, सदाचारी का निर्विकारी और परोपकारी होना स्वाभाविक है। ऐसे जन जीवनकाल में मंगलमय प्रभु को पाकर अपने मानव जीवन को मंगलमय बना सकेंगे, यह भी स्वाभाविक ही है। स्मरण रहे कि बूँद का ही समष्टिरूप सिंधु  होता है और व्यक्ति का समूह समाज, देश और विश्व होता है, अतएव प्रथम हम स्वयं को सन्मार्ग पर चला उस शान्ति का अनुभव करें। पश्चात वही शान्ति-किरण विकीर्णित होकर समाज, देश और विश्व में शान्ति प्रस्थापित करेगी, अन्यथा 'पानी मिलै न आपको, औरन बकसत क्षीर’ के चरितार्थकर्त्ता का घोर प्रयास भी सपफलता प्राप्त करने में कदापि सक्षम नहीं हो सकता। 
-महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज 
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*

ईश्वरीय प्रवाह अपनाएं | ESVRIYA PRAVAH APNAYE | SANTMAT-SATSANG | ANAND | जेहि विधि राखे राम तेहि विधि रहिये।

🌸ईश्वरीय प्रवाह अपनाएं🌸
🍁हर इंसान की अपनी कई ऎषणाएं, इच्छाएं और कल्पनाएं हुआ करती हैं जिन्हें पूरा करने के लिए वह जिन्दगी भर जाने कितने रास्तों, चौराहों और गलियारों की खोजबीन करता रहता है, कितने ही मार्गों को अपनाता और छोड़ता है।
कई सारे छोड़े हुए रास्तों को फिर पकड़ता और छोड़ता रहता है, कई बार भूलभुलैया में भटकता, अटकता हुआ जानें कहाँ-कहाँ परिभ्रमण करता है और जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को लेकर आगे बढ़ता हुआ अन्ततोगत्वा सब कुछ यहीं छोड़कर अचानक ऊपर चला जाता है।

इस सारी यात्रा में ऊपर जाने से पहले जो आनंद प्राप्त होना चाहिए वह बिरले लोग ही ले पाते हैं। लेकिन जिन लोगों को जीवन और मृत्यु दोनों का ही आनंद पाने की इच्छा होती है वे लोग भाग्यवादी भी हो सकते हैं और पुरुषार्थी भी। अन्तर सिर्फ इतना होता है कि भाग्यवादी लोग नैराश्य से वैराग्य की ओर बढ़ते नज़र आते हैं और पुरुषार्थी लोग जीवन के आनंदों की प्राप्ति करते हुए आगे बढ़ते रहते हैं मगर उद्विग्नता, असंतोष और अशांति इनके लिए मरते दम तक साथ नहीं छोड़ती। यह समानान्तर चलती रहती है। 
इनसे भी ऊपर बिरले इंसानों की एक और किस्म है जो जीने का आनंद भी जानती है और मृत्यु का भी।  जीवन में कर्मयोग के प्रति सर्वोच्च समर्पण भाव रखते हुए जो लोग अपने आपको पूरी तरह  ईश्वरीय प्रवाह के हवाले कर दिया करते हैं उन लोगों के लिए समस्या, शिकायत, दुःख, उद्विग्नता, अशांति और असंतोष अपने आप समाप्त हो जाया करते हैं।
एक बार सच्चे मन से यह स्वीकार कर लें –  जेहि विधि राखे राम तेहि विधि रहिये।
ऎसा हो जाने पर कर्म का आनंद भी आएगा और कर्मफल के लिए सांसारिक वस्तुओं और व्यक्तियों से हमेशा बनी रहने वाली आशाएं-अपेक्षाएं भी नहीं रहेंगी। यह वह आदर्श स्थिति है जहाँ कत्र्तव्य कर्म का समर्पित निर्वाह पूरे यौवन पर रहा करता है वहीं जो कुछ भी प्राप्त होता रहता है उसे ईश्वरीय प्रसाद मानकर जीवन अपने आप आनंदित होता रहता है।

जीवन के हर कर्म में दाता, साक्षी और निर्णायक के रूप में ईश्वर को ही सर्वोच्च सत्ता मान लेने के बाद न जीवन में कोई दुःख रहता है, न कोई विषाद, भ्रम, शंका या आशंका। ऎसे लोगों को हर क्षण यह भान रहता है ईश्वर उनके साथ रहकर उनका सहायक बना हुआ संरक्षक और पालक दोनों दायित्वों का निर्वाह कर रहा है।
इस उदार तथा आध्यात्मिक सोच को प्राप्त कर लेने के बाद इंसान को न मृत्यु का भय होता है, न जीवन का कोई विषाद। इस स्थिति में हमेशा जीवन और मृत्यु से परे आनंददायी माहौल का अहसास बना रहता है। स्वयं को ईश्वरीय प्रवाह के हवाले छोड़ देना ठीक उसी तरह है जिस प्रकार बिंदु का सिंधु में मिलन होने के बाद बिंदु को किसी भी प्रकार की कोई चिंता नहीं हुआ करती।
जीवन का असली आनंद इसी में है कि हम अपने अहं को पूर्ण विगलित करते हुए खुद को ईश्वरीय प्रवाह का हिस्सा बना लें। इससे पुरुषार्थ चतुष्टय की पूर्ति, जीवनानंद की प्राप्ति और जीवनमुक्ति के सारे सुकून अपने आप हमारी जिन्दगी को दिव्यत्व एवं दैवत्व देते हुए सँवारते रहते हैं। इस अहसास के बिना न जीवन का आनंद है, न मृत्यु के भय से मुक्ति। ईश्वरीय प्रवाह के बिना हमारा जीना भी व्यर्थ है, और मरना भी अभिशप्त।
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 
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नित्यप्रति दरसन साधु के, औ साधू के संग। -महर्षि मेँहीँ | Maharshi Mehi | Santmat | Darshan

    ।।ॐ।।श्री सद्गुरवे नमः।।
नित्यप्रति दरसन साधु के, औ साधू के संग।
तुलसी काहि वियोग ते, नहिं लागा हरि रंग।।
मन तो रमे संसार में, तन साधू के संग।
तुलसी याहि वियोग ते, नहिं लागा हरि रंग।।
साधु का दर्शन यज्ञ के समान होता है। कथा-प्रसंग में, गुरु की सेवा में भी मन का सिमटाव होता है और ईश्वर गुणगान में भी मन का सिमटाव होता है। वाचिक जप, उपांशु जप और मानस जप; इन तीन विधियों से जप होता है। वाचिक में बोल बोलकर जपते हैं, उपांशु में होठ हिलते हैं, पर दूसरा कोई नहीं सुनता। मानस जप मन-ही-मन होता है। मंत्र जप से मन एकाग्र होता है। मूर्ति पोशाक है। उस मूर्ति को धारण करनेवाली आत्मा है, उसी आत्मा का पोशाक मूर्त्ति है। स्थूल में पूर्ण सिमटाव होने पर सूक्ष्म दृष्टि खुलेगी। चित्र में अनेक लकीरे हैं और एक लकीर में अनेक विन्दु। परन्तु एक विन्दु में कुछ फैलाव नहीं है। सूक्ष्म दृष्टि खोलने के वास्ते विन्दु ध्यान होना चाहिए। विन्दु वह है जिसका स्थान हो, पर परिमाण नहीं। परम विन्दु दृष्टि की नोक से प्रकट होता है। दृष्टि वह चीज है, जो देखने की शक्ति है।
कहै कबीर चरण चित राखो ज्यों सूई में डोरा रे । जैसे कसरत करते-करते अपने बल को बढ़ा लेते हैं, उसी तरह दृष्टि के अभ्यास को करने से दृष्टि की नोक अवश्य होगी। संसार का कुल कारोबार शब्द से होता है। शब्द से ही सृष्टि होती है। सृष्टि के आदि में शब्द है, जिसको स्फोट कहते हैं। जब कोई अपने इष्ट के आत्मस्वरूप को पहचानता है, तब उसकी भक्ति पूरी होती है।
सब पशुओं की देह के परमाणु में एक तरह का तासीर नहीं होता है। मनुष्य शरीर में पशु का मांस देना ठीक नहीं। संतों ने हिंसा का विरोध किया। हिंसा दो तरह का होता है-एक वार्य और दूसरा अनिवार्य। हल चलाने या आँगन बुहारने में जो हिंसा होती है, उससे बच नहीं सकते, पर मास-मछली का सेवन नहीं करना चाहिए।
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 
(प्रस्तुति: एस.के. मेहता, गुरुग्राम)
🙏🌸।। जय गुरु ।।🌸🙏

गुरुवार, 21 नवंबर 2019

वर्षों पूर्व की बात मुझे याद आती है! -महर्षि संतसेवी परमहंस | Maharshi=Santsevi=Paramhans | Santmat-Satsang | Kuppaghat-Bhagalpur

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
🍁वर्षों पूर्व की बात मुझे याद आती है; 
परम पूज्य गुरुदेवजी (पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) के निकट एक साधु बाबा पधरे थे। प्रणिपात के पश्चात् आसन ग्रहण करके उन्होंने कहा: ‘महाराज! बिना चमत्कार के नमस्कार नहीं।’ पूज्य गुरुदेव ने दया करके पूछा: ‘महाराज! आप चमत्कार किसे कहते हैं?’ साधु बाबा मौन रहे। आराध्यदेव ने कहने की कृपा की ‘महाराज! मैं तो सदाचार को चमत्कार मानता हूँ।’
सद्+आचार = सदाचार अर्थात् उत्तम आचरण। उत्तम आचरण मानव-जीवन को समुज्वल बनाता है। सत्याचारी अलौकिक शक्तिसंपन्न होते हैं। उनके सम्मुख सुरगण भी नमन करते हैं। सदाचरण-संपन्न जन मरकर भी अमर रहते हैं, किन्तु आचरणहीन जन जीवित ही मृत होते हैं। सत्याचार; सत्य+आचार ही सदाचार है और यह एक ऐसा चमत्कार है, जिससे सर्वेश्वर का साक्षात्कार होता है। यथार्थतः जहाँ सदाचार है, वहीं चमत्कार है। जहाँ सदाचार नहीं, वहाँ मात्र बाहरी दिखावे के चमत्कार का कोई महत्त्व नहीं। -महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज 
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 
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बुधवार, 20 नवंबर 2019

शब्द जितना छोटा होगा! -सद्गुरु महर्षि मेँहीँ | Shbad | Maharshi-Mehi | Santmat-Satsang | Guru

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
🕉🍁शब्द जितना छोटा होगा, उतना ही सिमटाव होगा और जितना बड़ा शब्द होगा, उतना ही फैलाव होगा। तन्त्र में एकाक्षर का ही जप करने का आदेश है और वेद में भी वही एक अक्षर। कबीर साहब कहते हैं- पढ़ो रे मन ओ ना मा सी धं ।
अर्थात् ‘ऊँ नमः सिद्धम्।’ तात्पर्य यह कि सृष्टि इसी ‘ऊँ’ से है। शब्द से सृष्टि हुई है। यह (ऊँ) त्रैमात्रिक है, इसीलिए इस प्रकार भी ‘ओ3म्’ लिखते हैं। इसको इतना पवित्र और उत्तम माना गया कि इस शब्द के बोलने का अधिकार अमुक वर्ण को ही होगा, अमुक वर्ण को नहीं। इतना प्रतिबन्ध लगाया गया कि बड़े ही कहेंगे। सन्तों ने कहा, कौन लड़े-झगड़े; ‘सतनाम’ ही कहो, ‘रामनाम’ ही कहो, आदि। बाबा नानक ने ‘ऊँ’ का मन्त्र ही पढ़ाया- 1ऊँ सतिगुरु प्रसादि। और कहा- चहु वरणा को दे उपदेश। यह ईश्वरी शब्द है; किन्तु हमलोग इसका जैसा उच्चारण करते हैं, वैसा यह शब्द सुनने में आवे, ऐसा नहीं। यह तो आरोप किया हुआ शब्द है, जिसके मत में जैसा आरोप होता है। जैसे- पंडुक अपनी बोली में बोलता है, किन्तु कोई उस ‘कुकुम कुम’ और कोई उसी शब्द को ‘एके तुम’ आरोपित करता है। किन्तु यथार्थतः इस (ओ3म्) को लौकिक भाषा में नहीं ला सकते, यह तो अलौकिक शब्द है। इस अलौकिक शब्द को लौकिक भाषा में प्रकट करने के लिए सन्तों ने ‘ऊँ’ कहा। क्योंकि जिस प्रकार वह अलौकिक ¬ सर्वव्यापक है, उसी प्रकार यह लौकिक ‘ऊँ’ भी शरीर के सब उच्चारण-स्थानों को भरकर उच्चरित होता है। इस प्रकार का कोई दूसरा शब्द नहीं है, जो उच्चारण के सब स्थानों को भरकर उच्चरित हो सके। इसी शब्द का वर्णन सन्त कबीर साहब इस प्रकार करते हैं- 
आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह। 
परसत ही कंचन भया, छूटा बन्धन मोह।। 
शब्द शब्द सब कोइ कहै, वो तो शब्द विदेह। 
जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि देह।। 
शब्द शब्द बहु अन्तरा, सार शब्द चित देय। 
जा शब्दै साहब मिलै, सोइ शब्द गहि लेय ।। 

आदिनाम वा शब्द सर्वव्यापक है। इसी प्रकार एक शब्द लो, जो उच्चारण के सब स्थानों को भरपूर करे, तो संतों ने उसी को ‘ऊँ’ कहा तथा इसी शब्द से उस आदि शब्द ¬ का इशारा किया। यह जो वर्णात्मक ओ3म् है, जिसका मुँह से उच्चारण करते हैं, यह वाचक है तथा इस शब्द से जिसके लिए कहते हैं, वह वाच्य है तथा उस परमात्मा के लिए वह भी वाचक है तथा परमात्मा वाच्य है। तो इस एक शब्द का दृढ़ अभ्यास, एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास करना है। 17-1-1951.  -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 
🙏🌼🌿।। जय गुरु ।।🌿🌼🙏
सौजन्य: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम 
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लोग धन पुत्रादि से ऊब जाते हैं! - सद्गुरु महर्षि मेँहीँ | People get bored with wealth | Maharshi-Mehi | Santmat-Satsang

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
लोग धन-पुत्रादि से ऊब जाते हैं। किसी को धन है, तो पुत्र नहीं, पुत्र है तो धन नहीं। शान्ति किसी को नहीं मिलती। अपने जीवन-काल में यज्ञ करके अथवा लोगों के कहे अनुसार श्राद्ध-क्रिया से स्वर्ग चले जायँ, तो क्या लाभ होगा?
वहाँ भी सुख नहीं। यहाँ के समान ही वहाँ भी छोटे-बड़े होते हैं। काम-क्रोधादिक विकार वहाँ भी उत्पन्न होते हैं तथा दूसरे से ईर्ष्या होती है आदि। फिर पुण्य क्षीण होने पर वहाँ से वापस होना पड़ता है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी अपनी रामायण में लिखते हैं-
‘एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वरगउ स्वल्प अन्त दुखदाई।।’

‘नर तन दुर्लभ देव को,सब कोई कहै पुकार।। 
सब कोइ कहै पुकार, देव देही नहिं पावै। 
ऐसे मूरख लोग, स्वर्ग की आस लगावै।। 
पुण्य क्षीण सोइ देव,स्वर्ग से नरक में आवै। 
भरमै चारिउ खानि, पुण्य कहि ताहि रिझावै।। 
तुलसी सतमत तत गहे, स्वर्ग पर करे खखार।
नर तन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहै पुकार।।’ 
- तुलसी साहब, हाथरसवाले

स्वर्ग या बहिश्त कहीं भी जाओ, विषय-सुख ही है। इसलिए सूफी लोग बताते हैं-मुक्ति ( नजात ) को प्राप्त करो। 17-1-1951.
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 
🙏।। जय गुरु ।।🙏
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम 

इस योग्य हम कहाँ हैं | Sadguru | Es yogya ham kahan hain | Bhajan | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🙏🌷इस योग्य हम कहाँ हैं🌷🙏


इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें।
फिर भी मना रहे हैं, शायद तू मान जाये।।
जब से जनम लिया है, विषयों ने हमको घेरा।
छल और कपट ने डाला, इस भोले मन पे डेरा।
सदबुद्धि को अहम् ने, हरदम रखा दबाये।।
इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें..

निश्चय ही हम पतित हैं, लोभी हैं स्वार्थी हैं।
तेरा ध्यान जब लगायें, माया पुकारती है।
सुख भोगने की इच्छा, कभी तृप्ति हो न पाये।।
इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें..

जग में जहाँ भी देखा, बस एक ही चलन है।
इक दूसरे के सुख में, खुद को बड़ी जलन है।
कर्मों का लेखा जोखा, कोई समझ न पाये।।
इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें..


जब कुछ न कर सके तो, तेरी शरण में आये।
अपराध मानते हैं, झेलेंगे सब सजायें।
बस दरश तू दिखा दे, कुछ और हम न चाहें।।
इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें..
🙏🌹🌷 जय गुरुदेव 🌷🌹🙏
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 

संतों के विचार को अपनाए बिना: महर्षि हरिनन्दन परमहंस | Santon ke vichar ko apnaye bina... | Maharshi Harinandan Paramhans |

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः 🌹🙏
🍁संतों के विचार को अपनाए बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता। 

हमारे गुरुदेव ने कहा कि संतों के विचार को जानने के लिए सत्संग करो। अगर अपना उद्धार चाहते हो, मुक्ति चाहते हो, दुखों से छुटकारा चाहते हो तो संत का संतान बनो। संतो के बतलाए मार्ग पर चलें तभी संत के संतान बनने के अधिकारी हैं। संत उस ओर जाने के लिए कहता है जिस ओर जीव बंधन मुक्त हो जाता है। कोई बंधन नहीं रहता। उन्होंने कहा कि इस शरीर में नौ द्वार है। फिर भी हम नहीं निकल पाते। कारण यह कष्ट का मार्ग है। जब शरीर की अवधि समाप्त हो जाती है तब यम की मार खाकर इस नौ द्वार में से एक से निकलता है। मनुष्य के शरीर में एक गुप्त मार्ग है। यह मार्ग केवल मनुष्य के शरीर में ही है। इस मार्ग से निकलने में कोई कष्ट नहीं होता।  -महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज
  🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम 
🌸🌿🌸🌿🌸🌿🌸🌿🌸

संसार में जितने प्रकार के धर्म, पंथ, सम्प्रदाय और मजहब आदि हैं | -महर्षि संतसेवी | देवी देव समस्त पूरण ब्रह्म परम प्रभू । गुरु में करैं निवास कहत हैं सन्त सभू ।। Maharshi Mehi | Santsevi Pravachan | Santmat Satsang

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
🌸संसार में जितने प्रकार के धर्म, पंथ, सम्प्रदाय और मजहब आदि हैं, सबमें किसी-न-किसी प्रकार का पर्व या त्योहार अवश्य मनाया जाता है, लेकिन उसके मनाने में सबकी अपनी-अपनी अलग-अलग रीति होती है। बल्कि कभी-कभी और कहीं-कहीं ऐसा होता है कि जो एक के लिए ग्राह्य होता है, वह दूसरे के लिए त्याज्य भी हो सकता है। जैसे मॉरिशस में जब किन्हीं के यहाँ मेहमान आते हैं, तो उनको भोजन कराते समय उनके सामने सभी चीजें परोसने के बाद गृहपति हाथ जोड़कर प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि ‘हे भगवन! हमारे मेहमान को सुबुद्धि दें कि ये अधिक न खाएँ।’ यह वहाँ के लिए अनिवार्य है, लेकिन अपने देश में वैसा प्रचलन नहीं। इसीलिए मैंने कहा ‘जो एक लिए ग्राह्य हो, वह दूसरे के लिए त्याज्य भी हो सकता है।’ लेकिन गुरु-पर्व के लिए ऐसी बात नहीं है।
यह गुरु-पुर्णिमा इतना पावन पर्व है कि जितने गुरु-भक्त हैं, सबके लिए यह समान है और सबके लिए एक विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। यह गुरु-पर्व सामूहिक है, व्यक्तिगत नहीं। यह इतना उत्तम त्योहार है कि जैसे कोई वृक्ष की जड़ में पानी डाल दे तो उसके तनों, सभी डालों और प्रत्येक पत्ते को पानी मिल जाता है, उसी तरह एक गुरु-पूजा करने पर सबकी पूजा हो जाती है। 

देवी देव समस्त पूरण ब्रह्म परम प्रभू । 
गुरु में करैं निवास कहत हैं सन्त सभू ।।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली )
आप हाथी देखते है, उसके पैर के चिन्ह में सभी जीवों के पद-चिन्ह  समा जाते हैं, उसी तरह एक गुरु-पूजा में सबकी पूजा हो जाती है। यह गुरु-पूजा की महत्तम महिमा है। -महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज 
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 

प्रेम | इंसान के लिए दो ही रास्ते हैं – प्रेम करे या फिर दुश्मनी | Prem ya Dushmani | Maharshi Mehi Sewa Trust

🙏🌹|| प्रेम ||🌹🙏
🍁इंसान के लिए दो ही रास्ते हैं – प्रेम करे या फिर दुश्मनी। इनमें से दुश्मनी के मार्ग को सदियों से इंसान के लिए वज्र्य माना जाता रहा है। फिर बचता है सिर्फ प्रेम। इस प्रेम को पाने, प्रेम प्रदान करने और इसका अनुभव करते-कराते हुए आनंद की प्राप्ति और इससे ईश्वर को अपने भीतर अनुभव करने वाला ही सच्चा और वास्तविक प्रेमी होता है।
इस प्रेम को शब्दों, मुद्राओं, भाव-भंगिमाओं या देहिक क्रियाओं में विभक्त नहीं किया जा सकता बल्कि प्रेम को आनंद का पर्याय मानते हुए चरम उल्लास की अनुभूति की जा सकती है। प्रेम ऎसा कारक है जिसे अंगीकार कर लेने वाला खुद भी मुक्त हो जाता है और अपने संपर्क में आने वाले दूसरे सभी लोगों की भी मुक्ति चाहने के लिए हर क्षण सर्वस्व समर्पण को तैयार रहता है।
प्रेम के मूल मर्म को समझ लेने वाला इंसान दुनिया में किसी भी एक से प्रेम करता है तो असली प्रेम वही है जिसमें व्यक्ति सभी से प्रेम करे, चाहे वह जड़-चेतन कुछ भी क्यों न हो, ईश्वर या इंसान, पशु आदि कोई भी हो सकता है। सच्चे और निश्छल प्रेमी का प्रेम उदात्त भाव के उत्कर्ष को जीता है और सार्वजनीन होता है। ऎसे इंसान के लिए जड़-चेतन सभी कुछ प्रेम से परिपूर्ण होता है।

जो एक से प्रेम करता है उसका प्रेम यदि सच्चा होता है तो ही वह सभी से प्रेम करता है। वास्तविक प्रेम करने वाला इंसान किसी दूसरे से कभी घृणा कर ही नहीं सकता।
दूसरी तरफ जो लोग किसी एक से प्रेम करते हैं और दूसरों के प्रति संवेदनशील नहीं रह पाते अथवा दूसरों से घृणा या शत्रुता भाव रखते हैं वे सच्चे प्रेमी कभी नहीं हो सकते हैं।
दुनिया की बहुत बड़ी आबादी उन लोगों से भरी पड़ी है जो कि अपने आपको प्रेम करने वालों की श्रेणी में तो रखते हैं लेकिन प्रेम के मर्म से अनभिज्ञ होते हैं। खूब सारी भीड़ है जो किसी न किसी से प्रेम करती है लेकिन इस प्रेम के चक्कर में ही औरों की घृणा, द्वेष या दुश्मनी का पात्र बन जाती है और प्रेम को भुला बैठती है।


असल में यह प्रेम है ही नहीं। प्रेम के साथ संवेदनशीलता, करुणा, आत्मीयता और औदार्य के भावों का सम्मिश्रण रहता है न कि मोह, शत्रुता और एकाधिकार का।
जो एक से प्रेम करता है तथा अन्यों से प्रेमपूर्वक व्यवहार न करे तो इसका सीधा सा अर्थ यही है कि उसका प्रेम आडम्बर और स्वार्थ के व्यापार से ज्यादा कुछ नहीं है। ऎसा प्रेमी जिससे प्रेम करता है उससे भी उसका संबंध स्वार्थ से ज्यादा कुछ नहीं होता बल्कि ऎसा व्यवहार प्रेम नहीं बल्कि बिजनैस की श्रेणी में आता है और इसे प्रेम की संज्ञा नहीं दी जा सकती। शाश्वत प्रेम वही है जो किसी एक से बंधा नहीं रहकर जड़-चेतन सभी पर समान रूप से प्रतिभासित हो और सभी को प्रेम का आनंद अनुभव होता रहे।

प्रेम में परिपूर्ण और गोते लगाने वाला इंसान किसी एक से मोहग्रस्त नहीं होता, बंधता नहीं, बल्कि जिस किसी के सम्पर्क में आता है उसे लगता है कि आत्मीयता और प्रेम का जो निश्छल व्यवहार उसे प्राप्त हो रहा है, वह अपने आपमें अन्यतम और अद्वितीय है।
प्रेम की दिशा आक्षितिज आनंद पाती और दिलाती है तथा उसकी कोई सीमा नहीं होती।  प्रेम अपार और अथाह आनंद की अनुभूति कराता है और ऎसे प्रेम के प्रति न किसी को द्वेष होता है, न मोह या शत्रुता का भाव। एक संत ने तो प्रेेम को सर्वोपरि कारक और ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताते हुए बोध वाक्य रच गए – प्रेम तु ही ने प्रेम स्वामी प्रेम त्यां परमेश्वरो!
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏

जिसका मन निश्छल वही बड़ा | Jiska man nischhal hai vahi bara | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🌸जिसका मन निश्छल वही बड़ा🌸
जो मनुष्य दूसरों की भलाई करता है, वह फरिश्ते से कम नहीं। जो व्यक्ति दूसरों की मदद करता हो, किसी का बुरा नहीं करता हो, जो शील स्वभाव का हो, सभी को प्यार से बोलता हो और समय पर कार्य करता हो वह फरिश्ता ही तो है। 
हर पल जो नवीन दिखाई दे, वही सुंदरता का नमूना है। अपने दिमाग के द्वार बंद करने से न जाने किस समय क्या अनोखा तत्व समझ में आ जाए। बुरी बातों को भूल जाना ही बेहतर है वरना अच्छे विचार मन में प्रवेश करना बंद कर देंगे। बड़प्पन सूट-बूट और ठाट-बाट से नहीं होता है। जिसका मन निश्छल है, वही बड़ा है। व्यस्त रहना ठीक है किंतु  अस्त-व्यस्त नहीं। एक पाप दूसरे पाप का दरवाजा खोल देता है। आदमी आराम के साधन जुटाने में आराम खो देता है। धनी व्यक्ति जहां रुपयों के सहारे जीता है वहीं निर्धन व्यक्ति परिश्रम, प्रभु के सहारे जीता है। 
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
प्रस्तुति: एस.के. मेहता

ज्ञान मार्ग पर चलने वाला और भक्त | Gyan ke marg par chalne wala bhakt | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🙏🌹जय गुरु महाराज🌹🙏
🍁ज्ञानमार्ग पर चलने वाला तो अपने साधन का बल मानता है, पर भक्त की यह विलक्षणता होती है कि वह अपने साधन का बल मानता ही नहीं। कारण कि मैं इतना जप करता हूँ, इतना तप करता हूँ, इतना ध्यान करता हूँ, इतना सत्संग करता हूँ‒इस तरह भीतर में अभिमान रहने से भक्ति प्राप्त नहीं होती। जिनका सीधा-सरल स्वभाव है, जो भगवान्‌ की कृपा पर निर्भर रहते हैं और हरेक परिस्थिति में मस्त, आनन्दित रहते हैं, उन्हीं को भक्ति प्राप्त होती है‒

कहहु भगति पथ कवन प्रयासा।
जोग न मख जप तप उपवासा॥
सरल सुभाव  न  मन कुटिलाई।
जथा   लाभ    संतोष    सदाई ।।
         (मानस, उत्तर॰ ४६ । १)

जब तक अपने साधन का अभिमान रहता है, तब तक असली भक्ति प्राप्त नहीं होती। भक्ति प्राप्त होने पर भक्त के मन में यह बात आती ही नहीं कि मैं भजन करता हूँ । जैसे, हनुमान्‌जी महाराज कहते हैं‒ ‘जानउँ नहिं कछु भजन उपाई’ (मानस, किष्किन्धा॰ ३ । २)

हनुमान्‌जी भक्ति के खास आचार्य होते हुए भी कहते हैं कि मैं भजन का उपाय नहीं जानता कि भजन क्या होता है ? कैसे होता है? शबरी को पता ही नहीं था कि भक्ति नौ प्रकार की होती है और वह मेरे में पूर्णरूप से विद्यमान है ! वह कहती है‒


अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह  महँ  मैं  मतिमंद  अघारी।।
        (मानस, अरण्य॰ ३५ । २)

परन्तु भगवान् उसको कहते हैं‒

नवधा  भगति  कहउँ  तोहि पाहीं।
सावधान  सुनु   धरु   मन   माहीं॥......

नव महुँ एकउ   जिन्ह   कें   होई।
नारि पुरुष   सचराचर      कोई ॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे ।
सकल प्रकार  भगति  दृढ़   तोरें ॥
🙏🌼🌿।। जय गुरु ।।🌿🌼🙏
सौजन्य: महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 
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सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...