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सोमवार, 9 दिसंबर 2019

सत्संग-महिमा | SATSANG MAHIMA | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Ashram | Kuppaghat-Bhagalpur

सत्संग-महिमा
☘शास्त्रों में सत्संग की महिमा खूब गाई गई है। 'श्रीरामचरितमानस' के सुंदरकांड में आता हैः

तात स्वर्ग आपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तुल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।

हे तात ! 'स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाये तो भी वे सब सुख मिलकर भी दूसरे पलड़े में रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव माने क्षण मात्र के सत्संग से होता है।'

एक क्षण के सत्संग से जो वास्तविक आनंद मिलता है, वास्तविक सत्य स्वरूप का जो ज्ञान मिलता है, जो सुख मिलता है वैसा सुख स्वर्ग में भी नहीं मिलता। इस प्रकार, सत्संग से मिलने वाला सुख ही वास्तविक सुख है।

'श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण' में ब्रह्मर्षि वशिष्ठजी महाराज मोक्ष के द्वारपालों का विवेचन करते हुए भगवान श्रीराम से कहते हैं-

"शम, संतोष, विचार एवं सत्संग – ये संसाररूपी समुद्र से तरने के उपाय हैं। संतोष परम लाभ है। विचार परम ज्ञान है। शम परम सुख है। सत्संग परम गति है।"

सत्संग का महत्त्व बताते हुए उन्होंने कहा हैः

विशेषेण महाबुद्धे संसारोत्तरणे नृणाम्।
सर्वत्रोपकरोतीह साधुः साधुसमागमः।।

'हे महाबुद्धिमान् ! विशेष करके मनुष्यों के लिए इस संसार से तरने में साधुओं का समागम ही सर्वत्र खूब उपकारक है।'

सत्संग बुद्धि को अत्यंत सात्त्विक बनाने वाला, अज्ञानरूपी वृक्ष को काटने वाला एवं मानसिक व्याधियों को दूर करने वाला है। जो मनुष्य सत्संगतिरूप शीतल एवं स्वच्छ गंगा में स्नान करता है उसे दान, तीर्थ-सेवन, तप या यज्ञ करने की क्या जरूरत है ?"

कलियुग में सत्संग जैसा सरल साधन दूसरा कोई नहीं है। भगवान शंकर भी पार्वतीजी को सत्संग की महिमा बताते हुए कहते हैं-

उमा कहउँ मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजन जगत सब सपना।।

सभी ब्रह्मवेत्ता संत स्वप्न समान जगत में सत्संग एवं आत्म-विचार से सराबोर रहने का बोध देते हैं। मेरे गुरुदेव के उपदेश एवं आचरण में कभी-भी भिन्नता देखने को नहीं मिलती थी। वे सदैव आत्मचिंतन में निमग्न रहने का आदेश देते थे।

बुधवार, 4 दिसंबर 2019

भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध में अर्जुन से कहा था..... -महर्षि मेँहीँ | Maharshi Mehi | Krishna

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏


🍁भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध में अर्जुन से कहा था कि तुम किसको मारोगे? कुरुक्षेत्र के मैदान में जितने लड़ने आए हैं, ये पहले नहीं थे और पीछे नहीं रहेंगे, ऐसी बात नहीं। शरीर बदलता है, आत्मा अविनाशी है। इस शरीर में जीवात्मा है और शरीर के बंधन में है। शरीर के बंधन में रहने से क्या होता है, यह सबको मालूम है। कभी सुख, कभी दुःख दिन रात की तरह आता-जाता रहता है। कभी लगभग चौदह घंटे की रात और कभी चौदह घंटे का दिन होता है। लेकिन बराबर न रात रहती है, न दिन रहता है। उसी तरह दुःख कभी अधिक, कभी कम। कभी पाण्डव बड़े सुख में थे और कभी भीख भी माँगी, कभी नौकरी भी की। नौकरी में युधिष्ठिर ने भी मार खायी और द्रौपदी ने भी। महारानी सीता भी रोयीं। एक बार कौन कहे, दो-दो बार। 

सूरदासजी ने कहा- 
*ताते सेइये यदुराई।*
*सम्पति विपति विपति सों सम्पति देह धरे को यहै सुभाई।।* 
*तरुवर फूलै फलै परिहरै अपने कालहिं पाई।* 
*सरवर नीर भरै पुनि उमड़ै सूखे खेह उड़ाई।।* 
*द्वितीय चन्द्र बाढ़त ही बाढे़े घटत घटत घटि जाई।* 
*सूरदास सम्पदा आपदा जिनि कोऊ पतिआई।।* 
सम्पदा व आपदा, किसी का विश्वास नहीं करो कि यह सदा रहेगी। यह तो प्रत्यक्ष अपने देश में हुआ। अंग्रेज बात-की-बात में भाग गया। जमींदारों की जमींदारी चली गई। बहुत-बहुत जमीन भी अब किसी के पास नहीं रहने को। कभी भारत बड़ा धनी था और अब भारत ऋणी है; लेकिन सदा ऋणी रहेगा, ऐसा नहीं।
इस शरीर में कभी सुख, कभी दुःख होता है। सम्पत्ति में बाहर में तो अच्छा लगता है; लेकिन अंतर जलता रहता है। गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है- 
*द्रव्यहीन दुख लहइ दुसह अति, सुख सपनेहु नहिं पाये।*
*उभय प्रकार प्रेत पावक ज्यों, धन दुख प्रद स्रुति गाये।।* 
धन होने और नहीं होने, दोनों तरहों में दुःख है। धन नहीं है, तो जलते हैं और धन हो गया, तो जैसे भूत चढ़ गया, चैन नहीं लेने देता। जो सब राष्ट्र वा एक ही राष्ट्र बड़ा धनवान है, तो चुपचाप रहे। लेकिन चुपचाप रहता कहाँ है? उसको भूत लगा है, अपने ऐश्वर्य को बढ़ाने के लिए। भारत कहता है कि हमारे पास धन नहीं है, इससे दुःखी हैं और अमेरिका कहता है-‘हमारे पास अमित धन है, धन के भोगों से बचाओ।’ वह भोग के मारे पागल हो रहा है। इस तरह धन सुख देनेवाला नहीं है। सुख कहने मात्र का है, यथार्थ में नहीं।
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 

रविवार, 24 नवंबर 2019

यूकिको फ्यूजिता- जापानी महिला सत्संगी | Yukiko Fujita (Japanies Lady}


बात 1966-67 की है। जापान के टोकियो शहर में 'यूकिको फ्यूजिता' ऩामक महिला ने स्वप्न देखा कि समुद्र की गहराई में एक विशाल मंदिर के द्वार पर एक साधु खड़े हैं जिनके शरीर से दिव्य प्रकाश निकल रहा है। नींद टूटने पर उस रुप को प्रत्यक्ष देखने के लिए उनके मन में एक बेचैनी जगी। भारत को साधु-संतों का देश जानते हुए वह भारत आयी तथा उस स्वप्न-दर्शित रुप की एक झलक हेतु हिमालय से कन्याकुमारी तक भटकी। पर असफल रही व अपने देश लौट गई। 
पर दर्शन की व्याकुलतावश पुनः दूसरे वर्ष आई। इस बार कुप्पाघाट आश्रम व पूज्य गुरुदेव के बारे में सुनकर कुप्पाघाट आश्रम आई। संयोग से उस समय गुरुदेव आश्रम में नहीं थे। पर दीवार पर गुरुदेव की एक तस्वीर को देख कर वह हर्ष से उछल पड़ी और कहने लगी-" ये वही बाबा हैं, जिनके दर्शन स्वप्न में हुए थे।" तत्पश्चात पत्र द्वारा समय लेकर कुछ ही दिनों के बाद हरिद्वार में उन्होने परमाराध्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ के पवित्र दर्शन किये। दीक्षा देने के निवेदन करने पर गुरुदेव ने उनको कुप्पाघाट आश्रम आन कोे कहा। नियत समय पर वह आश्रम आई व गुरुदेव से दीक्षा ली। 

दीक्षा के बाद गुरुदेव ने उनको वहीं ध्यान करने कहा। गुरुदेव की असीम दया से वह ध्यान में घंटों तक अंतर्जगत् के अद्भुत् दृश्यों को देखती रही जिसे उन्होने गुरुदेव के आदेशानुसार चित्रित भी किया। किसी ने जब उनसे संतमत की साधना-पद्धति के बारे में पूछा तो उन्होने उत्तर दिया-" Very easy and very high."
ऐसे थे हमारे गुरुदेव जो आंतरिक प्रेरणा देकर अपने भक्तों को स्वप्न द्वारा जापान से भी बुला लेते थे। वस्तुतः थे कहना गलत होगा, वे आज भी हैं हम भक्तों के हृदय में। ऐसे महान् संत पूज्य गुरुदेव के पावन चरण कमलों में कोटि-कोटि प्रणाम । जय गुरु ।💐👏🌹🙏🌹

सत्संग जीवन पर्यन्त करो- सद्गुरु मेँहीँ | SANT SADGURU MAHARSHI MEHI PARAMHANS JI MAHARAJ

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
🌸सत्संग जीवन पर्यन्त करो🌸
प्यारे लोगो!
संत कबीर साहब का वचन है-
निधड़क बैठा नाम बिनु, चेति न करै पुकार।
यह तन जल का बुदबुदा, बिनसत नाहीं बार।।
हे लोगो! तुम बिना डर के बैठे हुए हो, चेतते नहीं हो। इस शरीर के रहते हुए तुम नाम-भजन कर लो। जल के बुलबुले के समान यह शरीर कभी भी नष्ट हो सकता है।
शरीर छूट जाने पर हम दुःख में न पड़ जाएँ, यह डर रहता है।
*नहिं बालक नहिं यौवने, नहिं बिरधी कछु बंध।* 
*वह अवसर नहिं जानिये, जब आय पड़े जम फंद।।*  
       -गुरु नानकदेव
प्रत्यक्ष देखते हैं कि प्रत्येक अवस्था के लोग मर जाते हैं। नाम-भजन करके आवागमन के दुःख से बच सकते हो। नाम (शब्द) सुनने में आता है, देखने में नहीं आता। सुर लय को लोग कैसे लिख सकता है? ईश्वर का नाम वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक दोनों है। 
*दादू सिरजनहार के, केते नावँ अनन्त।* 
*चित आवै सो लीजिए, यों सुमरै साधू संत।।* 
अपने अंदर में अजपा-जाप की ध्वनि स्वाभाविक हो रही है। सुरत को उसमें लगाकर रखना भजन है। सुरत की डोरी इन्द्रियों की घाटों पर लगी हुई है। तिल के द्वार पर मजबूती से देखना, दोनों आँखों की दृष्टि को मजबूती से जोड़ना, यही सुरत को खींचना है।
*सुखमन कै घरि राग सुनि, सुन मण्डल लिवलाइ।* 
शून्य मण्डल में लौ लगाना दृष्टियोग से होता है। पहले सुरत को स्थूल से सूक्ष्म मण्डल में ले जाओ। वैष्णवी मुद्रा  करते हुए नादानुसन्धान करो। उत्तम आचरण से नहीं रहनेवाला यह नाम-भजन नहीं कर सकता है। निकृष्ट आचरणवाले विषयों में लगे रहते हैं। इन्द्रियों को विषयों में लोलुप रखना निकृष्ट आचरण है और विषयों में लोलुप नहीं रखना उत्तम आचरण है। बिना उत्तम आचरण रखे कोई भी नाम-भजन नहीं कर सकता है। जो फँसाव को कम करता जाता है, तब भजन ठीक है और यही भजन की तैयारी है। पहले मानस जप और मानस ध्यान है। ध्यान में भी स्थूल और सूक्ष्म है। उत्तम आचरण रखते हुए जप और ध्यान की डोर को पकड़े रहना नाम-भजन में रत हो जाना है। यही है मरने के बाद दुःख में नहीं जाना। सदा का सुख भजन में ही है। हमारी मौत बहुत नजदीक है। इसका प्रबन्ध ठीक नहीं होने से बराबर मौत से डरते रहेंगे।
डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार।
डरत रहै सो ऊबरै, गाफिल खावै मार।।
हमलोगों का शरीर मंदिर है। नियमित रूप से प्रतिदिन इसमें भजन करना चाहिए। मृत्यु के समय भी भजन करने का अभ्यास हो जाए तो बहुत ठीक है। भजन में विलम्ब मत करो।
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 

सुचिता और पुण्य संचय जरूरी | SAINTLY ACCUMULATION | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🌸शुचिता और पुण्य संचय जरूरी🌸
🌿खूब सारे लोग रोजाना घण्टों तक अपनी-अपनी पूजा पद्धतियों के अनुरूप भजन-पूजन और साधना करते रहते हैं। इनमें से अधिकांश लोग इस कामना से साधना और पूजा करते हैं कि उनके कामों में कोई बाधाएं सामने न आएं, जो समस्याएं और अभाव हैं वे दूर हो जाएं तथा उन्हें अपनी कल्पना के अनुरूप सब कुछ प्राप्त होता रहे।
बहुसंख्य लोगों द्वारा इसी उद्देश्य को लेकर सकाम भक्ति की जाती है। गिनती के कुछेक ही ऎसे लोग होते हैें जो लौकिक कामनाओं की बजाय पारलौकिक सुख के लिए पूजा-पाठ करते रहे हैं। नगण्य लोग ही ऎसे हो सकते हैं जो लौकिक एवं पारलौकिक कामनाओं की बजाय आत्म आनंद, आत्म साक्षात्कार या ईश्वर को पाने की तितिक्षा जगाए रखते हैं।

इन सभी प्रकार के भक्तों और साधकों या मुमुक्षुजनों केअपने लक्ष्य प्राप्त करने की दिशा में सर्वाधिक उत्प्रेरक की भूमिका में यदि कोई है तो वह है व्यक्तिगत शुचिता एवं दिव्यता। जो जितना अधिक शुद्ध चित्त और निर्मल मन वाला होता है वह दूसरों के मुकाबले काफी पहले अपने लक्ष्य को पा लेता है। लेकिन वे लोग पूरी जिन्दगी लक्ष्य से दूर ही रहते हैं जो अपने जीवन में सभी प्रकार की शुचिता नहीं रख पाते हैं।
चाहे ये लोग कितने ही घण्टे पूजा-पाठ करते रहें, माईक पर गला फाड़-फाड़ कर वैदिक ऋचाओं और पौराणिक मंत्रों व स्तुतियों का गान करते रहें, आरती पर आरती उतारते रहें, यज्ञ-अनुष्ठान में मनों और टनों घी एवं हवन सामग्री होम दें, दुनिया भर के नगीनों, अंगुठियों, मालाओं से लक-दक रहें, पूरे शरीर को तिलक-छापों और भस्म से सराबोर करते रहें या फिर दिन-रात मंत्र जाप और संकीर्तन करते रहकर आसमाँ गूंजा दें, इसका कोई चमत्कारिक प्रभाव न वे महसूस कर सकते हैं, न ये जमाना।
ईश्वर को पाने, आत्म साक्षात्कार और अपने सभी प्रकार के संकल्पों की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा हमारे मन-मस्तिष्क और शरीर की मलीनता ही होती है और यह मलीनता हमें लक्ष्य से हमेशा दूर रखती है।

जो लोग मन से साफ व मस्तिष्क से पवित्र होते हैं उनके लिए हर प्रकार की साधना का सौ फीसदी परिणाम शीघ्र ही सामने आ जाता है जबकि जो लोग मन-मस्तिष्क में गंदे विचार लिए होते हैं, जिन्हें शरीर की स्वच्छता और स्वास्थ्य का भान नहीं होता, ऎसे लोग हमेशा अपने सभी प्रकार के लक्ष्यों से दूर ही रहा करते हैं, चाहे ये जमाने भर में अपने आपको कितना ही बड़ा और सच्चा साधक, सिद्ध, पण्डित, आचार्य, संत-महात्मा, महंत, योगी, ध्यानयोगी, बाबाजी या महामण्डलेश्वर अथवा स्वयंभू भगवान ही क्यों न सिद्ध करते रहें।
हर प्रकार की साधना अपने लक्ष्य को पूरा करने से पूर्व चित्त की भावभूमि को शुद्ध करती है और हृदय को शुचिता के मंच के रूप में तैयार करती है। इसके बाद ही व्यक्ति के संकल्पों को साकार होने के लायक ऊर्जा प्राप्त हो सकती है।
हममें से कई सारे लोग रोजाना काफी समय पूजा-पाठ में लगाते हैं, जप और संकीर्तन, सत्संग में रमे रहते हैं और साल भर नित्य पूजा के साथ ही किसी न किसी प्रकार  की नैमित्तिक और काम्य साधना के उपक्रमों में जुटे रहते हैं।

इसके बावजूद हमारे संकल्पों को पूरा होने में या तो बरसों लग जाया करते हैं या फिर ये पूरी जिन्दगी बीत जाने के बावजूद सिद्ध नहीं होते। निरन्तर परिश्रम और समय लगाने के बावजूद इस प्रकार की विषमता और अभाव का क्या कारण है? इस बारे में यदि गंभीरता से सोचा जाए तो यही सामने आएगा कि हमने पूजा-पाठ, साधन भजन और धार्मिक गतिविधियों में जिन्दगी भर का बहुत बड़ा हिस्सा गँवा दिया, बावजूद इसके जहाँ थे वहीं हैं, कुछ भी बदलाव न आया, न देखने को मिला।
इसका मूल कारण यही है कि साधना के साथ-साथ अपने कत्र्तव्य कर्म और रोजमर्रा की जीवनचर्या में शुचिता भी जरूरी है, और अपनी मामूली ऎषणाओं पर नियंत्रण भी। हम रोजाना जितने मंत्र-स्तोत्र पाठ, स्तुतियाँ और भजन-पूजन आदि करते हैं उनसे कई गुना इच्छाएं हमारी रोजाना बनी रहती हैं, ऎसे में जो पुण्य प्राप्त होता है, जो ऊर्जा हमें मिलती है, उसका उन्हीं रोजमर्रा की कामनाओं को पूरी करने में क्षरण हो जाता है और कोई पुण्य या दैवीय ऊर्जा बचती ही नहीं है। ऎसे में हमारी संकल्पसिद्धि हमेशा संदिग्ध ही बनी रहती है, पुण्य के प्रभाव से छोटे-मोटे काम हो जाएं, वह अलग बात है किन्तु कोई बड़ा लक्ष्य प्राप्त कर पाने में हम सदैव विफल रहते हैं।

इसके साथ ही बाहरी एवं हराम का खान-पान, पतितों के साथ रहने और उनकी सेवा-चाकरी करने, दान-दक्षिणा और मिथ्या संभाषण, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, व्यभिचार, कामचोरी, षड़यंत्रों में रमे रहने, बुरे लोगों के साथ काम करने और रहने आदि कारणों से भी रोजाना पुण्यों का क्षय होता रहता है।
इन्हीं वजहों से हमारे खाते में उतने पुण्य अपेक्षित मात्रा में संचित नहीं हो पाते हैं जितने कि हमारे संकल्प की सिद्धि के लिए जरूरी हुआ करते हैं। हम रोज कुआ खोदकर रोज पानी पीने की विवशता भरी स्थिति में आ जाते हैं।
 यही सब हमारी विफलता के बुनियादी तत्व हैं। जीवन में इच्छित कामनाओं की प्राप्ति और संकल्प सिद्धि के लिए यह जरूरी है कि साधना और भजन-पूजन के साथ-साथ समानान्तर रूप से शुचिता और दिव्यता को बनाए रखने के प्रयत्न भी होते रहने चाहिए ताकि पुण्यों की कमी पर लगाम लग सके और अपने पुण्यों के संचय, सत्कर्मों, साधनाओं का ग्राफ अपेक्षित स्तर को प्राप्त कर पाए। ऎसा जब तक नहीं होगा, तब तक घण्टों, माहों और बरसों तक की जाने वाली पुण्य कर्म, साधना का कोई विशेष प्रभाव अनुभव नहीं हो सकता, इस सत्य को समझने की जरूरत है।
हमारे आस-पास ऎसे खूब सारे लोग हैं जो घण्टों मन्दिरों में भगवान की मूर्तियों के पास बने रहते हैं, घण्टियां हिलाते रहते हैं, गला फाड़कर और माईक पर चिल्ला-चिल्ला कर आरतियां, अभिषेक, कथा, सत्संग आदि करते रहते हैं फिर भी बरसों से वैसे ही हैं, न साधक बन पाए न सिद्ध। और ऎसे ही खूब सारे लोगों को हम बरसों से श्मशान तक छोड़ते आ रहे हैं। सभी प्रकार की शुचिता और पुण्य संचय के बिना न हम साधक हो सकते हैं न सिद्धावस्था प्राप्त कर सकते हैं। भगवत्कृपा या साक्षात्कार की बात तो बहुत दूर है।
🙏🌹जय गुरु महाराज🌹🙏
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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सदाचार- महर्षि संतसेवी परमहंस | Virtue | MORALITY | GOOD BEHAVIOR | DECORUM | Maharshi Santsevi Paramhans

यह सुनिश्चित है कि जो ईश्वर-भक्ति करके सदाचार का पालन करेंगे, उनका अन्तःकरण शुद्ध और शान्त होगा। फलतः, सदाचारी का निर्विकारी और परोपकारी होना स्वाभाविक है। ऐसे जन जीवनकाल में मंगलमय प्रभु को पाकर अपने मानव जीवन को मंगलमय बना सकेंगे, यह भी स्वाभाविक ही है। स्मरण रहे कि बूँद का ही समष्टिरूप सिंधु  होता है और व्यक्ति का समूह समाज, देश और विश्व होता है, अतएव प्रथम हम स्वयं को सन्मार्ग पर चला उस शान्ति का अनुभव करें। पश्चात वही शान्ति-किरण विकीर्णित होकर समाज, देश और विश्व में शान्ति प्रस्थापित करेगी, अन्यथा 'पानी मिलै न आपको, औरन बकसत क्षीर’ के चरितार्थकर्त्ता का घोर प्रयास भी सपफलता प्राप्त करने में कदापि सक्षम नहीं हो सकता। 
-महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज 
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*

ईश्वरीय प्रवाह अपनाएं | ESVRIYA PRAVAH APNAYE | SANTMAT-SATSANG | ANAND | जेहि विधि राखे राम तेहि विधि रहिये।

🌸ईश्वरीय प्रवाह अपनाएं🌸
🍁हर इंसान की अपनी कई ऎषणाएं, इच्छाएं और कल्पनाएं हुआ करती हैं जिन्हें पूरा करने के लिए वह जिन्दगी भर जाने कितने रास्तों, चौराहों और गलियारों की खोजबीन करता रहता है, कितने ही मार्गों को अपनाता और छोड़ता है।
कई सारे छोड़े हुए रास्तों को फिर पकड़ता और छोड़ता रहता है, कई बार भूलभुलैया में भटकता, अटकता हुआ जानें कहाँ-कहाँ परिभ्रमण करता है और जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को लेकर आगे बढ़ता हुआ अन्ततोगत्वा सब कुछ यहीं छोड़कर अचानक ऊपर चला जाता है।

इस सारी यात्रा में ऊपर जाने से पहले जो आनंद प्राप्त होना चाहिए वह बिरले लोग ही ले पाते हैं। लेकिन जिन लोगों को जीवन और मृत्यु दोनों का ही आनंद पाने की इच्छा होती है वे लोग भाग्यवादी भी हो सकते हैं और पुरुषार्थी भी। अन्तर सिर्फ इतना होता है कि भाग्यवादी लोग नैराश्य से वैराग्य की ओर बढ़ते नज़र आते हैं और पुरुषार्थी लोग जीवन के आनंदों की प्राप्ति करते हुए आगे बढ़ते रहते हैं मगर उद्विग्नता, असंतोष और अशांति इनके लिए मरते दम तक साथ नहीं छोड़ती। यह समानान्तर चलती रहती है। 
इनसे भी ऊपर बिरले इंसानों की एक और किस्म है जो जीने का आनंद भी जानती है और मृत्यु का भी।  जीवन में कर्मयोग के प्रति सर्वोच्च समर्पण भाव रखते हुए जो लोग अपने आपको पूरी तरह  ईश्वरीय प्रवाह के हवाले कर दिया करते हैं उन लोगों के लिए समस्या, शिकायत, दुःख, उद्विग्नता, अशांति और असंतोष अपने आप समाप्त हो जाया करते हैं।
एक बार सच्चे मन से यह स्वीकार कर लें –  जेहि विधि राखे राम तेहि विधि रहिये।
ऎसा हो जाने पर कर्म का आनंद भी आएगा और कर्मफल के लिए सांसारिक वस्तुओं और व्यक्तियों से हमेशा बनी रहने वाली आशाएं-अपेक्षाएं भी नहीं रहेंगी। यह वह आदर्श स्थिति है जहाँ कत्र्तव्य कर्म का समर्पित निर्वाह पूरे यौवन पर रहा करता है वहीं जो कुछ भी प्राप्त होता रहता है उसे ईश्वरीय प्रसाद मानकर जीवन अपने आप आनंदित होता रहता है।

जीवन के हर कर्म में दाता, साक्षी और निर्णायक के रूप में ईश्वर को ही सर्वोच्च सत्ता मान लेने के बाद न जीवन में कोई दुःख रहता है, न कोई विषाद, भ्रम, शंका या आशंका। ऎसे लोगों को हर क्षण यह भान रहता है ईश्वर उनके साथ रहकर उनका सहायक बना हुआ संरक्षक और पालक दोनों दायित्वों का निर्वाह कर रहा है।
इस उदार तथा आध्यात्मिक सोच को प्राप्त कर लेने के बाद इंसान को न मृत्यु का भय होता है, न जीवन का कोई विषाद। इस स्थिति में हमेशा जीवन और मृत्यु से परे आनंददायी माहौल का अहसास बना रहता है। स्वयं को ईश्वरीय प्रवाह के हवाले छोड़ देना ठीक उसी तरह है जिस प्रकार बिंदु का सिंधु में मिलन होने के बाद बिंदु को किसी भी प्रकार की कोई चिंता नहीं हुआ करती।
जीवन का असली आनंद इसी में है कि हम अपने अहं को पूर्ण विगलित करते हुए खुद को ईश्वरीय प्रवाह का हिस्सा बना लें। इससे पुरुषार्थ चतुष्टय की पूर्ति, जीवनानंद की प्राप्ति और जीवनमुक्ति के सारे सुकून अपने आप हमारी जिन्दगी को दिव्यत्व एवं दैवत्व देते हुए सँवारते रहते हैं। इस अहसास के बिना न जीवन का आनंद है, न मृत्यु के भय से मुक्ति। ईश्वरीय प्रवाह के बिना हमारा जीना भी व्यर्थ है, और मरना भी अभिशप्त।
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 
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नित्यप्रति दरसन साधु के, औ साधू के संग। -महर्षि मेँहीँ | Maharshi Mehi | Santmat | Darshan

    ।।ॐ।।श्री सद्गुरवे नमः।।
नित्यप्रति दरसन साधु के, औ साधू के संग।
तुलसी काहि वियोग ते, नहिं लागा हरि रंग।।
मन तो रमे संसार में, तन साधू के संग।
तुलसी याहि वियोग ते, नहिं लागा हरि रंग।।
साधु का दर्शन यज्ञ के समान होता है। कथा-प्रसंग में, गुरु की सेवा में भी मन का सिमटाव होता है और ईश्वर गुणगान में भी मन का सिमटाव होता है। वाचिक जप, उपांशु जप और मानस जप; इन तीन विधियों से जप होता है। वाचिक में बोल बोलकर जपते हैं, उपांशु में होठ हिलते हैं, पर दूसरा कोई नहीं सुनता। मानस जप मन-ही-मन होता है। मंत्र जप से मन एकाग्र होता है। मूर्ति पोशाक है। उस मूर्ति को धारण करनेवाली आत्मा है, उसी आत्मा का पोशाक मूर्त्ति है। स्थूल में पूर्ण सिमटाव होने पर सूक्ष्म दृष्टि खुलेगी। चित्र में अनेक लकीरे हैं और एक लकीर में अनेक विन्दु। परन्तु एक विन्दु में कुछ फैलाव नहीं है। सूक्ष्म दृष्टि खोलने के वास्ते विन्दु ध्यान होना चाहिए। विन्दु वह है जिसका स्थान हो, पर परिमाण नहीं। परम विन्दु दृष्टि की नोक से प्रकट होता है। दृष्टि वह चीज है, जो देखने की शक्ति है।
कहै कबीर चरण चित राखो ज्यों सूई में डोरा रे । जैसे कसरत करते-करते अपने बल को बढ़ा लेते हैं, उसी तरह दृष्टि के अभ्यास को करने से दृष्टि की नोक अवश्य होगी। संसार का कुल कारोबार शब्द से होता है। शब्द से ही सृष्टि होती है। सृष्टि के आदि में शब्द है, जिसको स्फोट कहते हैं। जब कोई अपने इष्ट के आत्मस्वरूप को पहचानता है, तब उसकी भक्ति पूरी होती है।
सब पशुओं की देह के परमाणु में एक तरह का तासीर नहीं होता है। मनुष्य शरीर में पशु का मांस देना ठीक नहीं। संतों ने हिंसा का विरोध किया। हिंसा दो तरह का होता है-एक वार्य और दूसरा अनिवार्य। हल चलाने या आँगन बुहारने में जो हिंसा होती है, उससे बच नहीं सकते, पर मास-मछली का सेवन नहीं करना चाहिए।
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 
(प्रस्तुति: एस.के. मेहता, गुरुग्राम)
🙏🌸।। जय गुरु ।।🌸🙏

गुरुवार, 21 नवंबर 2019

वर्षों पूर्व की बात मुझे याद आती है! -महर्षि संतसेवी परमहंस | Maharshi=Santsevi=Paramhans | Santmat-Satsang | Kuppaghat-Bhagalpur

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
🍁वर्षों पूर्व की बात मुझे याद आती है; 
परम पूज्य गुरुदेवजी (पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) के निकट एक साधु बाबा पधरे थे। प्रणिपात के पश्चात् आसन ग्रहण करके उन्होंने कहा: ‘महाराज! बिना चमत्कार के नमस्कार नहीं।’ पूज्य गुरुदेव ने दया करके पूछा: ‘महाराज! आप चमत्कार किसे कहते हैं?’ साधु बाबा मौन रहे। आराध्यदेव ने कहने की कृपा की ‘महाराज! मैं तो सदाचार को चमत्कार मानता हूँ।’
सद्+आचार = सदाचार अर्थात् उत्तम आचरण। उत्तम आचरण मानव-जीवन को समुज्वल बनाता है। सत्याचारी अलौकिक शक्तिसंपन्न होते हैं। उनके सम्मुख सुरगण भी नमन करते हैं। सदाचरण-संपन्न जन मरकर भी अमर रहते हैं, किन्तु आचरणहीन जन जीवित ही मृत होते हैं। सत्याचार; सत्य+आचार ही सदाचार है और यह एक ऐसा चमत्कार है, जिससे सर्वेश्वर का साक्षात्कार होता है। यथार्थतः जहाँ सदाचार है, वहीं चमत्कार है। जहाँ सदाचार नहीं, वहाँ मात्र बाहरी दिखावे के चमत्कार का कोई महत्त्व नहीं। -महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज 
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 
🌸🌿🌸🌿🌸🌿🌸🌿🌸

बुधवार, 20 नवंबर 2019

शब्द जितना छोटा होगा! -सद्गुरु महर्षि मेँहीँ | Shbad | Maharshi-Mehi | Santmat-Satsang | Guru

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
🕉🍁शब्द जितना छोटा होगा, उतना ही सिमटाव होगा और जितना बड़ा शब्द होगा, उतना ही फैलाव होगा। तन्त्र में एकाक्षर का ही जप करने का आदेश है और वेद में भी वही एक अक्षर। कबीर साहब कहते हैं- पढ़ो रे मन ओ ना मा सी धं ।
अर्थात् ‘ऊँ नमः सिद्धम्।’ तात्पर्य यह कि सृष्टि इसी ‘ऊँ’ से है। शब्द से सृष्टि हुई है। यह (ऊँ) त्रैमात्रिक है, इसीलिए इस प्रकार भी ‘ओ3म्’ लिखते हैं। इसको इतना पवित्र और उत्तम माना गया कि इस शब्द के बोलने का अधिकार अमुक वर्ण को ही होगा, अमुक वर्ण को नहीं। इतना प्रतिबन्ध लगाया गया कि बड़े ही कहेंगे। सन्तों ने कहा, कौन लड़े-झगड़े; ‘सतनाम’ ही कहो, ‘रामनाम’ ही कहो, आदि। बाबा नानक ने ‘ऊँ’ का मन्त्र ही पढ़ाया- 1ऊँ सतिगुरु प्रसादि। और कहा- चहु वरणा को दे उपदेश। यह ईश्वरी शब्द है; किन्तु हमलोग इसका जैसा उच्चारण करते हैं, वैसा यह शब्द सुनने में आवे, ऐसा नहीं। यह तो आरोप किया हुआ शब्द है, जिसके मत में जैसा आरोप होता है। जैसे- पंडुक अपनी बोली में बोलता है, किन्तु कोई उस ‘कुकुम कुम’ और कोई उसी शब्द को ‘एके तुम’ आरोपित करता है। किन्तु यथार्थतः इस (ओ3म्) को लौकिक भाषा में नहीं ला सकते, यह तो अलौकिक शब्द है। इस अलौकिक शब्द को लौकिक भाषा में प्रकट करने के लिए सन्तों ने ‘ऊँ’ कहा। क्योंकि जिस प्रकार वह अलौकिक ¬ सर्वव्यापक है, उसी प्रकार यह लौकिक ‘ऊँ’ भी शरीर के सब उच्चारण-स्थानों को भरकर उच्चरित होता है। इस प्रकार का कोई दूसरा शब्द नहीं है, जो उच्चारण के सब स्थानों को भरकर उच्चरित हो सके। इसी शब्द का वर्णन सन्त कबीर साहब इस प्रकार करते हैं- 
आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह। 
परसत ही कंचन भया, छूटा बन्धन मोह।। 
शब्द शब्द सब कोइ कहै, वो तो शब्द विदेह। 
जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि देह।। 
शब्द शब्द बहु अन्तरा, सार शब्द चित देय। 
जा शब्दै साहब मिलै, सोइ शब्द गहि लेय ।। 

आदिनाम वा शब्द सर्वव्यापक है। इसी प्रकार एक शब्द लो, जो उच्चारण के सब स्थानों को भरपूर करे, तो संतों ने उसी को ‘ऊँ’ कहा तथा इसी शब्द से उस आदि शब्द ¬ का इशारा किया। यह जो वर्णात्मक ओ3म् है, जिसका मुँह से उच्चारण करते हैं, यह वाचक है तथा इस शब्द से जिसके लिए कहते हैं, वह वाच्य है तथा उस परमात्मा के लिए वह भी वाचक है तथा परमात्मा वाच्य है। तो इस एक शब्द का दृढ़ अभ्यास, एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास करना है। 17-1-1951.  -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 
🙏🌼🌿।। जय गुरु ।।🌿🌼🙏
सौजन्य: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम 
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लोग धन पुत्रादि से ऊब जाते हैं! - सद्गुरु महर्षि मेँहीँ | People get bored with wealth | Maharshi-Mehi | Santmat-Satsang

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
लोग धन-पुत्रादि से ऊब जाते हैं। किसी को धन है, तो पुत्र नहीं, पुत्र है तो धन नहीं। शान्ति किसी को नहीं मिलती। अपने जीवन-काल में यज्ञ करके अथवा लोगों के कहे अनुसार श्राद्ध-क्रिया से स्वर्ग चले जायँ, तो क्या लाभ होगा?
वहाँ भी सुख नहीं। यहाँ के समान ही वहाँ भी छोटे-बड़े होते हैं। काम-क्रोधादिक विकार वहाँ भी उत्पन्न होते हैं तथा दूसरे से ईर्ष्या होती है आदि। फिर पुण्य क्षीण होने पर वहाँ से वापस होना पड़ता है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी अपनी रामायण में लिखते हैं-
‘एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वरगउ स्वल्प अन्त दुखदाई।।’

‘नर तन दुर्लभ देव को,सब कोई कहै पुकार।। 
सब कोइ कहै पुकार, देव देही नहिं पावै। 
ऐसे मूरख लोग, स्वर्ग की आस लगावै।। 
पुण्य क्षीण सोइ देव,स्वर्ग से नरक में आवै। 
भरमै चारिउ खानि, पुण्य कहि ताहि रिझावै।। 
तुलसी सतमत तत गहे, स्वर्ग पर करे खखार।
नर तन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहै पुकार।।’ 
- तुलसी साहब, हाथरसवाले

स्वर्ग या बहिश्त कहीं भी जाओ, विषय-सुख ही है। इसलिए सूफी लोग बताते हैं-मुक्ति ( नजात ) को प्राप्त करो। 17-1-1951.
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 
🙏।। जय गुरु ।।🙏
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम 

इस योग्य हम कहाँ हैं | Sadguru | Es yogya ham kahan hain | Bhajan | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🙏🌷इस योग्य हम कहाँ हैं🌷🙏


इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें।
फिर भी मना रहे हैं, शायद तू मान जाये।।
जब से जनम लिया है, विषयों ने हमको घेरा।
छल और कपट ने डाला, इस भोले मन पे डेरा।
सदबुद्धि को अहम् ने, हरदम रखा दबाये।।
इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें..

निश्चय ही हम पतित हैं, लोभी हैं स्वार्थी हैं।
तेरा ध्यान जब लगायें, माया पुकारती है।
सुख भोगने की इच्छा, कभी तृप्ति हो न पाये।।
इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें..

जग में जहाँ भी देखा, बस एक ही चलन है।
इक दूसरे के सुख में, खुद को बड़ी जलन है।
कर्मों का लेखा जोखा, कोई समझ न पाये।।
इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें..


जब कुछ न कर सके तो, तेरी शरण में आये।
अपराध मानते हैं, झेलेंगे सब सजायें।
बस दरश तू दिखा दे, कुछ और हम न चाहें।।
इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें..
🙏🌹🌷 जय गुरुदेव 🌷🌹🙏
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 

संतों के विचार को अपनाए बिना: महर्षि हरिनन्दन परमहंस | Santon ke vichar ko apnaye bina... | Maharshi Harinandan Paramhans |

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः 🌹🙏
🍁संतों के विचार को अपनाए बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता। 

हमारे गुरुदेव ने कहा कि संतों के विचार को जानने के लिए सत्संग करो। अगर अपना उद्धार चाहते हो, मुक्ति चाहते हो, दुखों से छुटकारा चाहते हो तो संत का संतान बनो। संतो के बतलाए मार्ग पर चलें तभी संत के संतान बनने के अधिकारी हैं। संत उस ओर जाने के लिए कहता है जिस ओर जीव बंधन मुक्त हो जाता है। कोई बंधन नहीं रहता। उन्होंने कहा कि इस शरीर में नौ द्वार है। फिर भी हम नहीं निकल पाते। कारण यह कष्ट का मार्ग है। जब शरीर की अवधि समाप्त हो जाती है तब यम की मार खाकर इस नौ द्वार में से एक से निकलता है। मनुष्य के शरीर में एक गुप्त मार्ग है। यह मार्ग केवल मनुष्य के शरीर में ही है। इस मार्ग से निकलने में कोई कष्ट नहीं होता।  -महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज
  🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम 
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संसार में जितने प्रकार के धर्म, पंथ, सम्प्रदाय और मजहब आदि हैं | -महर्षि संतसेवी | देवी देव समस्त पूरण ब्रह्म परम प्रभू । गुरु में करैं निवास कहत हैं सन्त सभू ।। Maharshi Mehi | Santsevi Pravachan | Santmat Satsang

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
🌸संसार में जितने प्रकार के धर्म, पंथ, सम्प्रदाय और मजहब आदि हैं, सबमें किसी-न-किसी प्रकार का पर्व या त्योहार अवश्य मनाया जाता है, लेकिन उसके मनाने में सबकी अपनी-अपनी अलग-अलग रीति होती है। बल्कि कभी-कभी और कहीं-कहीं ऐसा होता है कि जो एक के लिए ग्राह्य होता है, वह दूसरे के लिए त्याज्य भी हो सकता है। जैसे मॉरिशस में जब किन्हीं के यहाँ मेहमान आते हैं, तो उनको भोजन कराते समय उनके सामने सभी चीजें परोसने के बाद गृहपति हाथ जोड़कर प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि ‘हे भगवन! हमारे मेहमान को सुबुद्धि दें कि ये अधिक न खाएँ।’ यह वहाँ के लिए अनिवार्य है, लेकिन अपने देश में वैसा प्रचलन नहीं। इसीलिए मैंने कहा ‘जो एक लिए ग्राह्य हो, वह दूसरे के लिए त्याज्य भी हो सकता है।’ लेकिन गुरु-पर्व के लिए ऐसी बात नहीं है।
यह गुरु-पुर्णिमा इतना पावन पर्व है कि जितने गुरु-भक्त हैं, सबके लिए यह समान है और सबके लिए एक विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। यह गुरु-पर्व सामूहिक है, व्यक्तिगत नहीं। यह इतना उत्तम त्योहार है कि जैसे कोई वृक्ष की जड़ में पानी डाल दे तो उसके तनों, सभी डालों और प्रत्येक पत्ते को पानी मिल जाता है, उसी तरह एक गुरु-पूजा करने पर सबकी पूजा हो जाती है। 

देवी देव समस्त पूरण ब्रह्म परम प्रभू । 
गुरु में करैं निवास कहत हैं सन्त सभू ।।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली )
आप हाथी देखते है, उसके पैर के चिन्ह में सभी जीवों के पद-चिन्ह  समा जाते हैं, उसी तरह एक गुरु-पूजा में सबकी पूजा हो जाती है। यह गुरु-पूजा की महत्तम महिमा है। -महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज 
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 

प्रेम | इंसान के लिए दो ही रास्ते हैं – प्रेम करे या फिर दुश्मनी | Prem ya Dushmani | Maharshi Mehi Sewa Trust

🙏🌹|| प्रेम ||🌹🙏
🍁इंसान के लिए दो ही रास्ते हैं – प्रेम करे या फिर दुश्मनी। इनमें से दुश्मनी के मार्ग को सदियों से इंसान के लिए वज्र्य माना जाता रहा है। फिर बचता है सिर्फ प्रेम। इस प्रेम को पाने, प्रेम प्रदान करने और इसका अनुभव करते-कराते हुए आनंद की प्राप्ति और इससे ईश्वर को अपने भीतर अनुभव करने वाला ही सच्चा और वास्तविक प्रेमी होता है।
इस प्रेम को शब्दों, मुद्राओं, भाव-भंगिमाओं या देहिक क्रियाओं में विभक्त नहीं किया जा सकता बल्कि प्रेम को आनंद का पर्याय मानते हुए चरम उल्लास की अनुभूति की जा सकती है। प्रेम ऎसा कारक है जिसे अंगीकार कर लेने वाला खुद भी मुक्त हो जाता है और अपने संपर्क में आने वाले दूसरे सभी लोगों की भी मुक्ति चाहने के लिए हर क्षण सर्वस्व समर्पण को तैयार रहता है।
प्रेम के मूल मर्म को समझ लेने वाला इंसान दुनिया में किसी भी एक से प्रेम करता है तो असली प्रेम वही है जिसमें व्यक्ति सभी से प्रेम करे, चाहे वह जड़-चेतन कुछ भी क्यों न हो, ईश्वर या इंसान, पशु आदि कोई भी हो सकता है। सच्चे और निश्छल प्रेमी का प्रेम उदात्त भाव के उत्कर्ष को जीता है और सार्वजनीन होता है। ऎसे इंसान के लिए जड़-चेतन सभी कुछ प्रेम से परिपूर्ण होता है।

जो एक से प्रेम करता है उसका प्रेम यदि सच्चा होता है तो ही वह सभी से प्रेम करता है। वास्तविक प्रेम करने वाला इंसान किसी दूसरे से कभी घृणा कर ही नहीं सकता।
दूसरी तरफ जो लोग किसी एक से प्रेम करते हैं और दूसरों के प्रति संवेदनशील नहीं रह पाते अथवा दूसरों से घृणा या शत्रुता भाव रखते हैं वे सच्चे प्रेमी कभी नहीं हो सकते हैं।
दुनिया की बहुत बड़ी आबादी उन लोगों से भरी पड़ी है जो कि अपने आपको प्रेम करने वालों की श्रेणी में तो रखते हैं लेकिन प्रेम के मर्म से अनभिज्ञ होते हैं। खूब सारी भीड़ है जो किसी न किसी से प्रेम करती है लेकिन इस प्रेम के चक्कर में ही औरों की घृणा, द्वेष या दुश्मनी का पात्र बन जाती है और प्रेम को भुला बैठती है।


असल में यह प्रेम है ही नहीं। प्रेम के साथ संवेदनशीलता, करुणा, आत्मीयता और औदार्य के भावों का सम्मिश्रण रहता है न कि मोह, शत्रुता और एकाधिकार का।
जो एक से प्रेम करता है तथा अन्यों से प्रेमपूर्वक व्यवहार न करे तो इसका सीधा सा अर्थ यही है कि उसका प्रेम आडम्बर और स्वार्थ के व्यापार से ज्यादा कुछ नहीं है। ऎसा प्रेमी जिससे प्रेम करता है उससे भी उसका संबंध स्वार्थ से ज्यादा कुछ नहीं होता बल्कि ऎसा व्यवहार प्रेम नहीं बल्कि बिजनैस की श्रेणी में आता है और इसे प्रेम की संज्ञा नहीं दी जा सकती। शाश्वत प्रेम वही है जो किसी एक से बंधा नहीं रहकर जड़-चेतन सभी पर समान रूप से प्रतिभासित हो और सभी को प्रेम का आनंद अनुभव होता रहे।

प्रेम में परिपूर्ण और गोते लगाने वाला इंसान किसी एक से मोहग्रस्त नहीं होता, बंधता नहीं, बल्कि जिस किसी के सम्पर्क में आता है उसे लगता है कि आत्मीयता और प्रेम का जो निश्छल व्यवहार उसे प्राप्त हो रहा है, वह अपने आपमें अन्यतम और अद्वितीय है।
प्रेम की दिशा आक्षितिज आनंद पाती और दिलाती है तथा उसकी कोई सीमा नहीं होती।  प्रेम अपार और अथाह आनंद की अनुभूति कराता है और ऎसे प्रेम के प्रति न किसी को द्वेष होता है, न मोह या शत्रुता का भाव। एक संत ने तो प्रेेम को सर्वोपरि कारक और ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताते हुए बोध वाक्य रच गए – प्रेम तु ही ने प्रेम स्वामी प्रेम त्यां परमेश्वरो!
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏

जिसका मन निश्छल वही बड़ा | Jiska man nischhal hai vahi bara | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🌸जिसका मन निश्छल वही बड़ा🌸
जो मनुष्य दूसरों की भलाई करता है, वह फरिश्ते से कम नहीं। जो व्यक्ति दूसरों की मदद करता हो, किसी का बुरा नहीं करता हो, जो शील स्वभाव का हो, सभी को प्यार से बोलता हो और समय पर कार्य करता हो वह फरिश्ता ही तो है। 
हर पल जो नवीन दिखाई दे, वही सुंदरता का नमूना है। अपने दिमाग के द्वार बंद करने से न जाने किस समय क्या अनोखा तत्व समझ में आ जाए। बुरी बातों को भूल जाना ही बेहतर है वरना अच्छे विचार मन में प्रवेश करना बंद कर देंगे। बड़प्पन सूट-बूट और ठाट-बाट से नहीं होता है। जिसका मन निश्छल है, वही बड़ा है। व्यस्त रहना ठीक है किंतु  अस्त-व्यस्त नहीं। एक पाप दूसरे पाप का दरवाजा खोल देता है। आदमी आराम के साधन जुटाने में आराम खो देता है। धनी व्यक्ति जहां रुपयों के सहारे जीता है वहीं निर्धन व्यक्ति परिश्रम, प्रभु के सहारे जीता है। 
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
प्रस्तुति: एस.के. मेहता

ज्ञान मार्ग पर चलने वाला और भक्त | Gyan ke marg par chalne wala bhakt | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🙏🌹जय गुरु महाराज🌹🙏
🍁ज्ञानमार्ग पर चलने वाला तो अपने साधन का बल मानता है, पर भक्त की यह विलक्षणता होती है कि वह अपने साधन का बल मानता ही नहीं। कारण कि मैं इतना जप करता हूँ, इतना तप करता हूँ, इतना ध्यान करता हूँ, इतना सत्संग करता हूँ‒इस तरह भीतर में अभिमान रहने से भक्ति प्राप्त नहीं होती। जिनका सीधा-सरल स्वभाव है, जो भगवान्‌ की कृपा पर निर्भर रहते हैं और हरेक परिस्थिति में मस्त, आनन्दित रहते हैं, उन्हीं को भक्ति प्राप्त होती है‒

कहहु भगति पथ कवन प्रयासा।
जोग न मख जप तप उपवासा॥
सरल सुभाव  न  मन कुटिलाई।
जथा   लाभ    संतोष    सदाई ।।
         (मानस, उत्तर॰ ४६ । १)

जब तक अपने साधन का अभिमान रहता है, तब तक असली भक्ति प्राप्त नहीं होती। भक्ति प्राप्त होने पर भक्त के मन में यह बात आती ही नहीं कि मैं भजन करता हूँ । जैसे, हनुमान्‌जी महाराज कहते हैं‒ ‘जानउँ नहिं कछु भजन उपाई’ (मानस, किष्किन्धा॰ ३ । २)

हनुमान्‌जी भक्ति के खास आचार्य होते हुए भी कहते हैं कि मैं भजन का उपाय नहीं जानता कि भजन क्या होता है ? कैसे होता है? शबरी को पता ही नहीं था कि भक्ति नौ प्रकार की होती है और वह मेरे में पूर्णरूप से विद्यमान है ! वह कहती है‒


अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह  महँ  मैं  मतिमंद  अघारी।।
        (मानस, अरण्य॰ ३५ । २)

परन्तु भगवान् उसको कहते हैं‒

नवधा  भगति  कहउँ  तोहि पाहीं।
सावधान  सुनु   धरु   मन   माहीं॥......

नव महुँ एकउ   जिन्ह   कें   होई।
नारि पुरुष   सचराचर      कोई ॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे ।
सकल प्रकार  भगति  दृढ़   तोरें ॥
🙏🌼🌿।। जय गुरु ।।🌿🌼🙏
सौजन्य: महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 
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बुधवार, 9 अक्तूबर 2019

देहावसान | देह-त्याग के समय चित्त में जो-जो भावनाएँ जीव करता है, वही-वही वह होता है, यही जन्म का कारण है। महर्षि मेँहीँ | Maharshi Mehi

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
देेहावसान समये चित्ते यद्यद्विभावयेत्।
तत्तदेव भवेज्जीव इत्येव जन्मकारणम्।।

देह-त्याग के समय चित्त में जो-जो भावनाएँ जीव करता है, वही-वही वह होता है, यही जन्म का कारण है।


जीवनभर जो अपने मन में सोचते हैं, वही भावना अंत में याद आवे, यह संभव है। जन्मभर में कभी जो काम नहीं किया अथवा कभी कभी किया, वह अंत समय याद आवे, संभव नहीं। इसलिए नित्य भजन करें। सब कामों को छोड़कर तथा सब कामों को करते हुए, दोनों ढंग से करें तो अंत समय में अवश्य याद आवेगा तथा अपना परम कल्याण होगा।

प्र्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।
-गीता 8/10
अर्थात् जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से भौओं के बीच भक्ति से शराबोर होकर और योगबल से अच्छी तरह प्राणों को स्थिर करता है, तो दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है। यह शरीर चला जाएगा, कुछ संग जाने को नहीं है।

माल मुलुक को कौन चलावे, संग न जात शरीर।
करो रे बन्दे वा दिन की तदवीर।।

इसलिए हमलोग भजन-अभ्यास अधिक करें। केवल जानें अथवा पढ़ें, किंतु ध्यान नहीं करें तो उसको लाभ नहीं होता। वैसे ही जैसे-
धन धन कहत धनी जो होते, निर्धन रहत न कोय।
केवल धन-धन के कहने से कोई धनी नहीं होता। काम करते हुए भी अपना ख्याल भजन में लगाकर रखना चाहिए।
*कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।*
*सो ध्यानी परमान, सुरत से अण्डा सेवै।*
*आप रहे जल माहिं, सूखे में अण्डा देवै ।।*
*जस पनिहारी कलस भरे, मारग में आवै।*
*कर छोड़ै मुख वचन,चित्त कलसा में लावै।।*
*फणि मणि धरै उतार, आपु चरने को जावै।*
*वह गाफिल ना परै, सुरति मणि माहिं रहावै।।*
*पलटू कारज सब करै, सुरति रहै अलगान।*
*कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।*
-पलटू साहब

भगवान श्रीकृष्ण का गीता में अर्जुन के प्रति यह उपदेश है- *‘युद्ध भी करो तथा ध्यान भी करो।’*  काम करने के समय भी हमारा ध्यान न छूटे, ऐसी कोशिश करनी चाहिए। जो दोनों तरह से भजन  करते हैं, उनका मन विशेष बिखरता नहीं। इसलिए ऐसा अभ्यास करना चाहिए कि प्रयाणकाल में हमारा ख्याल गड़बड़ न हो जाय कि बारम्बार जन्म लेना पड़े तथा दुःख उठाना पड़े। इससे जो नहीं डरते, वह नहीं कर सकते।
*‘डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार।*
*डरत रहे सो ऊबरे, गाफिल खावै मार ।।’*

*‘पिण्डपातेन या मुक्तिः सा मुक्तिर्नतु मन्यते।*
*देहे ब्रह्मत्वमायाते जलानां सैन्धवं यथा।।*
*अनन्यतां यदा याति तदा मुक्तः स उच्यते।’*

अर्थ-मरने पर जो मुक्ति होती है, वह मुक्ति नहीं है; मुक्ति वह है, जबकि जीव ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लेता है, जैसे नमक जल में घुलकर एक हो जाता है। इस तरह जब जीव उससे अन्य नहीं रह जाता, तब मुक्ति होती है।
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

मानस जप कैसे करें! Manas Jaap kaise karen | Maharshi Mehi | Santmat Satsang

।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।

मानस जप कैसे करें?

मानस जप को सभी जपों का सम्राट कहा गया है। इसकी विशेषता है कि इसमें मन्त्र-जापक स्वयं मन ही होता है। मन ही मन, मन से ही गुरु प्रदत्त मन्त्र की मंत्रावृत्ति करनी होती है।


मन इधर-उधर न भटके, इसे निद्रा वा गुणावन (निर्धारित लक्ष्य से भटक कर मन का अन्य विचारों में खो जाना) न घेर ले, इसके लिए, संतों का उपदेश है, मन को समक्ष रखकर, सात्त्विकी वृत्ति में रखकर जप किया जाय (तामसी वृत्ति में नींद तथा रजोगुणी वृत्ति में मन में, विचारों में चंचलता आती है)। इसके लिए अपनी दृष्टि पर निगरानी रखनी भी अत्यावश्यक है।

उदाहरणार्थ, गुरु महाराज के एक प्रवचन में मानस जप से सम्बंधित एक महत्त्वपूर्ण बात आयी है जो ध्यातव्य है-

"... समझो कि तुम्हारे शरीर में दो भाग हैं। दाईं-बाईं ओर का मिलाप जहाँ है, वह मध्य है। दाईं  ओर की वृत्ति पिंगला और बाईं ओर की वृत्ति इड़ा, और बीच में सुषुम्ना है। कोशिश करो कि मध्य-वृत्ति में रखकर जप करने के लिए..."

मध्यवृत्ति में रहकर जप करना चाहिए। यदा-कदा कहीं-कहीं ऐसा कहा जाता है कि जप का दृष्टि से कोई संबंध नहीं है। गुरु महाराज का यह कथन इस स्थिति के  स्पष्टीकरण के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है - *मध्य अर्थात् समक्ष रहते हुए (अर्थात् सामने वृत्ति रखते हुए) जप करना चाहिए*। अपने ही एक अन्य प्रवचन में भी परामराध्य गुरु महाराज पुनः कहते हैं, "मानस जप करो। सुषुम्ना में वृत्ति रखकर नाम जपो।"

गुरु महाराज के प्रवचन में अन्यान्य स्थलों पर भी इसके संकेत मिलते हैं। एक बार पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज ने भी, मेरी जिज्ञासा के उत्तर में, मुझसे कहने की कृपा की थी, *जप करते समय दृष्टि ठीक सामने रखा करो।* एक स्थल पर उन्होंने कहा भी है-

_"जहाँ तक बन पड़े , भजन में मन लगाना चाहिये । कुछ भी दिखे अथवा नहीं दिखे , *अन्धकार को देखते* रहना चाहिये । *मानस-जप* , मानस ध्यान और दृष्टि -साधन, इन तीनों को अन्धकार पट पर ही *करना चाहिये*।"_

इससे भी स्पष्ट होता है कि मानस जप को भी दृष्टि से सम्बन्ध है - ठीक सामने देखते हुए (सिमटी दृष्टि से नहीं, और बिना किसी आकृति अथवा रूप को देखने का भाव रखते हुए सिर्फ सामने देखते हुए) मानस जप करना चाहिये।

सन्तमत के वर्तमान आचार्यश्री पूज्य महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज की भी यही शिक्षा है। यही बात ध्यान-विषयक जिज्ञासाओं के दौरान अक्सर अत्यन्त वरिष्ठ महात्मा पूज्य अच्युतानन्द बाबा भी कहा करते हैं।  तथा, पूज्य निर्मलानंद बाबा, पूज्य स्वरूपानन्द बाबा, पूज्य सत्यप्रकाश बाबा इत्यादि गण्यमान्य महात्मागण भी इस सिद्धान्त से सहमत हैं।

दरअसल, मन को दृष्टि की सहायता से नियंत्रित रखना सरल और सहज है। दृष्टि भी सूक्ष्म और मन भी सूक्ष्म। _अतः दृष्टि का कार्य ध्यानाभ्यास के प्रथम पग से ही प्रारंभ हो जाता है।_ परमाराध्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज कहा भी करते थे, *"मन का संबंध दृष्टि से है। जहाँ दृष्टि रहती है, वहीं मन रहता है।"* और फिर, मानस जप में मन ही ने तो जपना है मन्त्र! इसलिए यदि हम अपनी दृष्टि को समक्ष, सद्गुरु से ऐसा करने की सद्युक्ति सीखकर, रखते हुए जप करें तो जप में सफलता अपेक्षाकृत सरलतर हो जायेगी।

वस्तुतः, यदि हम ध्यानपूर्वक विचार करेंगे तो पाएँगे कि हम जब कभी मानस जप से भटक जाते हैं और थोड़ी देर बाद जब पुनः चेतते हैं तो पाते हैं कि ठीक उस क्षण में दृष्टि या तो ऊपर, नीचे, बाएँ, दाएँ, अर्थात् सामने की ओर से हटकर कहीं-न-कहीं खिसकी हुई मिलेगी। दृष्टि के खिसकने से जप की एकाग्रता, एकचित्तता जाती रहती है। इसलिए, दृष्टि को ठीक सामने रखते हुए (इसमें कुछ, कोई आकृति विशेष, देखने का भाव न हो, फैली दृष्टि से) जप करना ही सही है। 

इसको एक उदाहरण से समझने की चेष्टा करें। एक बच्चा जो अपने पिता के साथ बाजार या मेला घूमने जाता है और पिता का हाथ छूट जाता है, वह मेले में खो जाता है। पिताश्री को कहीं न पाकर वह बच्चा निराश, हताश हो घर लौट आता है। घर पहुँचकर देखता है कि वहाँ भी ताला लगा हुआ है। वह गृह द्वार, दहलीज पर बैठ जाता है और सामने सड़क की ओर एकटक से निहारता हुआ रोता जाता है, और पूरी कातरता से, विह्वलता से, "ओ पापा, हे पिताजी, हे पिताजी, हे ..., पुकारते हुए मन में भाव कैसा है - हे पिताश्री, आइये न, आजाइये न प्लीज!" पुकारता जाता है, पुकारता जाता है, पुकारता ही जाता है।

कुछ ऐसे ही विह्वल भाव हृदय में लिए सामने देखते हुए यदि हम भी पुकारते जाएँ, पुकारते जाएँ, पुकारते जाएँ - "सिर्फ दृष्टि सामने हो तथा मन में पुकार का भाव हो - "हे गुरु, आप तो उस सामने के अंधकार में ही छिपे हुए हैं न, दर्शन क्यों नहीं देते? हे गुरु! कहाँ छिप गए हैं आप? हे गुरु! कृपाकर प्रकट होइए न!" इस भाव के साथ लगातार टेर लगाते रहेंगे तो सच्चे दिल की कातर पुकार सुन सद्गुरु क्यों नहीं प्रकट होंगे! _"पिउ पिउ पिउ करि कूकिये, ना पड़ि रहिए असरार। बार-बार के कूकते, कबहुँक लगे पुकार।"_

"है ये जप नहीं, फ़रियाद है,
ये पुकार है गुरुदेव की।
मुर्शिदफ़नाफिल ना हुए,
फिर जप किया भी तो क्या किया।।
अरे ओ रे मन रटते रहो, है मन्त्र जो गुरु ने दिया।
कल्याण की गर आश है, बुझने न दो जप का दिया।।"

जप का स्वरूप पुकार का, आह्वान का होना चाहिए; ऐसी व्यग्रता होनी चाहिए पुकार में कि प्रेमपूर्ण जप रुपी पुकार को सुन गुरु प्रगट होने को विवश हो जायें।

गुरु महाराज का हमसब पर करम बरसे, हम जप में ऐसी विह्वल, तीव्र पुकार लगा सकें कि हमारी फ़रियाद सुन गुरु महाराज, हमारे कामिल मुर्शिद हमारे नयनाकाश में सामने प्रकट जाएँ और हम उनको अपलक निहारते हुए उनमें ही खो जायें, फ़ना हो जाएँ, पूरे का पूरा मन उन्हीं में अटक जाए और ऐसा करते वक़्त उसे ये भी इल्म न रहे कि वह उनके अक्स में अटक गया है। अहा! कैसा होगा वो दिन, कैसी होगी वो घडी........

मानस जप की स्वाभाविक परिणति मानस ध्यान में होनी ही चाहिए।

🙏🙏 जय गुरु! 🙏🙏

सोमवार, 5 अगस्त 2019

पाप पुण्य कर्म फल अलग-अलग | Santmat Satsang | Paap Punya Karma

🙏🌹 श्री सद्गुरवे नमः 🌹🙏
🍁ईश्वर-भक्ति का ज्ञान सबको देना चाहिए। एक ईश्वर की उपासना ठीक है। बहुदेव उपासना ठीक नहीं। बहुदेव उपासी ईश्वर को भूल जाता है। वही नास्तिक है। फिर ऐसा भ्रम कि अमुक जगह मरने से स्वर्ग और अमुक जगह मरने से नरक होगा, यह बात नहीं हो सकती। गंगा-स्नान करने से, आपके मृतक शरीर को गंगा के किनारे जलाने से अथवा आपकी हड्डियाँ या भस्म को गंगाजी में देने से स्वर्ग हरगिज नहीं हो सकता।

 
पाप करके पुण्य करें, इससे पाप नहीं कट सकता। पुण्य का फल अलग और पाप का फल अलग मिलेगा। आपने किसी से दो रुपया कर्ज लिया और किसी को दो रुपया दान दिया, इसलिए वह महाजन आपसे रुपया नहीं माँगे, यह कहाँ की बात है? वह तो कहेगा कि आपने दान अपने लिए किया, मुझे उससे क्या? मेरा रुपया दो।
युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष झूठ बोले, बल्कि उनकी प्रेरणा से झूठ बोले, फिर भी दो मुहूर्त तक नरक में रहना पड़ा। उसके लिए खातिरदारी नहीं हुई। जो कर्म कीजिएगा, उसका फल भोगना ही पड़ेगा। तब आप कहेंगे कि क्या कर्म-फल से कोई छूट नहीं सकता? सौर-जगत में रहने से सूर्य का प्रभाव पड़ेगा ही। यदि सौर जगत से कोई पार हो जाए तो उस पर सूर्य का प्रभाव नहीं पड़ता। उसी प्रकार कर्म मंडल में रहने से कर्म का फल भोगना ही पड़ेगा। कर्ममण्डल पार कर जाने से कर्मफल छूट जाएगा। इसीलिए मैंने पहले ही कहा कि अपने को इन्द्रियों से छुड़ाओ।

*चौथ चारि परिहरहु, बुद्धि मन चित अहंकार।*
*विमल विचार परमपद, निज सुख सहज उदार।।*
      -विनय-पत्रिका

विचार में अपने का ज्ञान होता है, किंतु पहचान नहीं। अपने को चतुष्ट्य अंतःकरण से छुड़ाओ, कर्ममण्डल से पार हो जाओगे। अपनी पहचान होगी और मोक्ष मिलेगा। फिर कर्मबंधन से छूटोगे। ‘कर्म कि होहिं स्वरूपहिं चिन्हें।’ लोक- लोकान्तर में जाने से मुक्ति नहीं मिलती। कभी न कभी फिर यहाँ आना ही पड़ेगा। इसलिए अपने को सब आवरणों से छुड़ाकर कैवल्यता प्राप्त करो और मोक्ष प्राप्त कर लो। फिर आवागमन से रहित हो जाओगे।

(प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम)

🙏🌸🌿 जय गुरु महाराज 🌿🌸🙏
सौजन्य: महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट

सोमवार, 29 जुलाई 2019

अपराध रहित होकर भगवान का भजन करें! SANTMAT SATSANG

अपराध रहित होकर भगवान् का भजन करें;

अशेषसंक्लेशशमं विधत्ते गुणानुवादश्रवणं मुरारेः ।
कुतः पुनस्तच्चरणारविन्द परागसेवारतिरात्मलब्धा ॥

                    (भा. ३/७/१४)



जितने प्रकार के क्लेश होते हैं, वे सब केवल भगवान् का गुणानुवाद श्रवण करने मात्र से शान्त हो जाते हैं । ज्यादा कुछ नहीं कर सकते तो कथा सुन लें और अगर भक्ति आ गयी तो फिर कहना ही क्या? संसार का ऐसा कोई कष्ट नहीं है जो भगवान् की भक्ति से दूर न हो जाए। कहीं भगवान के चरणों में रति हो गयी फिर तो क्या कहना? निश्चित रूप से समस्त कष्ट केवल कथा सुनने मात्र से चले जाते हैं ।

शारीरा मानसा दिव्या वैयासे ये च मानुषाः ।
भौतिकाश्च कथं क्लेशा बाधन्ते हरिसंश्रयम् ॥
                     (भा. ३/२२/३७)

शरीर की जितनी बीमारियाँ हैं, मन के रोग, दैवी-कोप, भौतिक-पंचभूतों के क्लेश, सर्दी-गर्मी या सांसारिक-प्राणियों द्वारा प्राप्त कष्ट, सर्प, सिंह आदि का भय; ये सब भगवान् के आश्रय में रहने वाले पर बाधा नहीं करते ।
लेकिन ध्यान रहे कि कथा एवं हरिनाम निरपराध हो एवं गलती से भी कभी किसी वैष्णव का अपराध ना हो, वैष्णव का अपराध तो सपने में भी नहीं सोचना चाहिए।
नहीं तो सब बेकार है।

न भजति कुमनीषिणां स इज्यां हरिरधनात्मधनप्रियो रसज्ञः।
श्रुतधनकुलकर्मणां मदैर्ये विदधति पापमकिञ्चनेषु सत्सु॥
                  (भा. ४/३१/२१)
कोई कितनी भी आराधना कर रहा है, भजन कर रहा है लेकिन अगर अकिञ्चन भक्तों का अपराध करता है तो भगवान् उसके भजन को स्वीकार नहीं करते हैं। एक छोटे-से साधक-भक्त से भी चिढ़ते हों तो आपका सारा भजन नष्ट; फिर चाहे जप-तप कुछ भी करते रहो, उससे कुछ नहीं होगा क्योंकि भगवान् निर्धनों के धन हैं, गरीबों से प्यार करते हैं।

मनुष्य भक्तों का वैष्णवों का अपराध क्यों करता है?

मद के कारण। विद्या का मद (ज्यादा पढ़ गया तो छोटे लोगों को मूर्ख समझने लगता है); धन का मद (धन-सम्पत्ति ज्यादा बढ़ गयी तो दीनों का तिरस्कार करता है); अच्छे कुल में जन्म का मद (ऊँचे कुल में जन्म हो गया तो अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने लगता है और दीन-हीनों की उपेक्षा करता है); इसी तरह से कोई अच्छा कर्म कर लिया तो उसका मद, त्याग-वैराग्य कर लिया तो उससे मद हो जाता है, सांसारिक वस्तुओं में अहंता-ममता के कारण लोग ज्यादा अपराध करते हैं ।
इसलिए अपराध रहित होकर भगवान् का भजन करें, फिर देखें चमत्कार; किसी भी तरह का संकट, क्लेश आपको बाधा नहीं पहुँचा सकेगा।
।। जय गुरु ।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम


भगवान ने हमें इतनी खूबसूरत जिंदगी प्रदान की हुईं है | पर हम कभी-कभी इसकी कीमत नहीं समझते हैं और... | Khoobsurat Jindgi

भगवान ने हमें इतनी खूबसूरत जिंदगी प्रदान की हुई है !

भगवान ने हमें इतनी खूबसूरत जिंदगी प्रदान की हुई है ! पर हम कभी-कभी इसकी कीमत नहीं समझते हैं और आधी जिंदगी यूँ ही बर्बाद कर देते हैं, जब होश आता है तो बहुत देर हो चुकी होती है!

हमें हमेशा अपने साथ-साथ दूसरों के बारे में भी सोचना चाहिए, दुसरों के लिए कुछ करने के बाद जो सुकून और चैन जीवन में मिलता है वो  कही नहीं मिलता है! सदा अच्छे विचार के साथ दिन की शुरुआत करनी चाहिए! सब कुछ तो भगवान ने पहले से निर्धारित कर के रखा है हमें तो बस कर्म करना है! कर्म करते जाओ फल तो भगवान देगा ही, कर्म से कभी भी पीछे नहीं हटना चाहिए! जीवन में घबराकर परेशान नहीं होना चाहिए! सुख और दुःख तो जीवन के दो हिस्से हैं एक आएगा तो दूसरा जायेगा दोनों सिक्के के दो पहलु है कभी भी एक साथ नहीं रह सकते! अगर हमने सुख को भोगा है तो दुःख को भी झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए! एक सुखी और शांत जीवन हमें तभी मिलेगा जब हम हर पल तैयार रहेंगे जीवन को जीने के लिए, कभी भी हिम्मत हार कर जिंदगी से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए डट कर सामना करना चाहिए जीवन अपने आप खूबसूरत बन जायेगा! ।। जय गुरु ।।

शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

अहंकार से ज्ञान का नाश | Ahankar se gyan ka naash | कभी किसी को नहीं सताओ | गुप्तदान महादान | मृत्यु से कोई नहीं बच पाया | Santmat Satsang

अहंकार से ज्ञान का नाश;
अहंकार से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है। अहंकार से ज्ञान का नाश हो जाता है। अहंकार होने से मनुष्य के सब काम बिगड़ जाते हैं। भगवान कण-कण में व्याप्त है। जहाँ उसे प्रेम से पुकारो वहीं प्रकट हो जाते हैं। भगवान को पाने का उपाय केवल प्रेम ही है। भगवान किसी को सुख-दुख नहीं देता। जो जीव जैसा कर्म करेगा, वैसा उसे फल मिलता है। मनुष्य को हमेशा शुभ कार्य करते रहना चाहिए।

कभी किसी को नहीं सताओ :

धर्मशास्त्रों के श्रवण, अध्ययन एवं मनन करने से मानव मात्र के मन में एक-दूसरे के प्रति प्रेम, सद्भावना एवं मर्यादा का उदय होता है। हमारे धर्मग्रंथों में जीवमात्र के प्रति दुर्विचारों को पाप कहा है और जो दूसरे का हित करता है, वही सबसे बड़ा धर्म है। हमें कभी किसी को नहीं सताना चाहिए। और सर्व सुख के लिए कार्य करते रहना चाहिए।

गुप्तदान महादान :
मनुष्य को दान देने के लिए प्रचार नहीं करना चाहिए, क्योंकि दान में जो भी वस्तु दी जाए, उसको गुप्त रूप से देना चाहिए। हर मनुष्य को भक्त प्रहलाद जैसी भक्ति करना चाहिए। जीवन में किसी से कुछ भी माँगो तो छोटा बनकर ही माँगो। जब तक मनुष्य जीवन में शुभ कर्म नहीं करेगा, भगवान का स्मरण नहीं करेगा, तब तक उसे सद्‍बुद्धि नहीं मिलेगी।

मृत्यु से कोई नहीं बच पाया :

धन, मित्र, स्त्री तथा पृथ्वी के समस्त भोग आदि तो बार-बार मिलते हैं, किन्तु मनुष्य शरीर बार-बार जीव को नहीं मिलता। अतः मनुष्य को कुछ न कुछ सत्कर्म करते रहना चाहिए। मनुष्य वही है, जिसमें विवेक, संयम, दान-शीलता, शील, दया और धर्म में प्रीति हो। संसार में सर्वमान्य यदि कोई है तो वह है मृत्यु। दुनिया में जो जन्मा है, वह एक न एक दिन अवश्य मरेगा। सृष्टि के आदिकाल से लेकर आज तक मृत्यु से कोई भी नहीं बच पाया।
   ।। जय गुरू महाराज ।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

बुधवार, 17 जुलाई 2019

कर्मयोग | KARMAYOG | मनुस्मृति में कहा गया है कि कितना भी विषय-भोग क्यों न किया जाय काम की तृप्ति नहीं होती | Santmat Satsang

कर्मयोग 

अध्याय तीन : कर्मयोग      श्लोक-39

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा |
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च || ३९ ||

अनुवाद:

इस प्रकार ज्ञानमय जीवात्मा की शुद्ध चेतना उसके काम रूपी नित्य शत्रु से ढकी रहती है जो कभी भी तुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है |

तात्पर्य

मनुस्मृति में कहा गया है कि कितना भी विषय-भोग क्यों न किया जाय काम की तृप्ति नहीं होती, जिस प्रकार कि निरन्तर ईंधन डालने से अग्नि कभी नहीं बुझती | भौतिक जगत् में समस्त कार्यकलापों का केन्द्रबिन्दु मैथुन (कामसुख) है, अतः इस जगत् को मैथुन्य-आगार या विषयी-जीवन की हथकड़ियाँ कहा गया है | एक सामान्य वन्दीगृह में अपराधियों को छड़ों के भीतर रखा जाता है इसी प्रकार जो अपराधी भगवान् के नियमों की अवज्ञा करते हैं, वे मैथुन-जीवन द्वारा बंदी बनाये जाते हैं | इन्द्रियतृप्ति के आधार पर भौतिक सभ्यता की प्रगति का अर्थ है, इस जगत् में जीवात्मा की बन्धन अवधि का बढाना | अतः यह काम अज्ञान का प्रतीक है जिसके द्वारा जीवात्मा को इस संसार में रखा जाता है | इन्द्रियतृप्ति का भोग करते समय हो सकता है कि कुछ प्रसन्नता की अनुभूति हो, किन्तु यह प्रसन्नता की अनुभूति ही इन्द्रियभोक्ता का चरम शत्रु है |

ब्रह्मज्ञान से परिवर्तन | BRAHAMAGYAN SE PARIVARTAN | CHANGE FROM THEOLOGY | Santmat Satsang | Maharshi Mehi

ब्रह्मज्ञान से परिवर्तन
'मानव में क्रांति' और 'विश्व में शांति' केवल 'ब्रह्मज्ञान' द्वारा संभव है |

अन्तरात्मा हर व्यक्ति की पवित्र होती है, दिव्य होती है | यहाँ तक कि दुष्ट से दुष्ट मनुष्य की भी | आवश्यकता केवल इस बात की है कि उसके विकार ग्रस्त मन का परिचय उसके सच्चे, विशुद्ध आत्मस्वरूप  से कराया जाये |

यह परिचय बाहरी साधनों से सम्भव नहीं है | केवल 'ब्रह्मज्ञान' की प्रदीप्त  अग्नि ही व्यक्ति के हर पहलू को प्रकाशित कर सकती है | यही नहीं, आदमी के नीचे गिरने की प्रवृति को 'ब्रह्मज्ञान' की सहायता से उर्ध्वोमुखी या ऊँचे उठने की दिशा में मोड़ा जा सकता है | इससे वह एक योग्य व्यक्ति और सच्चा नागरिक बन सकता है |

             'ब्रह्मज्ञान' प्राप्त करने के बाद साधना करने से आपकी सांसारिक जिम्मेदारियां दिव्य कर्मों में बदल जाती हैं | आपके व्यक्तत्व का अंधकारमय पक्ष दूर होने लगता  है | विचारों में सकारात्मक परिवर्तन आने लगता है और नकारात्मक प्रविर्तियाँ दूर होती जाती हैं | अच्छे और सकारात्मक गुणों का प्रभाव आपके अन्दर बढने लगता है | वासनाओं,भ्रांतियों और नकारात्मकताओं में उलझा मन आत्मा में स्थित होने लगता है | वह अपने उन्नत स्वभाव यानि समत्व, संतुलन और शांति की दिशा में उत्तरोत्तर बढता जाता है | यही 'ब्रह्मज्ञान' की सुधारवादी प्रक्रिया है |
           अगर हम जीवन का यह वास्तविक तत्व यही 'ब्रह्मज्ञान' प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें सच्चे सद्गुरु की शरण में जाना होगा | वे आपके 'दिव्यनेत्र' को खोलने की युक्ति बताकर, आप को ब्रह्मधाम तक ले जा सकते हैं, जहाँ मुक्ति और आनन्द का साम्राज्य है | सच्चा सुख हमारे अन्दर ही विराजमान है, लेकिन उसका अनुभव हमें केवल एक युक्ति द्वारा ही हो सकता है, जो पूर्ण गुरु की कृपा से ही प्राप्त होती है | इस लिए ऐसा कहना अतिशयोक्ति न होगा कि सद्गुरु  संसार और शाश्वत के बीच सेतु का काम करते हैं | वे क्षनभंगुरता से स्थायित्व की ओर ले जाते हैं | हमें चाहिए कि हम उनकी कृपा का लाभ उठाकर जीवन सफल बना लें |
।।जय गुरुदेव।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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मंगलवार, 9 जुलाई 2019

मेरे पास परमात्मा के लिए समय नहीं है | Mere pass Parmatma ke liye samay nahi hai | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

मेरे पास परमात्मा के लिए समय नहीं है!

आज जब हम लोगों से आत्मा परमात्मा के बारे में बात करते हैं, तो बहुत से लोगों का यही प्रशन होता है कि हमारे पास परमात्मा के लिए समय नहीं है | व्यस्त जीवन है, एक मिनट की भी फुर्सत नहीं है | यही प्रशन एक वार एक व्यक्ति ने एक महात्मा जी के समक्ष्य रखा |

प्रशन - मैं एक व्यापारी हूँ | मेरा लाखों का बिजनेस है | मैंने दो-तीन बार आपके सत्संग- प्रवचन सुने हैं |मुझे बहुत अच्छे लगे | सुनकर मन को शांति भी मिली | पर फिर भी मैं ज्ञान लेने मैं असमर्थ हूँ | क्यों कि मेरे पास एक मिनट की भी फुर्सत नहीं है | मैं सुमिरन - भजन के लिए समय नहीं निकाल सकता | अब आप ही कोई उपाय बताएँ |
उत्तर ) समय नहीं है! यह तो केवल एक बहाना है | वास्तव में आपने परमात्मा व उसके ज्ञान के महत्व को अभी तक समझा ही नहीं | इस लिए आप संसार को ही सब कुछ मान बैठे हैं | सांसारिक कार्यों व विषयों में अपना एक - एक क्षण एवं एक - एक श्वास गवाए चले जा रहे हैं | जब कि संत महापुरषों के अनुसार यह जीवन तो मिला ही ईश्वर - भक्ति एंव उसकी प्राप्ति के लिए है | मनुष्य जीवन का लक्ष्य केवल  नौकरी, बिजनेस या धन - संग्रह करना नहीं | इसका परम लक्ष्य ईश्वर को पाना है | उसका बनना एंव उसे अपना बनाना है - 'बड़े भाग मनुष्य तन पावा ......साधन धाम मोच्छ कर द्वारा' | यदि समय रहते हम इस तथ्य को नहीं समझते, तो आगे की पंक्तियों में गोस्वामी तुलसीदास जी हमें एक चेतावनी भी देते हैं -
सो परत्र दुख  पावइ  सिर धुनि -धुनि पछताइ |
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ ||

फिर हमें सिर धुन - धुन कर पछताना पड़ेगा | चाहे हम 'कालहि' - समय नहीं था; 'कर्महि' - मेरे कर्मों में ही नहीं था; 'ईस्वरहि ' शायद ईश्वर को ही मंजूर नहीं था आदि कितने ही बहाने बनाएँ, कोई सुनवाई नहीं होगी | इस लिए जीवन के इस परम लक्ष्य  के विषय में विचार करें | ब्रह्मज्ञान की महत्ता को समझें | एक बार महत्व समझ आ गया, तो समय तो खुद-व-खुद निकल आएगा |
साथ ही, आपकी जानकारी के लिए यह भी बता दें कि ज्ञान प्राप्ति के उपरान्त सुमिरन - भजन के लिए कोई अलग से समय निकालने की आवश्कयता नहीं है | यह तो वह ज्ञान है जिसके द्वारा आप चलते फिरते, खाते - पीते, उठते - बैठते हुए भी प्रभु सुमिरन कर सकते हैं | याद कीजिए प्रभु श्री कृष्ण का उदघोष -'माम स्मृत तात.....अर्थात (हे अर्जुन) तू युद्ध भी कर और सुमिरन भी कर | आपका बिजनेस युद्ध से अधिक एकाग्रता नहीं माँगता | इसलिए आप आगे बढें और अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करें |
।। जय गुरु ।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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गुरु पूर्णिमा | GURU PURNIMA | गुरु का महत्व | GURU | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

।।श्री सद्गुरवे नमः।।
।।गुरु का महत्व।।
गुरु के महत्व पर संत शिरोमणि तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है :–
गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जों बिरंचि संकर सम होई।।

भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। धरती के आरंभ से ही गुरु की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला गया है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों एवं सभी महान संतों द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है। गुरु और भगवान में कोई अन्तर नहीं है। संत शिरोमणि तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं :–

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।।

अर्थात् गुरू मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।
किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान हो, उसे किसी दक्ष गुरु से ही सीखना चाहिए। जप, तप, यज्ञ, दान आदि में भी गुरु का दिशा निर्देशन जरूरी है कि इनकी विधि क्या है?  अविधिपूर्वक किए गए सभी शुभ कर्म भी व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं जिनका कोई उचित फल नहीं मिलता। स्वयं की अहंकार की दृष्टि से किए गए सभी उत्तम माने जाने वाले कर्म भी मनुष्य के पतन का कारण बन जाते हैं। भौतिकवाद में भी गुरू  की आवश्यकता होती है।
सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं जिनकी कृपा से फल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान करने वाला है। गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है। ऐसी गुरु की महिमा है।

तीरथ गए तो एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले तो अनन्त फल, कहे कबीर विचार।।

मनुष्य का अज्ञान यही है कि उसने भौतिक जगत को ही परम सत्य मान लिया है और उसके मूल कारण चेतन को भुला दिया है जबकि सृष्टि की समस्त  क्रियाओं का मूल चेतन शक्ति ही है। चेतन मूल तत्व को न मान कर जड़ शक्ति को ही सब कुछ मान लेना अज्ञानता है। इस अज्ञान का नाश कर परमात्मा का ज्ञान कराने वाले गुरु ही होते हैं।
किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता समर्पण की होती है। समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य को मिलता है। शिष्य को अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। इसी संदर्भ में यह उल्लेख किया गया है कि :-

यह तन विष की बेलरी, और गुरू अमृत की खान।

शीश दियां जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान।

गुरु ज्ञान गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है। प्राय: शिष्य गुरु को मानते हैं पर उनके संदेशों को नहीं मानते। इसी कारण उनके जीवन में और समाज में अशांति बनी रहती है।
गुरु के वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना शुरू किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने गुरु के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य का पतन शुरू हो जाता है।
सद्गुरु एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुंठ धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है।
आनन्द अनुभूति का विषय है। बाहर की वस्तुएँ सुख दे सकती हैं किन्तु इससे मानसिक शांति नहीं मिल सकती। शांति के लिए गुरु चरणों में आत्म समर्पण परम आवश्यक है। सदैव गुरुदेव का ध्यान करने से जीव नारायण स्वरूप हो जाता है। वह कहीं भी रहता हो, फिर भी मुक्त ही है। ब्रह्म निराकार है। इसलिए उसका ध्यान करना कठिन है। ऐसी स्थिति में सदैव गुरुदेव का ही ध्यान करते रहना चाहिए। गुरुदेव नारायण स्वरूप हैं। इसलिए गुरु का नित्य ध्यान करते रहने से जीव नारायणमय हो जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु रूप में शिष्य अर्जुन  को यही संदेश दिया था :–

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्याि माम शुच:।।
(गीता 18/66)

अर्थात् सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए।
जिनके दर्शन मात्र से मन प्रसन्न होता है, अपने आप धैर्य और शांति आ जाती हैं, वे परम गुरु हैं। जिनकी रग-रग में ब्रह्म का तेज व्याप्त है, जिनका मुख मण्डल तेजोमय हो चुका है, उनके मुख मण्डल से ऐसी आभा निकलती है कि जो भी उनके समीप जाता है वह उस तेज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। उस गुरु के शरीर से निकलती वे अदृश्य किरणें समीपवर्ती मनुष्यों को ही नहीं अपितु पशु पक्षियों को भी आनन्दित एवं मोहित कर देती है। उनके दर्शन मात्र से ही मन में बड़ी प्रसनन्ता व शांति का अनुभव होता है। मन की संपूर्ण उद्विग्नता समाप्त हो जाती है। ऐसे परम गुरु को ही गुरु बनाना चाहिए। जय गुरु। 

सोमवार, 1 जुलाई 2019

समस्त संसार ही हमारा परिवार है। The whole world is our family | SANTMAT-SATSANG |

|| समस्त संसार ही हमारा परिवार है ||

वास्तव में समस्त संसार एक परिवार है। जो मनुष्य जितना बड़ा है उसका परिवार भी उतना ही बड़ा होगा और जो मनुष्य जितना छोटा है उसका परिवार भी उतना ही छोटा होता है। जिसके जीवन का जितना अधिक विकास होता है उसका परिवार उतना ही विशाल होता चला जाता है। इस परिवार की कोई सीमा नहीं है। किसी का परिवार दस-बीस व्यक्ति यों का होता है, किसी का परिवार सौ, दो सौ से बनता है और किसी के परिवार की संख्या लाखों-करोड़ों तक पहुँच जाती है। इसीलिए परिवार की कोई सीमा नहीं हो सकती। संसार में छोटे-से-छोटे परिवार भी हैं और बड़े-से-बड़े परिवार भी हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जो मनुष्य जितना ही बड़ा है उसका उतना ही बड़ा परिवार है। ईसा, बुद्ध और गाँधी के परिवार की सीमा विस्तृत होकर सम्पूर्ण संसार तक पहुँच गई थी। ठीक इसी तरह अभी के समय में महर्षि मेँहिँ संतमत परिवार भी पूरे भारत वर्ष के अन्दर उफान पर है साथ ही बाहर के देशों में भी हिलोरे ले रही है।

जिसके निकट सारा संसार एक परिवार बन जाता है। उसके निकट अपने और पराये में किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं रह जाता। वह सभी को अपना समझता है, सभी के साथ स्नेह को संसार के महान पुरुषों ने अधिक-से-अधिक महत्व दिया है। इनका महत्व बढ़ाने के लिए ही उन महापुरुषों ने इन्हें विश्वबन्धुत्व का नाम दिया है। इस नाम में बहुत अधिक मधुरता और स्नेह है। हम समस्त संसार के मनुष्यों के साथ भ्रातृ-स्नेह का अनुभव करें और उनके दुःख को अपना दुःख एवं उनके सुख को अपना सुख समझें, यह एक बहुत ऊँची भावना है। संसार के सभी स्त्री-पुरुष एक ही परिवार के सदस्य हैं। संसार के किसी भी बच्चे को हम अपने परिवार का एक बच्चा समझें और संसार के किसी भी मनुष्य के साथ हम वही स्नेह करें जो अपने किसी निजी सम्बन्धी से किया करते हैं, तो यह एक बहुत बड़े कर्त्तव्य-धर्म का पालन करना समझा जायगा।
।। जय गुरु ।।

मनुष्यों का हित अन्योन्याश्रित है | Manushyo ka hit anyoyashrit hai | Santmat-Satsang | एक मनुष्य दूसरे को हानि पहुँचाने के साथ-साथ स्वयं भी हानि उठाता है तो यह भी निश्चय है कि एक मनुष्य दूसरे को उन्नत बनाकर स्वयं भी उन्नति करता है।

मनुष्यों का हित अन्योन्याश्रित है।

जीवन की सबसे बड़ी श्रेष्ठता इसी में है कि एक मनुष्य अन्य मनुष्यों को अपना समझे और उनके काम आवे। इस प्रकार दूसरों को प्रसन्न बनाने की भावना में वह स्वयं अधिक प्रसन्न और सुखी हो सकेगा। यही भावना प्रकृति का आदेश है। इस प्रकृति के द्वारा न जाने कितने पुरुष दूसरों की सेवा और सहायता करके महापुरुष बन गये। परन्तु जिन लोगों ने दूसरों के साथ घृणा करना सीखा उनका भयानक पतन हुआ। मालूम नहीं कि मनुष्य जाति में परस्पर द्वेष की भावना किस आधार पर उत्पन्न की गई? विश्व की सम्पूर्ण मनुष्य जाति एक शरीर के रूप में है और अगणित व्यक्ति उसके संख्यातीत अंग-प्रत्यंग हैं। ये छोटे भी हैं और बड़े भी परन्तु उनमें किसी की आवश्यकता कम और किसी की अधिक नहीं है। सम्पूर्ण शरीर की रक्षा के लिए सब की आवश्यकता समान रूप से है। इस सत्य को अनुभव करके किसी महात्मा ने कहा है—

“आँखें हाथों से नहीं कह सकती कि हमको तुम्हारी आवश्यकता नहीं और न मस्तक पैरों से कह सकता है कि हमको तुम्हारी जरूरत नहीं है। यदि शरीर का एक अंग पीड़ित होता है तो सम्पूर्ण शरीर पीड़ित और अस्त-व्यस्त हो जाता है। यही मानव प्रकृति है और यदि उसका कोई एक अंग स्वास्थ्य प्राप्त करता है तो उसका लाभ सम्पूर्ण शरीर को मिलता है। ” महात्मात्मन के कथनानुसार “एक मनुष्य दूसरे को उसी दशा में हानि और पीड़ा पहुँचा सकता है जब वह स्वयं पीड़ित होता है और हानि उठाता है; और कोई एक देश अथवा राष्ट्र किसी दूसरे देश अथवा राष्ट्र को उसी दशा में क्षति पहुँचा सकता है, जब वह स्वयं क्षति उठाता है।” जब यह सत्य है कि एक मनुष्य दूसरे को हानि पहुँचाने के साथ-साथ स्वयं भी हानि उठाता है तो यह भी निश्चय है कि एक मनुष्य दूसरे को उन्नत बनाकर स्वयं भी उन्नति करता है। अब यह समझना हमारा काम है कि हम उन्नत होना चाहते हैं अथवा पतित, लाभ उठाना चाहते हैं या हानि?

—”सादगी से श्रेष्ठता”
।। जय गुरु ।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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शुक्रवार, 17 मई 2019

संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ जीवनी। SANT SADGURU MAHARSHI MEHI JEEVANI | SANTMAT-SATSANG

संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ 
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की संक्षिप्त जीवनी:-

बिहार राज्यान्तर्गत पूर्णियाँ जिला के बनमनखी थाने में सिकलीगढ़ धरहरा नाम की पुरानी बस्ती है, जहाँ श्रीनसीबलाल दासजी के पुत्रा कायस्थ कुल भूषण बाबू बबूजन लाल दासजी रहते थे। इनका ससुराल खोखशी श्याम मझुआ ग्राम था, जो उदाकिशुनगंज अनुमंडल में  पड़ता है। यह मधेपुरा जिला के अंतर्गत है। यह मधेपुरा पहले सहरसा जिला का एक अनुमंडल था। इसी खोखशी श्याम मझुआ गाँव को संतावतार सद्गुरू महर्षि मेँहीँ की पावनी जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त हुआ। यह खोखशी श्याम मझुआ ग्राम महर्षि मेँहीँ का ननिहाल है। इसके नानाजी श्रीयुत् बाबू विद्या निवास दासजी थे। आज उसी पावनी जन्मभूमि पर सद्गुरू महर्षि मेँहीँ के समर्पित विरक्त शिष्य पूज्यपाद संत शिशु सूर्य जी महाराज ने विशाल सत्संग आश्रम की स्थाना की है। यह आश्रम संतमत अनुयायियों के लिए परम पावन तीर्थस्वरूप है।

इसी खोखशी श्याम मझुआ ग्राम के पावन धाम पर 28 अप्रैल, 1885 ई0 को परम पावन शुभ मुहूर्त में एक अनोखे बालक ने जन्म- ग्रहण किया। चतुर्दिक खुशी का वातावरण छा गया। परम सौभाग्यवती महिमामती मातेश्वरी जनकवती जी अपने भाग्य पर फूली न समायी। जन्म के साथ ही बालक के सिर पर सात जटायें विद्यमान थीं। जिसने भी जटाओं को देखा, उसी ने बालक के महिमावान योगी पुरुष होने की भविष्यवाणी की।

ज्योतिषी पंडितजी को बालक के जन्म की तारीख, समय, मुहूर्त बताया गया। जन्म-कुण्डली तैयार करनेवाले पुरोहित ने भी बड़ी उत्सुकता और हर्ष के साथ घोषणा की कि यह बालक असाधारण पैदा हुआ है। यह अपने कुल खानदान का नाम तो रौशन करेगा ही; समाज और मुल्क में भी लोग इनका यशोगान करेंगे। बहुत सोच-विचार के बाद पंडितजी ने बालक का नामकरण किया रामानुग्रह लाल। सबने इस नाम की भी सराहना की। बाद में इनके वात्सल्य भाव रसिक चचेरे दादा-श्रीभारतलाल दासजी ने इनकी बुद्धि की महीनता को देख-परखकर बालक का छोटा-सा पुकारु नामकरण कर दिया मेँहीँ लाल। यही मेँहीँ लाल दास नाम इनके सद्गुरु महाराज ने भी इनकी सूक्ष्म बुद्धि को देखकर स्वीकार कर लिया। बाद में, सद्गुरु बाबा देवी साहब द्वारा इनका लिखा-पढ़ी का नाम स्वामी मेँहीँ दास और पुकारु नाम-‘लाला’ रखा गया था। यही मेँहीँ दास बाद में सद्गुरु के आशिष से साधना की पराकाष्ठा पर पहुँचकर सद्गुरू महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के नाम से देश-विदेश में प्रसिद्ध हुए, जिनकी यशोगाथा आज भी गायी जा रही है। स्थिति को देखते हुए भविष्य में भी यह क्रम जारी रहेगा, संभव है।

पूज्य पिताश्री बाबू बबुजन लाल दासजी की तीन पत्नियाँ थीं- प्रथमा श्रीमती फूलवती देवीजी, द्वितीया श्रीमती जनकवती देवी और तृतीया-श्रीमती दयावती देवीजी। भावी संत बालक रामानुग्रह लाल दासजी, द्वितीया माता श्रीमती जनकवती देवीजी की लाड़ली संतान थी। इनसे बड़ी संतान धाम फूली असाधारण प्रसिद्ध फूलवती सुपुत्री झूलन दायजी थीं। ज्येष्ठ तनया झूलन दाय की शादी किशोरी बाल्यावस्था में ही कर दी गयी थी। दैवयोग से युवावस्था के पूर्व ही निःसंतान वह विधवा हो गयी। इस कारण से वह अपने नैहर में ही माता-पिता की छाया में आकर रहती थी और प्यार से अपने दुलारे भ्रातारत्न की दिल से सेवा किया करती थी। तृतीया माता श्रीमती दयावती देवीजी की भी दो संतान-प्रथम श्रीडोमन दासजी और द्वितीया संतान-बेटी रमाकान्ति देवी थी। प्रथमा माताश्री की कोई संतान नहीं थी। श्रीडोमन दासजी महर्षि मेँहीँ (रामानुग्रह लाल) के सौतेले भाई थे। उनके तीन सुपुत्र हैं-श्रीविनोद बाबू (वकील साहब), श्रीसुबोध् बाबू (स्वास्थ्य विभाग) और श्रीप्रबोध् बाबू (गृहस्थ साधु)। तीनों संतमत में दीक्षित सत्संगी हैं। प्रबोध् बाबू घर गृहस्थी को देखते हुए विरक्त साधु की तरह ही सत्संग प्रचार-प्रसार का कार्य करते हैं। श्रीडोमन दासजी बाद में विरक्त होकर संत किंकर दासजी महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए। परिवार के सभी लोग निस्पृह होकर जीविकोपार्जन करते हुए सत्संग-भजन का जीवन जी रहे हैं।   

बालक रामानुग्रह लाल अभी निरा बालपन में ही थे कि इनके सिर से ममतामयी माता की शीतल छाया सदा के लिए उठ गयी। ये अनाथ-से हो गये। परन्तु बहिन झूलन दाय अपनी सेवा  में अपने प्यारे भाई को खिलाना-पिलाना, साफ-सफाई करना, नहलाना-धुलाना आदि करती रहती थी। यह भाई भी उस बहिन से प्यार के मारे ऐसा घुल-मिल गया था कि माता की तरह ही उन्हें खाने-पीने आदि के लिए तंग किया करते थे। भाई-बहिन का यह अलौकिक प्रेम विरले को नसीब होता है।

    महर्षि मेँहीँ की पावनी जन्मभूमि सचमुच में खोखशी और श्याम ग्राम के बीच स्थित मझुआ ग्राम है। यहाँ पर महर्षिजी के नाना श्री विद्यानिवास दास रहते थे। उनकी चार संतानें थीं-(क) चमनलाल दास, (ख) वाना दाय उर्फ जनकवती, (ग) वाका दाय और (घ) बच्चा लाल दास। इनका वंशवृक्ष अभी चल रहा  है।-
    ऐसा प्रायः देखा जाता है कि प्रभु-प्राप्ति के मार्ग में अनेकों बाधाएं आती हैं। भक्त उन बधाओं को झेलते हुए चलता है। कुछ बाधायें ऐसी भी होती हैं, जिसे झलने में भक्त असमर्थ हुआ करता है, उसे प्रभु की अहैतुकी कृपा ही समाप्त कर देती है। अर्थात् वे बधायें अपने आप ही समाप्त हो जाती हैं। इसके लिए एक कहावत है- "सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी।"

    रामानुग्रहलाल दासजी जब मात्रा 4 साल के ही थे, तो उनकी माताजी स्वर्ग सिधार गयीं। पाँच वर्ष की अवस्था में कुल पुरोहित के आज्ञानुसार रामानुग्रह लाल का मुंडन संस्कार सम्पन्न हुआ। मुण्डन संस्कार के बाद आपका अक्षरारम्भ गाँव के ही पाठशाला में हुआ। अक्षरारम्भ कैथी लिपि में हुआ। अपने जन्मजात संस्कार की तेजस्विता के कारण आपने अल्पकाल में ही कैथी लिपि के साथ ही देवनागरी लिपि भी सीख ली।

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11 वर्ष की अवस्था में रामानुग्रह लालजी को पूर्णियाँ जिला स्कूल में पढ़ने के लिए भर्ती कर दिया गया। लौकिक स्कूली शिक्षा के साथ ही आप आध्यात्मिक ग्रंथों और पूजा-पाठ में भी अभिरुचि रखने लगे थे। ये खेल-कूद में भी अपने साथियों में सबके प्यारे बन गये थे। शिक्षक इन्हें अल्पवय में आध्यात्मिक अभिरुचि से मना करते थे, पर इनपर उनका असर नहीं होता था। 4 जुलाई, 1904 ई0 को आप परीक्षा दे रहे थे। आप प्रवेशिका की परीक्षा दे रहे थे और विषय था-अंग्रेजी। परीक्षा के प्रश्न-पत्र का पहला प्रश्न था -"Quote from memory the poem 'Builders' and explain it in your own English." अर्थात् निर्माणकर्ता शीर्षक पद को अपने स्मरण से लिखकर उसकी व्याख्या अपनी अंग्रेजी भाषा में करें। आपने ‘बिल्डर्स’ कविता की प्रथम चार पंक्तियों को इस प्रकार लिखा-

For the structure that we  raise,
Time is with material's field.
Our todays and yesterdays,
Are the blocks with which we build.

"इन पंक्तियों का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है- "हमलोंगों का जीवन-मंदिर अपने प्रतिदिन के सुकर्म वा कुकर्म रूप ईंटों से बनता है। जो जैसा कर्म करता है, उसका जीवन वैसा ही बन जाता है। इसलिए हमलोगों को भगवद्भजनरूपी सर्वश्रेष्ठ ईंटों से अपने जीवन- मंदिर की दीवार का निर्माण करते जाना चाहिए। समय की सदुपयोगिता सत्कर्म में है और ईश्वर-भक्ति या भजन से बढ़कर श्रेष्ठ दूसरा कोई भी सत्कर्म नहीं है।"

इन उपर्युक्त हार्दिक उद्धारों की अभिव्यक्ति के बाद अंत में आपने तुलसीदास की पंक्ति को लिखा :-

"देह धरें कर यहि फल भाई।
भजिये राम सब काम बिहाई।।"

यह पंक्ति लिखते-लिखते आप अपने भाव विह्नलता को रोक नहीं सके। आपने परीक्षा निरीक्षक (Invigilator) से कहा-"May I go out sir?" महाशय! क्या में बाहर जा सकता हूँ? निरीक्षक महोदय आपके मनोभाव को परख न सके और बाहर जाने की अनुमति दे दी। उन्होंने कहा- "Yes, you may go out"

फिर क्या था? जैसे जलाशय का बाँध् टूटने से जलधरा निर्बाध् गति से आगे बढ़ती है, उसी प्रकार आप भी साधु -संतों की खोज में अनन्त पथ के पथिक बन गये। आप भागते हुए स्वामी रामानन्दजी महाराज (रामानन्दी साधु) की कुटिया पर जोतरामराय पहुँच गये। पिताजी को जब पता लगा, तो वे व्याकुल हो गये और इन्हें घर लाने का प्रयास किया, पर ये नहीं लौटे। इसके पहले भी ये कई बार भागने का प्रयास कर चुके थे, पर बड़ी बहन की याद आते ही लौट आते थे। इस बार नहीं लौटे और रामानन्द स्वामी के आश्रम पर रह गये। ये उनसे पहले ही दीक्षित हो चुके थे।

रामानन्द स्वामी से आपको मानस जाप, मानस ध्यान और खुले नेत्रों से त्राटक के अभ्यास की विधि  प्राप्त हुई थी। इस तरीके से आपने वर्षों अभ्यास किया, पर आपकी आत्मिक प्यास नहीं मिटी। तब ये अन्य महात्मा की तलाश मन ही-मन करने लगे, सोचने लगे। एक कहावत है-जहाँ चाह, वहाँ राह।’ गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी लिखा है :-

  जौं तेहि पंथ चलै मन लाई। तौ हरि काहे न होई सहाई।।
   
इसी कथन के अनुसार मेँहीँ बाबा की मुलाकात बाबा देवी साहब के एक भगवत् प्रेमी शिष्य रामदासजी से हो गयी-डाकघर में।

बातचीत के क्रम में रामदास बाबा, मेँहीँ बाबा से बोले-बाबा मेँहीँ दासजी! आप जिस गुरु की सेवा में जीवन का अनमोल समय खर्च कर रहे हैं, वे आपको आत्मज्ञान कराने में समर्थ नहीं हैं। इसपर मेँहीँ बाबा गुरु की निंदा सुनकर बिगड़ गये। रामदास बाबा तब भी बोले कि बिगड़ने से मेरा कुछ नहीं होगा? कान खोलकर सुन लें-जबतक आप हमारे सद्गुरु बाबा देवी साहब की शरण में नहीं आयेंगे, तबतक मुक्ति लाभ तो दूर है ही, उसकी राह का भी पता नहीं लगेगा। दोनों अपनी-अपनी जगह चल पड़े। बाबा रामदासजी, अपने गुरु भाई बाबा सिधार से मिलकर बोले कि देखना, मेँहीँ दास से जरा सावधन रहना, वह अपने वर्तमान गुरु का परम भक्त है। इसके बाद वे अपने गुरुदेव बाबा देवी साहब की सेवा में मुरादाबाद होकर पंजाब चले गये।
    इधर मेँहीँ लालजी अपने गुरु की सेवा में लग गये। परन्तु अपने इस वर्तमान गुरु स्वामी रामानन्दजी के पास उनकी आध्यात्मिक जिज्ञासा का समाधन नहीं हो पाता था। इन्हें न तो साधना में प्रगति दिखाई पड़ती और न ही शंका समाधन हो पाता था। इसलिए वे किसी अच्छे और सच्चे गुरु की तलाश मन-ही-मन कर रहे थे। इसी क्रम में उनको बाबा धीरजजलालजी का पता चला कि वे एक अच्छे अभ्यासी हैं और ज्ञान- ध्यान की बातों को अच्छी तरह समझाते हैं। मेँहीँ बाबा उनके पास समय निकालकर पहुँचे। उनसे स्वाभाविक शिष्टाचार के उपरान्त बातचीत की। इन्होंने धीरजलालजी से पूछा कि क्या आप सत्संग करते हैं? धीरज बाबा बोले कि मैं संतमत का सत्संग करता हूँ।
    मेँहीँ बाबा ने पूछा कि संतमत-सत्संग क्या है? धीरज बाबा बोले कि सारे आत्मज्ञानी महापुरुषों की आत्मा और परमात्मा संबंधी अनुभव ज्ञान को ही संतमत-सत्संग कहते हैं, जिसमें सबका एक मत हो। तब मेँहीँ बाबा ने पूछा कि क्या आप दरिया साहब को भी मानते हैं? धीरज बाबा बोले कि हाँ, अवश्य मानते हैं, क्योंकि वे भी तो संत थे और उनका विचार भी अनुभवपूरित है तथा अन्य संतों से मिलता है। तब मेँहीँ बाबा ने फिर पूछा कि क्या आप उनकी वाणी को समझा सकते हैं? धीरज बाबा बोले कि जहाँ तक होगा, कोशिश करूँगा, अन्यथा अपने बड़े गुरु भाइयों तथा गुरुदेव से भी पूछकर बता सकता हूँ।

मेँहीँ बाबा ने पूछा कि मैं कब आपके पास आउॅं ? धीरज बाबा बोले कि जब भी आपको समय मिले, आ सकते हैं। मैं आपको यथासाध्य समय दूँगा। मेँहीँ बाबा बोले कि मुझे तो दस बजे रात में ही समय मिल सकेगा-आने के लिये। धीरज बाबा बोले कि आइये, मैं उस समय भी मिलूँगा-आपसे। मेँहीँ बाबा चले गये।
    प्रबल आध्यात्मिक प्यास के कारण मेँहीँ बाबा गुरु की सेवा से निवृत्त होकर रात के 10 बजे दूसरे दिन आ पहुँचे, बाबा धीरजलाल  की सेवा में। 10 बजे रात्रि से 3 बजे भोर तक सत्संग किया और फिर छुट्टी लेकर अपने गुरु रामानन्द स्वामी की सेवा में हाजिर हो गये। गुरुजी की सेवा में त्राुटि नहीं आयी।
    दूसरे दिन भी यही दिनचर्या रही। इसी तरह 3-4 महीने तक अनवरत रूप से भोजन और आराम की चिन्ता त्यागकर आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त किये। को बड़ छोट कहत अपराधू।  गनि गुन दोष समुझिहहिं साधु ।। वाली कहावत इनपर चरितार्थ हो रही थी। दोनों आध्यात्मिक जगत् के उद्भट वीरपुरुष थे। एक तो सर्वस्व समर्पण करके गुरु का गुलाम बन चुके थे और दूसरे प्रबल उम्मीदवार थे। मेँहीँ बाबा को धीरज बाबा के सत्संग से बहुत संतुष्टि हुई। तब मेँहीँ बाबा कहने लगे, अब आप कृपा कर इस संतमत-सत्संग का व्यावहारिक ज्ञान बताने का कष्ट करें। इसके लिए मुझे क्या करना पड़ेगा, क्या शर्त अदा करनी पड़ेगी, कृपा कर वह भी बतायें।
    तब बाबा धीरजलाल बोले कि आपने हमारे गुरु भाई बाबा रामदासजी से एक दिन डाकघर में झगड़ा (बहस) कर लिया था। वे हमसे कह गये हैं। मेँहीँ बाबा बोले कि उन्होंने मेरे वर्तमान गुरुदेव का अपमान किया, तो मैंने उनसे बहस किया था। क्योंकि गुरुदेव की निंदा सुननी पाप है-यह संतवाणी में मैंने पढ़ा है। अब अगर रामदास बाबा हमसे रुष्ट हैं, तो मैं उनसे क्षमा माँग लूँगा, आप उनका पता बताने का कष्ट करें। धीरज बाबा ने पंजाब का पता बताया। मेँहीँ बाबा ने उनके नाम से पत्र लिखा। वे बाबा देवी साहब की सेवा में थे। बाबा देवी साहब और रामदास के नाम से मेँहीँ बाबा ने पत्र लिखा और क्षमा माँगी। बाबा देवी साहब का आशिषयुक्त पत्र रामदास बाबा ने धीरज लाल के नाम से लिखा और लौटाया। पत्र धीरजलाल को मिला, फिर भी वे भजन-भेद बताने से इन्कार कर गये। मेँहीँ बाबा को भागलपुर- मायागंज में राजेन्द्र बाबू (वकील साहब) के पास भेज दिया। मेँहीँ बाबा वहाँ पहुँचे और बहुत-से शंकाओं का समाधान हुआ उनके पास। पिफर राजेन्द्र बाबू ने मेँहीँ बाबा को दृष्टि-साधन की क्रिया बताकर कहा कि मैं आपका गुरु नहीं हूँ। आपके गुरु बाबा देवी साहब ही होंगे, जो हमारे और बहुतों के हैं। फिर  दुर्गापूजा में उनकी भेंट करने को कहा।
    मेँहीँ बाबा, स्वामी रामानंदजी के पास लौट आये और सेवा में लग गये। दुर्गापूजा के अवसर पर पुनः भागलपुर, बाबा देवी साहब की सेवा में पहुँचे। राजेन्द्र बाबू ने इनकी भेंट बाबा साहब से करा दी। बाबा देवी साहब ने मेँहीँ बाबा को आशिष देकर कहा कि लाला! पहले तुम दरियापंथी थे, अब समुद्रपंथी हो गये। अब तुम भटकने से बच गये। मेँहीँ बाबा, दरियापंथी महात्मा रामानंदजी के शिष्य थे, इसीलिए बाबा देवी साहब ने इन्हें दरियापंथी कहा था।
    बाबा देवी साहब से मिलकर मेँहीँ बाबा उनपर ही समर्पित हो गये और अपनी सेवा में रख लेने का आग्रह किया। बाबा साहब रीझ गये और आदेश दे दिया। बाबा साहब की सेवा में रहकर मेँहीँ बाबा ने कसकर ध्यान किया और उनके आदेश-उपदेश में अपने को ढाला। बाबा देवी साहब ने इन्हें कुम्भकार के घट की तरह गढ़ा और पक्का बना दिया। 1919 ई0 के 19 जनवरी को बाबा साहब का शरीर पूरा होने पर मेँहीँ बाबा बिहार के विभिन्न जगहों में रहकर ध्यान करते रहे। इसी क्रम में वे सिकलीगढ़ धरहरा, मनिहारी और भागलपुर के परवत्ती नामक महल्ले में भी रहकर ध्यान-सत्संग करते रहे। अंत में उन्होंने भागलपुर के मायागंज महल्ले के पास गंगा के पावन तट पर कुप्पा (गुफा) में रहकर गंभीर साधना की। कठिन शब्द डगर पर चलकर वे शांति को प्राप्त कर गये।
    अब वे महर्षि मेँहीँ परमहंस जी के नाम से जाना जाने लगे। धीरे धीरे संतमत का प्रचार बिहार के बाहर नेपाल, बंगाल, उत्तरप्रदेश,  हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, असम, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल आदि प्रान्तों में भी हुआ। भारत के बाहर पाकिस्तान, अफगानिस्तान, रूस, अमेरिका, स्वीडेन, नार्वे, जापान, इंगलैंड आदि देशों में भी संतमत फैल गया। आज यह राष्ट्रीय ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय संतमत की गरिमा से विभूषित हो गया है। लेकिन सबसे ज्यादा प्रचार क्षेत्र बिहार और झारखंड ही है। इन राज्यों में दैनिक, साप्ताहिक, मासिक और वार्षिक सत्संग चलता ही रहता है। ध्यान-साधना  का भी आयोजन लोग करते ही रहते हैं।

महर्षि मेँहीँ द्वारा रचित साहित्य भी आज अध्यात्म-जगत् में विशेष समादृत है। वे हैं :- सत्संग-योग, रामचरितमानस (सार सटीक), विनय-पत्रिका-सार सटीक, सत्संग-सुध-1,2, 3,4 भाग, संतवाणी सटीक, भावार्थ सहित घटरामायण पदावली, ईश्वर का स्वरूप और उसकी प्राप्ति, महर्षि मेँहीँ-पदावली आदि।
    इस तरह मेँहीँ बाबा अपने चमत्कारपूर्ण जीवन जीते हुए तथा सत्संग-ध्यान का प्रचार करते हुए 8 जून, 1986 ई0 को भागलपुर के केन्द्रीय स्थल महर्षि मेँहीँ आश्रम में ब्रह्मलीन हो गये। इनके इस सत्संग अभियान को इनके वरिष्ठ शिष्यों ने आगे बढ़ाया और आज भी अनवरत रूप से चलता जा रहा है। इनके वरिष्ठ प्रचारक शिष्यों में पूज्यपाद बाबा श्रीधर दासजी महाराज, पूज्यपाद संतसेवीजी महाराज, पूज्यपाद शाही स्वामीजी महाराज, पूज्यपाद लच्छन दासजी महाराज, पूज्यपाद भुजंगी दासजी महाराज, पूज्यपाद संत किंकरजी महाराज, पूज्यपाद स्वामी विष्णुकान्तजी महाराज, पूज्यपाद स्वामी गंगेश्वरानंद जी महाराज, पूज्यपाद दलबहादुर जी महाराज, पूज्यपाद स्वामी हरिनन्दन दासजी महाराज, पूज्यपाद अच्युतानंदन जी महाराज, स्वामी भगीरथ दासजी महाराज, स्वामी प्रमोद बाबा, स्वामी छोटेलाल बाबा, पूज्य केदार बाबा आदि प्रमुख शिष्य हैं।
    आज नक्षत्रों में सूरज और चाँद की तरह महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के नाम अध्यात्म गगन में शोभायमान हैं, तो संतमत-सत्संग भी विश्व-सत्संग समुदाय में प्रथम श्रेणी में परिगणित हैं। यह संतमत आज जातिवर्ग और सम्प्रदाय के संकीर्ण घेरे से बाहर निकलकर पूरे मानव समुदाय को गले लगाने के लिए तैयार होकर आगे बढ़ रहा है। किसी संत की वाणी में है :-

जे पहुँचे ते कहि गयेए तिनकी एकै बात ।
सबै सयाने एक मत तिनकी एकै जात ।।

अंत में संस्कृत और अध्यात्म के विज्ञ विद्वान पंडित रामविलास शर्मा के शब्दों में कहेंगे-
महर्षि मित्र हि महर्षि मेँहीँए महामहिम्नां महनीय कीत्र्तिः ।
नादानुसंधन विधन योगीए भारत देशस्य शिवावतारः ।।

महर्षि मेँहीँ के चमत्कार श्रीगुरुदेव के पावन संस्मरण  :-
बाबा श्री श्रीधर  दास जी महाराज

हमलोग सन् 1933 ई0 में मुरादाबाद गये थे। वहाँ धर्म सम्मेलन था। सभी धर्मो के लोगों को अपने-अपने धर्म की खूबी कहने के लिये कहा गया था। वहाँ आर्य.सामाजी और देव.सामाजी में बड़ा विरोध् था। आर्य.समाज के प्रवक्ता देव.सामाजी की बात नहीं सुनना चाहते थे और देवसमाजी आर्य.समाजी की बात सुनना नहीं चाहते थे। आर्य.समाजी कहते थे कि ईश्वर नहीं है, यह बात हम कान से नहीं सुनना चाहते हैं। देव.समाजी कहते थे-ष्ईश्वर हैष्ए यह बात हम कान से सुनना नहीं चाहते हैं। इस सम्मेलन के सभापति थे-पूo नन्दन बाबा। उन्होंने अपने गुरु.भाई पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज से प्रवचन देने के लिये निवेदन किया। उस सम्मेलन में परमाराध्यदेव गुरुदेव का गम्भीर, ज्ञान.मण्डित भाषण निम्नलिखित हुआ :-

"जो कोई ऐसा कहते हैं कि ईश्वर है, तो कोई ईश्वर को प्रत्यक्ष दिखा नहीं सकता। जो कहते हैं कि ईश्वर नहीं है, तो उनके ऐसा कहने से ईश्वर भाग नहीं जायगा। ईश्वर है और नहीं है, इन दोनों बातों को तबतक के लिए अलग रखें। और आप विचारें कि आप क्या चाहते हैं-सुख या दु:ख? कोई स्वीकार नहीं करेंगे। सभी सुख ही चाहेंगे, लेकिन हम तो महादुःख में पड़े हुए हैं। बार.बार जन्म लेना, मरना, यह आवागमन का चक्र लगा ही रहता है। इससे छुटकारा का कोई उपायए युक्ति चाहिये। दूसरी बात हम कौन हैं? इसपर भी विचार करें। क्या हम शरीर हैं, हम कहते हैं कि हमारा हाथ है, हमारी आँखें हैं, हमारी नाक है, हमारा कान है, आदि, तो ये सब हमारी इन्द्रियाँ हैं। हम इनसे कोई भिन्न तत्त्व हैं। अपने को जानना ही सबसे बड़ा ज्ञान है। सबसे बड़ी बात है कि हम सुख या शान्ति चाहते हैं। यह सुख या शान्ति कहीं बाहर नहीं, अपने अन्दर है और उसे पाने के लिए सद्युक्ति है।

इस प्रकार श्रीसद्गुरु महाराज जी के घंटों व्याख्यान हुए, जिसे सुन कर सभी बड़े प्रभावित हुए। उस धर्म- सम्मेलन में एक अंग्रेज भी आये थे। उनकी बुद्धि बड़ी ही तीक्ष्ण थी। कहा जाता था कि सात आदमी अलग-अलग व्याख्यान देते थे, और वे एक किताब लेकर पढ़ते थे। बाद में वे सातों आदमी का जो व्याख्यान होता था, उसे वे कह देते थे। उनका मस्तिष्क उस समय एक लाख रुपये में बिक चुका था। ब्रिटेन की सरकार ने खरीद लिया। जब वे मरने लगेंगे, तो उनके मस्तिष्क को चीरा जायेगा और देखा जायगा कि उनके मस्तिष्क में क्या विशेषता है। वे श्री श्रीसद्गुरू महाराज के प्रवचन से खुश हुए। उनको श्रीसद्गुरु महाराज का दिया गया प्रवचन अंग्रेजी में समझाया गया। वहीं एक आर्य-समाजी से श्रीसद्गुरू महाराज की वार्ता हुई।  श्रीसद्गुरु महाराज ने पूछा-"महाराज! शब्द-साधना  के बारे में आपका क्या मत है? उन्होंने कहा-कान बन्द करने से तो रग-रेशों की आवाजें होती हैं। इन आवाजों को सुनने से क्या लाभ?य् श्रीसद्गुरू  महाराज ने कहा- "इस तरह शब्द-साधन  नहीं किया जाता है।य् उन्होंने कहा-"तब कैसे सुना जाता है जी? श्रीसद्गुरू महाराज ने कहा कि एकविन्दुता पर शब्द सुना जाता है। एक विन्दुता पर सूक्ष्म नादों को ग्रहण किया जाता है। वहाँ रग-रेशों की आवाजें नहीं होती हैं। वे कुछ देर चुप रहने के बाद बोले कि हो सकता है। वहाँ से श्री सद्गुरु महाराज रायबरेली चले गये।
                                                                                                ‘गुर पूरे की बेअन्त बड़ाई’
    गुरु नानक देव जी महाराज फरमाते हैं-"पूरे गुरु की महिमा-बड़ाई का अन्त नहीं है। "जिज्ञासा होती है-पूरे गुरु कौन? उत्तर में निवेदन है "जीवनकाल में जिनकी सुरत सारे आवरणों को पार कर शब्दातीत पद में समाधि-समय लीन होती है और पिण्ड में बरतने के समय उन्मनी रहनी में रहकर सारशब्द में लगी रहती है, ऐसे जीवन्मुक्त परम सन्त पुरुष पूरे और सच्चे सद्गुरु कहे जाते हैं। पूरे और सच्चे सद्गुरु का मिलना परम प्रभु सर्वेश्वर के मिलने के तुल्य ही है। "(सत्संग-योग, भाग -4) अनन्त-स्वरूपी सर्वेश्वर को प्राप्त किये सन्त सद्गुरु की शक्ति अपरिमित होती है। उनकी कितनी भी स्तुति क्यों न की जाय, परिमित ही रहेगी। इसी दृष्टि को अपनाये रहकर हमारे प्रातःस्मरणीय परम पूज्य अनन्त श्री-विभूषित श्री सद्गुरु महाराज जी के ये प्रीति-वाक्य हैं-
गुरू  गुण अमित अमित को जाना। संक्षेपहिँ सब करत बखाना।। (महर्षि मेँहीँ-पदावली)

    सन्त कबीर गुरु-गुण गाते अघाते नहीं। वे कहते हैं-समस्त पृथ्वी को कागज बनाया जाय, सभी वृक्षों की लेखनी बनायी जायँ और सप्तसिन्धु के सलिल की स्याही बनाकर गुरु-गुण लिखा जाय, तब भी पूरा नहीं पड़ता।
    सद्ग्रन्थों की सूक्ति है-"भले ही सभी समुद्रों की थाह ले ली जाय, उसके पानी का वजन कर लिया जाय, गंगातटवर्त्ती रेणुओं की गणना कर संख्या में बाँध् ली जाय और गगन के ग्रह-नक्षत्रों को एक साथ साधकर हाथ में कर लिया जाय, किन्तु सन्त-सद्गुरू के गुण-पुंज का वर्णन कर कोई इतिश्री नहीं कर सकता।
    विवेक कहता है-विद्या -वरदा वीणा-पाणि-जैसे वक्ता और गणपति-जैसे लेखन-कर्त्ता से भी गुरु की सम्पूर्ण महिमा-विभूति कही वा लिखी नहीं जा सकती। और तो और, चतुर्मुख ब्रह्मा, पंचमुख शिव, षण्मुख कात्र्तिकेय और सहड्डमुख शेष भी जिनकी कीर्ति गाकर निःशेष नहीं कर सकते।
    वास्तविक बात यह है-"जो सन्त-सद्गुरू अनन्त नेत्र का उन्मेष कराकर अनन्तस्वरूपी सर्वेश्वर का साक्षात्कार कराने वाले हैं, उन अनन्त महिमाधरी और अनन्त उपकारी गुरु का यशगान कर आक्सान कौन कर सकता है?  फिर भी, जैसे दिनकर-भक्त दिवाकर को दीप दिखाकर तुष्ट होते हैं अथवा जिस तरह तीव्रगामी गरुड़ को गगन में गमन करते देख मकान के अन्दर मच्छड़ भी अपना पर पफैलाकर कुछ गुनगुनाता है, उसी तरह यह अकिंचन भी गुरुदेव का कुछ गुण-गुंजन कर मन को संतुष्ट करना चाहता है।

    प्रातःस्मरणीय परम पूज्य अनन्त श्री-विभूषित श्रीसद्गुरू महाराज जी नरतन-धारण करने के कारण नरलीला-हेतु शरीर से कुछ दिनों के लिये अस्वस्थ हो गये थे। पटना के ख्यातिप्राप्त डाक्टरों ने श्रद्धा.संयुक्त हो आपकी सफल चिकित्सा एवं सेवा की। खासकर डाo नन्दलाल मोदी साहब एवं उनकी धर्मपत्नी धर्मशीला स्वo सूरज मोदी ने गुरुदेव की सेवा के लिये अपने घर के द्वार ही नहीं, हृदय के द्वार भी खोल दिये थे। परम पूज्य गुरुदेव के सहित उनके सभी सेवकों को उन्होंने अपने भवन में कई महीने तक ठहराया और तन, मन, धन से सभी प्रकार की सेवाएँ कीं। चिकित्सा पूरी हो जाने के पश्चात् आपका शरीर रोग-मुक्त हो चुका था, किन्तु दुर्बलता-युक्त था। आप पटना से अपने आश्रम कुप्पाघाट-भागलपुर पधारे । यहाँ के स्वo डाo रामवदन सिंह जी प्रत्येक महीने की सतरह तारीख को एक इंजेक्शन देते थे, दुर्बलता दूर करने के लिये। सन् 1973 ईस्वी की चार फरवरी का प्रसंग है। करुणा-वरुणालय गुरुदेव ने मुझसे कहने की कृपा की-आगामी 17 पफरवरी को डाक्टर रामवदन बाबू इंजेक्शन दे सकेंगे? नहीं दे सकेंगे। मैंने निवेदन किया-गुरूदेव ! वे तो वचन के बड़े पक्के हैं। निश्चित तिथि में उपस्थित होकर इंजेक्शन दे जाते हैं। इस बार वे क्यों नहीं इंजेक्शन दे सकेंगे?गुरुदेव मुस्कुराते हुए बोले-समय आने दीजिये, देखियेगा। पुनः बोले-ईश्वर की लीला देखिये। उनके नहीं आने का कारण मैं जानता हूँ और आप नहीं।
    मैंने हाथ जोड़कर कहा-हूजुर  ने कितनी बड़ी तपस्या की है। योग-साधना  की है। ईश्वर-भजन कर ईश्वर-स्वरूप हो गये हैं। हुजूर नहीं जानेंगे, तो कौन जानेगा? मैंने क्या किया है? कुछ भी नहीं। मेरे निश्छल और विनय-भरे वचन सुनकर गुरुदेव का कमलमुख खिल उठा। उन्होंने करुणा की दृष्टि से मेरी ओर अवलोकन करते हुए बड़े ही प्रसन्न मन से कहा-आपकी तपस्या मेरी सेवा है। आपने मेरी बड़ी सेवा की है। मेरे बिना आप नहीं रह सकते और आपके बिना मुझको नहीं बनेगा। मैं वरदान देता हूँ कि जहाँ मैं रहूँगा, वहाँ आप रहेंगे।
    मैंने पुनः करबद्ध प्रार्थना कर निवेदन किया-अभी जबतक गुरुदेव के स्थूल शरीर की सेवा करने का सौभाग्य दास को प्राप्त है, तबतक तो हुजूर जहाँ रहेंगे, वहाँ इस अधम को रखेंगे यह तो ठीक है। लेकिन कभी-न-कभी तो शरीर का वियोग होगा। उस समय हुजूर तो ईश्वर में मिलकर एक हो जायेंगे, इस असार संसार में नहीं आयेंगे और मैं तो इस संसार में-आवागमन के चक्र में घूमता रहूँगा। तब हम दोनों एक साथ कैसे रह सकेंगे? मेरी बात श्रवणकर गुरुदेव ने हँसते हुए उत्तर देने की कृपा की-आप संसार में आयेंगे, मैं भी संसार में आऊँगा।मैंने पाणिब हो जिज्ञासा की-गुरूदेव ! जो कोई साधना कर मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं, वे संसार में पुनः आते नहीं। हुजूर कैसे आयेंगे? गुरुदेव गम्भीर स्वर में बोले-लोगों का कल्याण करने के लिये आऊँगा। गुरु और शिष्य का सम्बन्ध् एक जन्म का नहीं, कई जन्मों का होता है। मेरा और आपका सम्बन्ध् ‘’और ‘’ का है। उपर्युक्त बातें तो हमारे परमाराध्यदेव जी ने एकान्त में व्यक्तिगत रूप से मुझसे कहने की अनुकम्पा की थी, किन्तु दिo 27 दिसम्बर 81 ईo को सामूहिक सत्संग के अवसर पर उन्होंने सबके समक्ष स्पष्ट घोषणा की-मोक्ष  तक जाना, एक ही जन्म की बात नहीं है। इसके लिये बहुत जन्मों तक साधन  करना होगा। इसीलिये-
    कहै  कबीर सुनो धर्म  आगरा ।
            अमित हंस लै पार उतर भव सागरा।।
    इसी तरह मैं भी एकदम मोक्ष नहीं चाहता हूँ। बारम्बार आऊँगा और जाऊँगा तो बहुतों को संग लिये जाऊँगा। जैसे समुद्र में पुल बाँध जाय, तो चींटी उसपर चढ़कर इस पार से उस पार हो जाय। इसी तरह जो सन्त सद्गुरु बारम्बार आयेंगे, तो बहुत-से लोगों को ले जाते रहेंगे और बहुतों का संस्कार बन जायगा।   
              (‘शान्ति-सन्देश’ जनवरी 82) 
  परमपूज्य गुरुदेव का अमोघ आशिष पाकर मैंने अपने को कृत-कृत्य समझा। फिर  तो भगवान् बु( के वचन, माँ शारदा देवी के कथन एवं महावतार बाबाजी और योगी श्यामाचरण लाहिड़ी जी के परस्पर मिलन-बिछुड़न एवं गुरु के द्वारा शिष्य के दो जन्मों तक के रक्षण- शिक्षण प्रभृति जीवनवृत्त चल-चित्रा की भाँति मेरे सामने आने लगे।
    दिo 18 फरवरी को डाक्टर रामबदन बाबू आये। पारस्परिक लोकाचार के पश्चात् उनसे हँसते हुए मैंने पूछा-आप तो वचन के बड़े पक्के थे, इसबार कच्चे कैसे पड़ गये? उन्होंने दुःख प्रकट करते हुए कहा-क्या बताऊँ, प्रत्येक सोलह तारीख की सन्ध्या को इंजेक्शन की औषधि  मँगाकर अपने पास मैं रख लेता और दिo 17 को श्री महाराज जी को इंजेक्शन देता। इसबार दिo 16 फरवरी को भागलपुर में वह दवाई मिली नहीं। गत कल्ह दिo 17 को पटना आदमी भेजकर वहाँ से मैंने औषधि मँगायी, तो आज इंजेक्शन देने आया हूँ। गत कल नहीं आ सकने के कारण मैं स्वयं दुःखित तथा लज्जित हूँ। एक तो श्री महाराज जी के स्वास्थ्य का प्रश्न, दूसरे वे मन में क्या कहेंगे, कितना झूठा डाॅक्टर है और तीसरे आपका उपालम्भ मिलेगा, इन सब बातों को सोचकर मैं स्वयं चिन्तित था, किन्तु क्या करता, लाचारी थी। फिर भी, मन में यह विश्वास था कि श्री महाराज जी अन्तर्यामी हैं। वे मेरी असमर्थता को जानकर मुझे अवश्य क्षमा करेंगे।
    मैंने कहा-डाक्टर साहब! चिन्ता की कोई बात नहीं। सुनिये, एक बात बताऊँ? गत दिo 4 फरवरी को ही परमाराध्यदेव मुझसे कह चुके थे कि इस बार दिo 17 फरवरी को डाo रामबदन बाबू इंजेक्शन नहीं दे सकेंगे। मैंने जब कारण पूछा तो उस दिन उन्होंने कुछ बताने की कृपा नहीं की। वह कारण आज स्पष्ट हो गया। मेरे इस कथन से उनके मन में सत्साहस का संचार हुआ और क्षमा-याचना करते हुए उन्होंने गुरुदेव से इंजेक्शन लेने की प्रार्थना की। गुरुदेव बोले-बहुत  इंजेक्शन ले चुका। अब इसकी आवश्यकता नहीं है। छोड़ दीजिये। संयोगवश डा0 एन0 एल0 मोदी, पटना से गुरुदेव के दर्शनार्थ आये हुए थे। उनके विशेषाग्रह पर गुरुदेव ने स्वीकृति दी। उस दिन के बाद से आपने इंजेक्शन लेना बन्द कर दिया और अपनी मौज में आकर पूर्ण स्वस्थ हो गये। धन्य  हैं हमारे गुरुदेव! आपकी अनन्त महिमा का अंत कौन पा सकता है!

‘निमित्तमात्रां भव सव्यसाचिन्’
 -महर्षि शाही स्वामीजी महाराज
    करते तो सब सद्गुरु ही हैं, पर किसी-न-किसी को निमित्त बनाकर। आज से तीन-चार वर्ष पहले की बात है। परमाराध्य गुरुदेव मनिहारी से वापस आ रहे थे। उस समय श्री संतसेवी जी महाराज सिरदर्द से इतने बेचैन थे कि कार में बैठ नहीं सकते थे। परमाराध्य गुरुदेव स्वयं   अगली सीट पर बैठे और उनको पीछे की सीट पर सुलाकर कुप्पाघाट आश्रम आये। आश्रम पहुँचने पर किसी प्रकार कार से उतार कर उन्हें उनके निवास के कमरे तक पहुँचाया गया। पूज्य गुरुदेव निवास-गृह के बरामदे पर बैठे। मैं भी उनके चरणों में प्रणाम कर निकट ही बैठ गया। मेरी ओर देखकर गुरुदेव ने पूछा-फ्संतसेवी जी को आपने देखा? मैंने कहा-जी हाँ, उनको बहुत कष्ट है।य् यह सुनते ही गुरुदेव ने कहा-आप जाइए, संतसेवीजी का माथा पोंछ दीजिएगा। मैंने कहा-हूजुर , मेरे माथा पोंछने से क्या होगा? थोड़ी देर चुप होकर पुनः मुझसे गुरुदेव ने कहने की कृपा की-आप जाइए और उनका माथा पोंछ दीजिए। गुरुदेव की आज्ञा पाकर मैं श्री संतसेवीजी महाराज के पास गया और उनके सिर को हल्के हाथों से दाबने लगा। थोड़ी ही देर बाद वे अपने बिछावन पर उठकर बैठ गए और बोले कि अब दर्द कुछ कम हो गया है और मन भी हल्का लगने लगा है। अब मैं दँतवन से मुँह धोऊँगा। दँतवन लेकर मुँह धेने के बाद उन्होंने कहा कि कुछ खाने की भी इच्छा हो रही है। मैंने तुरत बेदाना मँगवाया और उसके दाने निकलवा कर उन्हें खाने के लिए दिया। उसके बाद मैं गुरुदेव के पास आया। गुरुदेव ने मुझसे पूछने की कृपा की-क्या हाल है? मैंने विनीत भाव से उत्तर दिया-हूजुर  की कृपा से उनकी तबीयत बहुत अच्छी हो गई है। कुछ बेदाना भी खाये हैं। यह सुनते ही गुरुदेव ने मुझसे कहा-आप जाइए। गुरुदेव ने शब्दशः तो नहीं कहा, पर भाव ऐसा था गोया कह रहे हों-यह बोलने की जरूरत नहीं है। गुरुदेव की कृपा अमोव है पर है वह अदृश्य और दूसरे के माध्यम से आनेवाली।

    एक दूसरी घटना उस समय की है जब मैं सकरोहर ग्राम में रहता था। उस गाँव का नाई गणेश ठाकुर बात रोग से ग्रस्त था। उसकी पीड़ा असह्य थी। ठीक से चलना-फिरना भी उसके लिए संभव नहीं था। मैंने एक दिन दिवास्वप्न में देखा कि परमपूज्य गुरुदेव मुझे आज्ञा दे रहे हैं कि आप गणेश को कुछ दवा बतला दीजिए। मैंने कहा-हूजुर ! मैं तो कुछ जानता नहीं, क्या बताऊँगा। गुरुदेव ने कहा-कुछ  भी बतला दीजिएगा। उसी दिन सायंकाल गणेश ठाकुर मेरे पास आया। उसे देखकर मुझे स्वप्न की बात याद आ गई। गणेश ठाकुर ने कहा कि मैंने स्वप्न देखा है कि गुरुदेव मुझे आज्ञा दे रहे हैं कि तुम शाही स्वामी के पास जाओ, वे तुम्हें दवा बता देंगे। उसने मुझसे दवा बताने का आग्रह किया। मैं बड़े असमंजस में पड़ गया। ठाकुर पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाने लगा-आप मुझे कुछ भी दवा बता दीजिए। मैंने उससे कहा-भाई  जाओ, गंगाजी की मिट्टी लगाओ। वह घर चला गया। उसने गंगाजी की मिट्टी का प्रयोग किया और चंगा भी हो गया। मैं उसी दिन बाहर चला गया था। जब कुछ दिनों के बाद सकरोहर लौट रहा था तो देखा कि रास्ते में लोग बड़े गौर से मेरी ओर देख रहे हैं और कुछ इंगित भी कर रहे हैं। गाँव के निकट आ जाने पर मैंने लोगों से पूछाµफ्क्या बात है कि आपलोग मेरी ओर इस प्रकार देख रहे हैं? उनलोगों ने बड़े उत्साह से कहा कि आपने गणेश ठाकुर को जो मिट्टी का प्रयोग बताया था उससे वह पूरी तरह स्वस्थ हो गया। मैं गुरु-चरणों में नतमस्तक हो गया। उनकी कृपा से क्या नहीं हो सकता। कृपा करें गुरुदेव और यश का भागी बने शिष्य? ऐसी है उनकी भक्तवत्सलता।

श्रीसद्गुरु-लीलामृत

-स्वामी लच्छन दासजी, सत्संग आश्रम, सैदाबाद (पुरैनियाँ)

    पूज्य गुरुदेव की मनिहारी में 1949 ईo को आज्ञा हुई कि फ्तुम सैदाबाद में खेती करो। मैं उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए उसी समय से बराबर हर साल खेती का कार्य करता आ रहा हूँ और उसकी फसल पूज्य गुरुदेव के चैके में भेज दिया करता हूँ। 1942 ईo में सैदाबाद में यह जमीन खरीदी गयी थी। पूज्य गुरुदेव महाराज हर साल धान  काटने के समय दिसम्बर माह में आया करते थे। असह्य कठिन ठंढ को सहन करते हुए, हिमालय की बर्फीली हवाओं का झकोरा खाते हुए, खेती का काम देखना और पिफर मोरंग में सत्संग करना, प्रवचन करना और लोगों को चेताना पूज्य गुरुदेव की महान् कृपा थी। देश एवं मोरंग के अनेकों सत्संगी गुरु महाराज के दर्शनाभिलाषी बनकर आते थे और इनकी अमृतमयी वाणी एवं प्रवचनों से लाभान्वित होते थे।
    पूज्य गुरुदेव महाराज का चमत्कार-रंगेली बाजार के निकट ग्राम टकुआ के निवासी रेशम लाल दास जी एक गणमान्य एवं धनी  व्यक्ति थे, ने अपने घर के निकट एक विष्णु-मंदिर का निर्माण किया और मुझे एक रात उसमें ठहराया। मंदिर में सत्संग हुआ और सत्संग में उपदेशपूर्ण प्रवचन से प्रभावित होकर उन्होंने मुझ से भजन-भेद लिया।
    भजन-भेद लेने के कई वर्षों के पश्चात् वह अचानक रोगग्रस्त हो गये। बीमारी काफी बढ़ गयी और वे मर गये। परिवार के सभी लोग तथा अन्य सम्बन्ध्ति व्यक्ति रोने-पीटने लगे। कई घंटों के बाद वे जीवित हो गये और कहने लगे कि मुझे लेने यमदूत आये थे, उसी समय पूज्य गुरु-महाराज जी आ गये और यमदूत से कहने लगे कि अभी यह नहीं जायगा; क्योंकि इसके द्वारा सत्संग का कार्य कराना अभी बाकी है।य् यह सुनते ही यमदूत ने उन्हें छोड़ दिया। वे कहने लगे कि धन्य! गुरु महाराज ने मुझे बचा लिया।
    इसके बाद उन्होंने आस-पास के सभी सत्संगियों को बुलवाया और सारी बातें कह सुनायी और विराट नगर ;नेपालद्ध से रजिस्ट्रार को बुलाकर सत्संग के नाम से जमीन एवं एक खपड़ा मकान, जो उस जमीन पर अवस्थित था, निबंधित  (रजिस्ट्री) कर दिया। साथ ही ईट मँगवाकर मुझे बुलाया और उस जगह पर सत्संग-भवन की नींव डलवायी-जिसकी दीवार बनकर पूरी हो चुकी है।

श्री आराध्यदेव की लीला
-श्री प्रमोद दास मo मेँo आo कुप्पाघाट
    मैं सद्गुरुदेव की गाय की देख-रेख करता था। एक दिन शाम को मैं श्रीचरणों की सेवा में रत था। सोचता था, सरकार मुझे भी अपनी शरण में जगह देते तो मेरा अहोभाग्य होता! उनके पाद्-पद्मों को दबाते समय मेरे मन में अचानक भाव आया कि चैंका में जाकर भोजन कर लेता तो ठीक होता, क्योंकि पीछे भोजन घट जायगा। यह भाव खत्म भी नहीं हो पाया था कि अन्तर्यामी प्रभु ने तुरत मुझे आदेश दिया-जाओ, तुम भोजन कर लो।य् मैं तो पानी-पानी हो गया। अपनी हीन भावना पर बड़ी लज्जा हुई । मैं सरकार के आदेश को मानकर भोजन करने चला गया।

गुरु-दल
-श्री छोटेलाल दास

    परमाराध्यदेव शरत्कालीन धूप  में अपनी शय्या  पर विराजमान थे, उसी समय मैं अपराहनकालीन सत्संग करके नित्य की भाँति उन्हें प्रणाम करने के लिये पहुँचा। बरामदे की देहरी पर सिर टेककर प्रणाम करते ही मैंने सुना-कौन? मैंने निवेदन किया-हुजुर, मैं छोटेलाल हूँ। आराध्यदेव ने पुनः कहने की कृपा कीµफ्अच्छा, यह तो बताओ, तुम किस दल में रहोगे? गुरु-दल, राम-दल या रावण-दल में? यह मैंने सादर अर्ज किया-हुजुर, मैं तो गुरु-दल में ही रहूँगा। अच्छा, तुम बच गये। ऐसी वाणी परमाराध्यदेव की मौज से निःसृत हुई। उस समय मैं गुरु-वाणी का गूढ़, रहस्यपूर्ण अर्थ नहीं समझ सका था कि मुझ अबोध् को सतोगुणी वृत्ति में बरतने का वे आदेश प्रदान करते हैं या सद्गुरु, ईश्वर और दुष्ट-इन तीनों में सर्वप्रथम, सर्वसमर्थ, करुणावतार कृपासिन्धु, नर-रूप-हरि गुरुदेव को अपनाये रहो-की आज्ञा देते हैं? क्योंकि सन्त कबीर की वाणी है-
       "हरि रूठे गुरु ठौर हैं, गुरु रूठे  नहिं ठौर।"

श्री सद्गुरु महाराज की कृपा से जान बच गयी

           -श्रीमती गोमती देवी, दिल्ली
    एकबार सन् 1951 में श्री सद्गुरु महाराज मुरादाबाद पधारे थे। दिल्ली से श्री ज्ञान-स्वरूप जी भटनागर गुरु महाराज के दर्शन करने के लिए मुरादाबाद आये थे। 22 जनवरी को श्री ज्ञान-स्वरूप जी सत्संग-आश्रम से दिल्ली जाने के लिए वापस लौट रहे थे। चलते समय गुरु महाराज से जाने के लिए आज्ञा माँगी और उन्हें माला पहनायी। गुरु महाराज ने कहा कि "क्या आज ही जाना है?" उन्होंने कहा-"जी हाँ, जरूरी काम से जाना है।"
    ज्ञान-स्वरूप जी जब स्टेशन पहुँचे, गाड़ी चलने को तैयार ही नहीं थी, बल्कि धीरे धीरे सरकने भी लगी थी। वह घबड़ाकर दौड़े और गाड़ी का पाँवदान पकड़ा, घबड़ाहट में पावदान हाथ से छूट गया और वह गाड़ी से नीचे गिर पड़े और साधू  लाईन के बीच में जा पड़े। गिरते समय गुरु महाराज का ध्यान किया, गाड़ी ऊपर से जा रही थी, उन्हें गुरु महाराज की आवाज सुनाई दी-फ्जैसे पड़े हो, वैसे ही पड़े रहो, हिलना नहीं।य् जब गाड़ी चली गयी, तो उन्हें कुछ होश आया। वहाँ भीड़ इकट्ठी हो गयी थी, उनसे धीरे-धीरे कहा-"मुझे अस्पताल ले चलो" और फिर बेहोश हो गये। लाईन पर हाथ आने से थोड़ा-सा हाथ ही कट कर रह गया, परन्तु जान बच गयी, गुरु महाराज की कृपा से ही जान बच गयी।
महर्षि मेँहीँ के उपदेश-

1. यह सुन्दर मनुष्य शरीर पाकर जो क्षणिक विषय-सुख में लवलीन रहते हुए माते रहते हैं और इसी में अपना कुशल समझते हैं, वे अत्यन्त भूल में हैं।
2. रसायन विज्ञान की तरह सत्य है कि आॅक्सीजन और हाइड्रोजन (H2+O=H2O) को मिलाओ, पानी होगा। इसी तरह इंगला- पिंगला को मिलाकर रखो, प्रकाश होगा। वैज्ञानिक आविष्कार जैसे सत्य है, वैसे ही यह सत्य है।

3. कोई भी जल बाह्य संसार में नहीं है, जो हृदय को शुद्ध कर सके। इसके लिए सत्य का व्यवहार होना चाहिए। सत्य के तट पर रहना चाहिए। सत्य का तट क्या है? सत्संग और ध्यान।
4. जिसका चेतन आत्मा तृष्णा की डोरी पर दौड़ती रहती है, उसके लिए शान्ति, तृप्ति और मुक्ति कहाँ!
5. जो संत वचनामृत का श्रवण, मनन और निदिध्यासन करके आदर करते हैं, उनका परम कल्याण होता है।
6. लाचार होकर भी पाप कर्म हो जाने पर कोई पाप के पफल से बच नहीं सकता है। पाप का पफल अवश्य ही भोगना पड़ता है।
7. जो कहते हैं कि भजन करने के लिए मुझको समय नहीं है, यह बहुत गलत बात है। गपशप करने के लिए समय है, सिनेमा देखने के लिए समय है और भजन करने के लिए समय नहीं है-यह बहुत गलत बात है।
8. सत्य बोलोगे, तो दूसरों से पे्रेम बढ़ेगा। प्रेम से मेल होगा, मेल से बल बढ़ेगा, बल बढ़ाने की आवश्यकता है देश को।
9. तप असल में ब्रह्मचर्य-पालन करे, तो वह अच्छा तपी है। शरीर को तपावे और ब्रह्मचर्य का ध्यान नहीं रखे, तो वह उत्तम तप नहीं है।
10.यह सुन्दर मनुष्य-शरीर पाकर अपना जीवन सांसारिक विषयों को खो दो, तो रोना पड़ेगा, इसमें संदेह की बात नहीं है। इसलिए याद रखो, सुअवसर हाथ से न जाने दो।
11.ज्योति और शब्द के अतिरिक्त और कोई रास्ता ईश्वर तक पहुँचने के लिए मानने योग्य नहीं है।
12. जो अपनी मौत को प्रत्यक्ष की तरह देखता है। उनकी सब सांसारिक भोग-वासनाएँ छूट जाती हैं।
13. इस संसाररूपी तालाब में परमात्मा-रूपी निर्मल जल है। यदि माया के परदे को हटा दो, तो परमात्मारूपी निर्मल का दर्शन होगा।
14. जबतक जीवन धरण करें, तबतक सत्संग करें, तो अवश्य ही मरने के बाद वे आगे शरीर पावेगा, तो मनुष्य का शरीर पायेगा, दूसरा हो नहीं सकता।
15. अगर भजन में तरक्की चाहते हो, तो मानस जप कभी नहीं भूलना चाहिए, हरवक्त जारी रखना चाहिए।
श्री सद्गुरु महाराज की जय।
सौजन्य: महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट (रज़ि)
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...