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बुधवार, 29 अगस्त 2018

लोगों मे यह विश्वास हैं कि बहुत विद्या पढ़ने से लोग भले बनते हैं। -महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज | Maharshi Mehi Paramhansji Maharaj | Santmat-Satsang

लोगों मे यह विश्वास हैं कि बहुत विद्या पढ़ने से लोग भले बनते हैं। परन्तुु बहुत विद्या पढ़ने पर भी उनकी विद्या अविद्या बन जाती है। काम क्रोधादि विकार जबतक उनके मन मे हैं, तबतक विद्या अविद्या बनी रहती है। जिस विद्या से दुर्गुणों से बचा जाय, वही विद्या असली विद्या है। विद्या धर्म की रक्षा के वास्ते है। दुनियाँ में केवल कमाकर खाने के लिए विद्या नहीं है। अपने देश मे साधु संत, महात्मा बहुत हुए हैं। आचरण पवित्र होने के कारण ही वे लोग महान हुए हैं। पढ़े लोग भी अच्छे होते है। परंतु आचरण की पवित्रता केवल विद्या पढ़ने से ही नहीं होती है। इस युग की नमूना किसी से छिपी नहीं है। असली विद्या यह है कि साधु संतो के पास जाकर उनके सत्संग से अध्यात्म विद्या को ग्रहण करना। केवल वर्तमान शरीर के लिए प्रबंध करो, सो नहीं। इसके आगे के जीवन का कोई प्रबंध नहीं किया तो कहाँ चले जाओगे, तुमको मालूम नहीं है। दुःख में जाना कोई पसंद नहीं करते। यदि पहले इसका ख्याल नहीं किया कि शरीर छुटने के बाद भी जीवन रहता है, जिसे सुखी बनाना है।

एक शरीर छुटने के बाद का बहुत लंबा जीवन है जीवात्मा का। यह ज्ञान साधु सन्तों के सत्संग में सिखलाया जाता है बतलाया जाता है।  यदि आगे के जीवन का प्रबंध नहीं करते हो, तो अपनी बहुत हानि करते हो।

आगे का जो लंबा जीवन है, उसके शुभ के लिए प्रबंध यह है कि ईश्वर का भजन करो। ईश्वर के भजन से तुमको शरीर छुटने के बाद भी सुख होगा। विद्या बहुत पढ़ोगे, लेकिन ईश्वर का भजन  नहीं करोगे तो, उतना लाभ नहीं होगा। -महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज

आप कौन-सी श्रेणी के भक्त हैं? | आज संसार में देखें, तो हर कोई किसी - न - किसी तरीके से भक्ति करता नजर आता है | Santmat-Satsang

आप कौन-सी श्रेणी के भक्त हैं ?

आज संसार में देखें, तो हर कोई किसी - न - किसी तरीके से भक्ति करता नजर आता है | कोई सकाम, कोई निष्काम | अधिकतर लोग सकाम भक्ति में संलग्न है | सकाम अर्थात वह भक्ति जो अपने मन के अनुसार किसी इच्छा पूर्ति के लिए की जाती है | वहीं निष्काम भक्ति वह है, जहाँ एक भक्त सभी सांसारिक कामनाओं से रहित होकर केवल ईश्वर प्राप्ति की इच्छा रखता है | श्रीमदभगवद गीता (7/16) में भगवान श्री कृषण कहते हैं -
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥७-१६॥
अर्थात हे भारत श्रेष्ट अर्जुन! आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी, ऐसे चार प्रकार के लोग मुझे भजते हैं |
आर्त भक्त कैसे होते हैं ? आइए पहले इनके विषय में जाने | आर्त का सामान्य अर्थ होता है - दुःख से पीड़ित व्यक्ति | अत: आर्त भक्त वे हैं, जो अपनी किसी दुख के  निवारण के लिए भक्ति करते हैं | ये प्रभु को पुकारते तो हैं | इनके भीतर भगवान की याद भी उमड़ती है | लेकिन कब ? तभी जब इन्हें कोई शारीरक या मानसिक कष्ट आ घेरता है |
अब दूसरे प्रकार के भक्त होते हैं - अर्थार्थी  | ये वे भक्त हैं जो सांसारिक पदार्थों की कामना के लिए भक्ति करते हैं | धन - वैभव, संतान आदि नियामतें पाने के लिए इबादत करते हैं | आज मंदिर, तीर्थ आदि धार्मिक स्थल क्षद्धालुओं से खचाखच  भरे दिखाई देते हैं | भक्तजन  बढ - चढ़कर पूजा अर्चना करते हैं | लेकिन किस भाव से ? यही कि बदले में अमुक सांसारिक वास्तु मिल जाए  | फलां बिगड़ा काम बन जाए  | कोई मन्नत  या मांग पूर्ण हो जाए | पर महापुरष कहते हैं कि यह मांगना  ही भक्ति मार्ग में सबसे बड़ी बाधक है | जब किसी हेतु से भक्ति की जाती है, तो वह भक्ति नहीं व्यापार बन जाती है |
इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में,
वह इबादत नहीं, एक तरह की तिजारत है ||
तिजारत कहते हैं सोदेबाजी को | आज मनुष्य भक्ति के क्षेत्र में भी ऐसा ही व्यापारी बन गया है | अपनी कुछ क्षण की पूजा आराधना  के बदले में उस करतार से सांसारिक पदार्थ चाहता है | ये सभी पदार्थ क्षणभुंगर और नश्वर हैं | दूसरा ये आनंद तो क्या, सच्चा सुख नहीं दे सकते | यूं तो अमरीका सर्वाधिक धनी देश है | फिर भी वहां के नागरिक घोर अशांति से पीड़ित हैं |सूचना के मुताबिक वहां हर दसवां इन्सान तनावग्रस्त है |
तीसरे प्रकार के भक्त जिज्ञासु प्रविर्ती के होते हैं | इनमें ईश्वर को जानने की तीव्र ललक होती है | इस कारण ये शास्त्र ग्रंथों का गहन अध्ययन  व् रटन करते हैं | पोथी पंडित बन जाते हैं | फलस्वरूप इनका बोधिक विकास तो हो जाता है | ये शास्त्रर्थ करने में निपुण हो जाते हैं | परन्तु आत्मिक लाभ नहीं उठा पाते |
चौथी श्रेणी ज्ञानी भक्तों की है | ये वे भक्त हैं, जो ब्रह्मज्ञान से दीक्षित हैं | ये शाब्दिक जानकारियों, शास्त्रों की कथा - कहानियों में नहीं उलझते | अपितु एक पूर्ण सतगुरू की शरणागत होकर ईश्वर का प्रत्यक्ष  दर्शन कर लेते हैं | लेकिन ऐसा नहीं इनके जीवन में कोई सांसारिक अभाव नहीं होता | लेकिन ये उस अभाव की पूर्ति के लिए ईश्वर से कभी गुहार नहीं करते | प्रभु से केवल प्रभु को मांगते हैं | उसके अतिरिक्त किसी की कामना नहीं करते | इन भक्तों के विषय में ही भगवान श्री कृषण ने निम्न श्लोक में कहा :-
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥७-१७॥

अर्थात इन चार प्रकार के भक्तों में, परमात्मा के साथ नित्ययुक्त अनन्य प्रेम करने वाला ज्ञानी विशेष है, क्यों कि ज्ञानी के लिए मैं अत्यंत प्रिय हूँ, तथा मेरे लिए वह अत्यंत प्रिय है |
अत: सत्संग प्रेमियों, हम सब भी ज्ञानी भक्तों की श्रेणी में आने का प्रयास करें | आज चाहे हम आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु किसी भी श्रेणी में खड़े हों, पूर्ण संत की खोज कर ईश्वर का दर्शन करें | ज्ञानी बनें | तभी हम अपने मानव जीवन के लक्ष्य को पूर्ण कर पाएँगे |
।। जय गुरु ।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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इस संसार में मानव आखिर कौन है? | Es Sansar me manav akhir kaun ? | Maharshi Harinandan Paramhans | Santmat-Satsang

इस संसार में मानव आखिर कौन है?
जिनमें उत्तम कर्म हो, जीने की कला जानकर सही ढंग से जीते हो, वही वास्तव में मानव है।

संसार में केवल अपने लिए साधारण जीव भी जी लेते हैं, जैसे पशु पक्षी, कीट पतंग आदि। लेकिन नियम निष्ठा से जीना कोई विरला संत ही जानते हैं। संसार में ऐसे बहुत कम लोग होते हैं, जो चाहते हैं कि हमारे द्वारा दूसरे को भी सुख पहुंचे और इसके लिए वे सदा प्रयत्नशील रहते हैं। मनुष्य का शरीर चौरासी लाख प्रकार की योनियों में सबसे श्रेष्ठ है, लेकिन मनुष्य शरीर रहते हुए भी अगर हमारे अंदर मानवीय गुण सन्निहित नहीं है, तो जैसे रावण ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी राक्षस की गिनती में गिने गए, कंस मनुष्य के रूप में होते हुए भी राक्षस कहलाये, उसी तरह हमारे अंदर मानवीय गुण नहीं रहने पर राक्षस कहलाएंगे। मनुष्य के पास मे दो तरह के गुण होते हैं :-
1) दैवी गुण, 2) दानवीय गुण। 

दैवी गुण क्या है?  दूसरों के सुखों का ख्याल रखना। चाहे आप कितने भी कष्ट में पड़े हुए हैं, लेकिन दूसरे के सुख का ख्याल रखते हैं, तो दैवी गुण है। लेकिन दानवीय स्वभाव वाले सिर्फ अपना ही ख्याल रखते हैं और दूसरों को सुखी, उन्नति समृद्धि देखकर जलते हैं, ऐसे गुण जिनमें समाहित होते हैं, वे मनुष्य के रूप में दानव हैं। एक-दूसरे को सुख पहुँचाने, आदर देने का गुण मानव शरीर में है। यह गुण हममें नहीं है, तो हम मानव नहीं, पशु तुल्य हैं। -महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज
।। जय गुरु ।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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आनंदित रहने की कला | Anandit rahne ki kala | Santmat-Satsang

।। आनंदित रहने की कला ।।
एक राजा बहुत दिनों से विचार कर रहा था कि वह राजपाट छोड़कर अध्यात्म (ईश्वर की खोज) में समय लगाए। राजा ने इस बारे में बहुत सोचा और फिर अपने गुरु को अपनी समस्याएँ बताते हुए कहा कि उसे राज्य का कोई योग्य वारिस नहीं मिल पाया है । राजा का बच्चा छोटा है, इसलिए वह राजा बनने के योग्य नहीं है । जब भी उसे कोई पात्र इंसान मिलेगा, जिसमें राज्य सँभालने के सारे गुण हों, तो वह राजपाट छोड़कर शेष जीवन अध्यात्म के लिए समर्पित कर देगा ।

गुरु ने कहा, "राज्य की बागड़ोर मेरे हाथों में क्यों नहीं दे देते ? क्या तुम्हें मुझसे ज्यादा पात्र, ज्यादा सक्षम कोई इंसान मिल सकता है ?"*

राजा ने कहा, "मेरे राज्य को आप से अच्छी तरह भला कौन संभल सकता है ? लीजिए, मैं इसी समय राज्य की बागड़ोर आपके हाथों में सौंप देता हूँ ।"

गुरु ने पूछा, "अब तुम क्या करोगे ?"

राजा बोला, "मैं राज्य के खजाने से थोड़े पैसे ले लूँगा, जिससे मेरा बाकी जीवन चल जाए ।"

गुरु ने कहा, "मगर अब खजाना तो मेरा है, मैं तुम्हें एक पैसा भी लेने नहीं दूँगा ।"

राजा बोला, "फिर ठीक है, "मैं कहीं कोई छोटी-मोटी नौकरी कर लूँगा, उससे जो भी मिलेगा गुजारा कर लूँगा ।"

गुरु ने कहा, "अगर तुम्हें काम ही करना है तो मेरे यहाँ एक नौकरी खाली है । क्या तुम मेरे यहाँ नौकरी करना चाहोगे ?"

राजा बोला, "कोई भी नौकरी हो, मैं करने को तैयार हूँ ।"

*गुरु ने कहा, "मेरे यहाँ राजा की नौकरी खाली है । मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे लिए यह नौकरी करो और हर महीने राज्य के खजाने से अपनी तनख्वाह लेते रहना ।"*

एक वर्ष बाद गुरु ने वापस लौटकर देखा कि राजा बहुत खुश था । अब तो दोनों ही काम हो रहे थे । जिस अध्यात्म के लिए राजपाट छोड़ना चाहता था, वह भी चल रहा था और राज्य सँभालने का काम भी अच्छी तरह चल रहा था । अब उसे कोई चिंता नहीं थी ।

इस कहानी से समझ में आएगा की वास्तव में क्या परिवर्तन हुआ ? कुछ भी तो नहीं! राज्य वही, राजा वही, काम वही; दृष्टीकोण बदल गया ।

इसी तरह हम भी जीवन में अपना दृष्टीकोण बदलें । मालिक बनकर नहीं, बल्कि यह सोचकर सारे कार्य करें की, "मैं ईश्वर कि नौकरी कर रहा हूँ" अब ईश्वर ही जाने । और सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दें । फिर ही आप हर समस्या और परिस्थिति में खुशहाल रह पाएँगे ।आपने देखा भी होगा की नौकरों को कोई चिंता नहीं होती मालिक का चाहे फायदा हो या नुकसान वो मस्त रहते हैं । सब छोड़ दो वही जानें!!
।। जय गुरु ।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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उठो जागो कुछ कर दिखाओ | रुक! जरा ठहर तो! किधर जा रहा है? सेवा के लिए ही न?... | एक वे थे सेवक हनुमान, जो अपने स्वामी राम जी का काज संवारने हेतु आतुर रहते थे |

उठो! जागो! कुछ कर दिखाओ! फिर यह अवसर मिले न मिले!

रुक! जरा ठहर तो! किधर जा रहा है? सेवा के लिए ही न?...अच्छा, फिर दो पल बैठ | मैं तेरा ही जमीर हूँ | आज तुझसे कुछ बातें सांझी करना चाहता हूँ | तुझे झकझोर कर जगाना चाहता हूँ | तू मेरी आवाज को अनसुना मत करना | अपनी दलीलों के शोर से मुझे मत दबाना | मैं जो पूछूं या कहूँ उस पर सोचना, गोर करना |
गुरु सेवा - कितनी सहजता से ये शब्द बोल उठता है तू! पर कभी इनकी गहराई, इनकी महिमा जानी है? सेवादारी क्या होती है? सेवक किसे कहते हैं ? उसका शिंगार क्या है ? कुछ खबर है इन सबकी ? शायद नहीं! तभी तुम बड़े आराम से! 7:00 वजे की सेवा के लिए 7:30 वजे घर से जा रहा है | वह भी बड़े आराम से! कहीं दिल में खींच नहीं | क़दमों में रफ़्तार नहीं! कोई बेसबरी या जल्दी नहीं!

एक वे थे सेवक हनुमान, जो अपने स्वामी राम जी का काज संवारने हेतु आतुर रहते थे | आतुर! बड़ा मार्मिक है यह लफ्ज! एक होता है, सेवा के लिए तैयार रहना | दूसरा होता है, आतुर रहना | जो सेवक तैयार रहता है, वह इंतजार करता है| सेवा हाथ में आती है, तो उसे अंजाम देता
है | पर जो सेवक आतुर है, वह इंतजार करना नहीं जनता | सेवा के बगैर छटपटा उठता है | इसलिए यहाँ सेवा होती है, वहां स्वयं पहुंच जाता है | लपक के उसे लूट ता है| ठीक जैसे एक भूखा व्यक्ति | सेवा के लिए ऐसी भूख होती है एक सेवादार में! सच बता, क्या तुझमें है? नहीं न! तुझे तो गुरुघर से बुलावे भेजने पड़ते हैं | तब  कहीं जाकर तेरे कदम उठते हैं...और कई बार तो तेरी सुग्रीव जैसी हालत होती है | बढ - चढ़ कर सेवा करने के दावे तो कर आता है | पर फिर दुनिया में मस्त होकर उन्हें बिसर बैठता है | गफलत की नींद सो जाता है | टेलीफ़ोन की जोरदार घंटियाँ  से तुझे जगाना पड़ता है | क्यों? क्यों है तेरी आँखों में ऐसी गाढ़ी नींद, जो टूटटी ही नहीं? कहते हैं, लक्ष्मण  बनवास के 14 वर्षों तक ऐसी कच्ची नींद सोया था, की यदि उसके स्वामी राम के पास एक पत्ता भी हिलता, तो वह जाग उठता था | यह होती है एक सेवक की जागरूकता! सेवा के प्रति उस की सजगता !

तुझे याद है गुरु महाराज जी के वचन - गुरु सभी को श्रेष्ठ सेवा सोंपता है, पर प्रसन्न  उन्ही से होता है, जो उसे पूर्ण करते हैं | अरे, गुरू सिर्फ हमारे सिर  झुकाने से खुश  नहीं होता | ठीक है, भावनाओं की अपनी कीमत है | उन्हें भी गुरु-चरणों में समर्पित करना है | पर खाली मत्था रगड़ने से काम नहीं चलेगा | गुरु का सच्चा सपूत है, तो तन मन को सेवा में झोंक कर दिखा | वह भी पूरी लगन से, निष्ठां से, डूब के! जिस मिशन रुपी गोवर्धन को गुरु महाराज जी ने उठाया हुआ है, तू उसमें अपने सहयोग की छड़ी लगाकर दिखा | ऐसे नहीं की ढीले- ढाले होकर...लापरवाही से...जितना हो गया, सेवा पूजा है! एक पवित्र आरती है | गुरु चरणों में समर्पित परम वंदना है | तेरी भावनाओं को परखने की सच्ची कसोटी है....इस लिए सेवा को पूरी ईमानदारी और जिम्मेवारी  से निभाया कर |
मैं तेरा जमीर हूँ | इसलिए मुझसे कुछ नहीं छिपा| मैं तेरी अंतर्तम भावनाओं को जानता हूँ | ये भावनाएं भीतर क्यों उठती हैं ? उनकी जड़ क्या है? यही की तू अपने आप को कर्ता मानकर सेवा करता है | सोचता है, सेवा करने वाला तू है | इस लिए गिरता उड़ता है | अर्जुन का भी यही हाल था | सीना तान कर, गांडीव - शंडीव  धारण कर  कुरुक्षेत्र  में उतर आया | पर ज्यों ही चोनौतिपूर्ण नजारा देखा, कंधे लटक गई | होसलें पस्त हो गए | उत्साह धराशाही होकर गिर पड़ा | वह कह उठा - 'प्रभु मैं यह सेवा नहीं कर सकता | मैं इस कार्य के योग्य नहीं | ऐसे में प्रभु ने क्या किया ? उसे अपना विराट स्वरूप  दिखाया | उसमें सभी विपक्षी योद्धगन चुर्नित होते दिखाए | स्पष्ट किया - तू सेवा करने वाला है ही नहीं | देख इन्हें तो मैं पहले ही यमपुरी पहुंचा चूका हूँ | तुझे तो इस सेवा का निमित्त मात्र बनाया है | इसलिए बस जैसा कह रहा हूँ, करता जा | एक सेवादार का यही धरम है कि जो मालिक ने कहा, पूरी भावना से  वह करता जाए | सेवा होगी या नहीं और अगर हो गयी , तो क्यों हुए - ये सब सोचकर मन भारी करने का क्या मतलब | कर्ता पुरष  तो गुरु हैं | हो सकता है, उन्हें  यही मंजूर हो |

वे ब्रह्माण्ड के सूर्ये हैं | सकल विश्व को अकेले ही रोशन कर सकते हैं | पर दया कर, परम क्रपालु  होकर, तुझ जैसे जुगनुओं को चमकने का मोका दे रहे हैं | सितारों को टिमटमाने  का अवसर दे रहे हैं | तुझे यह मोका हरगिज नहीं चूकना है | अपनी सारी ताकत, सारी भावनाएं बटोरकर सेवा व्रत निभाना है | जिगर में सेवा भाव की ज्वाला जलानी है, जिस में जलकर तेरे  सारे नीच और बाधक विचार राख हो जाएँ | ताकि तू दमक उठे | तेरे सिर  पर गुरु के लिए कुछ कर गुजरने का जनून हो | तेरे विचारों के ताने बाने में, दिल के हर अफसाने में एक ही भाव गूंथा हो - सेवा!सेवा!सेवा ! तेरे कर्म का, धर्म का, ईमान का, सारे जीवन का एक ही सार हो - सेवा! सेवा!सेवा! तू सेवा करते - करते सेवारूप  हो जाए | तभी सच्चा सेवक कहलाएगा, मेरे मीत! तू सच्चा सेवक कहलाएगा! इस लिए हम सब ने ऐसे सेवक बनना है और गुरू महाराज जी के उमीदों को पूर्ण करना है | फिर वह दिन दूर नहीं जब हम सब विश्व शांति का लक्ष्य साकार होते हुए देखेंगे।

जय गुरु महाराज!
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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पूर्ण के आगे पूर्ण समर्पण | समर्पण क्या है? मन का अर्पण है | समर्पण मात्र शरीर का अर्पण नहीं है | मस्तक का झुकना भर नहीं है | जब हमारा गुरु पूर्ण है | उनका प्रेम पूर्ण है | उनकी कृपा पूर्ण है | अपनाना पूर्ण है |

पूर्ण के आगे पूर्ण समर्पण!

जहाँ न + मन है, वही नमन है।
जहाँ नमन है, वही चमन है।

समर्पण मात्र शरीर का अर्पण नहीं है | मस्तक का झुकना भर नहीं है | 

समर्पण क्या है? मन का अर्पण है | इस हद  तक कि जहाँ एक भाव - तरंग भी अपनी चेष्टा या कामना से न उठे | तभी तो समर्पण की विशालता को स्वयं गुरु महाराज जी ने केवल एक पंकित में बंधते हुए यही कहा था -' समर्पण वह है, यहाँ इष्ट का एक पल का भी आभाव आपको बैचैन कर दे |' माने उसके इशारों का आभाव हमारी जीवन - प्रणाली ही ठप्प कर के रख दे | मन को कंगाल कर दे | जीवन की गति के गुरु ही आधार, गुरु ही सार हो जाएँ | तन  - मन अपनी चाल चलना छोड़कर उनके इशारों पर थिरकने लगे | यह है समर्पण | मात्र घर छोड़ कर आना भर समर्पण नहीं | सर्वात्म को उलीच कर देना - यह है समर्पण |

जब  हमारा गुरु पूर्ण  है | उनका प्रेम पूर्ण है | उनकी कृपा पूर्ण  है | अपनाना पूर्ण है | तो बदले में हमारा देना पूर्ण क्यों नहीं है? समर्पण पूर्ण क्यों नहीं है ? मैं अपना भी रहूँ और समर्पित भी कहलाऊँ - यह तो आडम्बर होगा | समर्पण का मजाक उड़ाना होगा | समझ लें, खंडित समर्पण, समर्पण नहीं होता | अपने में से थोडा सा निकल कर गुरु को अर्पित कर देना - यह समर्पण है ही नहीं | अधूरी आंशिक आहुतियों से कभी समर्पण की ज्वाला जाज्वल्यमान नहीं होती | अपूर्णता में तो वह अपनी सारी गरिमा, सारी  महिमा  खो बैठती है | इस लिए समर्पण सदा सर्वात्म देकर महिमामंडित होता है | पूर्णता की पीठिका पर ही सीधा स्थिर खड़ा रह पाता है | जय गुरु!
(प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम)

प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती | आज भी परमात्मा का दर्शन संभव है, जरूरत है एक..... | Santmat-Satsang

प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्कयता नहीं होती!
बहुत सारे व्यक्तियों के मन में यह सवाल अक्सर होता है कि संत - महापुरष अपने प्रवचनों में अक्सर हर बात सिद्ध करने के लिए शास्त्र - ग्रंथों का सहारा लेते हैं। पर इस बात का ही क्या प्रमाण है कि ग्रंथों में जो लिखा है, वह पूरी पूर्णत: सत्य है?

उत्तर :  महापुरषों ने कब कहा कि आप ग्रंथों की वाणियों को आँख मूँदकर मान लीजिए। इन ग्रंथों को ऐसे पढ़ें, जैसे chemistry (रसायन शास्त्र ) पढ़ते हैं। रसायन शास्त्र का विधार्थी सर्वप्रथम एक समीकरण को अपनी पुस्तक में पढता है। फिर प्रयोगशाला में जाकर प्रयोगात्मक  (practical) ढंग से उसका परीक्षण (experiment) करता है। जैसे उसने पढ़ा - 2H2 + O2 = 2H2O.

अब वह इस समीकरण के आधार पर प्रयोगशाला (laboratory) में हाड्रोजन और आक्सीजन, दोनों गैसों को सही मात्र  में मिलाएगा। फिर उसमें से विधुत गुजारेगा। यदि पानी बनकर सामने आ गया, तो समीकरण की सत्यता स्वत: ही प्रमाणित हो जाएगी।
धार्मिक ग्रंथों के सन्दर्भ में भी हमें यही पद्धित अपनानी है। सबसे पहले उनमें लिखित अध्यात्मिक तथ्यों को ध्यान से पढ़ें। फिर उन पर प्रयोगात्मक परीक्षण करें। यदि ग्रंथों में लिखा है कि गुरु कृपा से अंतहिर्दय  में परमात्मा का दर्शन होता है, तो बढ़ें आगे और पूर्ण गुरु की खोज करें। उनसे ज्ञान दीक्षा ग्रहण कर स्वयं अपने भीतर प्रभु का दर्शन करें।
नि: सन्देह, ये ग्रन्थ  कपोल कल्पनाओं का आधार पर नहीं लिखे गए। ये ब्रह्मज्ञानी ऋषियों द्वारा लिखे गए हैं। ऋषि का अर्थ ही होता है - 'द्रष्टा' अर्थात देखने वाला। ग्रंथों को लेखनीबद्ध करने से पहले उन्होंने सभी तथ्यों को अपने जीवन में प्रयोगात्मक रूप से अनुभव किया था। इसलिए इनमें दर्ज एक - एक तथ्य प्रयोगात्मक कसौटी पर कसा जा सकता है। आप इन सभी को अपने जीवन में प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं और प्रत्यक्ष को अन्य किसी प्रमाण की आवश्कयता ही नहीं होती!
आज भी परमात्मा का दर्शन संभव है, जरूरत है एक केवल पूर्ण सतगुरु की, जो हमारी दिव्य चक्षु को खोल के परमात्मा के प्रकाश स्वरूप का दर्शन करा दे।
।। जय गुरु ।।

शनिवार, 25 अगस्त 2018

हतोत्साहित नहीं प्रोत्साहित करें | Hatotsahit nahi protsahit karen | Motivational thoughts |

हतोत्साहित नहीं प्रोत्साहित करें;
एक दिन एक किसान का गधा कुएं में गिर गया। वह गधा घंटों जोर-जोर से रेंकता (गधे के बोलने की आवाज) रहा... और किसान सुनता रहा और विचार करता रहा कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं। 

आखिर उसने निर्णय लिया कि गधा काफी बूढ़ा हो चूका है, उसे बचाने से कोई लाभ होने वाला नहीं है इसलिए उसे कुएं में ही दफना देना चाहिए। 

किसान ने अपने सभी पड़ोसियों को मदद के लिए बुलाया। सभी ने एक-एक फावड़ा पकड़ा और कुएं में मिट्टी डालनी शुरू कर दी। जैसे ही गधे कि समझ में आया कि यह क्या हो रहा है, वह और जोर से चीख कर रोने लगा। और फिर, अचानक वह आश्चर्यजनक रुप से शांत हो गया। 

सब लोग चुपचाप कुएं में मिट्टी डालते रहे। तभी किसान ने कुएं में झांका तो वह हैरान रह गया। अपनी पीठ पर पड़ने वाले हर फावड़े की मिट्टी के साथ वह गधा एक आश्चर्यजनक हरकत कर रहा था। वह हिल-हिल कर उस मिट्टी को नीचे गिरा देता था और फिर एक कदम बढ़ाकर उस पर चढ़ जाता था। 

जैसे-जैसे किसान तथा उसके पड़ोसी उस पर फावड़ों से मिट्टी गिराते वैसे वह हिल कर उस मिट्टी को गिरा देता और एक सीढी ऊपर चढ़ आता। जल्दी ही सबको आश्चर्यचकित करते हुए वह गधा कुएं के किनारे पर पहुंच गया और फिर कूदकर बाहर भाग गया। 

संक्षेप में :
आपके जीवन में भी बहुत तरह कि मिट्टी फेंकी जाएगी, बहुत तरह कि गंदगी आप पर गिरेगी। जैसे कि, आपको आगे बढ़ने से रोकने के लिए कोई बेकार में ही आपकी आलोचना करेगा, कोई आपकी सफलता से ईर्ष्या के कारण आपको बेकार में ही भला बुरा कहेगा। 

कोई आगे निकलने के लिए ऐसे रास्ते अपनाता हुआ दिखेगा जो आपके आदर्शों के विरुद्ध होंगे। 

ऐसे में आपको हतोत्साहित होकर कुएं में ही नहीं पड़े रहना है बल्कि साहस के साथ हिल-हिल कर हर तरह कि गंदगी को गिरा देना है और उससे सीख लेकर, उसे सीढ़ी बनाकर, बिना अपने आदर्शों का त्याग किए अपने कदमों को आगे बढ़ाते जाना है। 
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कु० मेहता, गुरुग्राम
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शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

संत की पहचान दुर्लभ है | Sant ki pahchan durlabh hai | जब हम सच्चाई को खुद जान लेंगे तब उस परम शक्ति की सत्ता पर स्वत: प्रतीति हो जाएगी।

संत की पहचान दुर्लभ है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदास जी को लिखना पड़ा; -

जाने बिनु न होई परतीती।
बिनु परतीति होई नहिं प्रीती॥
प्रीति बिना नहीं भगति दृढ़ाई।
जिमि खगेश जल की चिकनाई॥
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सर्वव्यापक परमात्मा को जानकर ही उन पर प्रतीति यानी विश्वास किया जा सकता है। इसके लिए स्वयं अपने भीतर निरीक्षण करके देखना है कि क्या सचमुच मुझमें शांति है। विश्व के सभी संतों, सत्पुरुषों और मुनियों ने यही सलाह दी है कि ‘अपने आपको जानो’। स्पष्ट है कि उनकी सलाह बिना जाने ही मान लेने की नहीं है। उन्होंने साफ तौर पर यह सलाह दी है कि पहले जानो तब मानो। यहां यह बात भी छिपे रूप से कही गयी है कि जब मनुष्य अपने आपको जान लेगा तब उसे उस परम शक्ति का भी ज्ञान हो जाएगा जिसका वह खुद अंश है। लेकिन इस बात को भी हमारे मनीषियों ने केवल बुद्धि के स्तर पर स्वीकार करने के लिए नहीं कहा है, भावावेश में आकर या श्रद्धा के मारे स्वीकार करने की सलाह नहीं दी है, बल्कि अपनी अनुभूति के स्तर पर अपने बारे में सचाई को जानने का ईशारा किया है। क्योंकि जब हम सच्चाई को खुद जान लेंगे तब उस परम शक्ति की सत्ता पर स्वत: प्रतीति हो जाएगी।
।।जय गुरु महाराज।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram

पूर्ण संत | सतगुरु | Purna Sant | Sadguru | SantMehi | Sanatan-Mehi | Santmat-Satsang | पूरा सतगुरु सोए कहावै, दोय अखर का भेद बतावै। एक छुड़ावै एक लखावै, तो प्राणी निज घर जावै।।

पूर्ण संत : सतगुरु!

परमेश्वर स्वयं आकर या अपने परमज्ञानी संत को भेज कर सच्चे ज्ञान के द्वारा धर्म की पुनः स्थापना करता है। वह भक्ति मार्ग को शास्त्रों के अनुसार समझाता है। वह संत सभी धर्म ग्रंथों का पूर्ण जानकार होता है।

“सतगुरु के लक्षण कहूं, मधूरे बैन विनोद।
चार वेद षट शास्त्रा, कहै अठारा बोध।।“

सतगुरु गरीबदास जी महाराज अपनी वाणी में पूर्ण संत की पहचान बता रहे हैं कि वह चारों वेदों, छः शास्त्रों, अठारह पुराणों आदि सभी ग्रंथों का पूर्ण जानकार होगा अर्थात् उनका सार निकाल कर बताएगा।

पूरा सतगुरु सोए कहावै, दोय अखर का भेद बतावै।
एक छुड़ावै एक लखावै, तो प्राणी निज घर जावै।।

जै पंडित तु पढ़िया, बिना दउ अखर दउ नामा।
परणवत नानक एक लंघाए, जे कर सच समावा।

वेद कतेब सिमरित सब सांसत, इन पढ़ि मुक्ति न होई।।
एक अक्षर जो गुरुमुख जापै, तिस की निरमल होई।।

गुरु नानक जी महाराज अपनी वाणी द्वारा समझाना चाहते हैं कि पूरा सतगुरु वही है जो दो अक्षर के जाप के बारे में जानता है। जिनमें एक काल व माया के बंधन से छुड़वाता है और दूसरा परमात्मा को दिखाता है और तीसरा जो एक अक्षर है वो परमात्मा से मिलाता है।

जो मम संत सत उपदेश दृढ़ावै, वाके संग सभि राड़ बढ़ावै।
या सब संत महंतन की करणी, धर्मदास मैं तो से वर्णी।।

कबीर साहेब अपने प्रिय शिष्य धर्मदास को इस वाणी में ये समझा रहे हैं कि जो मेरा संत सत भक्ति मार्ग को बताएगा उसके साथ सभी नकली संत व महंत झगड़ा करेंगे। ये उसकी पहचान होगी।

कबीर, सतगुरु  शरण  में  आने से, आई टले बलाय।
जै मस्तिक में सूली हो वह कांटे में टल जाय।।

भावार्थ:- सतगुरु अर्थात् तत्वदर्शी सन्त से उपदेश लेकर मर्यादा में रहकर भक्ति करने से प्रारब्ध कर्म के पाप अनुसार यदि भाग्य में सजाए मौत हो तो वह पाप कर्म हल्का होकर सामने आएगा। उस साधक को कांटा लगकर मौत की सजा टल जाएगी।

संतों सतगुरु मोहे भावै, जो नैनन अलख लखावै।
ढोलत ढिगै ना बोलत बिसरै, सत उपदेश दृढ़ावै।।

आंख ना मूंदै कान ना रूदैं ना अनहद उरझावै।
प्राण पूंज क्रियाओं से न्यारा, सहज समाधी बतावै।।

संत तो जैसे नदी और वृक्ष का जन्म परोपकार के लिए है, वैसे ही संतों का जन्म केवल परोपकार के लिए है। स्वार्थ का तो संतों में लेशमात्र भी नहीं हो सकता। संत बच्चों जैसे निष्पाप होते हैं। हमेशा मन में सागर सी शांति होती है, सभी के लिए असीम दया होती है। सदैव क्षमाशील बर्ताव होता है तथा सात्विक गुणों से परिपूर्ण होते हैं। समर्पण ही संतों का नाम है और कार्य है। करुणा के सिवा जीवन का दूसरा कोई अर्थ होता है, यह संत नहीं जानते। संत भी देहधारी होते हैं क्योंकि हर देह का प्रारब्ध है किंतु वे देह में रहते हैं क्या और अगर देह में रहते हैं तो कहां?  संतों के बारे में कल्पना करना भी सामान्य जनों के लिए संभव नहीं है। उन्हें जानने में संत ही समर्थ होते हैं और कोई नहीं। आम जन संत के साथ भी रहकर संत को पहचानने में असमर्थ होते हैं। 
।।जय गुरु महाराज।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram

बुधवार, 22 अगस्त 2018

एक -दूजे के पूरक विज्ञान और अध्यात्म | Ek duje ke purak adhyatm aur vigyan | जब इन दोनों को मिलाकर समाज के उत्थान हेतु उपयोग में लाया जाए, तभी इनकी असल... | Santmat-Satsang

एक-दूजे के पूरक विज्ञान और अध्यात्म!
ऐसा माना जाता है कि विज्ञान और अध्यात्म एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी और विरोधाभासी हैं। अक्सर यह आम धारणा लोगों के दिमाग में घर कर जाती है और वे इससे अलग सोचना नहीं चाहते। लेकिन यही सोच दरअसल वैचारिक विकास के रुकने का भी संकेत है। जब हम अध्यात्म को संकीर्णताओं के घेरे में कैद कर देते हैं तब भी और जब हम विज्ञान का उपयोग विध्वंस के लिए करने लगते हैं तब भी, दोनों ही तरीकों से हम विनाश की ओर कदम बढ़ाते हैं तथा विकास से कोसों दूर होते चले जाते हैं। 

अध्यात्म तथा विज्ञान दोनों की उत्पत्ति सृजन के मूल मंत्र के साथ हुई है। सृष्टि ने यह विषय बाहरी जगत तथा अंतरात्मा को जोड़ने के उद्देश्य से उपहारस्वरूप मनुष्य को दिए हैं। विज्ञान और अध्यात्म परस्पर शत्रु नहीं मित्र हैं, एक-दूजे के संपूरक हैं । 

विज्ञान हमें अध्यात्म से जोड़ता है और अध्यात्म हमें वैज्ञानिक तरीके से सोचने का सामर्थ्य देता है। विज्ञान का आधार है तर्क तथा नई खोज और किसी धर्मग्रंथ में भी इन्हीं बातों को कहा गया है। इसलिए अध्यात्म एवं विज्ञान में एक जैसी समानताएँ और एक जैसे विरोधाभास हैं। 

यदि विज्ञान बाहरी सच की खोज है तो अध्यात्म अंतरात्मा के सच को जानने का जरिया है। दोनों ही माध्यमों द्वारा हम इस सच को जानने के लिए ज्ञान के मार्ग पर बढ़ते हैं और उद्देश्य उक्त सच को जानकर, उस पर मनन कर प्राणीमात्र की भलाई में उसका उपयोग करना होता है। दोनों ही जगह ज्ञान का क्षेत्र अनंत है। विज्ञान के जरिए आप प्रकृति को प्रेम करना सीखते हैं। तकनीक या विज्ञान कभी भी प्राणियों को जाति या धर्म के नाम पर बाँटता नहीं, और यही अध्यात्म का असल अर्थ भी है। 

जब इन दोनों को मिलाकर समाज के उत्थान हेतु उपयोग में लाया जाए, तभी इनकी असल परिभाषा सार्थक होती है। जिस प्रकार शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए वैज्ञानिक उपायों तथा खोजों की आवश्यकता होती है, ठीक उसी प्रकार मन को स्वस्थ बनाए रखने के लिए अध्यात्मरूपी मनन जरूरी होता है। इन दो मित्रों की मैत्री को अटूट बनाकर सारे समाज में शांति और स्नेह का वातावरण निर्मित किया जा सकता है।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति एस.के. मेहता, गुरुग्राम
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रविवार, 19 अगस्त 2018

राग और द्वेष क्या है? इनका नाश कैसे हो सकता है। जब हमारा लगाव किसी से या कहीं होने लगता है, तो उसे राग या आसक्ति कहते हैं। ये लगाव यूं ही नहीं होता। Santmat-Satsang

राग और द्वेष क्या हैं?
इनका नाश कैसे हो सकता है?

जब हमारा लगाव किसी से या कहीं होने लगता है, तो उसे राग या आसक्ति कहते हैं। ये लगाव यूं ही नहीं होता। इसके पीछे वहां से मिल रहे सुख होते हैं या सुख मिलने की उम्मीद होती है, चाहे वह घर हो, घरवाले हों, रिश्तेदार हों या फिर सुख-सुविधा के साधन। इसका पता तब लगता है, जब सुख मिलना बंद हो जाए या अहम को ठेस पहुंचे। ऐसे में व्यक्ति दुखी हो जाता है और फिर यहीं से द्वेष जन्म लेता है। जहां राग था, अब द्वेष हो गया। बिना राग के द्वेष नहीं होता।

ये राग-द्वेष जिंदगी भर चलता रहता है। इसकी जड़ें मन में इतनी मजबूत हो जाती हैं कि इनके संस्कार जन्म-मरण की वजह बनने लगते हैं और आने वाला जन्म इन्हीं पर निर्भर करने लगता है। फिर जन्म वहीं होता है, जहां पहले राग या द्वेष था। हो सकता है, जो आज दुश्मन है, अगले जन्म में वही बेटा बन जाए, इस जन्म में जो मां है, वह बेटी बन जाए, जो आज आपका नौकर है, अगले जन्म में मालिक बन जाए। जिस घर से आज ज्यादा राग है, हो सकता है, कल कुत्ता बनकर उसी घर के आगे बैठे रहें।

कुछ साधक केवल द्वेष दूर करने में लग जाते हैं। जिनसे द्वेष होता है, उन्हें मनाने लगते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि जहां से राग था, वहीं से द्वेष आता है और जहां से द्वेष है, द्वेष के दूर होने पर वहीं से राग भी पैदा होने लगता है। इसलिए हमें द्वेष के साथ-साथ राग को भी दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। जब राग ही नहीं रहेगा, तो द्वेष कैसे पैदा होगा? राग दूर करने के लिए अपने सीमित प्रेम को बढ़ाते जाइए, इतना बढ़ाईए कि संसार में सबके लिए एक जैसी प्रेम भावना आ जाए। न किसी के लिए कम, न किसी के लिए ज्यादा।

प्रेम में राग-द्वेष नहीं है-इसमें दूसरे को अपना मानते हुए उसके हित की कामना अंतर्निहित होती है!
भाव प्रकट करने से प्रेम स्थायी बनता है। परमात्मा तक प्रेम भाव से ही पहुंच सकते हैं। संसार के सभी मनुष्यों में प्रेम की भावना होनी चाहिए। मनुष्य जीवन राग, द्वेष से बंधा हुआ है इसे अपने से निकाल देना चाहिए। सत्कर्म के साथ सच्चाई के मार्ग पर चलना चाहिए।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: एस.के. मेहता, गुरुग्राम

शनिवार, 18 अगस्त 2018

राखी महज कच्चा धागा नहीं | Rakhi mahaj kachcha dhaga nahi | Rakshabandhan | जब हम बदलेंगे, फिर दुनिया बदलेगी | SANTMAT | SADGURU |

राखी महज कच्चा धागा नहीं !

राखी मात्र धागा नहीं, बल्कि भावनाओं का पुलिंदा है | इसका रेशा - रेशा उच्च व् पवित्र भावनाओं में गुंथा है | यह इन भावनाओं में समाई महान शक्ति ही है, जो राखी इतना क्रन्तिकारी इतिहास रच सकी है |

राखी को 'रक्षा - बंधन' भी कहा जाता है अर्थात एक ऐसा बंधन जिसमें दोनों ओर की रक्षा की कामना निहित है! बंधने वाले की रक्षा की कामना तो है ही, बंधवाने वाले के लिए भी यह सूत्र एक अमोघ रक्षा कवच है | यही कारण है कि वैदिक काल में जब लोग ऋषियों के पास आशीष लेने जाया करते थे, तो ऋषिगण उनकी कलाईयों पर रक्षा - बंध बांधते थे | वैदिक मन्त्रों से अभिमंत्रित मोली या सूत का धागा बंधकर उनकी रक्षा की मंगलकामना करते थे |

और सच कहूं तो, सिर्फ बंधने और बंधवाने वाले की रक्षा ही क्यों! बल्कि मेरी, समूचे भारत की संस्कृति की रक्षा इसमें छिपी हुए है | आज भारत की संताने एक ऐसे चौराहे पर जा खड़ी है, जहाँ से भटकने की संभावनाएं भरपूर है | यह पर्व उन चौराहों पर खड़ा होकर, पहरेदार की तरह, उन्हें भटकने से रोकता है | उनकी इच्छाओं और वृत्यों अंकुश लगाता है | आज यहाँ नारी को केवल रूप सौन्दर्ये के आधार पर ही तोला जाता है, उसे कुदृष्टि से ही देखा जाता है, जहाँ बलात्कार और छेड़ - छाड़ के किस्से आए दिन अख़बारों की सुर्ख़ियों में छाए रहते हैं - वहां रक्षा बंधन का यह पर्व एक बुलंद और क्रन्तिकारी सन्देश समाज को देता है | वह यह की एक नारी केवल नवयौवना या युवती ही नहीं, कहीं न कहीं एक बहन भी है! एक समय था जब एक घर की बहन, बेटी को पूरे गाँव की बहन और बेटी समझा जाता था | पर आज के समाज में तो एक बहन, बेटी अपने खुद के घर में सुरक्षित नहीं है | इस तरह यह त्यौहार पवित्रता की परत हमारी दृष्टि पर चढ़ाता है | नारी को बहन रूप में देखना सिखाता है! इस लिए अगर यह पर्व अपनी वास्तविक गरिमा में हो जाए, तो समाज की बहुत सी भीषण समस्याओं का उन्मूलन सहज ही हो जाएगा !रक्षा बंधन का यह पर्व मनाना तब ही सही अर्थों में सार्थक हो सकता है, जब हम अपनी सोच के साथ - साथ, अपने कर्म में भी बदलाव लायें, वो केवल ब्रह्मज्ञान की ध्यान साधना से ही संभव हो पाएगा | जब हम बदलेंगे, फिर दुनिया बदलेगी | अंत में मेरी और से सभी को रक्षा - बंधन के इस पर्व की ढेर सारी हार्दिक शुभकामनायें |

जय गुरु महाराज

बुधवार, 15 अगस्त 2018

धर्म और अध्यात्म भारत के मूल प्राण हैं | Dharma aur Adhyatm Bharat ke mool pran hain | जिस प्रकार प्राण के बगैर शरीर निर्जीव हो जाता है, ठीक उसी प्रकार.... | Santmat-Satsang

धर्म और अध्यात्म भारत के मूल प्राण हैं!

धर्म और अध्यात्म भारत के मूल प्राण हैं। जिस प्रकार प्राण के बगैर शरीर निर्जीव हो जाता है, ठीक उसी प्रकार धर्म, अध्यात्म, आस्था भक्ति योग व तत्वज्ञान के बगैर यह देश अस्तित्वहीन हो जाएगा। भारत पूरे विश्व में गुरु के रूप में प्रतिष्ठित है। विश्व को ज्ञान, वैराग्य की शिक्षा देना, सत्य के मार्ग का अनुगामी बनाना भारत का ही कार्य रहा है। वर्तमान जीवन-शैली में पदार्थ विज्ञान ने तमाम भौतिक संसाधनों को प्रस्तुत कर दिया है। आज की आधुनिक सभ्यता संसाधनों के अधीन हो गई है। समाज में उपयोगितवाद बढ़ता चला जा रहा है। यह सत्य है कि सांसारिक जीवनयापन के लिए भौतिक वस्तुओं की आवश्यकता होती है, इसे किसी भी प्रकार से नकारा नहीं जा सकता। आवश्यकता के अनुसार उपयोगी वस्तुओं की आपूर्ति तो करनी ही चाहिए, परंतु मानव जीवन को अत्याधिक इंद्रिय-पोषण बना दिया जाना भी कदापि उचित नहीं है। तमाम भौतिक संसाधनों के ढेर के नीचे दबकर प्राप्त उपलब्धियों के भंवर में फंसकर आज का मानव विक्षिप्त होता जा रहा है। उसकी सभ्यता, सत्यता व सरलता समाप्ति की ओर है। प्रेम रस सूख गया है और मोह रस व्याप्त होता जा रहा है। इसका मुख्य कारण सत्यता के विपरीत दिशा की ओर बढ़ना है। मौजूदा दौर में विश्व भर में मानव के पग सत्य के विपरीत दिशा में काफी आगे बढ़ गए हैं। जिसके घातक परिणाम सामने आ रहे हैं। ऐसे में बिना विलंब किए हुए और इस दिशा में कहीं और अधिक देर न हो जाए सत्य के मार्ग पर पुन: लौट पड़ना चाहिए। अब थोथे तर्कों का सहारा छोड़ना होगा। यह कहना कि हम जो कर रहे हैं वही ठीक है इस आग्रह को तो छोड़ना ही होगा। संसार को दिखाने के लिए धर्म और भक्ति का बाह्य आडंबर छोड़कर मर्म को समझते हुए किसी दिखावे के बगैर परमात्मा की प्राप्ति के लिए अग्रसर हो जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं है। उस अविनाशी पूर्णब्रह्म का साक्षात्कार करने के लिए मनुष्य को भक्ति व अध्यात्म का सहारा लेना ही होगा। इस मार्ग के लिए तर्क की भूमिका तो बहुत न्यून है। प्राथमिक स्तर पर तो तर्क की थोड़ी बहुत भूमिका है, परंतु आगे के मार्ग के लिए तर्क को उसी तरह छोड़ना होगा जैसे अंतरिक्ष में जाने वाला उपग्रह अपने अवयवों को मार्ग में छोड़ता चला जाता है।


दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्फ़त! मेरी मिट्टी से भी ख़ुशबू-ए-वफ़ा आएगी!! | Maharshi-Mehi | Santmat-Satsang | SANTMEHI

दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्फ़त!
मेरी मिट्टी से भी ख़ुशबू-ए-वफ़ा आएगी!!


२०वीं सदी के महान संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज ने दिनांक : १-६-१९५२ ई० को एक साहित्य-सम्मेलन के दौरान अपने वक्तव्य में कहा था:-
अपने देश में अब कई वर्षों से स्वराज्य प्राप्त है। यह हमें भारतीय जनता के लिए सर्वेश्वर की असीम कृपा से अहोभाग्य है। स्वराज्य प्राप्त होने के पहले आशा थी कि स्वराज्य प्राप्त होने पर हम लोगों को सुराज्य होगा और हम लोग सुखी हो जाएंगे।  परंतु हम लोग स्वराज्य पाने पर अपने को सुखी नहीं पा रहे हैं। क्योंकि अपने में अनैतिकता, भ्रष्टाचार, केवल भौतिकता की ओर झुकाव और आध्यात्मिकता की ओर से मुख मोड़ाव का साम्राज्य हमारे यहां हो गया है।  इसी से स्वराज में हम सुराज्य नहीं देख रहे हैं और जनता दुखी है। जैसे विदेशी शासन की प्रबल शक्ति को हमलोगों ने अनेक कष्टों और अपमानों को सहन करके अपने देश से हटाया है, उसी तरह चाहिए कि इस कथित साम्राज्य को भी हम लोग दूर कर दें।

कबीर साहब कहते हैं -
छिमा गहो हो भाई, धर सतगुरु चरणी ध्यान रे।।
मिथ्या कपट तजो चतुराई, तजो जाति अभिमान रे।
दया दीनता क्षमता धारो, हो जीवन मृतक समान रे।।
सुरत निरत मन पवन एक करि, सुनो शब्द धुन तान रे।
कहै कबीर पहुंचो सतलोका, जहां रहै पुरुष अमान रे।।

इस अमृतमय शब्द को समझकर इसमें निहित सदुपदेशों के अनुकूल यदि लोग आचरण करें, तो वे झूठ, चोरी, चोरी-बजारी और घूसखोरी, घृणित स्वार्थ, पर-पीड़न, धूर्तता और कपट आदि जो सुराज्य के परमबाधक हैं और जनता के परम दुखदाई हैं, सबको छोड़ देंगे। देश में सुराज्य होगा, जनता सुखी हो जाएगी और साथ-ही-साथ मोक्ष धर्म-साधन में भी जनता लग जाएगी जिससे उनका परम कल्याण हो जाएगा। इहलोक और परलोक दोनों में सुख प्राप्त होगा।

परमात्म-भक्ति की ओर अर्थात आध्यात्मिकता की ओर का प्रेरण, समाज को सदाचार पालन की ओर प्रेरण करेगा। सदाचार पालन से सामाजिक-नीति और आचरण उत्तम बनेंगे। राजनीति तथा शासन सूत्र का संचालन भी तब निर्दोष और सुखदायक होगा। इस तरह से राज्य में सुराज्य होगा और देशवासी सुखी हो जाएँगे।
-संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज
।।जय गुरु महाराज।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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रविवार, 12 अगस्त 2018

मन के मैल को दूर कर आत्मानंद से तृप्त हो जाओ | Man ke mail ko door kar aatmanand se tripta ho jao | Satsang |

मन के मैल को दूर कर आत्मानंद से तृप्त हो जाओ;
जिस प्रकार दूध में घी व्याप्त रहता है और मंथन करने से ऊपर आ जाता है, उसी प्रकार तुम में परम पुरुष व्याप्त है। साधनारूपी मंथन से तुम उनको पा जाओगे। परम पुरुष तुम्हारे भीतर है, इस देवता को तुम बाहर की पूजा से नहीं प्राप्त कर सकते। उसके द्वारा तो तुम उससे और दूर हटते जाते हो।

लोग कहते है, 'यहां तीर्थ है, इस कुंड में स्नान करने से शत अश्वमेध के बराबर पुण्य की प्राप्ति होती है।' सच्चा तीर्थ तो आत्मतीर्थ है जहां पहुंचने के लिए न तो एक पाई खर्च होती है और न ही सेकेण्ड का समय लगता है। उपवास मन के भीतर छिपे हुए परम पुरुष के निकट वास करने का प्रयास है। यही उपवास का सच्चा अर्थ है। इस क्रिया में संतुलित भोजन से सहायता मिलती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि भोजन नहीं करने से परमात्मा की प्राप्ति होती है।

नदी सूख गई है, ऊपर बालू है, किंतु बालू के नीचे स्वाभाविक रूप से छना हुआ निर्मल पानी है। ऊपर से बालू हटाओ और निर्मल जल से अपनी प्यास बुझाओ। मन के मैल को दूर करो और आत्मानंद से तृप्त हो जाओ। ज्ञानी के कथित ज्ञान में दो अवगुण हैं, आलस्य और अहंकार। घमंडी परमात्मा से बहुत दूर रहता है। आलस्य में सबसे अधिक भयानक है आध्यात्मिक आलस्य।

आज देर हो गई, साधना नहीं करेंगे, कल ठीक से कर लेंगे। सिनेमा-नाटक-भोजन सब में बराबर समय दिया जाता है, और कटौती होती है केवल साधना के समय में से। नींद आती है केवल भगवत चर्चा के समय। लोगों को कहानी याद होगी कि राम के वनवास काल में चौदह वर्ष तक लक्ष्मण ने जागकर उनके रक्षक के रूप में पहरेदारी की।

एक दिन उनको नींद आ गई। उस वीर ने तब निद्रा पर धनुष बाण से हमला कर दिया। निद्रा बोली, 'आप कैसे वीर हैं! महिला पर शस्त्र उठाते हैं!' लक्ष्मण बोले, 'क्षमा कीजिए, अभी आप नहीं आइए। जब राम का अयोध्या में राजतिलक हो जाए तब आप आ सकती हैं।'

फिर जब राम के साथ तिलक समारोह में लक्ष्मण उनकी सेवा कर रहे थे तब निद्रा ने उन पर हमला बोल दिया। लक्ष्मण जी ने फिर विरोध किया, तो निद्रा ने फिर पूछा, 'मैं कहां जाऊं!' लक्ष्मण बोले, 'जब किसी धर्म सभा में कोई अधार्मिक पहुंच जाए, तुम उसी की आंखों पर बैठ जाओ।'

उसी समय से निद्रा का यह क्रम चालू है। कर्मी में एक ही दोष होता है, वह है अहंकार। किन्तु भक्त जानता है कि मैं कुछ नहीं हूं, परम पुरुष ही सब कुछ है। कर्म का श्रेय मेरा नहीं है, इसलिए भक्त में अहंकार नहीं आता है। और आलस्य भी नहीं आएगा क्योंकि वे सोचेगा कि मेरे भगवान का काम मैं नहीं करूंगा तो कौन करेगा, मैं किसके इंतजार में रहूंगा कि वह उनका काम करे।' - आनंदमूर्ति
।।जय गुरु।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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शुक्रवार, 10 अगस्त 2018

एक साधु देश में यात्रा के लिए पैदल निकला ... | Ek Sadhu desh me yatra ke liye paidal nikla | Adhyam gyan ki baate.. |

एक साधु देश में यात्रा के लिए पैदल निकला, रात हो जाने पर एक गाँव में आनंद नाम के व्यक्ति के दरवाजे पर रुका आनंद ने साधु की खूब सेवा की। दूसरे दिन आनंद ने बहुत सारे उपहार देकर फिर उसे विदा किया।
साधु ने आनंद के लिए प्रार्थना की  -
"भगवान करे तू दिनों दिन बढ़ता ही रहे।"
साधु की बात सुनकर आनंद हँस पड़ा और बोला
अरे भाई, जो है, यह भी नहीं रहने वाला
साधु आनंद की ओर देखता रह गया और वहाँ से चला गया।

दो वर्ष बाद साधु फिर आनंद के घर गया और देखा कि सारा वैभव समाप्त हो गया है। पता चला कि आनंद अब बगल के गाँव में एक जमींदार के यहाँ नौकरी करता है।

साधु आनंद से मिलने गया। आनंद ने अभाव में भी साधु का स्वागत किया। झोंपड़ी में जो फटी चटाई थी उस पर बिठाया। खाने के लिए सूखी रोटी दी। दूसरे दिन जाते समय साधु की आँखों में आँसू थे। साधु कहने लगा - "हे भगवान् ! ये तूने क्या किया ?"
आनंद पुन: हँस पड़ा और बोला - "आप क्यों दु:खी हो रहे हो ? महापुरुषों ने कहा है कि भगवान्  मनुष्य को जिस हाल में रखे, मनुष्य को उसका धन्यवाद करके खुश रहना चाहिए। समय सदा बदलता रहता है और सुनो !
यह भी नहीं रहने वाला ।"

साधु ने मन में सोचा कि
सच्चा साधु तो तू ही है, आनंद।

कुछ वर्ष बाद साधु फिर यात्रा पर निकला और आनंद से मिला तो देखकर हैरान रह गया कि आनंद तो अब जमींदारों का जमींदार बन गया है। मालूम हुआ कि जिस जमींदार के यहाँ आनंद  नौकरी करता था वह सन्तान विहीन था, मरते समय अपनी सारी जायदाद आनंद को दे गया। साधु ने आनंद  से कहा - "अच्छा हुआ, वो जमाना गुजर गया । भगवान् करे अब तू ऐसा ही बना रहे।
यह सुनकर आनंद  फिर हँस पड़ा और कहने लगा - "साधु ! अभी भी तेरी नादानी बनी हुई है"
साधु ने पूछा - "क्या यह भी नहीं रहने वाला ?"
आनंद उत्तर दिया - "हाँ, यह भी चला जाएगा जो इसको अपना मानता है वो ही चला जाएगा। कुछ भी रहने वाला नहीं है और अगर शाश्वत कुछ है तो वह है परमात्मा और उस परमात्मा का अंश आत्मा।"
आनंद की बात को साधु ने गौर से सुना और चला गया।

साधु कुछ साल बाद फिर लौटता है तो देखता है कि आनंद  का महल तो है किन्तू कबूतर उसमें गुटरगूं कर रहे हैं, और आनंद का देहांत हो गया है। बेटियाँ अपने-अपने घर चली गयीं, बूढ़ी पत्नी कोने में पड़ी है।

साधु कहता है - "अरे मनुष्य ! तू किस बात का अभिमान करता है ? क्यों इतराता है ? यहाँ कुछ भी टिकने वाला नहीं है, दु:ख या सुख कुछ भी सदा नहीं रहता । तू सोचता है, पडोसी मुसीबत में है और मैं मौज में हूँ । लेकिन सुन, न तो तेरी मौज रहेगी और न ही तेरी मुसीबत। सदा तो उसको जानने वाला ही रहेगा। सच्चे मनुष्य वे हैं, जो हर हाल में खुश रहते हैं। मिल गया माल तो उस माल में खुश रहते है और हो गये बेहाल तो उस हाल में खुश रहते हैं।"

साधु कहने लगा - "धन्य है, आनंद ! तेरा सत्संग और धन्य है तुम्हारे सद्गुरु !
मैं तो झूठा साधु हूँ, असली साधु तो तेरी जिन्दगी है। अब तेरी तस्वीर पर कुछ फूल चढ़ाकर दुआ तो मांग लूं ।"

साधु दुसरे कमरे में जाता है तो देखता है कि आनंद ने अपनी तस्वीर पर लिखवा रखा है - "आखिर में यह भी नहीं रहेगा"

गुरुवार, 9 अगस्त 2018

आशिर्वाद से आसान होती है सफलता | Aashirwad se aasaan hoti hai safalta | सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछु मोरि प्रभुताई | Santmat-Satsang | Ramji-Hanumanji

आशीर्वाद से आसान होती है सफलता;
विनम्रता  दूसरों को प्रभावित ही नहीं करती, बल्कि कई बार स्वयं को अहंकार में भी डुबो सकती है। विनम्रता से पैदा हुआ अहंकार बहुत ही सूक्ष्म होता है।

इसलिए जब कभी हम विनम्रता का व्यवहार कर रहे हों, इस बात में सावधान रहें कि जब दूसरे हमारी विनम्रता पर हमारी प्रशंसा करें तो हम प्रशंसा को कानों से हृदय में उतरने न दें। अपनी योग्यता को कहीं न कहीं परमात्मा की शक्ति से जोड़े रखें, तो अहंकार के खतरे कम हो जाते हैं।

सुंदरकांड में भगवान श्रीराम हनुमानजी की प्रशंसा कर रहे थे, तब हनुमानजी ने कहा- मेरा लंका जाना, उसे जलाना, लौटकर आना यह सब मेरे वश में नहीं है।


सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछु मोरि प्रभुताई।।

यह सब तो श्रीरघुनाथजी! आप ही का प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता कुछ भी नहीं है। संत बताते हैं कि भगवान श्रीराम ने हनुमानजी से पूछा था- फिर समुद्र किस शक्ति से लांघा।

हनुमानजी का जवाब था आपके द्वारा दी गई अंगूठी से। भगवान श्रीराम समझ गए, ये एक बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तर है। इसमें भक्त ने स्वयं को बचाया है और श्रेय परमात्मा को दे दिया है। तब भगवान श्रीराम ने याद दिलाया कि अंगूठी तो सीताजी को दे दी थी, फिर लौटकर कैसे आए? हनुमानजी समझ गए कि इस समय भगवान जमकर परीक्षा ले रहे हैं। उन्होंने तुरंत उत्तर दिया- आते समय माता सीता ने उनकी चूड़ामणि दी थी। उसी के सहारे लौटा हूं। इस प्रताप में मेरा स्वयं का कोई योगदान नहीं है।

बड़ी सुंदर बात हनुमानजी बताते हैं कि जब गया तो पिता की कृपा थी और जब लौटा तो मां का आशीर्वाद साथ था। जिनके साथ जीवन के संघर्ष में माता-पिता के आशीर्वाद होते हैं उनकी सफलताएं सरल हो जाती हैं।
जय गुरु
Posted by S.K.Mehta, Gurugram


गुरु नानक वाणी: पहिलै पिआरि लगा थण दुधि!! | Guru Nanak Devji Vani | Santmat-Satsang |

पहिलै पिआरि लगा थण दुधि।।

पहिलै पिआरि लगा थण दुधि।।
दूजै माइ बाप की सुधि॥
तीजै भया भाभी बेब।।
चउथै पिआरि उपंनी खेड॥
पंजवै खाण पीअण की धातु।।
छिवै कामु न पुछै जाति॥
सतवै संजि कीआ घर वासु॥
अठवै क्रोधु होआ तन नासु॥
नावै धउले उभे साह॥
दसवै दधा होआ सुआह॥
गए सिगीत पुकारी धाह॥
उडिआ हंसु दसाए राह॥
आइआ गइआ मुइआ नाउ॥
पिछै पतलि सदिहु काव॥
नानक मनमुखि अंधु पिआरु॥
बाझु गुरू डुबा संसारु॥
(गुरवाणी)

श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि सब से पहले इस जीव आत्मा का माता के दूध से प्रेम हो गया और जब कुछ  होश आया तो माँ-बाप की पहचान हो गई | बहन भाई  की जानकारी मिल गई | उस के बाद खेलने कूदने में मस्त हो गया | कुछ बड़ा हुआ तो खाने पीने की इच्छाएँ  पैदा होने लगी | उस के बाद तरह-तरह की कामनाओं का शिकार हुआ | फिर घर गृहस्ती में उलझ गया | आठवें स्थान पर कहतें हैं कि क्रोश द्वारा तन का नाश करने पर तुल गया | बाल सफेद हो गये, बूढा हो गया, शवांस भी आने मुश्किल हो गये | उस के बाद शरीर जल कर राख बन जाता है | हंस रुपी जीव आत्मा शरीर छोड़ देती है | सगे सम्बन्धी सभी रोते हैं | मानव शरीर में जन्म लिया और शरीर के ही कार्य व्वहार में लगे रहे | एक दिन ऐसा आया जब शरीर छोड़कर चले गये | जाने के बाद  घर वाले श्राद्ध इत्यादि में लग जाते हैं | श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि मनमुख व्यक्ति, मन के विचारों के अनुसार चलने वाले, अंधों के समान व्यवहार करते हुए नजर आते हैं | क्योंकि जीवन को पहचानने की आँख गुरु द्वारा मिलती है | परन्तु गुरु को जाने बिना यह संसार अज्ञानता के अंधकार में डूब रहा है | इसलिए हमें चाहिए कि पूर्ण संत सद्गुरु की शरण में जाएँ जहाँ हमारी अज्ञानता का अंधकार समाप्त हो सकता है और मानव जीवन सफल हो सकता है |
जय गुरु महाराज
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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एक नगर के राजा ने यह घोषणा करवा दी कि कल जब मेरे महल का द्वार खोला जायेगा ... | Gyanprad prerak kahani |

एक नगर के राजा ने यह घोषणा करवा दी कि कल जब मेरे महल का मुख्य दरवाज़ा खोला जायेगा, तब जिस व्यक्ति ने जिस वस्तु को हाथ लगा दिया वह वस्तु उसकी हो जाएगी !

इस घोषणा को सुनकर सभी नगर-वासी रात को ही नगर के दरवाज़े पर बैठ गए और सुबह होने का इंतजार करने लगे ! सब लोग आपस में बातचीत करने लगे कि मैं अमुक वस्तु को हाथ लगाऊंगा ! कुछ लोग कहने लगे मैं तो स्वर्ण को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग कहने लगे कि मैं कीमती जेवरात को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग घोड़ों के शौक़ीन थे और कहने लगे कि मैं तो घोड़ों को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग हाथीयों को हाथ लगाने की बात कर रहे थे, कुछ लोग कह रहे थे कि मैं दुधारू गौओं को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग कह रहे थे कि राजा की रानियाँ बहुत सुन्दर है मैं राजा की रानीयों को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग राजकुमारी को हाथ लगाने की बात कर रहे थे ! कल्पना कीजिये कैसा अद्भुत दृश्य होगा वह !!

उसी वक्त महल का मुख्य दरवाजा खुला और सब लोग अपनी अपनी मनपसंद वस्तु को हाथ लगाने दौड़े ! सबको इस बात की जल्दी थी कि पहले मैं अपनी मनपसंद वस्तु को हाथ लगा दूँ ताकि वह वस्तु हमेशा के लिए मेरी हो जाएँ और सबके मन में यह डर भी था कि कहीं मुझ से पहले कोई दूसरा मेरी मनपसंद वस्तु को हाथ ना लगा दे !

राजा अपने सिंघासन पर बैठा सबको देख रहा था और अपने आस-पास हो रही भाग दौड़ को देखकर मुस्कुरा रहा था ! कोई किसी वस्तु को हाथ लगा रहा था और कोई किसी वस्तु को हाथ लगा रहा था !

उसी समय उस भीड़ में से एक छोटी सी लड़की आई और राजा की तरफ बढ़ने लगी ! राजा उस लड़की को देखकर सोच में पढ़ गया और फिर विचार करने लगा कि यह लड़की बहुत छोटी है शायद यह मुझसे कुछ पूछने आ रही है ! वह लड़की धीरे धीरे चलती हुई राजा के पास पहुंची और उसने अपने नन्हे हाथों से राजा को हाथ लगा दिया ! राजा को हाथ लगाते ही राजा उस लड़की का हो गया और राजा की प्रत्येक वस्तु भी उस लड़की की हो गयी !

जिस प्रकार उन लोगों को राजा ने मौका दिया था और उन लोगों ने गलती की; ठीक उसी प्रकार ईश्वर भी हमे हर रोज मौका देता है और हम हर रोज गलती करते है ! हम ईश्वर को हाथ लगाने अथवा पाने की बजाएँ ईश्वर की बनाई हुई संसारी वस्तुओं की कामना करते है और उन्हें प्राप्त करने के लिए यत्न करते है पर हम कभी इस बात पर विचार नहीं करते कि यदि ईश्वर हमारे हो गए तो उनकी बनाई हुई प्रत्येक वस्तु भी हमारी हो जाएगी !
।।जय गुरु।।
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शनिवार, 4 अगस्त 2018

कहानी - किस्से आपने खूब पढ़े होंगे मगर जो बात मैं आपसे कहने जा रहा हूँ वह अगर आपके मर्म को छू जाए तो.... | Kahani-kisse |

कहानी - किस्से आपने खूब पढ़े होंगे मगर जो बात मैं आपसे कहने जा रहा हूँ वह अगर आपके मर्म को छू जाए तो अपने बच्चों को अवश्य बताएं : -
पढ़ाई पूरी करने के बाद एक छात्र किसी बड़ी कंपनी में नौकरी पाने की चाह में इंटरव्यू देने के लिए पहुंचा....
छात्र ने बड़ी आसानी से पहला इंटरव्यू पास कर लिया...
अब फाइनल इंटरव्यू
कंपनी के डायरेक्टर को लेना था...
और डायरेक्टर को ही तय
करना था कि उस छात्र को नौकरी पर रखा जाए या नहीं...
डायरेक्टर ने छात्र का सीवी (curricular vitae) देखा और पाया कि पढ़ाई के साथ- साथ यह छात्र ईसी (extra curricular activities) में भी हमेशा अव्वल रहा...
डायरेक्टर- "क्या तुम्हें पढ़ाई के दौरान
कभी छात्रवृत्ति (scholarship) मिली...?"
छात्र- "जी नहीं..."

डायरेक्टर- "इसका मतलब स्कूल-कॉलेज की फीस तुम्हारे पिता अदा करते थे.."
छात्र- "जी हाँ , श्रीमान ।"
डायरेक्टर- "तुम्हारे पिताजी क्या काम करते है?"
छात्र- "जी वो लोगों के कपड़े धोते हैं..."
यह सुनकर कंपनी के डायरेक्टर ने कहा- "ज़रा अपने हाथ तो दिखाना..."
छात्र के हाथ रेशम की तरह मुलायम और नाज़ुक थे...
डायरेक्टर- "क्या तुमने कभी कपड़े धोने में अपने पिताजी की मदद की...?"
छात्र- "जी नहीं, मेरे पिता हमेशा यही चाहते थे
कि मैं पढ़ाई करूं और ज़्यादा से ज़्यादा किताबें
पढ़ूं...
हां, एक बात और, मेरे पिता बड़ी तेजी से कपड़े धोते हैं..."
डायरेक्टर- "क्या मैं तुम्हें एक काम कह सकता हूं...?"
छात्र- "जी, आदेश कीजिए..."
डायरेक्टर- "आज घर वापस जाने के बाद अपने पिताजी के हाथ धोना...
फिर कल सुबह मुझसे आकर मिलना..."
छात्र यह सुनकर प्रसन्न हो गया...
उसे लगा कि अब नौकरी मिलना तो पक्का है,
तभी तो डायरेक्टर ने कल फिर बुलाया है...
छात्र ने घर आकर खुशी-खुशी अपने पिता को ये सारी बातें बताईं और अपने हाथ दिखाने को कहा...
पिता को थोड़ी हैरानी हुई...
लेकिन फिर भी उसने बेटे
की इच्छा का मान करते हुए अपने दोनों हाथ उसके
हाथों में दे दिए...
छात्र ने पिता के हाथों को धीरे-धीरे धोना शुरू किया.
साथ ही उसकी आंखों से आंसू भी झर-झर बहने लगे...
पिता के हाथ रेगमाल (emery paper) की तरह सख्त और जगह-जगह से कटे हुए थे...
यहां तक कि जब भी वह कटे के निशानों पर पानी डालता, चुभन का अहसास
पिता के चेहरे पर साफ़ झलक जाता था...।
छात्र को ज़िंदगी में पहली बार एहसास हुआ कि ये
वही हाथ हैं जो रोज़ लोगों के कपड़े धो-धोकर उसके
लिए अच्छे खाने, कपड़ों और स्कूल की फीस का इंतज़ाम करते थे...
पिता के हाथ का हर छाला सबूत था उसके एकेडैमिक कैरियर की एक-एक
कामयाबी का...
पिता के हाथ धोने के बाद छात्र को पता ही नहीं चला कि उसने उस दिन के बचे हुए सारे कपड़े भी एक-एक कर धो डाले...
उसके पिता रोकते ही रह गए , लेकिन छात्र अपनी धुन में कपड़े धोता चला गया...
उस रात बाप- बेटे ने काफ़ी देर तक बातें कीं ...
अगली सुबह छात्र फिर नौकरी के लिए कंपनी के डायरेक्टर के ऑफिस में था...
डायरेक्टर का सामना करते हुए छात्र की आंखें गीली थीं...
डायरेक्टर- "हूं , तो फिर कैसा रहा कल घर पर ?
क्या तुम अपना अनुभव मेरे साथ शेयर करना पसंद करोगे....?"
छात्र- " जी हाँ , श्रीमान कल मैंने जिंदगी का एक वास्तविक अनुभव सीखा...
नंबर एक... मैंने सीखा कि सराहना क्या होती है...
मेरे पिता न होते तो मैं पढ़ाई में इतनी आगे नहीं आ सकता था...
नंबर दो... पिता की मदद करने से मुझे पता चला कि किसी काम को करना कितना सख्त और मुश्किल होता है...
नंबर तीन.. . मैंने रिश्तों की अहमियत पहली बार
इतनी शिद्दत के साथ महसूस की..."
डायरेक्टर- "यही सब है जो मैं अपने मैनेजर में देखना चाहता हूं...
मैं यह नौकरी केवल उसे देना चाहता हूं जो दूसरों की मदद की कद्र करे,
ऐसा व्यक्ति जो काम किए जाने के दौरान दूसरों की तकलीफ भी महसूस करे...
ऐसा शख्स जिसने
सिर्फ पैसे को ही जीवन का ध्येय न बना रखा हो...
मुबारक हो, तुम इस नौकरी के पूरे हक़दार हो..."
आप अपने बच्चों को बड़ा मकान दें, बढ़िया खाना दें,
बड़ा टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर सब कुछ दें...
लेकिन साथ ही अपने बच्चों को यह अनुभव भी हासिल करने दें कि उन्हें पता चले कि घास काटते हुए कैसा लगता है ?
उन्हें भी अपने हाथों से ये काम करने दें...
खाने के बाद कभी बर्तनों को धोने का अनुभव भी अपने साथ घर के सब बच्चों को मिलकर करने दें...
ऐसा इसलिए
नहीं कि आप मेड पर पैसा खर्च नहीं कर सकते,
बल्कि इसलिए कि आप अपने बच्चों से सही प्यार करते हैं...
आप उन्हें समझाते हैं कि पिता कितने भी अमीर
क्यों न हो, एक दिन उनके बाल सफेद होने ही हैं...
सबसे अहम हैं आप के बच्चे किसी काम को करने
की कोशिश की कद्र करना सीखें...
एक दूसरे का हाथ
बंटाते हुए काम करने का जज्ब़ा अपने अंदर
लाएं...
यही है सबसे बड़ी सीख......
जय गुरु
Posted by S.K.Mehta, Gurugram

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...