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शनिवार, 30 जून 2018

वर्तमान में जीने से मिलता है सुख और कल्पनाएं देती हैं दुख | Vartmaan me jeene se milta hai sukh aur kalpnayen deti hai dukh | Santmat-Satsang

वर्तमान में जीने से मिलता है सुख और कल्पनाएं देती हैं दुख

प्रसन्न जीवन का सीधा फार्मूला है कि हम वर्तमान में जीना सीखें। जो लोग अतीत में या भविष्य में जीते हैं, उनके ऐसे जीने के अपने खतरे हैं। वे अतीत से इतने गहरे जुड़ जाते हैं कि उससे अपना पीछा नहीं छुड़ा पाते। सोते-जागते, बीती बातों में ही खोए रहते हैं। उन्हें नहीं पता कि अतीत सुख से ज्यादा दुख देता है। स्मृतियां सुखद हैं तो कल्पना में हर समय वे ही छाई रहती हैं। बात-बात में आदमी जिक्र छेड़ देता है कि मैंने तो वह दिन भी देखे हैं कि मेरे एक इशारे पर सामने क्या-क्या नहीं हाजिर हो जाता था। क्या ठाट थे। खूब कमाया और खूब लुटाया। एक फोन से घर बैठे कितने लोगों के काम करा देता था- इस तरह की न जाने कितनी बातें। इससे उन्हें एक अव्यक्त सुख मिलता है, मगर उससे कहीं ज्यादा दुख मिलता है कि अब वैसे दिन शायद नहीं आएंगे।
हालांकि पीड़ा और दुख सार्वभौमिक घटनाएं हैं। इसका कारण है दूसरों का अनिष्ट चिंतन करना। इस तरह का व्यवहार स्वयं को भारी बनाता है और प्रसन्नता लुप्त कर देता है। किसी का बुरा चाहने वाला और बुरा सोचने वाला कभी प्रसन्न नहीं रह सकता। वह ईर्ष्या और द्वेष की आग में हर समय जलता रहता है। मलिनता हर समय उसके चेहरे पर दिखाई देगी। एक अव्यक्त बेचैनी उस पर छाई रहेगी। उद्विग्न और तनावग्रस्त रहना उसकी नियति है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि प्रसन्नता को कायम रखना है तो दूसरों के लिए एक भी बुरा विचार मन में नहीं आना चाहिए। मन में एक भी बुरा विचार आया तो वह तुम्हारे लिए पीड़ा और दुख का रास्ता खोल देगा। दूसरे के लिए सोची गई बुरी बात तुम्हारे जीवन में ही घटित हो जाएगी।
।। जय गुरु महाराज ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

संतमत के वर्तमान आचार्य महर्षि हरिनन्दन परमहंस महराज की जीवनी | Santmat AAcharya | Jeevni | Maharshi Harinandan Paramhans | Santmat-Satsang

संतमत के वर्तमान आचार्य महर्षि हरिनन्दन परमहंस महराज की जीवनी। 

भारत-भूमि का बिहार राज्य अपनी विशिष्टताओं के कारण अत्यन्त गौरवशाली है। बिहार के मिथिलांचल को इसका श्रेय जाता है। पूर्वकाल से ही मिथिलांचल सन्त-महात्माओं एवं बड़े-बड़े विद्वानों की तपस्या-भूमि तथा उनका कार्य-क्षेत्र रहा है। इसी मिथिलांचल के कोशी प्रक्षेत्र में सुपौल जिले के त्रिवेणीगंज प्रखण्डान्तर्गत 'मनहाद्ध नाम की एक सघन आबादीवाली बस्ती है। सद्गुरू महर्षि मेंहीँ परमहंसजी महाराज के सेवक शिष्य स्वामी श्री हरिनन्दन दासजी महाराज का जन्म इसी ग्राम में चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को सन् 1934 ई0 को हुआ था। (पूज्य आचार्यश्री का जन्म 23 मार्च 1934 को हुआ था। आज 25 मार्च 2018 को उनकी 85वीं जयन्ती (84वीं वर्षगाँठ अथवा सालगिरह) है भारतीय तिथि के अनुसार)। यदुकुलभूषण स्व0 कैलू प्रसाद यादवजी इनके सौभाग्यशाली पिता थे। स्वर्गीय सुखिया देवी इनकी पूजनीया माताजी थीं। आपके पिताजी बहुत ही सात्त्विक विचार, सरल स्वभाव एवं शान्त प्रकृति के धर्मात्मा व्यक्ति थे। आपकी पूजनीया माताजी भी बहुत ही षुद्ध, सरल एवं कोमल स्वभाव की परम साध्वी भक्तिमती महिला थीं। माता-पिता की छाया में उनके सदाचरण का सुप्रभाव आपके मन पर पड़ा, जिसने आपको अन्य बालकों से भिन्न तथा भगवद्भक्तिपरायण बना दिया। बालपन में पड़ोस के बच्चों के साथ खेलते हुए रामानन्दी सम्प्रदाय के महात्माओं को देखकर आप भी उन्हीं की तरह वेष बनाकर पूजन किया करते थे। घर पर बहुत ही पवित्रता तथा श्रद्धा के साथ खेलते हुए रामानन्दी सम्प्रदाय के महात्माओं को देखकर आप भी उन्हीं की तरह वेष बनाकर पूजन किया करते थे। घर पर बहुत ही पवित्रता तथा आप देवी-देवताओं की पूजा देर तक किया करते थे। आप दो भाई तथा आपकी तीन बहनें हैं। बडे़ भाई स्व0 दरोगीप्रसाद यादव थे।

शिक्षा एवं आध्यात्मिक जीवन: उस समय आपके गाँव में पढे़-लिखे लोगों की संख्या बहुत कम थी। माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ने-लिखने को विशेष रूप से प्रेरित नहीं करते थे। आपके पिताजी ने भी आपको विद्यालय जाने और पढ़ने के लिए नहीं कहा। लेकिन दूसरे बच्चों को स्कूल जाता देख आपने स्वयं ही विद्यालय जाने की इच्छा प्रकट की और पिताजी की आज्ञा लेकर स्कूल जाने लगे। पढने में आपका बहुत मन लगता था पाठय-पुस्तकों के अतिरिक्त आपने अन्यान्य विषयों की पुस्तकों पुस्तकालय से लाकर पढ़नी शुरू कर दी। आपकी परिश्कृत अभिरूचि तथा संस्कारों ने आपकी क्रमशः आध्यात्मिक पुस्तकों के अध्ययन-मनन की ओर प्रवृत्त किया। आपकी प्राथमिक शिक्षा ग्रामीण स्कूल से आरम्भ हुई और माध्यमिक शिक्षा के लिए आप त्रिवेणीगंज पढ़ने जाते थे। वहाँ से आपने दसवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की। आप अपने वर्ग में प्रथम स्थान पाते हुए सभी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होते थे। स्वयं तथा ग्रामवासियों के लिए कीमती पुस्तकें खरीदकर पढ़ना सम्भव नहीं है, यह सोचकर आपने गाँव में एक पुस्तकालय की स्थापना करने का निश्चय किया। आपने अपने मित्रों के साथ मिलकर इस योजन को कार्यरूप में परिणत करने के लिए प्रयत्न शुरू कर दिया। गाँववालों ने भी सर्वहित के इस कार्य में सहयोग दिया। स्थानीय सत्संग मन्दिर में पूज्य मोती बाबा ने इस पुस्तकालय के लिए एक कक्ष प्रदान करने की कृपा की। पामाराध्य गुरूदेव महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज के नाम इस पुस्तकालय की स्थापना हो गई। गुरूदेव के शुभाषीर्वाद के फलस्वरूप थोडे़ ही समय में पुस्तकालय की बहुत उन्नति हो गई। पुस्तकालय के संचालन का पूरा भार आपने ही स्वेच्छा से उठा लिया और इसी क्रम में अपना वासा भी सत्संग मन्दिर मं ही रख लिया। वहाँ होनवाली स्तुति-प्रार्थना में आप नियमित रूप से सम्मिलित होते तथा सत्संग-प्रवचन सुनने का सौभाग्य आपको अनायास ही प्राप्त होने लगा। फलतः, आपका झुकाव सत्संग की ओर विषेश रूप से होने लगा। अतः आपने आध्यात्मिक ज्ञान की पिपासा के कारण पढाई स्थगित कर दी। आपकी प्रवृत्ति और सत्संग के प्रति आपके आकर्षण को देखकर पिताजी ने आपका विवाह कर देना ही श्रेयस्कर समझा। किन्तु आपने विवाह करना अस्वीकार कर दिया। इस दिशा  में आपके पिताजी के सारे प्रयत्न आपके दृढ़ निष्चय के समक्ष निष्फल हुए।

    धीरे-धीरे आपका अधिकांश समय सत्संग मन्दिर में ही व्यतीत होने लगा, जहाँ आप सत्संग की पुस्तकें तथा अन्य आध्यात्मिक ग्रन्थों का अध्ययन-अनुशीलन करते रहते थे। भोजन के लिए भी जब आपने घर जाना बन्द कर दिया तो आपकी माताजी स्नेहवश स्वयं भोजन लेकर सत्संग मन्दिर आ जाती थीं। सन् 1954 ई0 के अक्टूबर माह की बात है। उस समय गुरूदेव सिकलीगढ़ धरहरा में विराज रहे थे। आपने वहाँ जाकर उनसे भजन-भेद की दीक्षा ले ली और घर से विरक्त होकर अधिकांश समय सत्संग मन्दिर में साधना -भजन और अध्ययन-चिन्तन में व्यतीत करने लगे।
    जब स्कूली शिक्षा का त्याग कर आप मचहा सत्संग मन्दिर में पुस्तकालय का संचालन करते हुए वैरागी साधु की तरह रहने लगे, तब करीब दो वर्षो के बाद अप्रैल, 1957 ई0 में महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज सत्संग-प्रचार के सिलसिले में मचहा ग्राम पधारे। वहाँ तीन दिनों तक सत्संग का आयोजन हुआ। उस सत्संग में आप भी सम्मिलित हुए और महर्षि जी के दर्शन-प्रवचन से बहुत प्रभावित हुए। सत्संग में आपको विचि़त्र शान्ति का अनुभव हुआ, अशांत मन को शान्त करने का संबल मिला। सत्संग के दौरान अपने प्रवचन में गुरू महाराज ने आपको लक्ष्य करके कहा था- ’’जिन्होंने माता-पिता और घर का त्याग कर दिया है, उनका किसी छोटे कार्य में उलझे रहना ठीक नहीं है। जिस ध्येय की प्राप्ति के लिए माता-पिता के स्नेह-बंधन को तोड़ा है, उसके लिए यत्न नहीं किया जाय तो उनका गृह-त्याग देना महत्त्वहीन है। उनका छोटे-मोटे व बाहरी कार्यों में उलझे रहने से कल्याण नहीं होगा।’’ गुरू महाराज की अमृत वाणी आपके अन्तर में बद्धमूल हो गयी और आपके मन में वैराग्य की भावना प्रबलतर हो उठी। आपका मन गुरूसेवा के लिए विचलित हो उठा। गुरू महाराज के कल्याणकारी सांकेतिक वचनों से पुस्तकालय-प्रभारी के दायित्वों से विचलित होकर उसी समय आपने गुरू महाराज से विनीत प्रार्थना की कि ’मुझे भी अपनी सेवा में रख लेने की कृपा करें।’

    उस समय गुरूदेव की सेवा में पहले से ही दो सेवक पूज्य श्री सन्तसेवी जी महाराज तथा पूज्य श्री भूपलाल बाबा मौजूद थे। किसी अन्य सेवक की उस समय गुरू महाराज को आवष्यकता नहीं थी, किन्तु आपकी प्रार्थना को स्वीकार करते हुए उन्होंने आपको अपने साथ रख लेने की कृपा की। तब से आप गुरू महाराज के साथ ही रहने लगे। उस समय गुरू महाराज द्वारा सम्पादित ’सत्संग-योग’ का प्रथम संस्करण प्रकाषित हुआ था, जिसमें बहुत सारी अषुद्धियाँ रह गई थीं। इन अशुद्धियों को आप मनिहारी आश्रम में रहकर शुद्ध किया करते थे। यह काम 1961 ई0 तक चलता रहा। इसके बाद से आप गुरूदेव के भण्डारी का काम करने लगे, जो 1973 ई0 तक लगातार चलता रहा। 1974 ई0 से 1975 ई0 तक ’शांति -सन्देश’-प्रेस के कार्य-भार का दायित्व आपने अपने ऊपर ले लिया। सन् 1964 ई0 में गुरू महाराज ने आपको संन्यासी वस्त्र का अधिकारी मानकर गैरिक वस्त्र प्रदान किया था, साथ ही शब्दयोग की क्रिया भी बतायी थी।
    एक बार की घटना है कि गुरू महाराज किसी का कोई चढ़ाव नहीं लेते थे, चाहे वह अन्न, वस्त्र, रूपये-पैसे कुछ भी हो। गुरूदेव की सेवा करने से वंचित हो जाने के कारण श्रद्धालु भक्त जन व्याकुल थे। तब पूज्य श्री हरिनन्दन जी महाराज लोगों के बहुत अनुनय-विनय पर उनके द्वारा दी गई वस्तुओं और रूपयों को अपने पास रख लेते थे, ताकि उनकी भक्ति-भावना आहत न हो और गुरू महाराज को इसकी जानकारी नहीं देते। सन् 1971 ई0 में जब गुरू महाराज अस्वस्थ हुए तो पूज्य श्री हरिनन्दन जी महाराज ने भक्तों द्वारा दिये हुए रूपयों से पटना में चिकित्सा करवाई और शेष रूपयों को पास में ही रहने दिया। गुरूदेव तो अन्तर्यामी थे। स्वस्थ होने पर उन्होंने पूछा कि मेरी चिकित्सा के लिए रूपये कहाँ से खर्च हुए? तब गुरूदेव को सारी बातों से अवगत कराया गया और बताया गया कि इतने रूपये शेष हैं। उन रूपयों को वर्तमान आचार्य महर्षि हरिनन्दन जी महाराज ने लाकर गुरूदेव के सम्मुख रख दिया। इसपर गुरू महाराज ने कहा, ’’तुम्हारा हाथ कभी पैसे से खाली नहीं रहेगा।’’


    विद्यार्थी जीवन से ही अध्ययन और पठन-पाठन का जो क्रम पूज्य हरनिन्दन जी महाराज के साथ चला, वह आज भी अनवरत रूप से जारी है। आध्यात्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त आपने विभिन्न विषयों की अनेकानेक पुस्तकें पढ़ीं और उनसे ज्ञान का संचय किया। इसी अध्ययन से आपको प्राकृतिक चिकित्सा का विस्तृत ज्ञान प्राप्त हुआ और इस चिकित्सा पद्धत्ति पर आपका विशवास दृढ़ हुआ। सन् 1972 ई0 मे अस्वस्थ होने पर आपने प्राकृतिक चिकित्सा करवायी थी। गुरू महाराज के भोजन बनाने के लिए आपने गुरूप्रसाद दासजी को प्रषिक्षित किया और एक दिन परमाराध्य गुरूदेव से प्रार्थना की, ’’हुजूर! मेरी इच्छा हो रही है कि मैं एक बार अपनी प्राकृतिक चिकित्सा करवाऊँ। गुरू प्रसादजी आपके लिए भोजन बनाना सीख गये हैं। जबतक मैं उपचार में रहूँगा, ये आपका भोजन बनाते रहेंगे।’’ गुरू महाराज ने सहर्श आपको आज्ञा प्रदान करने की कृपा की। आप उपचार के लिए रानीपतरा गये, किन्तु गरू महाराज के सान्निध्य का लाभ छोड़ कर रहने में आपका चित्त विचलित रहने लगा। अतः इलाज बीच मेें ही छोड़कर आप वापस कुप्पाघाट आश्रम आ गये और फिर इलाज भी वहीं करवाया। आपके स्वास्थ्य-लाभ के बाद गुरू महराज गुरूप्रसादजी को वहीं भेजना चाहते थे, जहाँ से वह आये थे, किन्तु आपकी विनती पर गुरू महाराज ने उनको भी हमेशा के लिए अपने पास ही रख लिया।
    इस तरह महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज गुरू महाराज की सेवा में सदा तत्पर रहा करते थे। पूज्य श्री शाही स्वामीजी महाराज के बाद स्वामी श्रीचतुरानन्द बाबा महर्षि मेंहीं आश्रम, कुप्पाघाट के व्यवस्थापन का कार्य करते थे। तत्पश्चात् यह दायित्व आपके ऊपर आ गया। अ0 भा0 सन्तमत-सत्संग-महासभा के निर्णयानुसार सन् 1987 ई0 से आपने भजन-भेद देना प्रारम्भ किया। अभी तक आपने कई हजारों लाखों की संख्या में सत्संगी श्रद्धालुओं को दीक्षित किया है।
     परम पूज्य आचार्य श्री हरिनन्दन परमहंस जी महाराज बहुत ही ध्यानी संत हैं। इनका जीवन सादगी और सात्त्विकता का प्रतीक है। जय गुरु।
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गुरुवार, 28 जून 2018

दान | Daan | Donation | व्यक्ति के व्यक्तित्व को ऊंचा उठाने के लिए महत्त्वपूर्ण है ‘दान’ | Santmat-Satsang

|| दान ||

व्यक्ति के व्यक्तित्व को ऊंचा उठाने के लिए महत्त्वपूर्ण है ‘दान’। किसी संस्था, मंदिर या किसी गरीब को सहयोग कर देना ही दान नहीं है। प्रेम, सहयोग और करुणा का दान भी आपके जीवन का अंग होना चाहिए।
परमात्मा की प्रकृति में बादलों का स्वभाव ही देना है। उनकी महत्ता इसी बात में है कि वे बरसें। संसार के लिए जो वस्तु उपयोगी है, वही महत्त्वपूर्ण है।

हमारा उपयोग जब समाज और मानवता के हित में हो, तभी हम और आप उपयोगी और पूजनीय कहलाएंगे। स्वयं से यह प्रश्न अवश्य करें कि परिवार को आपने क्या दिया? समाज को आपने क्या दिया? राष्ट्र को आपने क्या दिया? धरती को आपने क्या दिया? संसार को क्या देकर जाएंगे? पेड़-पौधे सब अपने बीज धरती पर छोड़कर जाते हैं। यह परंपरा चलती रहनी चाहिए। हरियाली की परंपरा, फलों की परंपरा, फूलों की परंपरा, जाते समय संसार को कुछ-न-कुछ देकर जाने की परंपरा संसार से मिटनी नहीं चाहिए। जो व्यक्ति बांटना सीख गया, देना सीख गया, उसे जीना आ गया।

आप दाता बनें इसके लिए यह जरूरी नहीं कि कोई दूसरे भिखारी बनें। दान सहयोग है, प्रेम है जो एक भाई दूसरे भाई को देना चाहता है। एक दूसरे के प्रति सहयोग ही दान है। किसी को खून की आवश्यकता पड़ गयी तो आपने खून दे दिया, अहसान जताने की कोई बात नहीं। इंसान दूसरे इंसान के काम आया, यह दान है। समाज मे सहयोग की भावना पैदा करना और सहयोग की भावना जगाना भी दान है। कमजोर को बलवान बनाने की चेष्टा करना दान है। फिर जब वह बलवान हो जाए तब उसको तैयार करना कि वह भी किसी कमजोर का सहयोग कर उसे स्वावलंबी बनाए। इसे दान भावना कहा गया है।

तीन लोक नौ खंड में गुरु से बड़ा न कोय।
करता करे न करिय सके, गुरु करे सो होय।।

जय गुरु महाराज ! 
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

रविवार, 24 जून 2018

एक मुंह और दो कान का अर्थ ... | Ek munh aur do kaan ka artha | हम अगर एक बात बोलें तो कम से कम दो बात सुनें भी | Santmat-Satsang

"एक मुँह और दो कान का अर्थ है कि हम अगर एक बात बोलें तो कम से कम दो बात सुनें भी।"

दूसरे को दबाना अहंकार कहलाता है!
एक जीव दूसरे जीव का शत्रु नहीं होता, बल्कि मित्र होता है। हमारे द्वारा किये गये पाप कर्म ही वास्तव में हमारे शत्रु हैं। ज्ञानी वही है जो दूसरों के दोष न देखकर गुणों को देखता है।
अहंकारी व्यक्ति सामने वाले को नीचा दिखाने का प्रयत्न करता है। नीचा दिखाने वाला नीच और ऊंचा उठाने वाला उच्च व्यक्ति होता है। पद प्रतिष्ठा, धन दौलत आदि पाकर सामने वाले को दबाना और नीचा दिखाना अहंकार कहलाता है।

मद आठ प्रकार के होते हैं, मद मूढ़ता और अनायतन हमारी श्रद्धा को खंडित करती है। श्रद्धा के बिना कार्य की सिद्धी नहीं होती। परमात्मा की प्राप्ति के लिए श्रद्धा सीढ़ी का कार्य करती है। श्रद्धा को मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी कहा गया है।
सत्संग भाग्य से मिलता है। ध्यान-भजन करना पड़ता है। भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाला व्यक्ति, चमक दमक में रहने वाला, पद - प्रतिष्ठा चाहने वाला, अहंकार से युक्त व्यक्ति कभी भी पूर्ण ईश्वर भक्त नहीं हो सकता। ऐसे व्यक्ति सिर्फ़ अपनी स्वार्थ सिद्धि एवं वर्चस्व के लिए धर्म में प्रवेश करता है। ऐसे व्यक्ति बाहर से धार्मिक कहलाते हैं अन्दर से होते नहीं। समय का इंतजार न करें बल्कि समय का सदुपयोग कर अन्तः स्थल से धार्मिक बनें। अगर हमारा लक्ष्य सत्संग है, प्रभु प्राप्ति है तो हमें समय रहते ही सचेत होकर असल मन से पवित्रात्मा होकर उस ओर लगना चाहिए, न कि किसी वाद -विवाद में पड़ कर समय नष्ट करना चाहिए। सोच ऊंची और बड़ी होनी चाहिए। तभी हम असल में धार्मिक हो सकते हैं।
दूसरों की निंदा न करें, निंदा करने वाला अपने ऊपर कीचड़ उछालकर अपनी आत्मा को काला करता है। दूसरों की प्रशंसा करोगे तो लोग आपकी प्रशंसा करेंगे। यदि आप किसी को सहारा नहीं दे सकते तो धक्का देकर मत गिराओ।

याद रखें...
"देने के लिए दान, लेने के लिए ज्ञान, और त्यागने के लिए अभिमान सर्वश्रेष्ठ है।"
-"महान बनने की चाहत तो हर एक में हैं... पर पहले इंसान बनना अक्सर लोग भूल जाते हैं..."
"यदि किसी भूल के कारण कल का दिन दु:ख में बीता है तो उसे याद कर आज का दिन व्यर्थ में न बर्बाद करो।" - स्वामी विवेकानंद
-"जिस समय हम किसी का अपमान कर रहे होते हैं, दरअसल, उस समय हम अपना सम्मान खो रहे होते है..."
-"किसी शांत और विनम्र व्यक्ति से अपनी तुलना करके देखिए, आपको लगेगा कि, आपका घमंड निश्चय ही त्यागने जैसा है। "

प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

शनिवार, 23 जून 2018

संतों का दर्शन और सत्संग का फल बहुत बड़ा होता है। Sant Darshan | Satsang ka fal bahut bara hota hai | एक होता है कर्म, दूसरी होती है भक्ति, तीसरा होता है ज्ञान | Santmat-Satsang

संतो का दर्शन और सत्संग का फल बहुत बड़ा होता है। 
अपने जीवन में आप तीर्थ करते है तो बहुत अच्छी बात है। आप दान-पुण्य करते है तो बहुत अच्छी बात है।  यज्ञ-याग करते है तो बहुत अच्छी बात है। लेकिन इनका पुण्य फल आपको सुख देकर फल नष्ट हो जायेगा। पाप पुण्य का फल दुःख देकर पाप नष्ट हो जाता है। पुण्य सुख देकर नष्ट हो जाता है। लेकिन सत्संग का वो फल नष्ट नहीं होता।

तीर्थ नाये एक फल संत मिले फल चार। (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष)
सतगुरु मिले अनंत फल कहत कबीर विचार।।

जो सतगुरु का सत्संग पहुंचाते है, अखबार वाले, मुख्य संपादक है, पत्रकार जो भी उसमें सक्रिय होते हैं मुझे तो उनपे मधुर संतोष, प्रसन्नता होती है।
एक होता है कर्म, दूसरी होती है भक्ति, तीसरा होता है ज्ञान। लेकिन ये तब तक कर्म-कर्म रहता है, भक्ति-भक्ति रहती है, ज्ञान-ज्ञान रहता है। जब तक उसमें ईश्वर का रस, ईश्वर का महत्त्व और ईश्वर को पाये महापुरुष का सहयोग नहीं मिलता तब हम कर्म में फँसे रहते हैं। जब सत्संग मिल जाता है तो हमारा कर्म, कर्मयोग हो जाता है। ये सब कर्म – कर्मयोग होता है।भक्ति-भक्तियोग हो जाती है और ज्ञान- ज्ञानयोग हो जाता है। योग माना जिससे हम बिछड़े है, उससे मिलाने वाला सत्संग मिल गया। बिछड़े है जो प्यारे से दलबदल भटकते-फिरते है। अपने आनंदस्वरूप प्रभु से बिछड़कर दुखी हैं। लेकिन सत्संग अपने आप में सुखी कर देता है, अपने-आप में तृप्त कर देता है। _*सतृप्त भवति, संसतुष्ट भवति, स अमृतो भवति स तारन्ति लोकांतारिति।*_ वो तरता है दूसरों को तारता है। जय गुरु।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

सोमवार, 18 जून 2018

मांस का मूल्य | Maans ka mulya | Shakahaar |

"मांस का मूल्य"
मगध सम्राट् बिंन्दुसार ने एक बार अपनी राज्य-सभा में पूछा: "देश की खाद्य समस्या को सुलझाने के लिए सबसे सस्ती वस्तु क्या है?"

मंत्री परिषद् तथा अन्य सदस्य सोच में पड़ गये।

चावल, गेहूं, ज्वार, बाजरा आदि... तो बहुत श्रम बाद मिलते हैं और वह भी तब, जब प्रकृति का प्रकोप न हो। ऐसी हालत में अन्न तो सस्ता हो नहीं सकता।

शिकार का शौक पालने वाले एक अधिकारी ने सोचा कि मांस ही ऐसी चीज है, जिसे बिना कुछ खर्च किये प्राप्त किया जा सकता है।

उसने मुस्कुराते हुऐ कहा: राजन्.. सबसे सस्ता खाद्य पदार्थ मांस है। इसे पाने में पैसा नहीं लगता और पौष्टिक वस्तु खाने को मिल जाती है।

सभी ने इस बात का समर्थन किया, लेकिन मगध का प्रधान मंत्री आचार्य चाणक्य चुप रहे।

सम्राट ने उससे पूछा: आप चुप क्यों हो? आपका इस बारे में क्या मत है?

चाणक्य ने कहा: यह कथन कि मांस सबसे सस्ता है, एकदम गलत है। मैं अपने विचार आपके समक्ष कल रखूँगा।

रात होने पर आचार्य चाणक्य सीधे उस सामन्त के महल पर पहुंचे, जिसने सबसे पहले अपना प्रस्ताव रखा था।

आचार्य चाणक्य ने द्वार खटखटाया..

सामन्त ने द्वार खोला, इतनी रात गये चाणक्य को देखकर वह घबरा गया। उनका स्वागत करते हुए उसने आने का कारण पूछा?

चाणक्य ने कहा: संध्या को महाराज एकाएक बीमार हो गए हैं। उनकी हालत नाजुक है। राजवैद्य ने उपाय बताया है कि किसी बड़े आदमी के हृदय का दो तोला मांस मिल जाय तो राजा के प्राण बच सकते हैं।

आप महाराज के विश्वास पात्र सामन्त है। इसलिए मैं आपके पास आपके हृदय का दो तोला मांस लेने आया हूँ।

इसके लिए आप जो भी मूल्य लेना चाहें, ले सकते हैं। कहें तो लाख स्वर्ण मुद्राऐं दे सकता हूँ।

यह सुनते ही सामान्त के चेहरे का रंग फीका पड़ गया। वह सोचने लगा कि जब जीवन ही नहीं रहेगा, तब लाख स्वर्ण मुद्राऐं किस काम की ?

उसने चाणक्य के पैर पकड़ कर माफी चाही और अपनी तिजोरी से एक लाख स्वर्ण मुद्राऐं देकर कहा, कि इस धन से वह किसी और सामन्त के हृदय का मांस खरीद लें।

मुद्राऐं लेकर आचार्य चाणक्य बारी-बारी सभी सामन्तों, सेनाधिकारियों के द्वार पर पहुँचे और सभी से राजा के लिऐ हृदय का दो तोला मांस मांगा, लेकिन कोई भी राजी न हुआ।

सभी ने अपने बचाव के लिये चाणक्य को दस हजार, एक लाख, दो लाख और किसी ने पांच लाख तक स्वर्ण मुद्राऐं दे दीं।

इस प्रकार करीब दो करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का संग्रह कर आचार्य चाणक्य सवेरा होने से पहले अपने महल पहुँच गए।

राज्यसभा में आचार्य चाणक्य ने राजा के समक्ष दो करोड़ स्वर्ण मुद्राऐं रख दीं।

सम्राट ने पूछा: यह सब क्या है? यह मुद्राऐं किसलिऐ हैं?

आचार्य चाणक्य ने सारा हाल सुनाया और बोले: दो तोला मांस खरीदने के लिए इतनी धनराशि इक्कट्ठी हो गई फिर भी दो तोला मांस नहीं मिला।

अपनी जान बचाने के लिऐ सामन्तों ने ये मुद्राऐं दी हैं। राजन अब आप स्वयं सोच सकते हैं कि मांस कितना सस्ता है?

जीवन अमूल्य है। हम यह न भूलें कि जिस तरह हमें अपनी जान प्यारी होती है, उसी तरह सभी जीवों को प्यारी होती है।

हर किसी को स्वेछा से जीने का अधिकार है। प्राणी मात्र की रक्षा हमारा धर्म है।

शुद्ध आहार शाकाहार...
मानव आहार शाकाहार...

शाकाहार अपनाअो 

ईश्वर का रूप है पिता | Eshwar ka roop hai pita | International Father's Day | वैसे तो हमारी भारतीय संस्कृति में माता-पिता का स्थान पहले ही सर्वोच्च रहा है |

ईश्वर का रूप हैं 'पिता' -
International father's day,

वैसे तो हमारी भारतीय संस्कृति में माता-पिता का स्थान पहले ही सर्वोच्च रहा है, किन्तु आजकल वैश्वीकरण के प्रभाव में हम विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय दिवसों को भी ख़ुशी-ख़ुशी सेलिब्रेट करते हैं. वैसे भी हमारी संस्कृति हर तरह के सद्विचारों और मूल्यों का स्वागत करती रही है और इस लिहाज से प्रत्येक वर्ष जून के तीसरे रविवार को 'इंटरनेशनल फादर्स डे' (International father's day) का दिन प्रत्येक व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण है। आखिर, हर कोई किसी न किसी की 'संतान' तो होता ही है और इसलिए उसका फ़र्ज़ बनता है कि वह अपने पिता के प्रति अपने जीवित रहने तक सम्मान का भाव रखे, ताकि अगली पीढ़ियों में उत्तम संस्कार का प्रवाह संभव हो सके। अक्सर गलतियों पर टोकने, बाल बढ़ाने, दोस्तों के साथ घूमने और टी.वी. देखने के लिए डांटने वाले पिता की छवि शुरु में हम सबके बालमन में हिटलर की तरह रहती है. लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, हम समझते जाते हैं कि हमारे पिता के हमारे प्रति कठोर व्यवहार के पीछे उनका प्रेम ही रहता है. बचपन से एक पिता खुद को सख्त बनाकर हमें कठिनाइयों से लड़ना सिखाता है तो अपने बच्चों को ख़ुशी देने के लिए वो अपनी खुशियों की परवाह तक नहीं करता। एक पिता जो कभी मां का प्‍यार देते हैं तो कभी शिक्षक बनकर गलतियां बताते हैं तो कभी दोस्‍त बनकर कहते हैं कि 'मैं तुम्‍हारे साथ हूं'। इसलिए मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि पिता वो कवच हैं जिनकी सुरक्षा में रहते हुए हम अपने जीवन को एक दिशा देने की सार्थक कोशिश करते हैं। कई बार तो हमें एहसास भी नहीं होता कि हमारी सुविधाओं के लिए हमारे पिता ने कहाँ से और कैसे व्यवस्था की होती है। यह तब समझ आता है, जब कोई बालक पहले किशोर और फिर पिता बनता है।


जाहिर है, अपने बच्चे के लिए तमाम कठिनाईयों के बाद भी पिता के चेहरे पर कभी शिकन नहीं आती। शायद इसीलिए कहते हैं कि पिता ईश्वर का रूप होते हैं, क्योंकि खुद सृष्टि के रचयिता के अलावा दुसरे किसी के भीतर ऐसे गुण भला कहाँ हो सकते हैं। हमें जीवन जीने की कला सिखाने और  अपना सम्पूर्ण जीवन हमारे सुख के लिए न्योछावर कर देने वाले पिता के लिए वैसे तो बच्चों को हर समय तत्पर रहना चाहिए, लेकिन अगर इतना संभव न हो तो, कम से कम साल में एक खास दिन (International father's day) तो हो ही! उनके त्याग और परिश्रम को चुकाया नहीं जा सकता, लेकिन कम से कम हम इतना तो कर ही सकते हैं कि उनके प्रति 'कृतज्ञ' बने रहे। हालाँकि 'फादर्स डे' मनाना हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं रहा है और मूल रूप से यह यूएस में जून महीने के तीसरे रविवार को मनाया जाता है, लेकिन आधुनिक ज़माने की संस्कृति ने हमें 'फादर्स डे' के रूप में अगर यह अवसर दिया है, तो हमें अच्छी चीजों और परम्परों का धन्यवाद कहना ही चाहिए! इससे हम अपनी भावनाएं जो चाहकर भी नहीं कह पाते, वह इस अवसर पर कह सकते हैं. उन्हें वो अपनापन महसूस करा सकते हैं जिससे वो अपने आपको बुढ़ापे में सुरक्षित महसूस कर सकें। उनको ये एहसास करा सकते हैं कि 'आज मैं जो भी हूं' वो आपके बिना संभव नहीं था। जाहिर है, हर मनुष्य के भीतर फीलिंग होती है और अगर किसी को उसकी संतान शुभकामनाएं दे तो उसे अच्छा ही लगेगा।
आप जितने भी सफल व्यक्तियों को देखेंगे, तो उनके जीवन की सफलता में उनके पिता का रोल आपको नज़र आएगा. उन्होंने अपने पिता से प्रेरणा ली होती है और उनको आदर्श माना होता है। इसके पीछे सिर्फ यही कारण होता है कि कोई व्यक्ति लाख बुरा हो, लाख गन्दा हो, लेकिन अपनी संतान को वह 'अच्छी बातें और संस्कार' ही देने का प्रयत्न करता है। ऐसे कई उदाहरण हैं कि कोई व्यक्ति नालायक होता है, शराबी होता है, जुआरी होता है लेकिन ज्योंही वह पिता बनता है, अपनी गन्दी आदतें इसलिए छोड़ देता है ताकि उसके बच्चों पर बुरा असर न पड़े। हालाँकि, यह संसार बहुत बड़ा है और इसमें लोग भी भिन्न प्रकार के हैं। पर यह कहा जा सकता है कि अपने बच्चे के लिए हर पिता बेहतर कोशिश करता है, अपनी क्षमता से कहीं ज्यादा! इसलिए वह तारीफ़ के काबिल तो होता ही है। अपने पिता से अफ़सोस और शिकायतें तो सिर्फ वो लोग करते हैं जिन्होंने जिंदगी में अपने आप को साबित नहीं किया वरना हर पिता का जीवन सीखने योग्य होता है. पिता ही दुनिया का एक मात्र शख्‍स है, जो चाहते है कि उसका बच्‍चा उससे भी ज्‍यादा तरक्‍की करे, उससे भी ज्‍यादा नाम कमाये। इसके लिए वह कई बार सख्त रूख भी अख्तियार करते हैं, क्योंकि जीवन में आगे बढ़ने के लिए 'अनुशासन' का सहारा लेना ही पड़ता है।
हालाँकि, बदलते ज़माने के साथ पिता का स्वरुप भी बदला है और हमेशा गम्भीर और कठोर दिखने वाले पिता की जगह अब अपने बच्चों के संग खेलने और मस्ती करने वाले पिता ने ले लिया है. समय के साथ बदलाव तो स्वाभाविक हैं, लेकिन पिता के कर्त्तव्य में कोई बदलाव नहीं आएगा और यही हमारी संस्कृति रही है। बदलते ज़माने और रोजगार की जरूरतों की वजह से आज हम में से कई अपने माता-पिता से दूर हो गए हैं, ऐसे में हम उन बुजुर्ग कदमों को चाह कर भी सहारा नहीं दे पा रहे हैं, उनका अकेलापन नहीं दूर कर पा रहे हैं, तो मन में बस एक टीस भर जाती है अपनों के लिए, जो बेहद बेचैन करती है। ऐसे में हमें विभिन्न अवसरों, त्यौहारों पर उन्हें समय अवश्य ही देना चाहिए, बेशक वह अवसर फादर्स डे ही क्यों न हो! हालाँकि, आज संयुक्त परिवारों के बिखण्डन से बुजुर्ग माँ-बाप की समस्याएं कहीं ज्यादा विकराल हो गयी हैं। 'बागवान' जैसी फिल्में हम देख ही चुके हैं और यह समाज की सच्चाई सी बन गयी है, जहाँ बच्चे बस अपने माँ-बाप की संपत्ति से मतलब रखते हैं, लेकिन उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियों को अनदेखा कर देते हैं। जाहिर है, संस्कार कहीं न कहीं बिगड़े हैं और इसे सुधारने का प्रयत्न करना ही 'फादर्स डे' की सार्थकता कही जाएगी, अन्यथा फिर यह अन्य 'पश्चिमी औपचारिकताओं' की तरह 'औपचारिकता' बन कर रह जायेगा।
पिता के चरणों में बारम्बार नमन्।
।। जय गुरु ।।

मंगलवार, 12 जून 2018

गुरु नानक के बालपन की एक घटना | Guru Nanak ke baalpan ki ghatna | Guru Nanak | Baba-Nanak | Santmat-Satsang

गुरु नानक के बालपन की एक घटना।

बालक नानक छोटे ही थे। छोटे छोटे पैरों से चलते हुए किसी अन्य मोहल्ले में पहुँच गये एक घर के बरामदे में बैठी एक औरत विलाप कर रही थी। विलाप बहुत बुरी तरह से हो रहा था। नानक के बाल मन पर गहरा असर हुआ ।नानक बरामदे में भीतर चले गये ।तो देखा कि महिला की गोद में एक नवजात शिशु था ।
बालक नानक ने महिला से बुरी तरह विलाप करने का कारण पुछा ।
महिला ने उत्तर दिया , " पुत्र हुआ है, मेरा अपना लाल है ये,
इसके और अपने दोनों के नसीबों को रो रही हूँ । कहीं और जन्म ले लेता , कुछ दिन जिन्दगी जी लेता । पर अब ये मर जायेगा । इसी लिए रो रही हूँ कि ये बिना दुनिया देखे ही मर जायेगा ।"  नानक ने पुछा , " आपको किसने कहा कि ये मर जायेगा " ? महिला ने जवाब दिया , " इस से पहले जितने हुए , कोई नही बचा ।"
नानक आलती पालती मार कर जमीन पर बैठ गये और बोले, "ला इसे मेरी गोद में दे दो।"
महिला ने नवजात को नानक की गोद में दे दिया।
नानक बोले, "इसने तो मर जाना है न" ?
महिला ने हाँ में जवाब दिया तो नानक बोले , "आप इस बालक को मेरे हवाले कर  दो, इसे मुझे दे दो"।
महिला ने हामी भर दी।
नानक ने पुछा "आपने इसका नाम क्या रखा है ? "
महिला से जवाब मिला "नाम क्या रखना था, इसने तो मर जाना है इस लिए इसे मरजाना कह कर ही बुलाती हूँ । "
"पर अब तो ये मेरा  हो गया है न" ? नानक ने कहा।
महिला ने हाँ में सिर हिला कर जवाब दिया ।
"आपने इसका नाम रखा मरजाना, अब ये मेरा हो गया है, इसलिये मै इसका नाम रखता हूँ मरदाना (हिंदी में मरता न)।"
नानक आगे बोले, "अब ये है मेरा, मै इसे आपके हवाले करता हूँ । जब मुझे इसकी जरूरत होगी, मै इसे ले जाऊँगा"।
नानक ने बालक को महिला को वापिस दिया और बाहर निकल गये । बालक की मृत्यु नही हुई ।
छोटा सा शहर था, शहर के सभी मोहल्लों में बात आग की तरह फ़ैल गयी।
यही बालक गुरु नानक का परम मित्र तथा शिष्य था । सारी उम्र उसने बाबा नानक की सेवा में ही गुजारी । गुरु नानक के साथ मरदाना का नाम आज तक जुड़ा है तथा जुड़ा रहेगा।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

जाति, धर्म, रूप, कुल, धन, बल के बल पर नहीं फलती भक्ति | महर्षि मेँहीँ | Jaati-Dharma-Rup, Kull, Dhan, Bal, ke bal par bhakti nahi falti | Maharshi Mehi | Santmat-Satsang

“जाति, धर्म, रूप, कुल, धन, बल के बल पर नहीं फलती भक्ति”

“पूर्वकाल में एक भक्तिन हुई थीं, जो एक भील की लड़की और मतंग ऋषि की शिष्या थीं | उसका नाम शबरी था | उसका विवाह शबर जाती के एक जंगलवासी लड़के से हुआ था |

शबरी पूर्व जन्म में राजरानी थी | वह सत्संग करना चाहती थी, पर उसे परदे के अन्दर रहना पड़ता था | वह चाहती थी कि परदे के अन्दर न रहूँ | इसलिए उसका अगला जन्म एक भील के घर में हुआ | शबरी के साथ विवाह कर उसका पति उसे अपने घर ले जा रहा था | शबरी कुरूपा थी | उसका पति रास्ते में सोचने लगा कि इसको घर ले  जाकर क्या करूँगा, इसको तो देखकर लड़के-बच्चे डरेंगे | उसका पति छोड़ना चाहता था और इधर शबरी भी साथ नहीं जाना चाहती थी | जंगल का रास्ता था | मौका पाकर उसका पति उसको छोड़कर भाग गया |

तब शबरी उसी जंगल में मतंग ऋषि के आश्रम के आस-पास रहने लगी  और मौका खोजने लगी कि कोई सेवा करूँ | उसने देखा कि एक साधु बहुत सवेरे उठकर रास्ते पर झाड़ू लगाते हैं | शबरी को वही काम पसंद आ गया | वह उस साधु से पहले ही उठकर झाड़ू लगाने लगी |

एक दिन उस साधु ने शबरी को झाड़ू लगाते ही पकड़ा और मतंग ऋषि के पास ले आया | मतंग ऋषि ने कहा कि इसको छोड़ दो, यह बड़ी भक्तिन है | मतंग ऋषि से ज्ञान लेकर उसने भक्ति की और उसी आश्रम में उसकी भक्ति पूर्ण हुई | शबरी सब प्रकार की भक्ति में योग्य हो गई |

जब मतंग ऋषि संसार से विदा हो गए, तब छोटी जाति की होने के कारण साधुओं ने उसको वहाँ के तालाब से पानी लेने से मना कर दिया | फल यह हुआ कि उस तालाब का पानी सड़ गया | तब साधुओं को भी दूर से पानी लाना पड़ने लगा |

अंत में श्रीराम उस आश्रम में आये और वहाँ के साधुओं से पूछा कि आपलोगों को कोई कष्ट भी है ? उनलोगों ने कहा – “देखिये न, जिस तालाब से हमलोग पानी लाते थे, उसका पानी सड़ गया है | हमलोगों को दूर से पानी लाना पड़ता है | हमें यही एक कष्ट है | आप उस तालाब में अपने चरण रख दें, तो पानी शुद्ध हो जाएगा |”

साधुओं के कहने पर भगवान् राम उस तालाब में गए; परन्तु पानी शुद्ध नहीं हुआ | तब भगवान् के कहने पर शबरी उस तालाब में गयी | उसके जाने से पानी फिर शुद्ध हो गया |

किसी को इस बात का घमंड नहीं करना चाहिए कि मैं चतुर हूँ, धनी हूँ, कुलीन हूँ, आदि | घमण्ड में भक्ति नहीं होती है | घमण्ड त्यागनेवाले से ही भक्ति होती है |

“जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई |
धन बल परिजन गुन चतुराई ||
भगति हीन नर सोहइ कैसा |
बिनु जल बारिद देखिय जैसा ||”
– गोस्वामी तुलसीदास जी

-- संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस के एक प्रवचन के अंश।
।। जय गुरु ।।

सोमवार, 11 जून 2018

आप स्वाभिमानी हैं या अभिमानी अपने आप को परखिये | Aap swabhimani hai ya abhimani | Apne ko parakhiye |

आप स्वाभिमानी हैं या अभिमानी अपने आप को परखिये;

एक जगह बाढ़ आई थी समाज सेवी संस्थायें बाढ़ पीड़ितों को सहायता का वितरण कर रहीं थी कुछ स्वयं सेवक एक वृद्धा की झोपड़ी में पहुँच कर उसे सहायता देने  का प्रस्ताव रखा उसने बड़े प्रेम से मना  कर दिया बोली बेटा मैं पिछले बीस वर्षों से अपनी मेह्नत की कमाई खा रही हूँ ,मुझे आपकी सहायता नहीं चाहिए। स्वयं सेवक आवाक थे एवं उस वृद्धा के स्वाभिमान के आगे नतमस्तक। 

स्वाभिमान व्यक्ति को स्वावलम्बी बनता है जबकि अभिमानी हमेशा दूसरों पर आश्रित रहना चाहता है। स्वाभिमान एवं अभिमान के बीच बहुत पतला भेद है। इन दोनों का मिश्रण व्यक्तित्व को बहुत जटिल बना देता है। दूसरों को कमतर आँकना एवं स्वयं को बड़ा समझना अभिमान है।एवं अपने मूलभूत आदर्शों पर बगैर किसी को चोट पहुंचाए बिना अटल रहना स्वाभिमान है। अभिमानी व्यक्ति अपने आपको स्वाभिमानी कहता है किन्तु उसके आचरण, व्यवहार एवं शब्दों से दूसरे लोग आहत होते हैं। अभिमानी अन्याय करता है और स्वाभिमानी उसका विरोध। स्वाभिमानी दूसरों का अधिपत्य खत्म करता है जबकि अभिमानी अपना अधिपत्य स्थापित करता है। रावण अभिमानी था क्योंकि वह सब पर अधिकार जमाना चाहता था, कंस अभिमानी था क्योंकि वह आतंक के बल पर राज करना चाहता था। राम ने रावण के अधिपत्य को समाप्त किया तथा कृष्ण ने कंस के आतंक को, इसलिए राम और कृष्ण दोनों स्वाभिमानी थे। 

अपने कार्यों का प्रतिफल सभी अन्य लोगों की सहायता मानता है उसका स्वाभिमान अभिमान में परिवर्तित नहीं होता है तथा उसके अंदर स्वाभिमान और अभिमान को परखने की प्रवृति जाग्रत होती है। 

मेरा एक मित्र कभी किसी की सहायता स्वीकार नहीं करता चाहे कितनी भी कठिन परस्थितियां क्यों न हों वह हमेशा अकेला ही उनका सामना करता है। लोग कहते हैं की वह अभिमानी है लेकिन वह कहता है की वह स्वाभिमानी है। भौतिक सम्पदा, धन, बल, सम्पत्ति, भूमि आदि अभिमान को जाग्रत करती हैं। 


महात्मा विदुर ने किसी प्रसंग में कहा है "बुढ़ापा रूप को, आशा धैर्य को, मृत्यु प्राण को, क्रोध श्री को, काम लज्जा को एवं अभिमान सर्वस्य को हरण कर लेता है। 

संतान की उपलब्धियां, ज्ञान, विद्या आदि अभिमान का कारण है किन्तु इनकी प्राप्ति के बाद विनम्रता एवं शीलता आती है तो वह स्वाभिमान का प्रेरक मानी जाती है। जितने भी महान वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं राजनेता हुए हैं उनमे अभिमान लेशमात्र भी नहीं था इसलिए वो महान कहलाये। अभिमान अपनी सीमाओं को लाँघ कर दूसरे की सीमाओं में प्रवेश करता है जबकि स्वाभिमानी अपनी और दूसरों की सीमाओं के प्रति सतर्क एवं जागरूक होता है। 

लघुत्व से महत्व की और बढ़ना स्वाभिमान होने की निशानी है जबकि महत्व मिलने पर दूसरों को लघु समझना  अभिमानी होने का प्रमाण है। अभिमान में व्यक्ति अपना प्रदर्शन कर दूसरों को नीचे दिखने की कोशिश करता है इसलिए लोग उससे दूर रहना चाहते हैं सिर्फ चाटुकार लोग ही अपने स्वार्थ के कारण उसकी वह वाही करते हैं इसके विपरीत स्वाभिमानी व्यक्ति दूसरों के अच्छे  विचारों को बीना अभिलाषा महत्व देता है, प्रशंसा करता है।

अच्छा श्रोता होना स्वाभिमान का लक्षण है क्योंकि वह सोचता की मुझे लोगों से बहुत कुछ ग्रहण करना है। प्रत्येक उपलब्धि के नीचे अहंकार का सर्प होता है उसके प्रति सदैव सावधान रहकर ही आप उसके दंश से बच सकते हैं। स्वाभिमान हमेशा स्वतंत्र का पक्षधर रहता है इसलिए स्वाभिमानी स्वतंत्रता के लिए लड़ते हैं जबकि अभिमानी अपने को स्वतंत्र रख कर दूसरों की गुलामी का पक्षधर है। 

कहीं आप अभिमानी तो नहीं खुद को जाँचिए;

. ➧स्वाभिमानी हमेशा आश्वस्त होते हैं जबकि अभिमानी को कभी खुद पर विश्वास नहीं होता है। 

. ➧स्वाभिमानी हमेशा विनम्र भाषा का प्रयोग करतें हैं जबकि अभिमानी हमेशा हेंकड़ी की भाषा अपनाते हैं। 

. ➧स्वाभिमानी सोचते हैं की सभी से सामान व्यवहार हो  जबकि अभिमानी हमेशा अपने से दूसरों को निम्नतर मानते हैं। 

. ➧स्वाभिमानी स्थिर चित्त होते हैं जबकि अभिमानी हमेशा विचलित नजर आते हैं। 

. ➧स्वाभिमान कड़े परिश्रम से सफलता प्राप्त करना चाहते हैं जबकि अभिमानी अवसर वादी होते हैं। 

. ➧स्वाभिमानी सफलता का श्रेय अपने साथियों को देते हैं जबकि अभिमानी पूरा श्रेय स्वयं लेना चाहते हैं। 

. ➧स्वाभिमानी अपने स्वभाव से पूर्ण परिचित रहते हैं जबकि अभिमानी को अपने स्वभाव पर नियंत्रण नहीं रहता। 

. ➧स्वाभिमानी अपनी आलोचना को हितकर मानते हैं जबकि अभिमानी अपनी आलोचना सहन नहीं करते हैं। 

.➧ स्वाभिमानी दूसरों को प्रभावित करने की कोशिश नहीं करते जबकि अभिमानी लगातार दूसरों को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। 

.➧ स्वाभिमानी किसी के भी साथ काम करने को तैयार रहते हैं जबकि अभिमानी सिर्फ वही काम करते हैं जहाँ उनको प्रमुखता मिलती हो। 

➧. स्वाभिमानी अपनी योग्यता के प्रति हमेशा सचेत रहता है जबकि अभिमानी अपनी योग्यता को लेकर अतिआत्मविश्वासी। 

 ➧. अभिमानी व्यक्ति हींन  भावना से ग्रसित होता है इसलिए दूसरों को नीचा दिखाने से उसे अपनी महत्ता सिद्ध होती दिखती है। जबकि स्वाभिमानी हमेशा दूसरों को महत्ता देतें हैं। 

➧. अभिमानी हमेशा दूसरों को शिक्षा देते नजर आतें हैं जबकि स्वाभिमानी व्यक्ति दूसरों के गुणों की सराहना करतें हैं। 

.➧ अभिमानी अपनी असफलता के लिए हमेशा दूसरों को दोष देते हैं जबकि स्वाभिमानी असफलता का कारण  जान कर उसे दूर करने का प्रयास करते हैं। 

.➧ स्वाभिमानी हमेशा सहज होते हैं क्योंकि उनका दृष्टिकोण हमेशा सरथा एवं आशावादी होता है उन्हें अपनी कमिया एवं खूबियां मालूम रहती हैं जबकि अभिमानी हमेशा अपनी कमियों को ढांकने की कोशिश करता है एवं अपनी गलतियां कभी स्वीकार नहीं करते हैं। 

.➧ अभिमानी लोगों के रिश्ते दर्द भरे होते हैं ,उनके रिश्ते उनकी महत्ता एवं घमंड पर टिके होते हैं अभिमानी सफलता प्राप्त करने के लिए रिश्ते तोड़ सकते हैं जबकि स्वाभिमानी व्यक्ति हमेशा दूसरों की भावनाओं का ख्याल रखते हैं अतः इनके रिश्ते मजबूत एवं सुखमय होते हैं। 

.➧ अभिमानी व्यक्ति चाहता है की सिर्फ उसकी सुनी एवं मानी जाये ये दूसरों की बातों या विचारों को महत्व नहीं देते जबकि स्वाभिमानी अपने विचारों को दूसरों पर नहीं थोपते हैं। 

.➧ अभिमानी व्यक्ति हमेशा आँखे बचा कर बात करते हैं एवं उनकीआँखों में दूसरों को हमेशा नीचे दिखाने का भाव होता है। जबकि स्वाभिमानी व्यक्ति की आँखे सरल होती हैं एवं उन आँखों में दूसरों के लिए सम्मान का भाव होता है। 

अहंकार के रास्ते बड़े सूक्ष्म होते हैं कभी यह त्याग के रास्ते आता है, कभी विनम्रता के, कभी भक्ति के, तो कभी स्वाभिमान के, इसकी पहचान करने का एक ही तरीका है जहां भी “मैं” का भाव उठे वहां अहंकार जानना चाहिए। स्वाभिमान हमारे डिगते कदमों को को ऊर्जावान कर उनमें दृढ़ता प्रदान करता है। कठिन परिस्थितियों और विपन्नावस्था में भी स्वाभिमान हमें डिगने नहीं देता।अभिमान अज्ञान के अंधेरे में ढकेलता है। अभिमान मिथ्या ज्ञान, घमंड और अपने को बड़ा ताकतवर समझकर झूठा व दंभी बनाता है। व्यक्ति को अपने ‘ज्ञान’ का ‘अभिमान’ तो होता है लेकिन अपने ‘अभिमान’ का ‘ज्ञान’ नहीं होता है। अपने स्वाभिमान को जांचते रहिये कहीं ये अभिमान में तो नहीं बदल रहा है ?
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

रविवार, 10 जून 2018

उलटा नाम जपा जग जाना । बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना॥ यह उल्टा नाम कौन सा है ? | महर्षि संतसेवी | Ulta naam kaun sa hai janiye | Maharshi Santsevi | Santmat-Satsang

उलटा नाम जपा जग जाना । बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना॥

यह उल्टा नाम कौन सा है ? कितने लोग कहते हैं कि वाल्मीकि जी (रत्नाकर) इतने बड़े पापी थे कि वे 'राम-राम' नहीं कह सकते थे । इस हेतु ऋषि द्वारा राम-मन्त्र प्राप्त कर भी वे 'मरा-मरा' जपते थे । इस बात को कोई भोले भक्त भले हीं मान लें, किन्तु आज के बुद्धिजीवी वा तर्कशील सज्जन इसमें विश्वास नहीं कर सकते । वे कहेंगे, कोई कितना भी बड़े-से-बड़ा पापी क्यों न हो, वह दो अक्षर 'राम' का उच्चारण क्यों नहीं कर सकता ? वस्तुत: रहस्य क्या है, आइये, हम इस पर विचार करें।

वर्णात्मक नाम का उल्टा ध्वन्यात्मक नाम होता है और  सगुण नाम का उल्टा निर्गुण नाम होता है । वर्णात्मक नाम की उत्पत्ति पिण्ड में नीचे नाभि से होकर ऊपर होंठ पर जाकर उसकी समाप्ति होतीं है और ध्वन्यात्मक निर्गुण नाम की उत्पत्ति परमप्रभु परमात्मा से होकर  ब्रह्माण्ड तथा उससे भी नीचे पिण्ड में व्यापक है - अर्थात् वर्णात्मक नाम की गति नीचे से ऊपर की ओर और ध्वन्यात्मक निर्गुण नाम की गति ऊपर से नीचे की ओर है । इस तरह वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक नाम एक-दूसरे के उल्टे हैं । परमात्मा ने जो सृष्टि की, उसका उपादान कारण उन्होंने निर्गुण ध्वन्यात्मक ध्वनि वा निर्गुण रामनाम को हीं बनाया । इसी 'उल्टा नाम' अर्थात् ध्वन्यात्मक निर्गुण रामनाम का भजन कर रत्नाकर डाकू, वाल्मीकि ऋषि हुए थे, मात्र वर्णात्मक 'रामनाम' का उल्टा 'मरा-मरा' जप कर नहीं । आज भी जो कोई ध्वन्यात्मक निर्गुण रामनाम का भजन (ध्यान) करेंगे, तो वे शुद्ध होकर ब्रह्मवत् हो जाएंगे| -महर्षि संतसेवी परमहंस

शनिवार, 9 जून 2018

संगति का जीवन में पड़ता है गहरा प्रभाव | Sangati ka jeevan par gahra prabhav | कहते हैं कि व्यक्ति योगियों के साथ योगी और भोगियों के साथ भोगी | छत्रपति शिवाजी बहादुर बने। ऐसा इसलिए, क्योंकि... | Santmat-Satsang

संगति का जीवन में पड़ता है बड़ा गहरा प्रभाव

कहते हैं कि व्यक्ति योगियों के साथ योगी और भोगियों के साथ भोगी बन जाता है। व्यक्ति को जीवन के अंतिम क्षणों में गति भी उसकी संगति के अनुसार ही मिलती है। संगति का जीवन में बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है। संगति से मनुष्य जहां महान बनता है, वहीं बुरी संगति उसका पतन भी करती है।

छत्रपति शिवाजी बहादुर बने। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनकी मां ने उन्हें वैसा वातावरण दिया। नेपोलियन जीवन भर बिल्ली से डरते रहे, क्योंकि बचपन में बिल्ली ने उन्हें डरा दिया था। माता-पिता के साथ-साथ बच्चे पर स्कूली शिक्षा का गहरा प्रभाव पड़ता है। कई बार व्यक्ति पढ़ाई-लिखाई करके उच्च पदों पर पहुंच तो जाता है, लेकिन संस्कारों के अभाव में, सही संगति न मिलने के कारण वह हिटलर जैसा तानाशाह बन जाता है। सदाचरण के पालन से चाहे तो व्यक्ति ऐसा बहुत कुछ कर सकता है, जिससे उसका जीवन सार्थक हो सके, परंतु सदाचरण का पालन न करने से वह अंतत: खोखला हो जाता है। हो सकता है कि चोरी-बेईमानी आदि करके वह धन कमा ले, कुछ समय के लिए पद-प्रतिष्ठा अर्जित कर ले, लेकिन उसका अंत बुरा ही होता है। सत्संगति का, अच्छे विचारों का बीज बच्चे के मन में बचपन में ही बो देना चाहिए। व्यक्ति की अच्छी संगति से उसके स्वयं का परिवार तो अच्छा होता ही है, साथ ही उसका प्रभाव समाज व राष्ट्र पर भी गहरा पड़ता है।

जहां अच्छी संगति व्यक्ति को कुछ नया करते रहने की समय-समय पर प्रेरणा देती है, वहीं बुरी संगति से व्यक्ति गहरे अंधकूप में गिर जाता है। अच्छी संगति व्यक्ति का मन व चित्त निर्मल करती है। उसकी प्रसन्नता बनी रहती है। दिन-प्रतिदिन उसके व्यक्तित्व में निखार आता है। संगति कैसी है, इस बात से व्यक्ति के व्यक्तित्व का पता चलता है। जीवन का हर कदम मायने रखता है। इसलिए उसे फूंक-फूंककर आगे बढ़ना चाहिए। अक्सर ऐसा देखने में आता है कि कुछ बच्चे स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई में बहुत अच्छे होते हैं, लेकिन बुरी संगति में फंसकर नशा या मद्यपान करने लगते हैं। उनका जीवन बर्बाद हो जाता है। वे झूठी चकाचौंध में फंसकर स्वयं की वास्तविक शक्ति को नहीं पहचानते हैं। कई बार सत्संगति न मिलने के कारण उपयुक्त वातावरण न होने के चलते बच्चा अपनी प्रतिभा का विकास नहीं कर पाता, जबकि सत्संगति से उसमें अटूट विश्वास जगता है और वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

हम गुस्से में चिल्लाते क्यों हैं? | Ham gusse me chillate kyon hain | शायद यह पढ़ने के बाद हम में से कुछ लोग भी चिल्लाना अवश्य कम कर देंगे | Santmat-Satsang

हम गुस्से में चिल्लाते क्यों हैं ?

एक बार एक संत अपने शिष्यों के साथ बैठे थे।
अचानक उन्होंने सभी शिष्यों से एक सवाल पूछा।
बताओ जब दो लोग एक दूसरे पर गुस्सा करते हैं तो जोर-जोर से चिल्लाते क्यों हैं ?

शिष्यों ने कुछ देर सोचा और एक ने उत्तर दिया : हम अपनी शांति खो चुके होते हैं इसलिए चिल्लाने लगते हैं।

संत ने मुस्कुराते हुए कहा : दोनों लोग एक दूसरे के काफी करीब होते हैं तो फिर धीरे-धीरे भी तो बात कर सकते हैं।

आखिर वह चिल्लाते क्यों हैं ?

कुछ और शिष्यों ने भी जवाब दिया लेकिन संत संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने खुद उत्तर देना शुरू किया।

वह बोले : जब दो लोग एक दूसरे से नाराज होते हैं तो उनके दिलों में दूरियां बहुत बढ़ जाती हैं।

जब दूरियां बढ़ जाएं तो आवाज को पहुंचाने के लिए उसका तेज होना जरूरी है।

दूरियां जितनी ज्यादा होंगी उतनी तेज चिल्लाना पड़ेगा।

दिलों की यह दूरियां ही दो गुस्साए लोगों को चिल्लाने पर मजबूर कर देती हैं।
वह आगे बोले, जब दो लोगों में प्रेम होता है तो वह एक दूसरे से बड़े आराम से और धीरे-धीरे बात करते हैं।

प्रेम दिलों को करीब लाता है और करीब तक आवाज पहुंचाने के लिए चिल्लाने की जरूरत नहीं।

जब दो लोगों में प्रेम और भी प्रगाढ़ हो जाता है तो वह खुसफुसा कर भी एक दूसरे तक अपनी बात पहुंचा लेते हैं।

इसके बाद प्रेम की एक अवस्था यह भी आती है कि खुसफुसाने की जरूरत भी नहीं पड़ती।

एक दूसरे की आंख में देख कर ही समझ आ जाता है कि क्या कहा जा रहा है।

शिष्यों की तरफ देखते हुए संत बोले : अब जब भी कभी बहस करें तो दिलों की दूरियों को न बढ़ने दें।
शांत चित्त और धीमी आवाज में ही बात करें।

ध्यान रखें कि कहीं दूरियां इतनी न बढ़जाएं कि वापस आना ही मुमकिन न हो।

शायद यह पढ़ने के बाद हम में से कुछ लोग भी चिल्लाना अवश्य कम कर देंगे।
जय गुरु महाराज।
प्रस्तुति : शिवेन्द्र कुमार मेहता

शुक्रवार, 8 जून 2018

ईश्वर भक्ति में प्रधानता | Eshwar bhakti me pradhanta | महर्षि संतसेवी परमहंस | Maharshi Santsevi Paramhans | Santmat-Satsang

संतमत-सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। ईश्वर भक्ति में तीन बातों की प्रधानता होती है - स्तुति, प्रार्थना और उपासना। स्तुति कहते हैं यश-गान करने को। ईश्वर के यश-गान से उनकी महिमा-विभूति जानी जाती है। महिमा-विभूति जानने से उनके प्रति श्रद्धा होती है। श्रद्धा होने से उनकी भक्ति करने की प्रेरणा मिलती है। गो० तुलसीदासजी महाराज ने बतलाया -

जाने बिनु न होइ परतीती।
बिनु परतीति होइ नहिं प्रीति।।
प्रीति बिना नहीं भक्ति दृढ़ाई।
जिमि खगेस जल के चिकनाई।।

जिनकी हम भक्ति या सेवा करना चाहें, जब तक उनके गुणों को हम नहीं जानते हैं, तो उनके ऊपर हमारा विश्वास नहीं होता है। जब विश्वास नहीं होता है, तो उनके साथ प्रेम भी नहीं होता। प्रेम जब नहीं होगा, तो उनकी हम सेवा क्या कर सकेंगे? तब अगर हम सेवा भी करेंगे, तो वह दिखावटी सेवा होगी। जिस तरह से जल की चिकनाई नही ठहरती, उसी तरह वह भक्ति भी नहीं ठहर सकती। इसीलिए आवश्यक है, पहले हम ईश्वर-स्वरूप को समझ लें।

-महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज

गुरुवार, 7 जून 2018

सत्संगति और कुसंगति में भेद | Satsangati aur kusangati me bhed | हमारा जीवन सुखमय और सुसंस्कृत हो | Santmat Satsang

आध्यात्मिक दौर से गुजरते परिवेश में ऐसे बहुत सी बातें हैं जो कि हम लोग अनजाने में ही अपना लेते हैं और पता भी नहीं चलता कि किस तरह और कब हम सुसंगती से कुसंगति में कदम रखते चले जाते हैं और बाद में पाश्चाताप के सिवा कुछ भी नहीं रहता है।


    कुसंगत दीमक की तरह है जो अंदर ही अंदर इंसान को खोखला बना देता है और उसे अपने लक्ष्य तक पहुंचने नहीं देता। आध्यात्मिक जीवन में इसका सर्वथा त्याग है नहीं तो आध्यामिक जीवन में सफलता मिलना अत्यंत कठिन है।
         हमें सत्संगति और कुसंगति का भेद जानकर इसका सर्वथा त्याग करना ही चाहिए। इसके लिए संत महात्माओं का शरण लेना और उनके बताये मार्ग पर चलना अति आवश्यक है इसी में हमारा उद्देश्य छुपा है और इसी में हमारा उद्धार है।

सत्संगति और कुसंगति में भेद:-

सत्संगति कल्याण का मूल है और कुसंगति पतन का। कुसंगति पहले तो मीठी लगती है पर इसका फल बहुत ही कड़वा होता है।
पवन के संग से धूल आकाश में ऊँची चढ़ जाती है और वही नीचे की ओर बहने वाले जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है यह संग का प्रभाव ही है।।
   दुर्जनों के प्रति आकर्षित होने से मनुष्य को अंत में धोखा ही खाना पड़ता है। कुसंगति से आत्मनाश, बुद्धि-विनाश होना निश्चित है। दुर्जनों के बीच में मनुष्य की विवेकशक्ति उसी प्रकार मंद हो जाती है, जैसे अंधकार में दृष्टि। बहुत से अयोग्य व्यक्ति मिलकर भी आत्मोद्धार का मार्ग उसी प्रकार नहीं ढूँढ सकते, जैसे सौ अंधे मिलकर देखने में समर्थ नहीं होते। कुसंगति से व्यक्ति परमार्थ के मार्ग से पतित हो जाता है।

अंधे को अंधा मिले, छूटै कौन उपाय।

कुसंगति के कारण मनुष्य को समाज में अप्रतिष्ठा और अपकीर्ति मिलती है। दुर्जनों की संगति से सज्जन भी अप्रशंसनीय हो जाते है। अतः कुसंगति का शीघ्रातिशीघ्र परित्याग करके सदा सत्संगति करनी चाहिए।

सत्संगति:-
सत्संग सिद्धि का प्रथम सोपान है। सत्संगति बुद्धि की जड़ता नष्ट करती है, वाणी को सत्य से सींचती है। पुण्य बढ़ाती है, पाप मिटाती है, चित्त को प्रसन्नता से भर देती है, परम सुख के द्वार खोल देती है।
प्रार्थना और पुकार से भावनाओं का विकास होता है, भावबल बढ़ता है। प्राणायाम से प्राणबल बढ़ता है, सेवा से क्रिया बल बढ़ता है और सत्संग से समझ बढ़ती है। मनुष्य अपनी बुद्धि से ही प्रत्येक बात का निश्चय नहीं कर सकता। बहुत सी बातों के लिए उसे श्रेष्ठ मतिसम्पन्न मार्गदर्शक एवं समर्थ आश्रयदाता चाहिए। यह सत्संगति से ही सुलभ है।
संत कबीर जी के शब्दों में-

बहे बहाये जात थे, लोक वेद के साथ।
रस्ता में सदगुरु मिले, दीपक दीन्हा हाथ।।


सदगुरु भवसागर के प्रकाश-स्तम्भ होते हैं। उनके सान्निध्य से हमें कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान होता है। कहा भी गया हैः

सतां संगो हि भेषजम्।

'संतजनों की संगति ही औषधि है।' अनेक मनोव्याधियाँ सत्संग से नष्ट हो जाती हैं। संतजनों के प्रति मन में स्वाभाविक अनुराग-भक्ति होने से मनुष्य में उनके सदगुण स्वाभाविक रूप से आने लगते हैं। साधुपुरुषों की संगति से मानस-मल धुल जाता है, इसलिए संतजनों को चलता फिरता तीर्थ भी कहते हैं।
        ‌‌ हमारा देश अन्य देशों की अपेक्षा ज्यादा सुसंस्कृत कहलाती है साथ-ही-साथ साधु-संतों महात्माओं का देश कहलाता है और संतजन हमारे देश की गरीमा है।।
     इसलिए जब भगवान राम ने माता शवरी को नवधा भक्ति बताई थी तो सबसे पहले संतजन का संग करने को कहा था।।
            हमारा जीवन सुखमय और सुसंस्कृत हो आध्यात्मिकता की चरम सीमा तक जाये इसी शुभकामनाएँ के साथ गुरु महाराज जी के श्रीचरणों में मेरा शत-शत नमन वंदन!🙏

प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार, गुरुग्राम 

एक विद्या मिलती है पण्डितों-अध्यापकों के पास | दूसरी विद्या होती है, जो साधु-संतों के संग में मिलती है | महर्षि मेँहीँ | Maharshi Mehi | Santmat-Satsang

“एक विद्या है कि पण्डितों-अध्यापकों के पास मिलती है | दूसरी विद्या होती है, जो साधु-संतों के संग में मिलती है | स्कूल-कॉलेज की विद्या में संसार के प्रबन्ध का ख्याल ज्यादे होता है | और साधु-संतों के पास जाने से जो विद्या आती है, उसमें संसार का प्रबन्ध तो रहता ही है, लेकिन यह भी रहता है कि शरीर छोड़ने के बाद तुम्हारी क्या हालत होगी, यह भी सोचो | संसार में रहने के लिए बहुत अच्छा प्रबन्ध किया | कुछ दिन वा कुछ वर्ष रहे, चले गए | कहाँ चले गए, इसका कोई ठिकाना नहीं | शरीर छोड़ने पर तुम दु:ख में नहीं जाओ, इसका प्रबन्ध कर लिया तब तो ठीक है | लेकिन नहीं किया तो, अभी तुमको कुछ करना चाहिए | जाना ज़रूर है, लेकिन शरीर के बाद का जीवन बहुत लम्बा है, इसका प्रबन्ध करो | संसार का प्रबन्ध करना ही है और शरीर छूटने के बाद का भी प्रबन्ध सोचो, नहीं तो अपनी बहुत बड़ी हानि करते हो | बड़ी हानि से बचो और दूसरों को भी बचाओ |

ईश्वर के भजन से जीवन सुखमय होगा | अपने को भला बनाना ईश्वर-भजन से होगा | बहुत पढ़-लिख लिए; इससे अपनी पूरी भलाई हो, ऐसी बात नहीं | संसार में तुम अपने को सँभाल कर रखो कि तुम्हारी कोई निन्दा न करे | यदि तुम्हारा आचरण ठीक है और लोग तुम्हारी निन्दा करें, तो परवाह मत करो | और यदि तुमसे किसी तरह का काम हो गया है, तब जो तुमको कोई कुछ कहे, तो उसको अपना मित्र मानो | ईश्वर की ओर चलने के लिए पवित्र भाव से रहना होगा | संसार की कमाई में पाप-पुण्य का विचार नहीं होता, लेकिन ईश्वर-भजन में पाप-पुण्य का विचार करके चलना होगा | कोई चाहे कि ईश्वर भजन भी करेंगे और पाप भी करेंगे, तो उससे ईश्वर का भजन नहीं होगा | ईश्वर का भजन आजकल-आजकल कहकर मत टालो |” - महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज

मंगलवार, 5 जून 2018

यह मानव शरीर बारम्बार मिलने को नहीं है | Yah maanav sharir barambar milne ko nahi hai | -महर्षि संतसेवी | Maharshi Santsevi | Santmat Satsang |

यह मनुष्य शरीर बारंबार मिलने को नहीं है। तुम्हारे किसी पुण्य के कारण प्रभु की कृपा हो गयी और तुमको उन्होंने मनुष्य का शरीर दे दिया। इस मनुष्य शरीर को पाकर तुम्हारी स्थिति क्या है? विचारो- सोचो,
'घटत छिन छिन बढ़त पल पल, जात न लागत बार।'  वे कहते हैं - एक ओर तो घट रहा है और दूसरी ओर बढ़ रहा है। यानी क्षण-क्षण घटने और बढ़ने का कार्य चल रहा है। अर्थात् जिस दिन किसी का जन्म होता है, वह उसका प्रथम दिन होता है। मान लीजिए कि कोई सौ वर्ष की आयु लेकर इस संसार में आया। जिस दिन उसकी उम्र 5 साल की हो गई तो उसके माता-पिता कहने लगे कि हमारा बच्चा 5 साल का हो गया लेकिन समझने की बात यह है कि जो बच्चा सौ साल का जीवन लेकर आया था उसमें उसके 5 साल घट गए, 95 साल ही बाकी बचे। जिस दिन उसकी उम्र 10 साल की हुई तो उसके माता-पिता समझने लगे कि हमारा बच्चा 10 साल का हो गया, लेकिन 100 में से 10 साल घट गए। जब वह 25 साल का हुआ, तो उसके जीवन के 75 साल बाकी बचे, 25  साल घट गए। इसी तरह आयु घटती जाती है है और उम्र बढ़ती जाती है। इसीलिए गुरु नानक देव जी महाराज कहते हैं- 'घटत छिन-छिन बढ़त पल-पल, जात न लागत बार'

जो समय बीत जाता है, कितना भी प्रयत्न करने पर वह फिर लौटकर नहीं आता है। हम एक बार जिस नदी के जल में डुबकी लगा लेते हैं, उस जल में हम दूसरी बार डुबकी नहीं लगा सकते, क्योंकि वह जल तो निकलकर आगे चला जाता है। तुरंत दूसरा जल वहाँ आता है जिसमें हम डुबकी लगाते हैं। उसी तरह हमारे जीवन के क्षण बीते चले जा रहे हैं ,बीतते चले जा रहे हैं। जो बीत गया वह वक्त फिर आने को नहीं है। गुरु नानक देव जी कहते हैं कि जिस वृक्ष से कोई फल टूटकर नीचे गिर जाता है किसी भी उपाय से वह उस डाल में नहीं लग सकता है। उसी तरह जीवन के जितने क्षण बीत गए हैं, वह फिर दोबारा आने को नहीं है। इसलिए हमारा जो बचा हुआ जीवन है, इसके लिए हम सोचें, विचारें और जो कर्तव्य करना चाहिए, वह करें। प्रभु ने कृपा करके हमको मानव तन दिया है। मानव किसको कहते हैं? मननशील प्राणी को मानव कहते हैं। -पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज

आदमी को स्वाभाविक रूप से शाकाहारी होना चाहिए | Aadmi ko swabhavik rup se shakahari hona chahiye | Santmat Satsang

आदमी को, स्वाभाविक रूप से, एक शाकाहारी होना चाहिए, क्योंकि पूरा शरीर शाकाहारी भोजन के लिए बना है। वैज्ञानिक इस तथ्य को मानते हैं कि मानव शरीर का संपूर्ण ढांचा दिखाता है कि आदमी गैर-शाकाहारी नहीं होना चाहिए। आदमी बंदरों से आया है। बंदर शाकाहारी हैं, पूर्ण शाकाहारी। अगर डार्विन सही है तो आदमी को शाकाहारी होना चाहिए।

अब जांचने के तरीके हैं कि जानवरों की एक निश्चित प्रजाति शाकाहारी है या मांसाहारी: यह आंत पर निर्भर करता है, आंतों की लंबाई पर। मांसाहारी पशुओं के पास बहुत छोटी आंत होती है। बाघ, शेर इनके पास बहुत ही छोटी आंत है, क्योंकि मांस पहले से ही एक पचा हुआ भोजन है। इसे पचाने के लिये लंबी आंत की जरूरत नहीं है। पाचन का काम जानवर द्वारा कर दिया गया है। अब तुम पशु का मांस खा रहे हो। यह पहले से ही पचा हुआ है, लंबी आंत की कोई जरूरत नहीं है। आदमी की आंत सबसे लंबी है: इसका मतलब है कि आदमी शाकाहारी है। एक लंबी पाचनक्रिया की जरूरत है, और वहां बहुत मलमूत्र होगा जिसे बाहर निकालना होगा।

शाकाहार हमें कई सारी खतरनाक बीमारियों जैसे कैंसर, दिल की बीमारी व टाईप-2 डायबिटीज से बचाता है और मष्तिष्क के स्वास्थ्य को बल देता है। ये बात उन लोगों के लिए सत्यपरक तथ्य है , जो मांसाहार की वकालत करते नहीं थकते। शोध अध्ययनों के क्रमों में लगातार प्राप्त प्रमाण कुछ ऐसा ही संकेत दे रहे हैं। 1970 एवं 1980 में अमेरीका केलीफोर्निया स्थित लोमा लिंडा विश्वविद्यालय ने लगभग दस हजार ऐसे लोगों की जीवनशैली में खान-पान को गहराई से देखा और परिणाम कुछ ऐसा मिला की शाकाहारी लोग मांसाहारी की तुलना में लम्बी आयु जीने वाले पाए गए।
अध्ययन के अंत तक लगभग 96,000 लोगों को इस शोध में शामिल किया जा चुका था। इस शोध को एकेडमी ऑफ न्यूट्रीशन एंड डायटिक्स के 2012 के कांफ्रेंस में प्रस्तुत किया जा चुका है। इस अध्ययन के अनुसार शाकाहारी पुरुषों में औसत आयु 83.3 एवं महिलाओं में आयु 85.7 वर्ष पाई गई।यह मांस भक्षण करने वाले पुरुषों और महिलाओं की तुलना में क्रमश: 9.5 एवं 6.1 वर्ष अधिक है।इस अध्ययन में यह भी पाया गया की मांसाहारी लोगों का मोटापे को मापने का स्केल बी.एम.आई .शाकाहारियों की अपेक्षा तीस पाउंड कम पाया गया। इतना ही नहीं आगे के परिणाम तो कुछ और भी चौकाने वाले थे,मांसाहारियों की अपेक्षा शाकाहारियों में इंसुलिन प्रतिरोध की संभावना भी कम पायी गयी तो मांसाहारी हो जाएं सावधान अब फल और सब्जियां ही करेंगी हमारा कल्याण।

मांसाहार बहुत ही बड़ा अधर्म है | Maansahaar bahut bara adharm hai | पश्चिमी देशों के मांसाहारी लोग अब दुबारा शाकाहारी हो रहे हैं | The people of western countries keep on becoming vegetarian again.

मांसाहार बहुत ही बड़ा अधर्म है। भारत में लगभग बहुतायत संख्या में लोग अब मांसाहार करने लगे है। मांसाहार के कुछ नुकसान आपके सामने है:

१. मांसाहार करने के लिए निर्दोष जीवो की हत्या करनी पड़ती है।
२. एक बहुत बड़ी खोज के अनुसार शाकाहारी लोग मांसाहारियों से ज्यादा जीवित रहते हैं।
३. उसी खोज के अनुसार मांसाहार करने वाले लोग अधिक बीमार पड़ते हैं।
४. मांसाहार पोषण में शाकाहार से आगे नहीं है, दुनिया के सबसे बड़े खिलाडी अपनी सेहत बनाए रखने के लिए शाकाहार का रास्ता अपना रहे हैं।
४. मांसाहार के कारण पर्यावरण पर बुरा असर पड़ता है।
५. मांसाहार के लिए बहुत सारी जमीन और पैसा खर्च होता है। मांसाहार दुनिया मैं भुखमरी का सबसे बड़ा कारण है।
६. मांसाहार खाने से व्यक्ति क्रूर हो जाता है। मारे जाने वाले जानवर के तड़पते हुए मांस को खाएँगे तो ऐसा ही होगा।

जाकिर नाइक जैसे कुछ लोग मांसाहार को सही साबित करने के लिए कहते है की पौधों में भी जीवन होता है। इस कुतर्क को देने से पहले जाकिर नाइक ये नहीं सोचते की पौधों में उनका दिमाग नहीं होता परन्तु किसी जीव को आप जब मारते है तो उसे, दुःख, दर्द, पीड़ा होती है और उसको मारकर खाना बहुत ही बड़ा पाप है। जाकिर नाइक जैसे कुछ लोग हमारे पैने वाले दातों का हवाला भी देते है और कहते है की भगवान् ने इंसान को पैने दांत मांस खाने के लिए ही दिए है लेकिन अगर ईश्वर की दी हुई हर चीज का प्रयोग करना जरूरी है तो नाखून क्यों काटे जाते है ??

एक सबसे बड़ा कुतर्क ये है की अगर जानवरों को नहीं मरेंगे तो उनकी संख्या बहुत बढ़ जाएगी......अरे भाई कुछ जानवर ऐसे हैं जिनको कोई नहीं खाता लेकिन फिर भी वो विलुप्ति की कगार पर है.....खाने वाले जानवरों को सिर्फ खाने के लिए फॉर्मों में पाला जाता है और कृत्रिम रूप से बड़ा किया जाता है। अगर मांसाहार बंद हो जाएगा तो ये मांस उद्योग भी बंद हो जाएगा।

भारत के सभी सबसे महान लोग जैसे श्री अब्दुल कलाम जी भी शाकाहारी ही थे। हमारे देश के वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी शाकाहारी है। इसीलिए मैं सबसे विनती करूंगा की मांसाहार को छोड़ दें। अगर आप एक दिन में नहीं छोड़ सकते हो मांसाहार को धीरे धीरे कम करते जाएं और शाकाहारी बन जाएं।

हम तो उस महान भारतीय सभ्यता से हैं जहां 'चींटी को मारना' भी पाप है।
॥ जैसा खाओगे अन्न, वैसा होगा मन ॥ 
PROUD TO BE A VEGETARIAN

मांस खाने से हानि (HARM BY TAKING MEAT)

परिचय-
    मनुष्य मांसाहारी जीव नहीं है। मनुष्य के दांतों का आकार, उसके मुंह की रस ग्रंथियां, छोटी आन्त एवं पाचनतंत्र में से कोई भी मांसाहारी जीवों की तरह के नहीं होते।
Introduction–
            The human is not non-nonvegetarian creature. Teeth shape, juice glands of his mouth, small enlargement, digestive system etc. any part of human is not like non-vegetarian creatures.
जानकारी-
Knowledge-

मनुष्य बिना मांस खाये सारा जीवन बिता सकता है लेकिन केवल मांस के सहारे अपना पूरा जीवन नहीं बिता सकता है।
The human can live his whole life without eating meat but he also cannot live his life on the meat.
मांस खाने वाले व्यक्ति की उम्र कम हो जाती है। जबकि शाकाहारी की उम्र लंबी होती है।
The age of non-vegetarian person is reduced whenever vegetarian person has long age.
मांस खाने वाले व्यक्ति शक्तिशाली और स्वस्थ नहीं रहते। बल्कि रोगी और कमजोर हो जाते हैं। मांस खाने वाले व्यक्ति जल्द ही थक जाते हैं और शाकाहारी व्यक्ति देरी से थकते हैं।
Non-vegetarian people are not stayed strong and healthy rather they become patient and weak. These types of people feel tiredness soon and vegetarian person feels tiredness from delay.
फल खाने वाले व्यक्ति के शरीर में जितनी फुर्ती, कार्य करने की इच्छा, लगन, और निष्ठा रहती है। उतने मांस खाने वाले व्यक्ति में संभव नहीं होती है। मांस अम्लधर्मी (खट्टापन बढ़ाने वाला) होता है। इससे रोगों से लड़ने की शक्ति में कमी आ जाती है। जिससे कई तरह के रोग हो जाते हैं।
As much energy, desire of work, inclination and loyalty stay in the vegetarian person as strength is not stayed in non-vegetarian person. The meat is about to increase sourness. Resistant power is reduced by it and many types of diseases take birth.
मांसाहार में यूरिक एसिड अधिक पाया जाता है। जो हमारे शरीर के अन्दर जमा होकर गठिया आदि कई रोगों को पैदा करता है।
Uric acid is found in the non-vegetarian food, which generates rheumatismetc. many types of diseases after gathering in the body.
मांसाहारी व्यक्ति को दिल के रोग और कैंसर के रोग होने के ज्यादा चांस होते हैं।
The person, who takes meat, can suffer from heart problems and cancer.
एक सर्वेक्षण के द्वारा पता चला है कि अपराधियों में मांस खाने वालों की संख्या अधिक पाई गई है। मांसाहारी व्यक्तियों में अधिक रोग पाए जाते हैं। उसकी सहनशक्ति कम हो जाती है, उसके अन्दर गुस्सा व चिड़चिड़ापन ज्यादा बढ़ जाता है, वासना और उत्तेजना की सोच बढ़ जाती है। मनुष्य क्रूर व निर्दयी हो जाता है,उसकी अपराधिक सोच बढ़ जाती है। मांस गलत सोच को जन्म देता है जिससे समाज में आपसी मनमुटाव, घर का तनाव, लड़ाई झगड़े, लूटमार, आदि की वारदातें बढ़ जाती हैं।
It has found by a survey that more numbers about to eat meat have found in culpable. Many types of diseases are found in non-vegetarian person. His tolerating power is reduced by which anger and irritation increase in this person. His passion and excitement thinking are increased. The human becomes ruthless and his criminal thinking is increased. Meat gives birth to wrong thinking by which house depression, altercation, snatching etc. crimes are increased.
अंडा भी मांसाहार है। इसमें कोलेस्ट्राल बहुत अधिक मात्रा में पाया जाता है। यह बहुत ही नुकसानदायक होता है। इससे दिल के रोग होने की ज्यादा संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
The egg is also non-vegetarian food. It contains more quantity of cholesterol, which is more harmful. The possibility of heart diseases is also increased.
मांस या अंडा किसी का हो यह आपके शरीर के लिए बहुत ही हानिकारक है।
Egg or meat of any animal is very harmful for our body.
पश्चिमी देशों के मांसाहारी लोग अब दुबारा शाकाहारी हो रहे हैं।
The people of western countries keep on becoming vegetarian again.

प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

सोमवार, 4 जून 2018

काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार नहीं है पूर्ण विकार | Kaam | Krodh | Lobh | Moh | Ahankaar | Santmat Satsang

काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार नहीं हैं पूर्ण विकार;

हमारे धर्म ग्रंथों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पाने के लिए काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार-इन पांच विकारों के त्याग को बहुत महत्व दिया गया है। लेकिन क्या ये विकार पूरी तरह त्याज्य हैं? या मानव क्या सचमुच इन विकारों का पूरी तरह से त्याग करने में सक्षम है?

ध्यान से सोचें तो ये पांच-काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार-पूरी तरह से विकार की श्रेणी में नहीं आते। जब ये अपनी सीमा का उल्लंघन करते हैं या यों कहें जब इनकी अति होती है, तभी ये विकार बनते हैं। अन्यथा इनके बिना मानव अपना सांसारिक जीवन ही नहीं चला पाता। अति तो भोजन की भी दु:खदाई होती है। फिर ये पाँच क्यों पहले से ही विकार की श्रेणी में मान लिए गए हैं?

काम या शक्ति के अभाव में पितृ ऋण से मुक्ति संभव नहीं है। क्रोध वह शक्ति है जो आवश्यकता पड़ने पर मानव को सुरक्षा प्रदान करता है। घर या किसी व्यवस्था में एक नियम-अनुशासन स्थापित करता है। लोभ एक आवश्यकता है, जिसके बिना पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह कठिन है। मोह मानव को पितृत्व व मातृत्व के साथ-साथ अन्य रिश्तों के दायित्व को निभाने की प्रेरणा देता है।

मनुष्य की जिस वृत्ति को हम अहंकार कहते हैं, उसके लिए 'अहंकार' शब्द का प्रयोग तब किया जाता है, जब वह अपनी सीमा का उल्लंघन करती है, अन्यथा इससे पूर्व तो वह स्वाभिमान होता है, जिसका प्रत्येक मानव में होना आवश्यक है। स्वाभिमान के बिना जीवन कोई जीवन नहीं रह जाता।

चार पदार्थ-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए एक और मार्ग भी बतलाया गया है, और वह है अध्यात्म का मार्ग। अर्थात ध्यान और साधना का मार्ग। ध्यान-साधना ही वह मार्ग है, जो अध्यात्म के लक्ष्य तक पहुँचाता है। अपने मूलरूप की और प्रभु की अनुभूति कराता है। प्रकृति प्रदत्त सोई शक्तियों को जागृत करता है।

इस कार्य में चार सद्गुण यथा ज्ञान, सहज, निर्दोष और सम सदा सहायक होते हैं। किसी भी कार्य /साधना के प्रारम्भ में सबसे पहले उसके प्रति ज्ञान का होना आवश्यक है, अन्यथा उस कार्य का आरम्भ व संचालन ही संभव नहीं। दूसरे, यदि कार्य का कर्ता/ साधक स्वयं में सहज नहीं रहता तो वह कार्य का संचालन या निष्पादन ठीक ढंग से नहीं कर पाता। तीसरे, कर्ता और कार्य का पूरी तरह से निर्दोष होना जरूरी है, क्योंकि दोषी व्यक्ति गलत साधन का प्रयोग करता है और दोषपूर्ण कार्य गलत लक्ष्य पर ले जाता है। चौथे, कार्य संपन्न होने के बाद उससे होने वाले लाभ-हानि की चिन्ता न करते हुए हर हाल में समभाव में बने रहना ही मानव की श्रेष्ठ उपलब्धि है। ये ही चार गुण मानव को अध्यात्म मार्ग पर ले जाते हैं और धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति में सहायक बनते हैं।

किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति निर्विघ्न संभव नहीं होती। मार्ग में अवरोध न आएं तो वह मार्ग ही क्या। हमें श्रम के महत्व की अनुभूति तो ये अवरोध ही कराते हैं। अपनी श्रेष्ठता विषम परिस्थिति में ही सिद्ध की जा सकती है। इसलिए भगवान ने चार अवगुण यथा राग, द्वेष, निन्दा और असत्य को भी इस मानव मन में डाल दिया। इसीलिए सभी धर्मग्रंथों में इन चार अवगुणों से अपने को पूर्णतया मुक्त रखने का उपदेश दिया गया है।

सच मानिए, यदि मानव अपने जीवन में उपरोक्त चार सद्गुणों को अपना ले व उपरोक्त चार अवगुणों को त्याग दे, तो मानव मन निर्मल हो जाएगा। मन के निर्मल हो जाने से आध्यात्मिक उन्नति सहज हो जाएगी। आध्यात्मिक उन्नति का अर्थ है मानव की चेतना के स्तर का ऊपर उठना। चेतना का स्तर ऊपर उठ जाने से उपरोक्त चार पदार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति स्वत: ही सहज हो जाएगी। इसीलिए जिसका मन निर्मल है, वही इन चार तत्वों को पाने का अधिकारी है- बस यही है अध्यात्म की कुंजी!

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...