दीपों के प्रकाश के बिना कैसी दीपावली?
क्या दीपों के बाह्य प्रकाश मात्र से आंतरिक प्रकाश संभव है? क्या वास्तव में बाहरी प्रकाश से हमारे अंतरतम का प्रकाशित होना संभव है? बुद्ध कहते हैं अप्प दीपो भव। अपना प्रकाश स्वयं बनो। हम में ऊर्जा है, उत्साह है, कौन रोक सकता है हमें अपना प्रकाश बनने से, अपना स्वयं का विकास करने से? करना भी चाहिए। आप दीपक को लीजिए, दीपक चाहे स्वयं अपना प्रकाश बन जाए, लेकिन एक दीपक भी स्वयं नहीं बनता। उसको भी एक कलाकार बड़े यत्न से निर्मित करता है। एक दीपक तब तक न तो दूसरों को प्रकाश दे सकता है और न स्वयं ही प्रकाशित हो सकता है जब तक कि अन्य कोई दीपक उसे प्रज्वलित नहीं करता, उसे अपना प्रकाश नहीं दे देता। हमें अपना प्रकाश स्वयं बनने के लिए सबसे पहले बाह्य निर्माता और बाह्य प्रकाश की आवश्यकता पड़ती ही है। पात्र दीपक नहीं होता। पात्र को दीपक बनने के लिए स्नेह की आवश्यकता होती है। स्नेह यानी ऊर्जा। तेल या घी। स्नेह के बाद बत्ती भी जरूरी है। बत्ती के लिए रुई की जरूरत पड़ती है। वह भी किसानों के कर्म से ही प्राप्त होता है। पात्र में बत्ती लगाकर इसे स्नेह से भर दिया जाता है। तब यह दीपक बनता है। फिर कोई जलता दीपक उसे अपनी लौ से प्रकाश से भर देता है। फिर भी कहते हैं अपना प्रकाश स्वयं बनो। कहते हैं अप्प दीपो भव। नहीं, ये कहना ठीक लगता है कि स्वयं को दीपक बनाओ। स्वयं जलो तभी दूसरों तक प्रकाश पहुंचा सकोगे। स्वयं की ऊर्जा से दूसरों को ऊर्जस्वित करो। दीपक की तरह मनुष्य की सार्थकता भी इसी में है। वह स्वयं नहीं बन सकता, लेकिन दूसरों के बनाने पर जरूर कुछ कर सकता है। वह स्वयं नहीं जल सकता, लेकिन दूसरों के जलाने पर जरूर स्वयं प्रकाशित होकर दूसरों को भी प्रकाशित कर सकता है। अंधेरे से बचा सकता है। इसी उदार भाव में निहित है प्रकाशोत्सव की सार्थकता और हमारी संस्कृति की शाश्वतता।जय गुरु महाराज