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शनिवार, 29 सितंबर 2018

आशिर्वाद से आसान होती है सफलता | AASHIRWAD SE AASAAN HOTI HAI SAFALTA | SANTMAT-SATSANG

आशीर्वाद से आसान होती है सफलता;

विनम्रता  दूसरों को प्रभावित ही नहीं करती, बल्कि कई बार स्वयं को अहंकार में भी डुबो सकती है। विनम्रता से पैदा हुआ अहंकार बहुत ही सूक्ष्म होता है।

इसलिए जब कभी हम विनम्रता का व्यवहार कर रहे हों, इस बात में सावधान रहें कि जब दूसरे हमारी विनम्रता पर हमारी प्रशंसा करें तो हम प्रशंसा को कानों से हृदय में उतरने न दें। अपनी योग्यता को कहीं न कहीं परमात्मा की शक्ति से जोड़े रखें, तो अहंकार के खतरे कम हो जाते हैं।

सुंदरकांड में भगवान श्रीराम हनुमानजी की प्रशंसा कर रहे थे, तब हनुमानजी ने कहा- मेरा लंका जाना, उसे जलाना, लौटकर आना यह सब मेरे वश में नहीं है।


सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछु मोरि प्रभुताई।।

यह सब तो श्रीरघुनाथजी! आप ही का प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता कुछ भी नहीं है। संत बताते हैं कि भगवान श्रीराम ने हनुमानजी से पूछा था- फिर समुद्र किस शक्ति से लांघा।

हनुमानजी का जवाब था आपके द्वारा दी गई अंगूठी से। भगवान श्रीराम समझ गए, ये एक बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तर है। इसमें भक्त ने स्वयं को बचाया है और श्रेय परमात्मा को दे दिया है। तब भगवान श्रीराम ने याद दिलाया कि अंगूठी तो सीताजी को दे दी थी, फिर लौटकर कैसे आए? हनुमानजी समझ गए कि इस समय भगवान जमकर परीक्षा ले रहे हैं। उन्होंने तुरंत उत्तर दिया- आते समय माता सीता ने उनकी चूड़ामणि दी थी। उसी के सहारे लौटा हूं। इस प्रताप में मेरा स्वयं का कोई योगदान नहीं है।

बड़ी सुंदर बात हनुमानजी बताते हैं कि जब गया तो पिता की कृपा थी और जब लौटा तो मां का आशीर्वाद साथ था। जिनके साथ जीवन के संघर्ष में माता-पिता के आशीर्वाद होते हैं उनकी सफलताएं सरल हो जाती हैं।
जय गुरु
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

सावधान नर सदा सुखी | SAAVDHAN NAR SADA SUKHI | SANTMAT-SATSANG

सावधान नर सदा सुखी

एक साधक ने प्रश्न कियाः
"महाराज जी ! साधनाकाल के दौरान साधक को कौन-कौन सी सावधानी रखनी चाहिए?"
महाराज जी ने एक छोटा-सा उदाहरण देते हुए कहाः
"एक बार सागर में नाव चलाने वाले खलासी लोग अपने मुखिया के पास गये और अपनी बड़ाई हाँकने लगेः
'देखो मुखिया जी ! हम लोग कितने साहसी और होशियार हैं कि वीरतापूर्वक भँवरों तक भी नाव को ले जाते हैं और भँवरों को पार करके सुरक्षित वापस आ जाते हैं। परन्तु यह जो भीमा है न, वह बहुत डरपोक है। यह तो नाव लेकर इस प्रकार भँवरों की ओर जाता ही नहीं है। कितना बुद्धु है?'
अनुभवी मुखिया ने जवाब दियाः
'तुम लोग भले ही भँवरों को पार करके आ जाते हों, परन्तु तुम्हारी अपेक्षा तो यह भीमा ज्यादा होशियार है। यह ऐसी भयानक जगह पर जाता ही नहीं कि जहाँ जिन्दगी जोखिम में हो। तुम लोग वहाँ जाते हो तो कभी ऐसे फँस जाओगे कि वापस आ ही नहीं सकोगे। नाव सहित सागर की गहराई में खो जाओगे। भीमा तो ऐसे किसी खतरे में पड़ता ही नहीं है।'
इस प्रकार सन्मार्ग के पथिकों को भी विषय-विकारों से दूर रहना चाहिए। जो विषय विकारों से दूर रहते हैं वे लोग भाग्यवान हैं और गृहस्थ आश्रम में रहकर भी जो उनसे दूर रहते हैं वे लोग ज्यादा प्रशंसनीय हैं। विषय-भोगों को भोगते-भोगते लोग विषय-भोगों को मक्खन एवं पेड़े समझते हैं, परन्तु सच तो ये है कि वे लोग चूना ही खाते हैं। चूना खाने से क्या दशा होती है यह तो आप सभी को पता ही होगा। मनुष्य बेचारा मर जाता है। जिस प्रकार साँप को हाथ लगाने से साँप काट लेता है और उसका जहर चढ़ जाता है इसी प्रकार विषय-भोग, ईर्ष्या-द्वेष, मान-सम्मान जहर के समान हैं। इन सब के पीछे थोड़ा भी जाने से पीछे से बहुत दुःख सहन करना पड़ेगा।
कोई मनुष्य जुआ नहीं खेलता, परन्तु रोज-रोज जुआरियों का संग करके उन लोगों को जुआ खेलते देखकर खुद भी जुआ खेलना सीख जाता है। फिर उसे जुआ का ऐसा चस्का लग जाता है कि वह उसके बिना नहीं रह सकता। यही स्थिति विषय-विकारों के साथ भी है इसलिए विषय-विकारों से दूर भागना चाहिए।
इसके सिवाय, साधकों को निन्दा-स्तुति, राग-द्वेष आदि के भँवर में भी नहीं जाना चाहिए। उसमें गिरकर पुनः चेत जाओ तो ठीक है, परंतु कई बार तो ऐसे भँवर में फँसकर ही जीवन पूरा हो जाता है।
लोग साधना भी करते हैं, भक्ति भी करते हैं, पूजा-पाठ भी करते हैं, ध्यान-भजन भी करते हैं, सेवा भी करते हैं, गुरु के शिष्य भी कहलाते हैं, परन्तु राग-द्वेष के भँवर में जाने की आदत नहीं जाती तो सब साधन-भजन और सेवा के ऊपर पानी फिर जाता है।

साधकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि जिन्हें खराब समझते हैं उनके साथ उदारता से व्यवहार करें, उनके गुण देखें, दोषों को भूल जायें। ऐसा करने से चित्त में शान्ति आने लगेगी। राग-द्वेष को पुष्ट करेंगे तो सभी साधन-भजन चौपट हो जायेंगे। ईर्ष्या और जलन से अन्तःकरण अशुद्ध बनेगा तो साधना का पथ लम्बा हो जायेगा।
आये थे हरिभजन को, ओटन लागे कपास।
जो संसार मिथ्या है, हर क्षण बदल रहा है, स्वप्न की तरह गुजरता जा रहा है उसकी सत्यता को दिमाग में भरने से परेशानी के सिवाय कुछ भी हाथ में नहीं आता। तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में शिवजी के मुख से कहलवाया हैः
उमां कहहूँ मैं अनुभव अपना।
सत्य हरि भजन जगत सब सपना।।
सर्वत्र केवल परमात्मा ही व्याप रहे हैं यह जानना ही 'सत्य हरिभजन' का अर्थ है। यदि इसे पूर्ण रूप से जान लिया तो राग-द्वेष, आकर्षण-विकर्षण, इच्छा-वासना सब दूर हो जायेंगे और अपना सहज स्वभाव प्रकट हो जायेगा।
साधना में विघ्न डालें ऐसी बेवकूफियों को हटाओ। दुःख देने वाले अज्ञान को मिटाओ। जगत की सत्यता को चित्त में से हटाओ और अपनी महिमा को जानो। उसके लिए जप करो, सेवा करो और अन्तःकरण को शुद्ध करो। साक्षीभाव एवं समता में रहने का अभ्यास करने से अन्तःकरण शुद्ध होगा जिससे शुद्ध आत्मरस और शुद्ध सुख प्रकट होगा। सत्पुरुषों का संग एवं सत्शास्त्रों का पठन-मनन करने से साधनाकाल की विघ्न-बाधाएँ कम होने लगेंगी" आप आगे बढ़ेंगे। जिस काम में लगे हुए हैं उसको पूरा करना आपका ही कर्तव्य है और वो पूरा कैसे हो यही जानने के लिए सत्संग है, गुरु सानिध्य है, शास्त्रों का अध्ययन है, मनन है, चिन्तन है। आप सुरक्षित, साफ और बिना ट्रैफिक वाले शार्टकट रास्ते से जल्दी पहुँचने के लिए गूगल मैप देखते हैं, समझते हैं और उसी रास्ते चलने से गंतव्य स्थान पर जल्दी पहुँच भी जाते हैं उसी तरह आप ईश्वर भक्ति में भी जल्दी से आगे बढ़ना चाहते हैं तो उपरोक्त बातों पर ध्यान दें, समझदारी से चलें तो हम सब का कल्याण भी निश्चित है।
।। जय गुरु महाराज ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है? | HAMARE JEEVAN KA LAKSHYA KYA HAI | SANTMAT-SATSANG

हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है ?

जागना कल्याण के लिए है और सोना नाश के लिए है|

मनुष्य जन्मकाल से शरीर की साधना, निद्रा, नित्य आवश्यकताओं की निवृत्ति, खान-पान, व्यायाम, विश्राम आदि में अपना समय व्यतीत करता है। उसके पश्चात् पेट के धन्धे के लिए अपना समय निकालता है। फिर घर-गृहस्थी के कामों के लिए समय व्यतीत करता है। उसके पश्चात् रिश्तेदारों, मित्रों, पड़ोसियों, मुहल्लेदारों और सहव्यवसायियों के लिए सुख-दु:ख में सम्मिलित होता है। उसके अनन्तर वह आलस्य, प्रमाद, मनोरंजन और समाचार-पत्र का शिकार हो जाता है। ये पाँच काम तो संसार का प्राय: प्रत्येक व्यक्ति करता ही है। छठा काम, ईश्वर-भक्ति, धर्मग्रन्थों का अध्ययन और सत्संग करने वाले संसार में थोड़े व्यक्ति हैं। यही अध्यात्म-जागरण का मार्ग है।

प्रत्येक मनुष्य जीवन-भर उपरोक्त पाँचों कामों में अपना समय व्यतीत कर देता है। जितनी आयु तक वह ये काम करता है वह आयु सांसारिक आयु होती है। पारमार्थिक आयु तभी से समझनी चाहिए जब से व्यक्ति में आध्यात्मिक जागरण आ जाये। यही वास्तविक आयु है, क्योंकि जीवन का लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार और परमात्म-साक्षात्कार है।

महाराज विक्रमादित्य कहीं जा रहे थे। एक अत्यंत वृद्ध पुरुष को देखकर उन्होंने पूछा, 'महाशय ! आपकी आयु कितनी है?'
वृद्ध ने अपनी श्वेत दाढ़ी हिलाते हुए कहा, 'श्रीमान जी ! केवल चार वर्ष' ।

यह सुनकर राजा को बड़ा क्रोध आया। वह बोला, 'तुम्हें शर्म आनी चाहिए। इतने वृद्ध होकर भी झूठ बोलते हो। तुम्हें अस्सी वर्ष से कम कौन कहेगा?'

वृद्ध बोला, 'श्रीमान्, आप ठीक कहते हैं। किंतु इन अस्सी वर्षों में से 76 वर्ष तक तो मैं पशु की तरह अपने कुटुम्ब का भार वहन करता रहा। अपने कल्याण की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। अत: वह तो पशु-जीवन था। अभी चार वर्ष से ही मैंने आत्म-कल्याण की ओर ध्यान दिया है। इससे मेरे मनुष्य जीवन की आयु चार वर्ष की है। और वही मैंने आपको बताई है।'

जय गुरुदेव

अभिमानरहित वचन बोलना एक कला है। ABHIMAN RAHIT HOKAR BOLNA EK KALA HAI | SANTMAT-SATSANG

अभिमानरहित वचन बोलना एक कला है;

किसी  काम को करने के बाद सफलता मिले या असफलता, लेकिन आनंद भंग न हो ऐसा कम लोग कर पाते हैं। हर बार हरेक को सफलता नहीं मिलती। चलिए, हनुमानजी से सीखते हैं।

सुंदरकांड में लंका से लौटने के बाद भगवान श्रीराम उनसे कहते हैं कि लंका के हालचाल सुनाओ। अब हनुमानजी के सामने दो स्थितियां हो सकती थीं। एक तो लंका का वर्णन सपाट करते और जो जानकारी राम जी लेना चाहते थे, केवल वही देते।

दूसरी स्थिति यह होती कि उसमें अपने किए हुए की प्रशंसा जोड़ देते। हनुमान जैसे सावधान व्यक्तित्व घटना की क्रिया और प्रस्तुति में अपने 'मैं' को अलग रखते हैं। तुलसीदासजी ने इस वार्तालाप पर लिखा :-

प्रभु प्रसन्न जान हनुमाना।
बोला बचन बिगत अभिमाना।।

हनुमानजी ने प्रभु को प्रसन्न जाना और वे अभिमानरहित वचन बोले। यहां हनुमानजी सिखा रहे हैं कि अपनी सफलता और असफलता के बाद विषय की प्रस्तुति में न तो अभिमान झलकना चाहिए और न ही उदासी।

अभिमानरहित वचन बोलना एक कला है। अच्छे-अच्छे विनम्र व्यक्तियों के शब्द भी अहंकार का स्वाद लेकर निकलते हैं। राम भगवान चाहते भी थे कि थोड़ी हनुमान की परीक्षा ली जाए। इसलिए बार-बार वे उनके पराक्रम की चर्चा करते। हनुमान जानते थे कि जरा-सी चूक हुई और अभिमान आलिंगन में ले लेगा। परमात्मा अपने भक्तों की परीक्षा अहंकार के प्रश्न-पत्र से ही लेते हैं। काम, क्रोध और लोभ की स्थितियां थोड़ी कठिनाई से निर्मित होती हैं। इसमें बाहरी योगदान की जरूरत पड़ती है, लेकिन अहंकार का खेल अंदर से चलता है। हनुमानजी अभिमानरहित वचन बोलना सिखा रहे हैं। 
जय गुरु
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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शनिवार, 22 सितंबर 2018

सद्कर्मों से लबालब हो जीवन की किताब SADKARMO SE LABLAB HO JEEVAN KI KITAB | SANTMAT-SATSANG

सद्कर्मों से लबालब हो जीवन की किताब;
मनुष्य अपने शरीर से यदि केवल भोग-विलास करे, इसे मौज-मस्ती में खर्च कर दे तो अच्छी बात नहीं है। यह सब जानवर भी करते हैं, पर मनुष्य को भगवान ने बुद्धि और विवेक देकर कुछ विशेष अधिकार दे दिए, जिनसे उन्हें निजी जीवन में लाभ उठाने के बाद परमात्मा के बनाए हुए संसार की सेवा करनी है।

इसीलिए मनुष्यों को अपने जीवन के आरंभ और अंत में मूल्यांकन करते रहना चाहिए। हमारा जीवन कोरे कागज जैसा शुरू हुआ और जब समापन होगा तो इसके सारे पृष्ठ लगभग चितेरे जा चुके होंगे। इसलिए हर रात सोते समय, सप्ताहांत में, महीने के आखिरी में और साल खत्म होने पर इस बात का चिंतन जरूर किया जाए कि अंत के वक्त हम क्या होंगे।

बीते समय में हमने क्या कुछ ऐसा श्रेष्ठ किया, जिसके लिए परमात्मा ने हमें मनुष्य बनाया है। ऋषियों ने कहा है कि हमारे साथ हमारा भगवान भी जन्म लेता है। काफी समय तक वह हमारे साथ रहता भी है। यूं कहें कि पूरा बचपन वह हमारा साथ नहीं छोड़ता। फिर जैसे-जैसे हम दुगरुणों को आमंत्रित करते हैं, उसकी विदाई होने लगती है।

याद रखिए हमारे अंत के बाद उस प्रारंभ वाले परमात्मा से मिलना जरूर होगा और उस दिन हमें उसे जवाब भी देना होगा। उसका सवाल यह होगा कि जो धरोहर मैंने तुम्हें दी थी, उसका सदुपयोग किया या नहीं? उस दिन हमारे जीवन की किताब सद्कर्मो से इतनी लबालब होनी चाहिए कि ईश्वर को अपनी कृति पर संतोष हो सके।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

दुनिया तो मुसाफिरखाना है | DUNIYA TO MUSAFIR KHANA HAI | जैसे नौका में कई लोग चढ़ते, बैठते और उतरते हैं परंतु कोई भी उसमें ममता या आसक्ति नहीं रखता | SANTMAT-SATSANG

दुनिया तो मुसाफिरखाना है;
यह समस्त दुनिया तो एक मुसाफिरखाना है। दुनियारूपी सराय में रहते हुए भी उससे निर्लेप रहना चाहिए। जैसे कमल का फूल पानी में रहता है परंतु पानी की एक बूँद भी उस पर नहीं ठहरती, उसी प्रकार संसार में रहना चाहिए।
संत तुलसीदासजी कहते हैं:-

तुलसी इस संसार में भांति भांति के लोग।
हिलिये मिलिये प्रेम सों नदी नाव संयोग।।

जैसे नौका में कई लोग चढ़ते, बैठते और उतरते हैं परंतु कोई भी उसमें ममता या आसक्ति नहीं रखता, उसे अपना रहने का स्थान नहीं समझता, ऐसे ही हम भी संसार में सबसे हिल-मिलकर रहे परंतु संसार में आसक्त न बनें। जैसे, मुसाफिरखाने में कई चीजें रखी रहती हैं किंतु मुसाफिर उनसे केवल अपना काम निकाल सकता है, उन्हें अपना मानकर ले नहीं जा सकता। वैसे ही संसार के पदार्थों का शास्त्रानुसार उपयोग तो करें किंतु उनमें मोह-ममता न रखें। वे पदार्थ काम निकालने के लिए हैं, उनमें आसक्ति रखकर अपना जीवन बरबाद करने के लिए नहीं हैं।
संसार को सदेव मुसाफिरखाना ही समझना चाहिये……..


घर मकान महल न अपने, तन मन धन बेगाना है,
चार दिनों का चैत चमन में, बुलबुल के लिए बहाना है,
आयी खिजाँ हुई पतझड़, था जहाँ जंगल, वहाँ वीराना है,
जाग मुसाफिर कर तैयारी, होना आखिर रवाना है,
दुनिया जिसे कहते हैं, वह तो स्वयं मुसाफिरखाना है।

अपना असली वतन आत्मा है। उसे अच्छी तरह से जाने बिन शांति नहीं मिलेगी और न ही यह पता लगेगा कि ‘मैं कौन हूँ’। जिन्होंने स्वयं को पहचाना है, उन्होंने ईश्वर को जाना है।
।।जय गुरु।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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गुरुवार, 20 सितंबर 2018

महर्षि और परमहंस की उपाधियों का इतिहास ... | History of the titles of Maharishi and Paramhansa | Santmat-Satsang | SantMehi | SadguruMehi

"सद्गुरू मेँहीँ के साथ 'महर्षि' और 'परमहंस' की उपाधियों का इतिहास"

'शान्ति-सन्देश' पत्रिका के प्रथम सम्पादक परमाराध्य श्रीसद्गुरू महाराजजी के परम भक्तोपासक प्रो0 श्रीविश्वानंदजी थे| पत्रिका में और विविध साहित्यों में भी सम्पादक महोदय के द्वारा परमाराध्य श्रीसद्गुरू महाराजजी का नाम केवल "स्वामी मेँहीँ दास" ही छपता था| कुछ समय पीछे सत्संगी श्रद्धालुओं और सेवक-शिष्यों के आपसी आग्रह एवं सम्पादक महोदय के हठ-प्रभुत्व के कारण नाम के अंत में 'जी महाराज' जोड़ा जाने लगा और तब सभी कोई आदर एवं पूज्य भाव से "स्वामी मेँहीँ दासजी महाराज" करके संबोधन एवं पत्रिका एवं साहित्यों में प्रकाशित करने लगे|
बाद में प्रो0 विश्वानन्दजी की जगह चंद्रधर प्रसाद नन्दकुलियारजी सम्पादक बने|इस प्रकार कई सम्पादक समयानुकूल बने और हटे| फिर टीकापट्टी निवासी श्री आनन्दजी सम्पादक बने|
काफी समय तक परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी का उपर्युक्त नाम ही प्रकाशित होता रहा| एक बार श्री आनन्दजी ने अग्यात प्रेरणावश सोचा कि जब महर्षि अरविन्द,महर्षि रमण और महर्षि वेदव्यास आदि नाम महर्षि की उपाधि से विभूषित होकर जगतविख्यात हो सकता है,तो हमारे परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी का नाम महर्षि से विभूषित क्यों नहीं हो सकता है|
उन्होंने बिना किसी की सलाह और समर्थन लिए ही पत्रिका में परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी का नाम "महर्षि" और "परमहंस" से संयुक्त कर "महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज" छपवा दिया|
संयोगवश वह पत्रिका किसी के द्वारा परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी के हाथ लग गई| उलट-पलटकर देखने के क्रम में जैसे ही उनकी निगाह उक्त उपाधियों से विभूषित अपने नाम पर पड़ी,वैसे ही इनका भयंकर रौद्री रोष प्रकट हो गया|सामने जाने की हिम्मत किसी की नहीं हो रही थी| श्रीआनंदजी तो आश्रम छोडकर ही पलायन कर गये|

परिणाम यह हुआ कि पत्रिका-प्रकाशन का कार्य दीर्घ समय तक स्थगित हो गया| फिर उस समय के 'अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महासभा' के महामंत्री श्री लक्ष्मी प्रसाद चौधरी 'विशारद' जी ने तमाम संतमत-सत्संगियों का प्रतिनिधि बनकर एवं स्वयं भी श्रद्धापूरित होकर डरे हुए से परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी के पास जाकर प्रार्थना की- "हुजूर! पत्रिका प्रकाशन का कार्य बंद हो चूका है| सत्संगियों को इस अभाव की हार्दिक पीड़ा है| दूसरी बात यह है कि हुजूर का जो नाम पत्रिका में छप चूका है,उसको बदलने से सत्संगियों की आस्था पर ठेस पहुँचेगी और सब के सब दुखी हो जाएँगे|
अत: हुजूर से प्रार्थना है कि जो हो गया,उसके लिए हम भक्तों को क्षमा-दान कर पत्रिका-प्रकाशन के लिए स्वीकृति देने की कृपा की जाय|"
उपर्युक्त प्रार्थना के समय परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी अपने युगल कमल नेत्रों को बंद कर मौन बने रहे| तभी से इनके नाम में "महर्षि" और "परमहंस" की उपाधियाँ लगने लगी|
इन्हें बड़े-बड़े विद्वान लोग महान-से महान और अति पावन उपाधि देकर भी तृप्त नहीं होते थे| इनके महिमामय व्यक्तित्व और कृतित्व के सामने सभी उपाधियाँ निरा पंगु ही लगती थी|
इनमें इतनी अहंकार-शून्यता थी की एक बार गैदुहा सत्संग में एक महिला इन्हें प्रणाम निवेदित करती हुई बोली- 'स्वामीजी! मुझको आशीर्वाद दीजिए!' यह सुनकर गुरू महाराज ने उस महिला पर खूब गुस्साये, और कहा- "मैं तुम्हारा स्वामीजी हूँ,मैं तो दास का भी दास नहीं हूँ|" और कहकर रोने लगे|
वास्तव में जो पुरूष तीनों अवस्थाओं को पारकर तुरियातीत-अवस्था को प्राप्त किये होते हैं,अर्थात् नि:शब्द-परम-पद को प्राप्त किये होते हैं,वे किसी उपाधि या पद-प्रतिष्ठा के बंधन में नहीं होते हैं| इससे तो उन्हें तकलीफ ही होतीे है|


किसी संत ने बड़ा अच्छा कहा है-
"मान-बड़ाई जबसे आइ,तबसे किस्मत फूटी|"

परम-पद को प्राप्त किये हुए भी हमारे गुरू महाराज अपने को हमेशा "मोरी मति अति नीच अनाड़ी" तथा "मोको सम कौन कुटिल खल कामी|" कहा करते थे| ये उनकी अहंकार-शून्यता नहीं थी तो क्या थी?

परन्तु, आजकल तीन अवस्थाओं में पड़े रहनेवाले महात्माओं में भी अपने आप को "स्वामी", "महर्षि" "परमहंस" इत्यादि उपाधि पाने के लिए होड़ सी लगी हुई है| वे अपने आप को इन उपाधियों से महिमामंडित होने पर फूले नहीं समाते हैं|
जबकि परमाराध्य श्रीसद्गुरू महाराजजी 5.4.1977 ई0 को महेश योगी के आश्रम  ऋषिकेश में कहने की कृपा की थी-
..."महर्षि मेँहीँ हम कभी नहीं| महर्षि नाम से हम बहुत डरते हैं| अगर कोई मुझे महर्षि कह देते हैं,तो मैं अपने को बहुत लज्जा मानता हूँ|"
एक बार संत की उपाधि के लिए भी कहने की कृपा की थी-
..."मैं अपने को संत नहीं मानता; क्योंकि पूरे संत से एक चींटी को भी कष्ट नहीं होता| मेरे नहीं चाहने पर भी बहुतों को कष्ट हो जाता है|"
ऐसे महान विभूति थे हमारे परमाराध्य "श्रीसद्गुरू महाराज"|
(बोलिए प्रेम से श्री सद्गुरू महाराज की जय)
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बुधवार, 19 सितंबर 2018

ईश्वर का साकार दर्शन करने के बाद मोह हो सकता है... | Eshwar darshan ke baad moh ho sakta hai | Santmat-Satsang


ईश्वर का साकार दर्शन करने के बाद मोह हो सकता है, काम, क्रोध, कपट, बेईमानी रह सकती है। कैकेयी, मंथरा, शूर्पणखा, दुर्योधन, शकुनि आदि ईश्वर का दर्शन करते थे फिर भी उनमें दुर्गुण मौजूद थे क्योंकि भगवान का दर्शन आत्मरूप से कराने वाले सदगुरूओं का संग उन्होंने नहीं किया।
शरीर की आँखों से भले ही कितना भी दर्शन करें, लेकिन जब तक ज्ञान की आँख नहीं खुलती तब तक आदमी थपेड़े खाता ही रहता है। दर्शन तो अर्जुन ने भी किये थे श्री कृष्ण के, परंतु जब श्रीकृष्ण ने उपदेश देकर कृष्ण तत्त्व का दर्शन कराया तब अर्जुन कहता है:

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितिऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।

'हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और स्मृति प्राप्त हो गई है। मैं सन्देह रहित होकर स्थित हूँ। अब मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।' (गीताः18.73)

शिवजी का दर्शन हो जाय, राम जी का हो जाय या श्री कृष्ण का हो जाय लेकिन जब तक सदगुरू आत्मा-परमात्मा का दर्शन नहीं कराते तब तक काम, क्रोध, लोभ, मोह, पाखंड और अहंकार रह सकता है। सदगुरू के तत्त्वज्ञान को पाये बिना इस जीव की, बेचारे की साधना अधूरी ही रह जाती है। तब तक वह मन के ही जगत् में ही रहता है और मन कभी खुश तो कभी नाराज। कभी मन में मजा आया तो कभी नहीं आया।
इसलिये कबीर साहब ने कहा है;

भटक मूँआ भेदू बिना पावे कौन उपाय।
खोजत-खोजत जुग गये, पाव कोस घर आय।।

यह जीव चाहता है तो शांति, मुक्ति और अपने नाथ से मिलना। मृत्यु आकर शरीर छीन ले और जीव अनाथ होकर मर जाय उसके पहले अपने नाथ से मिलना चाहिए, परंतु मन भटका देता है बाहर की, संसार की वासनाओं में। कोई-कोई भाग्यशाली होते हैं वे ही दान-पुण्य करना समझ पाते होंगे। उनसे कोई ऊँचा होता होगा वह सत्संग में आता है और उनसे भी ऊँचाई पर जब कोई बढ़ता है तब वह सत्यस्वरूप आत्मा परमात्मा में पहुँचता, उसे परम शांति मिलती है, जिस परम शांति के आगे, इन्द्र का वैभव भी कुछ नहीं।

आपूर्यमाणचलं प्रतिष्ठं, समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।

'जैसे जल द्वारा परिपूर्ण समुद्र में सम्पूर्ण नदियों का जल चारों ओर से आकर मिलता है पर समुद्र अपनी मर्यादा में अचल प्रतिष्ठित रहता है, ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्य में विकार उत्पन्न किये बिना ही उसको प्राप्त होते हैं, वही मनुष्य परम शांति को प्राप्त होता है, भोगों की कामना वाला नहीं।' (गीताः 2.70)

जैसे समुद्र में सारी नदियाँ चली जाती हैं फिर भी समुद्र अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता, सबको समा लेता है, ऐसे ही उस निर्वासनिक पुरूष के पास सब कुछ आ जाय फिर भी वह परम शांति में निमग्न पुरूष ज्यों का त्यों रहता है। ऐसी अवस्था का ध्यान कर अगर साधन-भजन किया जाय तो मनुष्य शीघ्र ही अपनी उस मंजिल पर पहुँच ही जाता है।
।।जय गुरु महाराज।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

मंगलवार, 18 सितंबर 2018

ध्यानाभ्यासी सुख-दुख दोनों सहते रहते हैं | जिनके जीवन में आत्मशांति प्राप्त करने की रूचि व तत्परता है, वे इस पृथ्वी के देव ही हैं | Santmat-Satsang

ध्यानाभ्यासी  सुख-दु:ख दोनों- सहते रहते हैं!
शरीर में बरतते हुए प्रारब्ध का भोग नहीं हो, कब संभव है? कितना ही ध्यान में चढ़ा हो, उसका फल भोगना ही पड़ेगा; किंतु उसका भोग वैसा होगा, जैसे कोई मद्य या भांग पीनेवाला मस्त हो जाता है, तब कहीं चोट लगने से उसका दर्द उसे कम मालूम होता है। डॉक्टर किसी रोगी को क्लोरोफॉर्म देकर चीर-फाड़ करता है; किंतु उसका दर्द उसे मालूम नहीं होता है, उसी प्रकार भजन के नशे में उसे कर्मफल- भोग का दु:ख और सुख कभी कम और कभी कुछ भी मालूम नहीं होता। संसार का सुख भी उसे आकर्षित नहीं करता। वह सुख को सह लेता है। साधारण लोग सुख नहीं सह सकते, दु:ख को भले ही सह लें। सांसारिक सुख में लिप्त होना और अहंकारी बनना, सुख नहीं सह सकना है,  किंतु ध्यानाभ्यास- द्वारा ऊर्ध्वगति होती है और  अभ्यासी कर्म-मंडल को पार कर जाता है, उसका कर्म-बीज जल जाता है और उसके तीनों कर्म नष्ट हो जाते हैं। -महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज

जिनके जीवन में आत्मशांति प्राप्त करने की रूचि व तत्परता है, वे इस पृथ्वी के देव ही हैं। देव दो प्रकार के माने जाते हैं- एक तो स्वर्ग में रहने वाले और दूसरे धरती पर के देव। इनमें भी धरती पर के देव को श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि स्वर्ग के देव तो स्वर्ग के भोग भोगकर अपना पुण्य नष्ट कर रहे हैं जबकि पृथ्वी के देव अपने दान, पुण्य, सेवा, सुमिरन आदि के माध्यम से पाप नष्ट करते हुए हृदयामृत का पान करते हैं। सच्चे सत्संगी मनुष्य को पृथ्वी पर का देव कहा जाता है।

कबीर साहब के पास ईश्वर का आदेश आया कि तुम वैकुण्ठ में पधारो। कबीर जी की आँखों में आँसू आ गये। इसलिए नहीं कि अब जाना पड़ता है, मरना पड़ता है.... बल्कि इसलिए कि वहाँ सत्संग नहीं मिलेगा।

कबीर साहब लिखते हैं:-

राम   परवाना   भेजिया,   वाँचत   कबीरा   रोय।
क्या करूँ तेरी वैकुण्ठ को, जहाँ साध-संगत नहीं होय।।

।।जय गुरु।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम




शनिवार, 15 सितंबर 2018

मानव जीवन में आचरण का महत्व | Maanav Jeevan me aachran ka mahatva | Santmat-Satsang

मानव जीवन में आचरण का महत्व!
☘मानव जीवन में आचरण का बहुत महत्व है। शक्तिशाली इंसान भी निर्बल है, धनवान भी निर्धन है, महाज्ञानी भी अज्ञानी है, अगर जीवन में अच्छा आचरण अर्थात धर्म नही है। धर्म किसी व्यक्ति के आवरण से नहीं व्यवहार से प्रकट होता है।  मनुष्य जो  अपने लिए चाहता है, वही व्यवहार दूसरों के साथ भी करना चाहिए। धर्म जीवन में प्रवेश करता है तो शान्ति देता है। धनी होना सौभाग्य की बात है मगर परम सौभाग्य तब होगा जब हम धार्मिक बनेंगे। धार्मिक आदमी की पहचान है जो खुद भी सुख से जीता है और दूसरों को भी सुख से जीने देता है। दूसरों का सुख नहीं छीनता। अपने किये खोटे कर्मो के प्रति प्रायश्चित करता है हे इश्वर जो हो गया सो गया अब बदल रहा हूं। आदमी का कर्म ही धर्म तक जाने वाला रास्ता है। धर्म इंसानियत के विकास मे सहायक होता है।

जीवन में धार्मिकता लाने के लिए :-
ऐसा नही कमाना, पाप हो जाए
ऐसा नही बोलना, क्लेश हो जाए
ऐसा नही खर्चना, कर्ज हो जाए
ऐसा नही खाना, मर्ज हो जाए

"तन पवित्र सेवा किए, धन पवित्र कर दान।
मन पवित्र हरि भजन कर, होत त्रिविध कल्याण।।"

जय गुरु महाराज
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम, हरियाणा
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सत्संग का निवेदन व आमंत्रण | Request and invitation of Satsang | Santmat-Satsang | Maharshi-Mehi | SANTMEHI | SADGURUMEHI

सत्संग का निवेदन व आमंत्रण
हर मनुष्य चाहता है कि वह स्वस्थ रहे, समृद्ध रहे और सदैव आनंदित रहे, उसका कल्याण हो। मनुष्य का वास्तविक कल्याण यदि किसी में निहित है तो वह केवल सत्संग में ही है। सत्संग जीवन का कल्पवृक्ष है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है:-


बिनु सत्संग विवेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।
सतसंगत मुद मंगल मूला।
सोई फल सिचि सब साधन फूला।।

'सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्रीरामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में नहीं मिलता। सत्संगति आनंद और कल्याण की नींव है। सत्संग की सिद्धि यानी सत्संग की प्राप्ति ही फल है। और सब साधन तो फूल हैं।'
सत्संग की महत्ता का विवेचन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास आगे कहते हैं-
एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साधु की हरे कोटि अपराध।।

आधी से भी आधी घड़ी का सत्संग यानी साधु संग करोड़ों पापों को हरने वाला है। अतः

करिये नित सत्संग को बाधा सकल मिटाय।
ऐसा अवसर ना मिले दुर्लभ नर तन पाय।।

हम सबका यह परम सौभाग्य है कि हजारो-हजारों, लाखों-लाखों हृदयों को एक साथ ईश्वरीय आनन्द में सराबोर करने वाले, आत्मिक स्नेह के सागर, सत्यनिष्ठ सत्पुरूष पूज्यपाद महर्षि हरिनंदन परमहंस जी महाराज  सांप्रत काल में समाज को सुलभ हुए हैं।
आज के देश-विदेश में घूमकर मानव समाज में सत्संग की सरिताएँ ही नहीं अपितु सत्संग के महासागर लहरा रहे हैं। उनके सत्संग व सान्निध्य में जीवन को आनन्दमय बनाने का पाथेय, जीवन के विषाद का निवारण करने की औषधि, जीवन को विभिन्न सम्पत्तियों से समृद्ध करने की सुमति मिलती है। इन महान विभूति की अमृतमय योगवाणी से ज्ञानपिपासुओं की ज्ञानपिपासा शांत होती है, दुःखी एवं अशान्त हृदयों में शांति का संचार होता है एवं घर संसार की जटिल समस्याओं में उलझे हुए मनुष्यों का पथ प्रकाशित होता है।

हमारे कर्म बंधनकारी भी हो सकते हैं और मुक्ति प्रदाता भी !
हमारा हर वो कर्म जो अहं भाव व स्वार्थ से प्रेरित होगा वह बंधनकारी होगा !
हमारा हर वो कर्म जो साक्षी भाव से, निस्वार्थ, बिना आसक्ति से अर्थात कर्तापन के अहंकार से मुक्त है वह मोक्षदायक होगा !
मोक्ष-परम आनंद में प्रवेश,संपूर्ण मानसिक शांति तथा विक्षेपों का अंत है!

।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

गुरुवार, 13 सितंबर 2018

कर्म भोग | Karma Bhog | Karmafal |

 कर्म भोग 

पूर्व जन्मों के कर्मों से ही हमें इस जन्म में माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नि, प्रेमी-प्रेमिका, मित्र-शत्रु, सगे-सम्बन्धी इत्यादि संसार के जितने भी रिश्ते नाते हैं, सब मिलते हैं । क्योंकि इन सबको हमें या तो कुछ देना होता है या इनसे कुछ लेना होता है ।

सन्तान के रुप में कौन आता है ?

वेसे ही सन्तान के रुप में हमारा कोई पूर्वजन्म का 'सम्बन्धी' ही आकर जन्म लेता है । जिसे शास्त्रों में चार प्रकार से बताया गया है --

ऋणानुबन्ध  : पूर्व जन्म का कोई ऐसा जीव जिससे आपने ऋण लिया हो या उसका किसी भी प्रकार से धन नष्ट किया हो, वह आपके घर में सन्तान बनकर जन्म लेगा और आपका धन बीमारी में या व्यर्थ के कार्यों में तब तक नष्ट करेगा, जब तक उसका हिसाब पूरा ना हो जाये ।

शत्रु पुत्र : पूर्व जन्म का कोई दुश्मन आपसे बदला लेने के लिये आपके घर में सन्तान बनकर आयेगा और बड़ा होने पर माता-पिता से मारपीट, झगड़ा या उन्हें सारी जिन्दगी किसी भी प्रकार से सताता ही रहेगा । हमेशा कड़वा बोलकर उनकी बेइज्जती करेगा व उन्हें दुःखी रखकर खुश होगा ।

उदासीन पुत्र  : इस प्रकार की सन्तान ना तो माता-पिता की सेवा करती है और ना ही कोई सुख देती है । बस, उनको उनके हाल पर मरने के लिए छोड़ देती है । विवाह होने पर यह माता-पिता से अलग हो जाते हैं ।

सेवक पुत्र  : पूर्व जन्म में यदि आपने किसी की खूब सेवा की है तो वह अपनी की हुई सेवा का ऋण उतारने के लिए आपका पुत्र या पुत्री बनकर आता है और आपकी सेवा करता है । जो  बोया है, वही तो काटोगे । अपने माँ-बाप की सेवा की है तो ही आपकी औलाद बुढ़ापे में आपकी सेवा करेगी, वर्ना कोई पानी पिलाने वाला भी पास नहीं होगा ।

पाप का फल मनुष्य को कभी न कभी अवश्य मिलता है!

आप यह ना समझें कि यह सब बातें केवल मनुष्य पर ही लागू होती हैं । इन चार प्रकार में कोई सा भी जीव आ सकता है । जैसे आपने किसी गाय कि निःस्वार्थ भाव से सेवा की है तो वह भी पुत्र या पुत्री बनकर आ सकती है । यदि आपने गाय को स्वार्थ वश पालकर उसको दूध देना बन्द करने के पश्चात घर से निकाल दिया तो वह ऋणानुबन्ध पुत्र या पुत्री बनकर जन्म लेगी । यदि आपने किसी निरपराध जीव को सताया है तो वह आपके जीवन में शत्रु बनकर आयेगा और आपसे बदला लेगा ।

इसलिये जीवन में कभी किसी का बुरा ना करें । क्योंकि प्रकृति का नियम है कि आप जो भी करोगे, उसे वह आपको इस जन्म में या अगले जन्म में सौ गुना वापिस करके देगी । यदि आपने किसी को एक रुपया दिया है तो समझो आपके खाते में सौ रुपये जमा हो गये हैं । यदि आपने किसी का एक रुपया छीना है तो समझो आपकी जमा राशि से सौ रुपये निकल गये ।

ज़रा सोचिये, "आप कौन सा धन साथ लेकर आये थे और कितना साथ लेकर जाओगे ? जो चले गये, वो कितना सोना-चाँदी साथ ले गये ? मरने पर जो सोना-चाँदी, धन-दौलत बैंक में पड़ा रह गया, समझो वो व्यर्थ ही कमाया । औलाद अगर अच्छी और लायक है तो उसके लिए कुछ भी छोड़कर जाने की जरुरत नहीं है, खुद ही खा-कमा लेगी और औलाद अगर बिगड़ी या नालायक है तो उसके लिए जितना मर्ज़ी धन छोड़कर जाओ, वह चंद दिनों में सब बरबाद करके ही चैन लेगी ।"

मैं, मेरा, तेरा और सारा धन यहीं का यहीं धरा रह जायेगा, कुछ भी साथ नहीं जायेगा । साथ यदि कुछ जायेगा भी तो सिर्फ "नेकियाँ" ही साथ जायेंगी। इसलिए जितना हो सके "नेकी" कर, "सतकर्म" कर।

मंगलवार, 11 सितंबर 2018

धार्मिकता का बाहरी दिखावा ... Dharmikta ka bahri dikhawa | Maharshi Mehi Sewa Trust | SantMehi | SanatanMehi

जय गुरु!
   धार्मिकता का बाहरी दिखावा, जैसे गुदड़ी या गेरुआ वस्त्र पहनना, माला, तिलक या भस्म लगाना, केश मुंडाना या जटा बढ़ाना अथवा भिक्षा-पात्र लेकर भीख माँगते चलना आदि केवल आडंबर और पाखंड हैं। परमात्मा के सच्चे प्रेमी ऐसा कोई बाहरी दिखावा नहीं करते, क्योंकि दिखावा केवल दुनिया को दिखाने के लिए होता है। भक्तों का संपूर्ण अभ्यास अंतर्मुखी होता है। वे अंदर में उस नाम से जुड़े होते हैं जो एक मात्र सत्य है:

संत दादू दयाल जी महाराज कहते  हैं -

*माया कारणि मूँड मुँड़ाया, यहु तौ जोग न होई।*
*पारब्रह्म सूँ परचा नाहीं,  कपट न सीझै कोई।।*

*पीव न पावै बावरी, रचि रचि करै सिंगार।*
*दादू फिरि फिरि जगत सूँ, करेगी बिभचार।।*

*जोगी जंगम सेवड़े, बौद्ध सन्यासी सेख।*
*षटदर्शन दादू राम बिन, सबै कपट के भेख।।*

*बाहर का सब देखिये, भीतर लख्या न जाइ।*
*बाहरि दिखावा लोक का, भीतरि राम दिखाइ।।*

*सचु बिनु साईं ना मिलै, भावै भेष  बनाइ।*
*भावै करवत उरध-मुखि, भावै तीरथ जाइ।।*

*साचा हरि का नाँव है, सो ले हिरदे राखि।*
*पाखँड परपँच दूर करि, सब साधौं की साखि।।*

*निरंजन जोगी जानि ले चेला।सकल व्यापी रहै अकेला।।*

*खपर न झोली डंड अधारी। मठी माया लेहु बिचारी।।*

*सींगी मुद्रा विभूति न कंथा। जटा जप आसण नहिं पंथा।।*

*तीरथ बरत न बनखंड बासा।मांगि न खाइ नहीं जगह आसा।।*

*अमर गुरु अविनासी जोगी। दादू चेला महारस भोगी।।*
       जय गुरु!

जैसे-जैसे मेरी उम्र में वृद्धि होती गई... |

जैसे जैसे मेरी उम्र में वृद्धि होती गई, मुझे समझ आती गई कि अगर मैं Rs.3000 की घड़ी पहनू या Rs.30000 की दोनों समय एक जैसा ही बताएंगी.!

मेरे पास Rs.3000 का बैग हो या Rs.30000 का इसके अंदर के सामान मे कोई परिवर्तन नहीं होंगा। !

मैं 300 गज के मकान में रहूं या 3000 गज के मकान में, तन्हाई का एहसास एक जैसा ही होगा।!

आख़ीर मे मुझे यह भी पता चला कि यदि मैं बिजनेस क्लास में यात्रा करू या इक्नामी क्लास मे, अपनी मंजिल पर उसी नियत समय पर ही पहुँचूँगा।!

इसीलिए _ अपने बच्चों को अमीर होने के लिए प्रोत्साहित मत करो बल्कि उन्हें यह सिखाओ कि वे खुश कैसे रह सकते हैं और जब बड़े हों, तो चीजों के महत्व को देखें उसकी कीमत को नहीं....

फ्रांस के एक वाणिज्य मंत्री का कहना था,
*ब्रांडेड चीजें व्यापारिक दुनिया का सबसे बड़ा झूठ होती हैं जिनका असल उद्देश्य तो अमीरों से पैसा निकालना होता है लेकिन गरीब और मध्यम वर्ग इससे बहुत ज्यादा प्रभावित होते हैं*।

क्या यह आवश्यक है कि मैं Iphone लेकर चलूं फिरू ताकि लोग मुझे बुद्धिमान और समझदार मानें?

क्या यह आवश्यक है कि मैं रोजाना Mac या Kfc में खाऊँ ताकि लोग यह न समझें कि मैं कंजूस हूँ?

क्या यह आवश्यक है कि मैं प्रतिदिन friends के साथ उठक-बैठक Downtown Cafe पर जाकर लगाया करूँ ताकि लोग यह समझें कि मैं एक रईस परिवार से हूँ?

क्या यह आवश्यक है कि मैं Gucci, Lacoste, Adidas या Nike के पहनूं ताकि high status वाली कहलाया जाऊँ?

क्या यह आवश्यक है कि मैं अपनी हर बात में दो चार अंग्रेजी शब्द शामिल करूँ ताकि सभ्य कहलाऊं?

क्या यह आवश्यक है कि मैं Adele या Rihanna को सुनूँ ताकि साबित कर सकूँ कि मैं विकसित हो चुका हूँ?

_नहीं दोस्तों !!!

मेरे कपड़े तो आम दुकानों से खरीदे हुए होते हैं,
Friends के साथ किसी ढाबे पर भी बैठ जाता हूँ,

भुख लगे तो किसी ठेले से ले कर खाने मे भी कोई अपमान नहीं समझता,

अपनी सीधी सादी भाषा मे बोलता हूँ। चाहूँ तो वह सब कर सकता हूँ जो ऊपर लिखा है।।

_लेकिन ....

मैंने ऐसे लोग भी देखे हैं जो एक branded जूतों की जोड़ी की कीमत में पूरे सप्ताह भर का राशन ले सकते हैं।

मैंने ऐसे परिवार भी देखे हैं जो मेरे एक Mac बर्गर की कीमत में सारे घर का खाना बना सकते हैं।

बस मैंने यहाँ यह रहस्य पाया है कि पैसा ही सब कुछ नहीं है जो लोग किसी की बाहरी हालत से उसकी कीमत लगाते हैं वह तुरंत अपना इलाज करवाएं।

मानव मूल की असली कीमत उसकी _नैतिकता, व्यवहार, मेलजोल का तरीका, सहानुभूति और भाईचारा है_। ना कि उसकी मौजुदा शक्ल और सूरत. !!!

सूर्यास्त के समय एक बार सूर्य ने सबसे पूछा, मेरी अनुपस्थिति मे मेरी जगह कौन कार्य करेगा?
समस्त विश्व मे सन्नाटा छा गया। किसी के पास कोई उत्तर नहीं था। तभी  कोने से एक आवाज आई।
दीपक ने कहा "मै हूं  ना" मै अपना पूरा  प्रयास  करुंगा ।

आपकी सोच में ताकत और चमक होनी चाहिए। छोटा -बड़ा होने से फर्क  नहीं पड़ता,सोच  बड़ी  होनी चाहिए। मन के भीतर एक दीप जलाएं और सदा मुस्कुराते रहें।

आचार व्यवहार | Aachar Vyavhar |

आचार-व्यवहार

सुख भी नियम से दुख भी नियम से होना सिद्ध हुआ है !
१. बलवान दया पूर्वक सुखी होता है !
२. बुद्धिमान विवेक तथा विज्ञान पूर्वक सुखी होता है ! 

३. रूपवान सतचरित्रता पूर्वक सुखी होता है !
४. पदवान न्याय पूर्वक सुखी होता है !
५. धनवान उदारतापूर्वक सुखी होता है !
६. विद्यार्थी निष्ठापूर्वक सुखी होता है !
७. सहयोगी कर्तव्य पूर्वक सुखी होता है !
८. साथी दायित्व पूर्वक सुखी होता है !
९. तपस्वी संतोष पूर्वक सुखी होता है !
१०. लोकसेवक स्नेहपूर्वक सुखी होता है !
११. सह अस्तित्व में प्रेम पूर्वक मानव सुखी होता है !
१२. रोगी तथा बालक के साथ आज्ञापालन के रूप में सुख अनुभूतियां सिद्ध हुई है !

इसी प्रकार:-

१. पुरुष का जीवन व्यक्तित्व से सफल है !
२. स्त्री का जीवन सतीत्व से सफल है !
३. माता पिता का जीवन व्यक्तित्व से सफल है !
४. पुत्र का जीवन नैतिकता के प्रति निष्ठा से सफल है !
५. व्यवसाय न्यायपूर्ण नियम के समर्थन में पालन से सफल है !
६. प्रजा का जीवन समग्र व्यवस्था में भागीदारी से तथा अनुशासन एवं नियम को स्वीकारने से सफल है !
७. गुरु का जीवन अनुभव को प्रमाणिकता पूर्वक अध्ययन कराने से सफल है !
८. शिष्य का जीवन गुरु द्वारा कराए गए अध्ययन के श्रवण मनन और अर्थ बौध संपन्नता से सफल है !
९. सहयोगी का जीवन कर्तव्य का निर्वाह करने से सफल है !
१०. साथी का जीवन दायित्वों को निर्वाह करने से सफल है !
११. भाई या बहन का जीवन एक दूसरे के स्नेह सहित दायित्व वहन करने से सफल है !
१२. मित्र का जीवन परस्पर दिखावा रहित, उदारता पूर्वक समाधान (सहयोग) को प्रमाणित करने से सफल है !

अच्छा आचार-व्यवहार बनाएं. ...आपका सुखी जीवन रहे...इसी कामना के साथ... शुभप्रभात.... ....

ऐतिहासिक उद्बोधन | विश्व धर्म सम्मेलन भाषण! -स्वामी विवेकानंद। विश्व धर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व | Swami Vivekanand

ऐतिहासिक उद्बोधन 

विश्व धर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व 
स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 को शिकागो (अमेरिका) में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में एक बेहद चर्चित भाषण दिया था। विवेकानंद का जब भी जि़क्र आता है उनके इस भाषण की चर्चा जरूर होती है।
पढ़ें विवेकानंद का यह भाषण...

अमेरिका के बहनों और भाइयों!

आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।

मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इस्त्राइलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था। और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है। भाइयो, मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है, जिस तरह अलग-अलग स्त्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद में जाकर मिलती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है। वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, पर सभी भगवान तक ही जाते हैं। वर्तमान सम्मेलन जो कि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है, जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं।

सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशज हठधर्मिता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार ही यह धरती खून से लाल हुई है। कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं।

अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा। -स्वामी विवेकानन्द

सोमवार, 3 सितंबर 2018

खुद को सिर्फ पैसा कमाने में लगा देना सही नहीं है।

खुद को सिर्फ पैसा कमाने में लगा देना सही नहीं है!
एक बढ़ई रोज कुछ बनाता और बेचकर खुश रहता था। वह संतुष्ट था और काम के समय खुशी से गुनगुनाता रहता था। एक दिन एक अमीर पड़ोसी उसके ठोकने-पीटने की आवाज से परेशान हो उठा। वह शोर बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। पड़ोसी ने बढ़ई को शांत करने की एक योजना बनाई। उसने कई सौ रुपये निकाले और उन्हें एक लिफाफे में डालकर बढ़ई की दुकान में रख दिया। उसने सोचा कि अब बढ़ई को काम नहीं करना पड़ेगा।
बढ़ई दुकान में आया तो उसे वहां लिफाफा पड़ा मिला। उसने सोचा- इन पैसों से कुछ लेकर मैं नए औजार खरीदूंगा ताकि और बेहतर फर्नीचर बना सकूं और ज्यादा पैसा कमा सकूं। पैसों ने बढ़ई की धन कमाने की इच्छा को भड़का दिया। उसने और मेहनत शुरू कर दी, ताकि वह हाल में मिले कई सौ रुपयों को हजारों में बदल सके। उसने खूब पैसे कमाने शुरू कर दिए, लेकिन वह वहीं संतुष्ट नहीं हुआ। उसने सोचा कि वह हजारों को दस हजारों में बदल डाले। बढ़ई शांत होने के बजाय और शोर करने लगा था। अब वह और अधिक काम करता था।

बढ़ई ने दस हजार कमा लिए तो अब वह लाख कमाना चाहता था। वह दिन-रात काम करने लगा। जल्द ही उसने गुनगुनाना छोड़ दिया। उसे अब अपने काम में आनंद नहीं आता था। रात में कई बार वह इतने तनाव में होता कि सो भी नहीं पाता था। उसका आंतरिक संतोष और शांति धन कमाने के चक्कर में गायब हो चुकी थी। अब हम खुद पर पर नजर डालें। क्या हम ज्यादा कमाने के लिए देर तक काम करते हैं? क्या अधिक लाभ के लिए अवकाश में भी काम करते रहते हैं? क्या हम हम अपने काम-काज से एक दिन या कुछ घंटे का भी अवकाश, बिना अपने काम-काज के बारे में सोचे हुए नहीं ले पाते? अगर ऐसा है तो क्या हम बढ़ई जैसे ही नहीं बन रहे।

हम पैसा कमाने में बहुत समय लगा रहे हैं और अपने परिवार, अपने शौक, अपनी आध्यात्मिक गतिविधियों और अपनी पसंद की चीजों में समय नहीं दे पा रहे, तो हमें सोचने की जरूरत है- क्या हम सही चुनाव कर रहे हैं। भविष्य के लिए बचाकर रखना अच्छा है पर खुद को सिर्फ कमाने में लगा देना कितना सही है? कौन जानता है भविष्य में क्या होगा? हम अपने आध्यात्मिक कार्यों को बुढ़ापे में करने के लिए छोड़ दें तो कौन जाने कितना समय मिलेगा। ध्यान दें कि हम अपना समय कैसे गुजारते हैं। लगे कि दूसरे लक्ष्य महत्त्वपूर्ण हैं, तो जीवन भर उनके लिए समय निकालने का प्रयास करते रहना चाहिए। तय कर लें कि पैसे और जायदाद की सनक से पैदा हुए तनाव से हम अपनी शांति और संतोष खत्म नहीं होने देंगे।
।।जय गुरु।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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रविवार, 2 सितंबर 2018

सत्संग-सुमन | Satsang-Suman | हम धनवान होंगे या नहीं, यशस्वी होंगे या नहीं, चुनाव जीतेंगे या नहीं इसमें शंका हो सकती है परन्तु | Santmat-Satsang

सत्संग सुमन;
हम धनवान होंगे या नहीं, यशस्वी होंगे या नहीं, चुनाव जीतेंगे या नहीं इसमें शंका हो सकती है परन्तु! हम मरेंगे या नहीं, इसमें कोई शंका है? विमान उड़ने का समय निश्चित होता है, बस चलने का समय निश्चित होता है, गाड़ी छूटने का समय निश्चित होता है परन्तु इस जीवन की गाड़ी के छूटने का कोई निश्चित समय है?
आज तक आपने जगत का जो कुछ जाना है, जो कुछ प्राप्त किया है... आज के बाद जो जानोगे और प्राप्त करोगे, यह सब मृत्यु के एक ही झटके में छूट जायेगा, जाना अनजाना हो जायेगा, प्राप्ति अप्राप्ति में बदल जायेगी।
अतः सावधान हो जाओ। अन्तर्मुख होकर अपने अविचल आत्मा को, निज स्वरूप के अगाध आनन्द को, शाश्वत शान्ति को प्राप्त कर लो। फिर तो आप ही अविनाशी आत्मा हो।

जागो.... उठो..... अपने भीतर सोये हुए निश्चयबल को जगाओ। सर्वदेश, सर्वकाल में सर्वोत्तम आत्मबल को अर्जित करो। आत्मा में अथाह सामर्थ्य है। अपने को दीन-हीन मान बैठे तो विश्व में ऐसी कोई सत्ता नहीं जो तुम्हें ऊपर उठा सके। अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो गये तो त्रिलोकी में ऐसी कोई हस्ती नहीं जो आपको दबा सके।
सदा स्मरण रहे कि इधर उधर भटकती वृत्तियों के साथ हमारी शक्ति भी बिखरती रहती है। अतः वृत्तियों को बहकाएं नहीं। तमाम वृत्तियों को एकत्रित करके साधना-काल में आत्मचिन्तन में लगाएं और व्यवहार काल में जो कार्य करते हैं उसमें लगाएं। दत्तचित्त होकर हर कोई कार्य करें। सदा शान्त वृत्ति धारण करने का अभ्यास करें। विचारवन्त एवं प्रसन्न रहें। जीवमात्र को अपना स्वरूप समझें। सबसे स्नेह रखें। दिल को व्यापक रखें। आत्मनिष्ठा में जगे हुए महापुरुषों के सत्संग एवं सत्साहित्य से जीवन को भक्ति एवं वेदान्त से पुष्ट एवं पुलकित करें।
।।जय गुरु महाराज।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...