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मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018

दीपों के प्रकाश के बिना कैसी दीपावली? | Deepon ke prakash ke bina kaisi Deewali | Santmat-Satsang |

दीपों के प्रकाश के बिना कैसी दीपावली?

क्या दीपों के बाह्य प्रकाश मात्र से आंतरिक प्रकाश संभव है? क्या वास्तव में बाहरी प्रकाश से हमारे अंतरतम का प्रकाशित होना संभव है? बुद्ध कहते हैं अप्प दीपो भव। अपना प्रकाश स्वयं बनो। हम में ऊर्जा है, उत्साह है, कौन रोक सकता है हमें अपना प्रकाश बनने से, अपना स्वयं का विकास करने से? करना भी चाहिए। आप दीपक को लीजिए, दीपक चाहे स्वयं अपना प्रकाश बन जाए, लेकिन एक दीपक भी स्वयं नहीं बनता। उसको भी एक कलाकार बड़े यत्न से निर्मित करता है। एक दीपक तब तक न तो दूसरों को प्रकाश दे सकता है और न स्वयं ही प्रकाशित हो सकता है जब तक कि अन्य कोई दीपक उसे प्रज्वलित नहीं करता, उसे अपना प्रकाश नहीं दे देता। हमें अपना प्रकाश स्वयं बनने के लिए सबसे पहले बाह्य निर्माता और बाह्य प्रकाश की आवश्यकता पड़ती ही है। पात्र दीपक नहीं होता। पात्र को दीपक बनने के लिए स्नेह की आवश्यकता होती है। स्नेह यानी ऊर्जा। तेल या घी। स्नेह के बाद बत्ती भी जरूरी है। बत्ती के लिए रुई की जरूरत पड़ती है। वह भी किसानों के कर्म से ही प्राप्त होता है। पात्र में बत्ती लगाकर इसे स्नेह से भर दिया जाता है। तब यह दीपक बनता है। फिर कोई जलता दीपक उसे अपनी लौ से प्रकाश से भर देता है। फिर भी कहते हैं अपना प्रकाश स्वयं बनो। कहते हैं अप्प दीपो भव। नहीं, ये कहना ठीक लगता है कि स्वयं को दीपक बनाओ। स्वयं जलो तभी दूसरों तक प्रकाश पहुंचा सकोगे। स्वयं की ऊर्जा से दूसरों को ऊर्जस्वित करो। दीपक की तरह मनुष्य की सार्थकता भी इसी में है। वह स्वयं नहीं बन सकता, लेकिन दूसरों के बनाने पर जरूर कुछ कर सकता है। वह स्वयं नहीं जल सकता, लेकिन दूसरों के जलाने पर जरूर स्वयं प्रकाशित होकर दूसरों को भी प्रकाशित कर सकता है। अंधेरे से बचा सकता है। इसी उदार भाव में निहित है प्रकाशोत्सव की सार्थकता और हमारी संस्कृति की शाश्वतता।
जय गुरु महाराज

सोमवार, 29 अक्तूबर 2018

असली दिवाली का पूर्ण आनन्द तभी मिलेगा जब अपने अन्दर का प्रकाश प्रज्वलित हो जाय | DEEPAWALI | ASLI-DEEWALI | Santmat-Satsang | Prakash

असली दिवाली का पूर्ण आनन्द तभी मिलेगा जब अपने अन्दर का प्रकाश प्रज्वलित हो जाय!
ज्ञान है आंतरिक दीपक का प्रकाश; गंगा के तट पर एक संत का आश्रम था। एक दिन उनके एक शिष्य ने पूछा, ‘गुरुवर, शिक्षा का निचोड़ क्या है?’ संत ने मुस्करा कर कहा, ‘एक दिन तुम स्वयं जान जाओगे।’ बात आई और चली गई। कुछ समय बाद एक रात संत ने उस शिष्य से कहा, ‘वत्स, इस पुस्तक को मेरे कमरे में तख्त पर रख दो।’ शिष्य पुस्तक लेकर कमरे में गया, लेकिन तत्काल लौट आया। वह डर से कांप रहा था। संत ने पूछा, ‘क्या हुआ? इतना डरे हुए क्यों हो?’ शिष्य ने कहा, ‘गुरुवर, कमरे में सांप है।’ संत ने कहा, ‘यह तुम्हारा भ्रम होगा। कमरे में सांप कहां से आएगा! तुम फिर जाओ और मंत्र का जाप करना। सांप होगा तो भाग जाएगा।’

शिष्य दोबारा कमरे में गया। उसने मंत्र का जाप भी किया, लेकिन सांप उसी स्थान पर डटा रहा। शिष्य डर कर फिर बाहर आ गया और संत से बोला, ‘सांप वहां से जा नहीं रहा है।’ संत ने कहा, ‘इस बार दीपक लेकर जाओ। सांप होगा तो दीपक के प्रकाश से भाग जाएगा।’ शिष्य इस बार दीपक लेकर गया तो देखा कि वहां सांप नहीं है। सांप की जगह एक रस्सी लटकी हुई थी। अंधकार के कारण उसे रस्सी का वह टुकड़ा सांप नजर आ रहा था। बाहर आकर शिष्य ने कहा, ‘गुरुवर, वहां सांप नहीं, रस्सी का टुकड़ा है। अंधेरे में मैंने उसे सांप समझ लिया था।’ संत ने कहा, ‘वत्स, इसी को भ्रम कहते हैं। संसार गहन भ्रमजाल में जकड़ा हुआ है। ज्ञान के प्रकाश से ही इस भ्रमजाल को मिटाया जा सकता है, लेकिन अज्ञानता के कारण हम बहुत सारे भ्रमजाल पाल लेते हैं और आंतरिक दीपक के अभाव में उसे दूर नहीं कर पाते। जब तक आंतरिक दीपक का प्रकाश प्रज्ज्वलित नहीं होगा, लोग भ्रमजाल से मुक्ति नहीं पा सकते।’ कबीर साहब कहते हैं:-

अपने घट दियना बारु रे।।
नाम का तेल सुरत कै बाती, ब्रह्म अगिन उद्गारु रे।
जगमग जोत निहारू मंदिर में, तन मन धन सब वारू रे।।
झूठी जान जगत की आसा, बारम्बार बिसारू रे।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, आपन काज सँवारू रे।।

   जय गुरु महाराज

शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

परम स्नेही संत | सत्संग की जगह पर जाने से, एक-एक कदम रखने से एक-एक यज्ञ करने का फल मिलता है | Santmat-Satsang | SANTMEHI | SADGURUMEHI

परम स्नेही संत
सत्संग से हमें वह रास्ता मिलता है, जिससे हमारा तो उद्धार हो जाता है, हमारे इक्कीस कुलक भी तर जाते हैं।

बिनु सत्संग न हरिकथा ते बिन मोह न भाग।
मोह गये बिनु राम पद, होवहिं न दृढ़ अनुराग।।

सत्संग की जगह पर जाने से, एक-एक कदम रखने से एक-एक यज्ञ करने का फल मिलता है। देवर्षि नारद दासी के पुत्र थे…. विद्याहीन, जातिहीन, धनहीन, कुलहीन और व्यवसायहीन दासी के पुत्र। चतुर्मास में वह दासी साधुओं की सेवा में लगायी गयी थी। साधारण दासी थी। वह साधुओं की सेवा में आती थी तो अपने छोटे बच्चे को भी साथ में ले आती थी। वह बच्चा कीर्तन करता, सत्संग सुनता। साधुओं के प्रति उसकी श्रद्धा हो गयी। उसको कीर्तन, सत्संग, ध्यान का रंग लग गया। उसको आनंद आने लगा। संतों ने नाम रख दिया हरिदास। सत्संग, ध्यान और कीर्तन में उसका चित्त द्रवित होने लगा। जब साधु जा रहे थे तो वह बोलाः “गुरुजी ! मुझे साथ ले चलो।”
संतः “बेटा ! अभी तुझे हम साथ नहीं ले जा सकते। जन्मों-जन्मों का साथी जो हृदय में बैठा है, उसकी भक्ति कर, प्रार्थना कर।”
संतों ने ध्यान-भजन का तरीका सिखा दिया और वही हरिदास आगे चलकर देवर्षि नारद बना। जातिहीन, विद्याहीन, कुलहीन और धनहीन बालक था, वह देवर्षि नारद बन गया। नारदजी को तो देवता भी मानते हैं, मनुष्य भी उनकी बात मानते हैं और राक्षस भी उनकी बात मानते हैं।
कहाँ तो दासी पुत्र ! जातिहीन, विद्याहीन, कुलहीन और कहाँ भगवान को सलाह देने की योग्यता !
ऐसे महान बनने के पीछे नारदजी के जीवन के तीन सोपान थेः
1. सोपान था-सत्संग, साधु समागम।
2. सोपान था-उत्साह।
3. सोपान था-श्रद्धा।
सत्संग, उत्साह और श्रद्धा अगर छोटे से छोटे आदमी में भी हों तो वह बड़े से बड़े कार्य कर सकता है। यहाँ तक कि भगवान भी उसे मान देते हैं। वे लोग धनभागी हैं जिनको सत्संग मिलता है ! वे लोग विशेष धनभागी हैं जो सत्संग दूसरों को दिलाने की सेवा करके संत और समाज के बीच की कड़ी बनने का अवसर खोज लेते हैं, पा लेते हैं और अपना जीवन धन्य कर लेते हैं!
।। जय गुरु ।।

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

यह भी नहीं रहने वाला | साधू कहने लगा - "धन्य है आनंद! तेरा सत्संग, और धन्य हैं तुम्हारे सतगुरु | Maharshi Mehi Sewa Trust

यह भी नहीं रहने वाला!

         एक साधु देश में यात्रा के लिए पैदल निकला हुआ था। एक बार रात हो जाने पर वह एक गाँव में आनंद नाम के व्यक्ति के दरवाजे पर रुका।
आनंद ने साधू  की खूब सेवा की। दूसरे दिन आनंद ने बहुत सारे उपहार देकर साधू को विदा किया।

साधू ने आनंद के लिए प्रार्थना की  - "भगवान करे तू दिनों दिन बढ़ता ही रहे।"

       साधू की बात सुनकर आनंद हँस पड़ा और बोला - "अरे, महात्मा जी! जो है यह भी नहीं रहने वाला ।" साधू आनंद  की ओर देखता रह गया और वहाँ से चला गया ।

      दो वर्ष बाद साधू फिर आनंद के घर गया और देखा कि सारा वैभव समाप्त हो गया है । पता चला कि आनंद अब बगल के गाँव में एक जमींदार के यहाँ नौकरी करता है । साधू आनंद से मिलने गया।

आनंद ने अभाव में भी साधू का स्वागत किया । झोंपड़ी में फटी चटाई पर बिठाया । खाने के लिए सूखी रोटी दी । दूसरे दिन जाते समय साधू की आँखों में आँसू थे । साधू कहने लगा - "हे भगवान् ! ये तूने क्या किया ?"

     आनंद पुन: हँस पड़ा और बोला - "महाराज  आप क्यों दु:खी हो रहे है ? महापुरुषों ने कहा है कि भगवान्  इन्सान को जिस हाल में रखे, इन्सान को उसका धन्यवाद करके खुश रहना चाहिए। समय सदा बदलता रहता है और सुनो ! यह भी नहीं रहने वाला।"

      साधू मन ही मन सोचने लगा - "मैं तो केवल भेष से साधू  हूँ । सच्चा साधू तो तू ही है, आनंद।"

      कुछ वर्ष बाद साधू फिर यात्रा पर निकला और आनंद से मिला तो देखकर हैरान रह गया कि आनंद  तो अब जमींदारों का जमींदार बन गया है ।  मालूम हुआ कि जिस जमींदार के यहाँ आनंद  नौकरी करता था वह सन्तान विहीन था, मरते समय अपनी सारी जायदाद आनंद को दे गया।

साधू ने आनंद  से कहा - "अच्छा हुआ, वो जमाना गुजर गया ।   भगवान्  करे अब तू ऐसा ही बना रहे।"

    यह सुनकर आनंद  फिर हँस पड़ा और कहने लगा - "महाराज  ! अभी भी आपकी नादानी बनी हुई है।"

  साधू ने पूछा - "क्या यह भी नहीं रहने वाला ?"

    आनंद उत्तर दिया - "हाँ! या तो यह चला जाएगा या फिर इसको अपना मानने वाला ही चला जाएगा । कुछ भी रहने वाला नहीं  है और अगर शाश्वत कुछ है तो वह है परमात्मा और उस परमात्मा की अंश आत्मा।"

आनंद  की बात को साधू ने गौर से सुना और चला गया।

     साधू कई साल बाद फिर लौटता है तो देखता है कि आनंद  का महल तो है किन्तू कबूतर उसमें गुटरगूं कर रहे हैं, और आनंद  का देहांत हो गया है। बेटियाँ अपने-अपने घर चली गयीं, बूढ़ी पत्नी कोने में पड़ी है ।

*साधू कहता है - "अरे इन्सान! तू किस बात का अभिमान करता है ? क्यों इतराता है ? यहाँ कुछ भी टिकने वाला नहीं है, दु:ख या सुख कुछ भी सदा नहीं रहता। तू सोचता है पड़ोसी मुसीबत में है और मैं मौज में हूँ । लेकिन सुन, न मौज रहेगी और न ही मुसीबत। सदा तो उसको जानने वाला ही रहेगा। सच्चे इन्सान वे हैं, जो हर हाल में खुश रहते हैं। मिल गया माल तो उस माल में खुश रहते हैं, और हो गये बेहाल तो उस हाल में खुश रहते हैं।"*

साधू कहने लगा - "धन्य है आनंद! तेरा सत्संग, और धन्य हैं तुम्हारे सतगुरु! मैं तो झूठा साधू हूँ, असली फकीरी तो तेरी जिन्दगी है। अब मैं तेरी तस्वीर देखना चाहता हूँ, कुछ फूल चढ़ाकर दुआ तो मांग लूं।"

  साधू दूसरे कमरे में जाता है तो देखता है कि आनंद  ने अपनी तस्वीर  पर लिखवा रखा है - "आखिर में यह भी  नहीं रहेगा।"

विचार करे........
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट* गुरुग्राम


सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

आग लगी आकाश में झर-झर गिरे अंगार। संत न होते जगत में तो जल मरता संसार।। MAHARSHI=MEHI | SANTMAT-SATSANG | SANTMEHI | SADGURUMEHI

आग लगी आकाश में झर-झर गिरे अंगार।

संत न होते जगत में तो  जल मरता संसार।।

इस जगत की स्थिरता  का मुख्य कारण  संत महापुरुष ही हैं यह तो ठीक ही है कि स्वांस चलने का हमें एहसास नहीं होता। परन्तु जब सर्दी जुकाम हो जाता है। छाती में कफ जम जाता है, तभी हमें स्वांस की कीमत का पता चलता है और हम डाक्टर के पास इलाज के लिए भागते हैं। ऐसा नहीं है कि संसार में आज सतगुरु नहीं है। नकली नोट बाजार में तभी चल सकते हैं यदि असली नोट है। अगर सरकार  असली नोट बंद कर  दे तो नकली नोट कैसे चल सकते हैं। आज मार्किट में नकली वस्तुए बहुत आसानी से सस्ते दामों में प्राप्त हो सकती है। परन्तु असली वस्तु की पहचान हो जाने पर नकली की कोई  कीमत नहीं रह जाती। इस प्रकार हमें जरूरत है सच्चे  सतगुरु की शरण में जाने की। जब तक सतगुरु की प्राप्ति नहीं होती, तब तक जीवन का कल्याण असंभव है। उससे पहले हम आध्यात्मिक क्षेत्र  में प्रगति नहीं कर सकते।

जानना तो यह जरूरी है कि हमें किस प्रकार गुरु की प्राप्ति हो सकती है। आज का मानव यह तो सरलता से कह देता है कि गुरु किये बिना कल्याण नहीं है, इस लिए हम ने तो गुरु धारण कर लिया। हम ने गुरु मन्त्र  लिया और खूब भजन सुमरिन करते हैं। परन्तु जब यह पूछा जाता है कि मन को शांति मिली ?  क्या जीवन का रहस्य को जाना ?  तब जबाब मिलता है कि यह तो बहुत मुश्किल है, मन अभी कहाँ टिका। ज्ञान तो ले लिया, परन्तु न तो मन को स्थिरता मिल पाई और न ही मन को स्थिर करने का स्थान ही पता चल पाया और न ही जीवन के कल्याण  के मार्ग को जाना। विचार करना है कि गुरु क्यों धारण किया ?  गुरु का कार्य हमें जीवन के रहस्य को समझाना है। जब कि आज मनुष्य ने गुरु मन्त्र  को एक खिलौना बना लिया। बहुत गर्व से कहते हैं कि हम ने तो गुरु किया है।  परन्तु यह पता नहीं है कि गुरु किसे कहते हैं ?  केवल रटने के लिए कुछ शब्दों का अभ्यास करवा देने वाले को गुरु नहीं कहा जा सकता। यदि शास्त्रों में लिखित मन्त्रों को ही गुरु प्रदान करता है तो गुरु की क्या जरूरत है। वह तो स्वयं भी पढ़ सकते हैं। इस लिए कहा  है: -

कोटि नाम संसार में तातें मुकित न होए।
आदि नाम जो गुप्त जपें बुझे बिरला  कोई।।

कबीर साहब कहते हैं कि संसार में परमात्मा के करोड़ों नाम है परन्तु उनको जपने से मुकित (मुक्ति) नहीं हो सकती। जानना है तो उस नाम को जो आदि कल से चला आ रहा है। अत्यंत  गोपनीय है, मनुष्य  के अंतर में  ही चल रहा है। कण-कण में विधमान है। इस लिए हमें भी चाहिए ऐसे पूर्ण संत की खोज करें, जब आप खोज करेंगे तो आप को ऐसा संत मिल जायेगें। उस के बाद ही हमारी भक्ति  की यात्रा की शुरुआत होगी।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: एस.के. मेहता, गुरुग्राम

शनिवार, 20 अक्तूबर 2018

संतमत का संक्षिप्त परिचय | संत और संतमत | संतमत का छोटा-सा सिधांत | संतमत की परम्परा | संत बाबा देवी साहब | संत तुलसी साहब | संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ | SANTMAT-SATSANG

संतमत का संक्षिप्त परिचय

संत और संतमत :- शांति स्वरुप परमात्मा की प्रत्यक्षानुभूति प्राप्त करनेवाले महापुरुष ही संत होते हैं। सभी संतो की मौलिक बातें समान ही हैं। संतों की इसी मौलिक विचारधारा को संतमत कहते हैं।

संतमत का छोटा-सा सिधांत :- गुरु, ध्यान और सत्संग है। संत्संग के द्वारा सुबुधि प्राप्त करना, गुरु के द्वारा साधना का गुप्त रहस्य जानना एवं ध्यान के द्वारा अन्तः प्रकाश तथा अंतर्नाद प्राप्त कर आत्म नियंत्रण की पूर्णता प्राप्त करना, फिर सदाचारी, सांसारिक जीवन बिताना है।

संतमत की परम्परा :-
1.संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज  (१८८५-१९८६) :- संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज  संतमत के आधुनिक काल में मुख्य आधार स्तम्भ हैं। इनका अवतरण मधेपुरा जिले के ग्राम-खोख्शी श्याम मझुआ, बिहार (भारत) में १८८५ इसवी में वैशाखी पूर्णिमा के एक दिन पहले हुआ था। पैत्रिक गाँव सिकलीगढ़ धरहरा जिला पूर्णिया बिहार है। पूर्व संस्कारवश मैट्रिक की परीक्षा में वैराग्य का संवेग हुआ। वैरागी बन लम्बी खोज के बाद सद्गुरु बाबा देवी साहब से संतमत को ठीक से जाना। कुप्पाघाट, भागलपुर बिहार की प्राचीन गुफा में १८ महीने की लगातार उपासना में आत्मानुभूति प्राप्त किया। फिर संतमत का व्यापक प्रचार किया एवं सत्संग-योग चारो भाग जैसे कई सैद्धांतिक  पुस्तकों की रचना कर संतमत को मजबूत आधार प्रदान किया। नियमित साधना तथा सत्संग के बीच १०१ वर्षों की आयु पूरी कर ८ जून १९८६ इसवी में इस स्थूल शरीर का परित्याग किया।

2. संत बाबा देवी साहब [१८४१--१९१९] :- संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के गुरु संत बाबा देवी साहब मुरादाबाद उत्तरप्रदेश भारत के निवासी थे। मुंशी महेश्वरी लाल ने इन्हे संत तुलसी साहब से आशीर्वाद के द्वारा प्राप्त किया था। इनका जन्म १८४१ ई में हुआ था। इन्हें गुरु संत तुलसी साहब का दर्शन मात्र ४ वर्ष की उम्र में हुआ था। उसी समय गुरु ने इनके सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया था। तब से ही ये ध्यान में संलग्न रहे। अविवाहित रहकर पोस्ट ऑफिस की नौकरी कर आत्मनिर्भर जीवन की स्थिति बनायीं। संतमत का सुन्दर प्रचार घूम-घूम कर किया। जनवरी १९१९ में अपने  स्थूल शरीर का त्याग मुरादाबाद में किया।

3. संत तुलसी साहब  [१७६३--१८४८] :- संत बाबा देवी साहब के गुरु संत तुलसी साहब के जन्म तथा वंश की ठीक-ठीक जानकारी उपलब्ध नहीं है, अनुमान से इनका जन्म १७६३ ई० में राजसी परिवार में पुणे में हुआ था। ये प्रखर संत अधिकतर ध्यान-साधना में तल्लीन रहते थे। मौका निकाल कर  संतमत का प्रचार भी करते थे। गुरु की स्तुति इन्होने की है, किन्तु उनके गुरु के नाम का पता नहीं चलता है। भोजन के लिए ये भीख मांग लेते थे, गुदरी पहन कर गुजर कर लेते थे। इनकी कई रचनायें हैं। ये संतमत के ज्ञान से भरे हुए हैं। १८४८ई में इन्होंने हाथरस में चोला त्याग किया। यहाँ इनकी समाधि भी है।

4. महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज (१९२०-२००७) :- संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ के पट्ट शिष्य एवं अगले आचार्य महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज का जन्म 20.12.1920  इसवी में ग्राम-गम्हरिया, जिला-सुपौल, बिहार (भारत) में हुआ था। १९३९ इसवी में ये गुरु की शरण में आये। लगभग ४० वर्षों तक लगातार गुरु की खास सेवा में रहे। यह एक ऐतिहासिक सेवा है। इनके द्वारा ही गुरुदेव के प्रवचनों एवं कई पुस्तकों की रचना हुई। गुरुदेव के ज्ञान को इन्होंने ही पुस्तक के पन्ने पर लाया। गुरुदेव के बाद १९८६ इसवी से ये 'वर्तमान आचार्य' का कार्य जीवन के अंतिम क्षण यानि ४ जून, २००७ तक करते रहे। इनके द्वारा संतमत सत्संग एवं कुप्पाघाट आश्रम का भरपूर विकास हुआ। इनकी समाधि आश्रम परिसर की भव्यता को बढ़ा रहा है।

5. महर्षि हरिनंदन परमहंस जी महाराज (१९३४ इसवी से लगातार) :- महान संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के प्रमुख शिष्य एवं खास शारीरिक सेवा में रहे। महर्षि हरिनंदन परमहंस जी महाराज का जन्म ग्राम-मचहा, जिला-सुपौल, बिहार (भारत) में १९३४ इसवी के चैत्र मास में रामनवमी के एक दिन पूर्व हुआ था। १९५७ से गुरुदेव की सेवा में ये लगभग २९ वर्षों तक उनके जीवन के अंतिम क्षण तक रहे। २००७ इसवी में महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज के शरीर त्यागने के बाद ये वर्तमान आचार्य का कार्य कर रहें हैं, इनके निर्देशन में संतमत का प्रचार और बढ़ता जा रहा है। आप बुढ़ापे की अवस्था में भी लगातार भ्रमण कर ध्यान एवं सत्संग का सम्यक प्रचार कर रहें हैं। जिला वार्षिक अधिवेशन एवं अखिल भारतीय महाधिवेशन आदि में प्रायः जाते रहतें हैं। बहुत कम कीमत पर पुस्तकें एवं शांति सन्देश पत्रिका उपलब्ध करवातें हैं। संतमत की समझ का विकास कर निःशुल्क दीक्षा (संतों का गुप्त भेद) बताने की व्यवस्था करतें हैं। आपके कार्यकाल में महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट भागलपुर का भरपूर विकास हुआ है। आपको अपने भक्तों से मिले हुए रूपये पैसों से आश्रम में ढेरों विकास कार्य हुआ है और हो रहा है। आपने गुरु महाराज की सेवा भक्ति बड़ी ही तन्मयता एवं लगन से की। आपने लोगों द्वारा दिये गये एक-एक रुपये-पैसों का हिसाब इस कदर रखा कि आपके हिसाब की बही-खाता देखकर गुरु महाराज बहुत प्रसन्न हुए और ऐन वक्त पर वह रूपया गुरु महाराज के काम भी आया इससे गुरु महाराज ने अत्यंत प्रसन्न मुद्रा में खुश होकर आपको आशिर्वाद प्रदान किये कि "आपको रुपयों-पैसों  की कभी कमी नहीं होगी।" इस तरह आपका जीवन गुरुमय हो गया, संतमय हो गया, संतमतमय हो गया है। आपके दर्शन पाकर प्राणी अपने को धन्य मानते हैं, प्रफुल्लित हो उठते हैं, कृत कृत्य हो जाते हैं। आपके श्री चरणों में कोटि-कोटि नमन्!!! --जय गुरु!!!


रविवार, 14 अक्तूबर 2018

सेवा, सहयोग, साधना- मनुष्य-जन्म की शुरूआत सेवा से होती है ... | SEWA-SAHYOG-SADHNA | SANTMAT-SATSANG

सेवा, सहयोग, साधना!
मनुष्य-जन्म की शुरुआत सेवा से होती है और अंत भी उसी में। जीवन का आदि और अंत-यह दो ऐसी अवस्थाएँ है, जब मनुष्य सर्वथा अशक्त-असमर्थ होता है, इसलिए उसे सहारे की आवश्यकता पड़ती है। इन दोनों का मध्यवर्ती अंतराल ही ऐसा है, जिसमें आदमी सबसे समर्थ, सशक्त और योग्य होता है यही वह काल है, जब उसे स्वयं पर किए गए उपकारों के बदले समाज को उपकृत करके ऋण चुकाना पड़ता है यदि वह ऐसा न करे और जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत सेवा लेता रहे, तो उसकी वह कृतघ्नता मरणोत्तर जीवन में ऐसा वज्राघात बनकर बरसती है, जिसके लिए उसके पास सिर्फ पछतावा ही शेष रहता है। इसलिए समझदार लोग सेवा की महत्ता को समझते और उसे अपनाते हैं।

जो व्यक्ति अपना वैभव लुटाकर दूसरों को स्वस्थता और खुशियाँ बाँटते हैं, समर्पण भाव से अपनी सेवा, साधना में जुटे रहते हैं, वह वास्तव में स्तुत्य है। ऐसे व्यक्ति इहलोक में ही स्वर्ग-मुक्ति के उस आयाम को प्राप्त कर लेते हैं, जिसके लिए शास्त्रों में अन्य लोकों की चर्चा हैं।

सेवा प्रकाराँतर से एक साधना है। जो इसे भली प्रकार संपन्न कर लेता है, समझना चाहिए उसने सब कुछ पा लिया। यों ईश्वरप्राप्ति जीवन का चरम लक्ष्य है, पर जहाँ निर्दोष और निर्विकार सहयोग, सम्मान,यश, कीर्ति आदि हो, वहाँ भी ईश्वरीय अंश प्रकाशित हो रहा होता है। ऐसे में वह व्यक्ति चमत्कारिक ईश-विभूतियों को भले ही न पा सके , पर आत्मिक ऋद्धि और भौतिक सिद्धियों का स्वामी तो हो ही जाता है। इसीलिए सेवा को सर्वोपरि ईश्वर-उपासना कहा गया है। इसे हर हालत में हर एक को करनी ही चाहिए।
।। जय गुरु ।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट (रजि.)*
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सेवा की भावना-अनेक सद्गुणों के कारण मनुष्य जीवन की महत्ता मानी गई है | SANTMAT-SATSANG | SEWA | MAHARSHI MEHI SWA TRUST

सेवा की भावना
अनेक सद्गुणों के कारण मनुष्य जीवन की महत्ता मानी गई है। उनमें से एक महत्वपूर्ण गुण है-सेवा। एक-दूसरे के प्रति सद्भाव, एक दूसरे के व्यक्तित्व का आदर, समस्याओं को सुलझाने में सहयोग और समर्पण-ये सब सेवा के रूप हैं। ये अहिंसा और दया के ही विभिन्न पथ हैं। भगवान महावीर स्वामी का यह कथन महत्वपूर्ण है कि मेरी उपासना से भी अधिक महान है-किसी वृद्ध, रुग्ण और असहाय की सेवा करना। सेवा से व्यक्ति साधना के उच्चतम पद को भी प्राप्त कर सकता है। मानव में यदि परस्पर सहयोग की आकांक्षा नहीं है तो एक पत्थर और उसमें कोई अंतर नहीं रह जाता। एक पत्थर के टुकड़े को यदि हम तोड़ते हैं तो क्या पास में पड़े दूसरे पत्थर की कोई दया और संवेदना की प्रतिक्रिया होती है? परंतु यदि मानव के समक्ष ऐसा हो और यदि उसकी चेतनता विकसित है तो संवेदना अवश्य होगी। अगर ऐसी परिस्थितियों में मानव की चेतना में कोई अनुकंपन नहीं है तो उसमें प्राणों का स्पंदन भले ही हो, पर मानवीय चेतना का स्पंदन अभी नहीं हुआ है। आज समाज में मानवीय चेतना का स्पंदन भौतिकता के भार तले दमित होता जा रहा है। परिणामत: विश्व में आज आतंकवाद का बोलबाला हो रहा है। मनुष्य की चेतना आज पाशविक चेतना में परिवर्तित हो गई है। किसी संस्कृति में जीवन के संकल्प जितने विराट होंगे उतने ही उदात्त आदर्श होंगे। हमारी मानवीय चेतना भी उतनी ही विकसित होगी।

भारतीय संस्कृति में सेवा, समर्पण और सद्भाव के विराट आदर्श प्रस्तुत किए गए हैं। यहां व्यक्ति का मूल्यांकन धन-ऐश्वर्य और सत्ता के आधार पर नहीं, सेवा व सद्गुणों के आधार पर किया गया है। हमारा तत्वचिंतन यह नहीं पूछता है कि तुम्हारे पास सोने-चांदी का कितना ढेर है? बल्कि वह पूछता है कि तुमने अपने ऐश्वर्य को जन-जीवन के लिए कितना अर्पित किया है? पद एवं सेवा का उपयोग जनसेवा के लिए कितना किया है? हाथ का महत्व हीरे और पन्ने की अगूंठियां पहनने में नहीं, बल्कि हाथ से दान करने में है। सेवा से आत्मा में परमात्मा का दर्शन होता है। सेवा के लिए अपनी सुख-वृत्ति को तिलांजलि देनी पड़ती है। इस कारण सेवा एक बड़ा तप है। अपनी इच्छाओं का संयमन किए बगैर कोई कैसे किसी की सेवा कर सकता है? सेवा के लिए वैयक्तिक सुखों का त्याग करना पड़ता है। सेवा के समान कोई धर्म नहीं है। वास्तव में सेवा मानवता का सर्वोच्च लक्षण है।

।। जय गुरु ।।

सेवा है मानव जीवन का सौन्दर्य | यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था- 'लोक में श्रेष्ठ धर्म क्या है? | SANTMAT-SATSANG | SANTMEHI | SADGURUMEHI

सेवा है मानव जीवन का सौंदर्य;

यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था- 'लोक में श्रेष्ठ धर्म क्या है? इसके उत्तर में युधिष्ठिर ने कहा था- 'समाज और संसार में दया ही श्रेष्ठ धर्म है।' अगर अपने से दीन-हीन, असहाय, अभावग्रस्त, आश्रित, वृद्ध, विकलांग, जरूरतमंद व्यक्ति पर दया दिखाते हुए उसकी सेवा और सहायता न की जाए, तो समाज भला कैसे उन्नति करेगा? सच तो यह है कि सेवा ही असल में मानव जीवन का सौंदर्य और शृंगार है। सेवा न केवल मानव जीवन की शोभा है, अपितु यह भगवान की सच्ची पूजा भी है। भूखे को भोजन देना, प्यासे को पानी पिलाना, विद्यारहितों को विद्या देना ही सच्ची मानवता है। सेवा से मिलता मेवा: दूसरों की सेवा से हमें पुण्य मिलता है- यह सही है, पर इससे तो हमें भी संतोष और असीम शांति प्राप्त होती है। परोपकार एक ऐसी भावना है, जिससे दूसरों का तो भला होता है, खुद को भी आत्म-संतोष मिलता है। मानव प्रकृ ति भी यही है कि जब वह इस प्रकार की किसी उचित व उत्तम दिशा में आगे बढ़ता है और इससे उसे जो उपलब्धि प्राप्त होती है, उससे उसका आत्मविश्वास बढ़ता है। सौ हाथों से कमाएं, हजार हाथों से दान दें: अथर्व वेद में कहा गया है 'शतहस्त समाहर सहस्त्र हस्त सं किर'। अर्थात् हे मानव, तू सैकड़ों हाथों से कमा और हजारों हाथों से दान कर। प्रकृति भी मनुष्य को कदम-कदम पर परोपकार की यही शिक्षा देती है। हमें प्रसन्न रखने और सुख देने के लिए फलों से लदे पेड़ अपनी समृद्धि लुटा देते हैं। पेड़-पौधे, जीव-जंतु उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं और मानव का जितना भी उपकार कर सकते हैं, करते हैं तथा बाद में प्रकृति में लीन हो जाते हैं। उनके ऐसे व्यवहार से ऐसा लगता है कि इनका अस्तित्व ही दूसरों के लिए सुख-साधन जुटाने के लिए हुआ हो। सूर्य धूप का अपना कोष लुटा देता है और बदले में कुछ नहीं मांगता। चंद्रमा अपनी शीतल चांदनी से रात्रि को सुशोभित करता है। शांति की ओस टपकाता है और वह भी बिना कुछ मांगे व बिना किसी भेदभाव के। प्रकृति बिना किसी अपेक्षा के अपने कार्य में लगी है और इससे संसार-चक्र चल रहा है। दया है धर्म, परपीड़ा है पाप: दूसरों के साथ दयालुता का दृष्टिकोण अपनाने से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। इसी तरह अगर किसी को अकारण दुख दिया जाता है और उसे पीड़ा पहुंचाई जाती है, तो इसके समान कोई पाप नहीं है। ऋषि-मुनियों ने बार-बार कहा है कि धरती पर जन्म लेना उसी का सार्थक है, जो प्रकृति की भांति दूसरों की भलाई करने में प्रसन्नता का अनुभव करे। एक श्रेष्ठ मानव के लिए सिर्फ परोपकार करना ही काफी नहीं है, बल्कि इसके साथ-साथ देश और समाज की भलाई करना भी उसका धर्म है। बेशक, आज के युग में भी कुछ ऐसे लोग हैं, जो अपने सुखों को छोड़कर दूसरों की भलाई करने में और दूसरों का जीवन बचाने में अपना जीवन होम कर रहे हैं, पर साथ ही, कुछ ऐसे अभागे इंसान भी हैं, जिन्हें आतंक और अशांति फैलाने में आनंद की अनुभूति होती है। ऐसे लोग मानव होते हुए भी क्या कुछ खो रहे हैं, इसका उन्हें अहसास नहीं है। सबका हित, अपना हित: गीता (12.4) में लिखा है, 'जो सब प्राणियों का हित करने में लगे हैं, वे मुझे ही प्राप्त करते हैं।' विद्वान लोग विद्या देकर, वैद्य और डॉक्टर रोगियों की चिकित्सा करके, धनी व्यक्ति निर्धनों की सहायता करके तथा शेष लोग अपने प्रत्येक कार्य से सभी का हित करें, तो धरती पर मौजूदा सभी प्राणियों का भला हो सकता है। यही सच्ची भक्ति है। 'सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय'- इस भाव को अपनाकर ही देश और समाज का भला हो सकता है। चाणक्य ने कहा था- 'परोपकार ही जीवन है। जिस शरीर से धर्म नहीं हुआ, यज्ञ न हुआ और परोपकार न हो सका, उस शरीर का क्या लाभ?' सेवा या परोपकार की भावना चाहे देश के प्रति हो या किसी व्यक्ति के प्रति, वह मानवता है। इसलिए हर व्यक्ति को यह समझना होगा कि परोपकार से ही ईश्वर प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
।। जय गुरु ।।

होना है जिस देह को, पंचतत्व में विलीन | HONA HAI DEH KO PANCHTATVA ME VEELIN | SANTMAT-SATSANG

होना है जिस देह को, पंचतत्व में लीन।

होना है जिस देह को, पंचतत्व में लीन।
उसको साज संवारने, क्यों ? रहा कन्डे बीन।।
कर पाए तो शीघ्र कर, इससे अब सत्काम।
वरना यह मलमूत्र का, भांडा "रोटीराम "।।
भोजन-निद्रा -भोग तो, हम अरु पशु समान।
यह तन तब ही दिव्य है, जब जापे भगवान।।
गर नहीं आज विवेक से, ले पाया तू काम।
तो सौ प्रतिशत sure है, पुनर्जन्म पशुचाम।।

(नीति शतक) में लिखा है कि, 
आहार - निद्रा - भय मैथुनम् च, सामान्य मेतत् पशु भिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषा मधिको विशेषो, धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।।

आहार - निद्रा - भय और मैथुन तो पशु शरीर और मानव शरीर में एक समान ही है, मनुष्य  को जो विवेक रूपी निधि मिली हुई है, बस  वही हमें पशुओं से अलग करती है।
विवेक का  इस्तेमाल करके हम तो सत्कर्मों के द्वारा धर्म पथ पर चल कर परमात्म तत्व को पा सकते हैं, पशु नहीं। इसलिए अगर मनुष्य तन पाकर भी अगर  हमने इस शरीर को यूँ हीं गँवा दिया तो, हममें और पशु में क्या ? अंतर रह गया।
।। जय गुरु ।।

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2018

एक प्रेरणा: एक कौआ जंगल में रहता था ...

|| एक प्रेरणा ||
एक कौआ जंगल में रहता था और अपने जीवन से संतुष्ट था...
एक दिन उसने एक हंस को देखा......
"यह हंस कितना सफ़ेद है,कितना सुन्दर है...मन ही मन उसने सोचा"......

उसे लगा यह सुन्दर हंस संसार का सबसे सुखी पंछी होगा, जबकि मैं कितना काला हूँ.....
यह सोच कर,अब तक, अपने जीवन को संतुष्टि से गुज़ारने वाला कौआ परेशान हो उठा, उससे रहा नहीं गया और उसने अपने मनोभाव हंस को बताये....
हंस बोला नहीं मित्र वास्तविकता ऐसी है, कि पहले मैं ख़ुद को आसपास के सभी पक्षियों में सुखी समझता था किन्तु जब मैंने तोते को देखा तो पाया उसके दो रंग हैं और वह कितना मीठा बोलता है, तबसे मुझे लगा सब पंछियों में तोता ही सुन्दर तथा सुखी है...
अब कौआ तोते के पास गया....
तोते ने कहा,
मैं सुखी जीवन जी रहा था, लेकिन जब मैंने मोर को देखा तब मुझे लगा मुझमें तो दो ही रंग हैं परंतु मोर तो विविधरंगी है..
भाई मुझे तो मोर ही सर्वाधिक सुखी लगता है...
कौआ उड़ कर प्राणी संग्रालय गया, वहां कई पर्यटक मोर को देख कर उसकी ख़ूबसूरती की प्रसंशा कर रहे थे, जब सब दर्शक अन्यत्र गए, तो कौए ने मोर से पुछा मित्र तुम तो अति सुन्दर हो...
प्रतिदिन हज़ारों लोग तुम्हें देखने आते, तुमको देख कर खुश होते, जबकि मुझको देखते ही लोग मुझे उड़ा देते, कोई मुझे पसंद नहीं करता...
लगता है पृथ्वी पर हम सभी पक्षियों में तुम्ही सबसे ज्यादा सुखी हो....।
मोर ने गहरी सांस लेते हुए कहा..
मैं हमेशा सोचता था कि मैं   इस पृथ्वी पर अति सुन्दर हूँ,मैं ही अति सुखी हूँ परंतु मेरे सौंदर्य के कारण ही मैं यहाँ पिंजरे में कैद हूँ...
मित्र , मैंने सारे पंछी गौर से देखे, तो पाया कि सिर्फ कौआ ही ऐसा है जिसे पिंजरे में बंद नहीं किया जाता...
मुझे तो लगता काश मैं भी तुम्हारी तरह कौआ होता तो स्वतंत्रता से कहीं भी घूमता-उड़ता...सुखी रहता....।

बस यही है हमारी समस्या...
हम अनावश्यक ही दूसरों से अपनी तुलना किया करते और दुखी-उदास बनते हैं...
हम कभी भी,जो हमें प्रभु से मिला है, उसकी क़द्र नहीं करते, इसी के कारण दुःख के विषचक्र में फंसे रहते...
हमें प्रत्येक दिन भगवान् की भेंट समझ कर उसको धन्यवाद देते हुए जीना चाहिए...
तो शायद सम्पूर्ण जीवन सफल हो जाये।
प्यार से कहिये जी...
  जय गुरुदेव
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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सोमवार, 1 अक्तूबर 2018

संध्या वंदन है सभी का कर्तव्य | SANDHYA VANDAN SABHI KA KARTABYA | SANTMAT-SATSANG

संध्या वंदन है सभी का कर्तव्य;

'सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है।'☘

वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, गीता और अन्य धर्मग्रंथों में संध्या वंदन की महिमा और महत्व का वर्णन किया गया है। प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है संध्या वंदन करना। संध्या वंदन प्रकृति और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का माध्यम है। कृतज्ञता से सकारात्मकता का विकास होता है। सकारात्मकता से मनोकामना की पूर्ति होती है और सभी तरह के रोग तथा शोक मिट जाते हैं।

संध्या के समय मौन भी रहा जा सकता है और रहना भी चाहिए। इस समय के दर्शन मात्र से ही शरीर और मन के संताप मिट जाते हैं। संध्याकाल में भोजन, नींद, यात्रा, वार्तालाप और संभोग आदि नहीं किया जाना चाहिए! अर्थात इस समय में इन सब बातों का ध्यान रखकर संध्योपासना में लगकर आत्मकल्याण करना उत्तम कार्य है। संध्या वंदन में 'पवित्रता' का विशेष ध्यान रखना चाहिए। यही वेद नियम है। यही सनातन सत्य है। संध्या वंदन के नियम है। संध्‍या वंदन में प्रार्थना ही सर्वश्रेष्ठ मानी गई है।
जय गुरु

उदार हृदय के लिए संसार ही कुटुम्ब है | UDAAR HRIDAYA KE LIYE SANSAR HI KUTUMB HAI | SANTMAT-SATSANG

उदार हृदय के लिए संसार ही कुटुंब है;
कोशिश  करिए कि आप अजातशत्रु बन जाएं। इसके दो अर्थ हैं - पहला यह कि आप हमेशा शत्रुओं को पराजित करते हैं, ये सांसारिक अर्थ है।

आध्यात्मिक अर्थ है कि आपका कोई शत्रु ही नहीं होता। लेकिन फिर संसार कहता है जिसका कोई शत्रु नहीं होता, उसका कोई मित्र भी नहीं होता। दरअसल शत्रुता और मित्रता का संबंध यदि उद्योग, कर्म से जोड़ें तो अर्थ दूसरे होंगे। यदि इसमें भावना की बात करें तो मतलब बदल जाएंगे।

चलिए, एक रूपक पर विचार करते हैं। हमारे शरीर के कई हिस्से हैं जैसे हाथ-पैर, मन-मस्तिष्क आदि इंद्रियां। ऊपर से देखें तो इन सबके काम अलग-अलग हैं, लेकिन सब मिलकर परिणाम शरीर को देते हैं। कहीं न कहीं एक-दूसरे के हित में लगे हैं। यदि शरीर के अलग-अलग भाग एक-दूसरे को नुकसान पहुंचाने की वृत्ति में सक्रिय हो जाएं तो शरीर के लिए अहितकारी होता है।

इसी बात को संसार से जोड़ा जाए। जब हम अपने कार्यस्थल पर हों, तो साथियों के बीच ऐसा ही भाव रखें। आपके जितने भी वरिष्ठ व अधीनस्थ लोग हैं, उन्हें अपने शरीर के अंग मानकर व्यवस्था का हिस्सा बन जाएं। हमारे शास्त्रों में लिखा गया है कि जिनका हृदय उदार है, उनके लिए सारा संसार ही कुटुंब है। हममें और जानवरों में यही फर्क है। वे भी मिल-जुलकर रहते हैं, पर उसे झुंड कहते हैं। हम जब मिल-जुलकर रहते हैं तो हमने इसे कुटुंब कहा है। अपने कार्यालय को कुटुंब मानकर कार्य करें, तब आप अजातशत्रु हो जाएंगे। जैसे हमारे एक घर में कई घर शामिल होते हैं, हर सदस्य का अपना-अपना घर है, फिर भी कुटुंब का भाव सबको एक कर देता है।
हर एक के हृदयों में क्षमा, दया, शांति, तितिक्षा, शील, सौजन्‍यता, सच्‍ची आस्तिकता और उदारता का होना अनिवार्य हैं, तभी हम सच्‍चे सुहृदयी कहला सकते हैं।
जय गुरु

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...